Monday, April 5, 2010

डूबे तो.. उबरेंगे

दुनिया के वित्तीय बाजारों में इस समय एक अजीब सी गंध तैर रही है, कुछ जलने की गंध! ताजे वित्तीय संकट की आंच पर यूरोप की अनोखी बेमेल (मौद्रिक एकता) खिचड़ी शायद जलने लगी है। यूरोप में अलग आकार और स्वरूप की अर्थव्यवस्थाओं को यूरो नामक एकल मुद्रा का जो अनोखा परिधान पहनाया गया था वह छोटों की गर्दन पर कसने और बड़ों के बदन पर ढीला होने लगा है। ओलंपिक के मुल्क ग्रीस में वित्तीय संकट सुलग रहा है, जिसमें सोलह यूरोपीय देशों की एकता घुलने लगी है। बाजार घुस फुसा रहा है कि एक से अधिक यूरोपीय देश दीवालिया हो सकते हैं।
देश अलग, अर्थव्यवस्थाओं के आकार अलग, बजट अलग, वित्तीय कायदे अलग, राजनीति अलग मगर मुद्रा यानी करेंसी एक। .. सवाल दस साल पहले भी उठे थे, लेकिन संकट अब उठा है। वित्तीय बाजारों के महासंकट ने अपारदर्शी वित्तीय प्रणाली वाले ग्रीस, आयरलैंड जैसे कमजोरों के पैर उखाड़ दिए। सोलह यूरोपीय देशों वाला यूरो क्लब ग्रीस को उबारने पर बंट गया है। बीते सप्ताह ब्रुसेल्स की बैठक में यूरोजोन के बड़ों (फ्रांस व जर्मनी) के बीच दरारें साफ दिख गई। यूरो की साख टूट रही है। यूरो क्लब की एकता पर ही बन आई है। यह मानने वाले अब बहुत से हैं कि यूरो क्लब डूब कर ही उबर सकता है।
परेशान 'पिग्स'
पिग्स से मतलब है कि यूरोप के पांच परेशान छोटे अर्थात पुर्तगाल, इटली, आयरलैंड, ग्रीस व स्पेन। इनकी समस्या है इनका भारी कर्ज। यूरोप की इन छोटी अर्थव्यवस्थाओं को ताजी मंदी और वित्तीय बाजारों के हाहाकार ने बेदम कर दिया। रही बची कसर इन के वित्तीय कुप्रबंध ने पूरी कर दी है। ग्रीस (यूनान) सबसे बुरी हालत में है। जहां सरकार का कुल कर्ज देश के जीडीपी का 125 फीसदी हो गया है। ग्रीस की सरकार का डिफाल्टर होना तय है। इसे बचाने के तरीकों पर यूरोप में चख-चख जारी है। बात सिर्फ ग्रीस की ही नहीं, इस समूह में जनमों का कर्जदार इटली, दीवालियेपन के लिए कुख्यात और अभी तक मंदी से जूझ रहा स्पेन, प्रापर्टी मार्केट टूटने से बदहाल हुआ आयरलैंड (जीडीपी के अनुपात में कर्ज 82 फीसदी) और कर्ज में दबा पुर्तगाल (कर्ज जीडीपी अनुपात 85 फीसदी) भी हैं। दरअसल यूरो क्लब में होना या यूरो मुद्रा अपनाना इस गाढ़े वक्त में इन्हें बहुत साल रहा है। अगर इनकी स्वतंत्र मुद्राएं होतीं तो अब तक ये अवमूल्यन करने अपने कर्ज को घटाने का जुगाड़ बिठा चुके होते। मगर ऐसा होना नामुमकिन है और क्योंकि यूरो की कीमत गिरने में यूरोप के बड़ों का बहुत बड़ा नुकसान है।
और हैरान दिग्गज
पिग्स परिवार को मदद का चारा देने में भी कम नुकसान नहीं हैं। यूरो क्लब में जबर्दस्त ऊहापोह है। अगर पिग्स को नहीं उबारा जाता तो यूरो जोन दीवालिया मुल्कों का जोन बन जाएगा, लेकिन इनको उबारने का मतलब होगा कि बड़े अपने खजाने से इसका बिल चुकाएं। यानी कि जर्मनी व फ्रांस जैसे बड़े यूरोपीय देश इनके कर्ज की जिम्मेदारी उठाएं। यूरो क्लब की बुनियादी संधि (स्टेबिलटी एंड ग्रोथ पैक्ट) किसी तरह के बेल आउट या उद्धार पैकेजों की छूट नहीं देती। इसी संधि के जरिए सभी सदस्यों के लिए कर्ज व घाटा कम करने की कड़ी शर्ते भी तय की गई थीं, मगर छोटों ने ये बंदिशें कायदे से नहीं मानीं। बड़े अगर मदद कर भी दें तो भी इस बात की गारंटी नहीं है कि कमजोर और बदहाल पिग्स अपनी राजकोषीय सेहत सुधारने के लिए खर्च में कमी कर सकेंगे। मंदी व महंगाई के बाद वेतन और खर्चो में कटौती कठिन राजनीतिक फैसला है। यूरोप के बड़े अगर अपने बजट से इनका कर्ज उठाते हैं तो उनकी अपनी और यूरो की साख टूटेगी, लेकिन अगर मुल्क दीवालिया हुए तो भी यूरो टूटने से नहीं बचेगा। तीसरा विकल्प आईएमएफ को बीच में लाने का है, लेकिन इससे बुरा विकल्प कोई नहीं है। आईएमएफ की मदद का मतलब एकल यूरोपीय मुद्रा का असफल होना है। क्योंकि तब दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुद्रा किसी छोटे देश की कमजोर मुद्रा जैसी हो जाएगी जो बाहरी मदद की बैसाखियों पर टिकी होगी।
क्या अब लौट चलें?
चर्चा तो वापस लौटने की ही है। वित्तीय संकट ने यूरो क्लब को तोड़ दिया है। अब जर्मनी, फ्रांस, आस्ट्रिया, फिनलैंड, नीदरलैंड जैसे मजबूत मुल्क एक तरफ हैं तो पिग्स जैसे कर्ज में दबे दक्षिण यूरोप के मुल्क दूसरी तरफ। कहा यह भी जा रहा है कि दक्षिण के छोटों ने यूरो क्लब का हिस्सा बनने और एकल मुद्रा के फायदे पाने के लिए अपनी वित्तीय असलियत दुनिया से छिपाई। ग्रीस को लेकर यह तो यह चर्चा काफी प्रामाणिक है। दक्षिण के मुल्कों की साख ध्वस्त है। वित्तीय बाजार उनके बांडों से बिदक रहा है। यूरोप में ऐसा मानने वाले बहुत से हैं कि यूरो मुद्रा इन घायल पिग्स सिपाहियों के सहारे वित्तीय दुनिया में जंग में टिक नहीं सकती। क्या जर्मनी व फ्रांस के नेतृत्व में एक नया मौद्रिक ब्लाक बनना चाहिए? जैसा 1999 के पहले था जब यूरोप में ड्यूश मार्क, पौंड और फ्रैंक तीन बड़ी मुद्राएं थीं। दरअसल यूरो क्लब सातवें व आठवें दशक की मंदी और मुद्रास्फीति यानी महंगाई की बुनियाद पर बना था। नतीजतन कड़े मौद्रिक नियंत्रण व महंगाई पर काबू, इस एकता की बुनियाद थे। अब वह एकता बिखर चुकी है। क्या यूरो क्लब से कमजोर मुल्कों की निकासी होगी? या एक नया मौद्रिक ब्लाक बनेगा? अथवा दुनिया एक कमजोर और लुढ़कते यूरो के साथ जिएगी? .इन सवालों के फिलहाल कोई जवाब नहीं हैं। वैसे चाहे यूरोप में कुछ देश दीवालिया हों या फिर यूरो क्लब में टूट हो .. यूरो का जलवा अब ढलने वाला है।
मशहूर अर्थविद मिल्टन फ्रीडमैन सही साबित होते दिख रहे हैं। एकल यूरोपीय मुद्रा के जन्म के समय 1999 में उन्होंने कहा था कि यह क्लब पहला वित्तीय संकट नहीं झेल पाएगा। कहां तो बात डालर का विकल्प बनने से शुरू हुई थी और अब यूरो की साख के लाले हैं। दुनिया ताजी वित्तीय बदहाली में अपना चेहरा देखकर पहले से ही हैरत में थी, इस बीच यूरो क्लब का शीराजा भी दरकने लगा है।.. हैरां थे अपने अक्स पर घर के तमाम लोग, शीशा चटख गया तो हुआ एक काम और।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)

1 comment:

Ajay said...


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