Thursday, May 25, 2023

सबसे बड़ी देशभक्‍ति


 

 कोई सरकार किसी देश के अध‍िकांश लोगों लिए कि‍तनी अच्‍छी साबित हुई इसे मापने का सबसे आसान तरीका का है?

इस पैमाइश का राजनीतिक अर्थशास्‍त्रीय फार्मूला तीन कारकों से बनता है

एक – उस देश के लोग कमाई अपनी कमाई और खर्च के अनुपात में कुल क‍ितना टैक्‍स (इनकम टैक्‍स, कस्‍टम ड्यूटी जीएसटी, जमीन, बिजली आदि सब मिलाकर) चुकाते हैं. क्‍यों इससे ही उस मुल्‍क में जिंदगी जीने की लागत तय होती है

दूसरा पैमाना – किसी सरकार के कार्यकाल में उस देशों की लोगों कमाई ज्‍यादा बढ़ी या उनकी जिंदगी पर ज्‍यादा बढ़ा टैक्‍स

तीसरा – सरकार ने उनसे जो टैक्‍स वसूला उसके बदले उस देश को लोगों की जिंदगी कितनी सस्‍ती या आसान हुई

चौंकिये मत ...

टैक्‍सों के संदर्भ में किसी सरकार की कामयाबी को मापने का यही फार्मूला है जो टैक्‍सेशन के सबसे करीबी इतिहास पर आधारित है. जिसकी रोशनी में टैक्‍सों को जायज माना जाता है और सरकारों से हिसाब मांगे जाते हैं

नई पुरानी बात

यूं तो टैक्‍सों का इतिहास जबर्दस्‍त रोमांच से भरा है. राजाओं ने युद्ध के लिए टैक्‍स थोपे, उपन‍िवेशवादियों ने टैक्‍स से लूट की और सरकारों ने जंगी इंतजामों के लि‍ए लिए आम लोागों की कमाई को नि‍चोड़ा. भरपूर बगावते हुईं टैक्‍स के खि‍लाफ, मारकाट खून खच्‍चर लंबे चले. 17वीं सदी में तो टैक्‍स के कारण एसी बगावत भड़की कि गुस्‍साये लोगों ने ब्रिटेन के सम्राट किंग चार्ल्‍स की हत्‍या  कर दी.

बहरहाल दूसरे विश्‍व युद्ध के बाद जब जंग और कत्‍लोगारत खत्‍म हुई तो यह माना गया कि टैक्‍स एक एसा रास्‍ता है जिससे संपत्‍त‍ि का पुनर्वितरण किया जा सकता है. यानी अमीरों से टैक्‍स लेकर आम लोगों सुविधाओं के तौर पर लौटाया जा सकता है. सरकारें इस काम को करने वाली एजेंसी मानी गईं. इस सिद्धांत की मदद से पूंजीवाद को संतुल‍ित किया. स्‍कैंडीनेव‍िया ने जनहित में पब्‍ल‍िक एक्‍सपेंडीचर की राह दिखाई और दुनिया में टैक्‍स जायज लगने लगे.

इतिहास के सर्वमान्‍य सिद्धांत बताते हैं कि जो इतिहास हमारे सबसे करीब का है वही हमारे लिए सबसे उपयोगी है. इसी इतिहास की रोशनी में संपत्‍त‍ि के पुनर्वितरण के एजेंट के तौर पर टैक्‍स उचित ठहराये जाते हैं और सरकारें इस सिद्धांत की मदद लेकर कर बढ़ाती वसूलती हैं ताकि संतुलन  बना रहे.

यानी टैक्‍स इसलिए लगाये जाते हैं कि किसी समाज में आयत की असमानता दूर हो

तो यह हंगामा क्‍या है

भारत के बारे में कुछ और ही सामने आया है. विश्‍व आर्थ‍िक फोरम के मंच पर प्रख्‍यात स्‍वयंसेवी संगठन ऑक्‍सफैम की रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में वित्‍त वर्ष 2022 जितना जीएसटी संग्रह हुआ उसका 50 फीसदी टैक्‍स राजस्‍व देश की आबादी आय के आधार पर सबसे निचले 50 फीसदी आया. सबसे ऊंची आय वाले 10 फीसदी लोगों से केवल तीन फीसदी वसूला गया. वित्‍त वर्ष 2021-22 में जीएसटी का संग्रह 14.83 लाख करोड़ रुपये रहा है. यानी इनका 97 संग्रह निम्‍न और मध्‍य आय वर्ग से हुआ है

इस आंकडे मतलब है कि  जिस टैक्‍स के जरिये आय की असमानता को दूर होनी थी वह तो गरीबों को और गरीब कर रहा है.

यह सुनकर बहुतों को अचरज हुआ होगा क्‍यों कि उनके पास पहुंच रहे ज्ञान में तो यह बताया जाता है कि भारत में लोग टैक्‍स ही नहीं चुकाते. पूरा देश मुफ्तखोरों से भरा है. इनकम टेक्‍स देने वाले मुटठीभर लोग देश को ख‍िला रहे हैं.

आइये दूध दूध का और पानी पानी करते हैं अब... 

क्‍या भारतीय टैक्‍स नहीं देते ..

भारतीय को टैक्‍स न देने वाला साब‍ित करने के लिए दो आंकड़े हमेशा चिपकाये जाते हैं एक भारत में केवल छह करोड़ लोग इनकम टैक्‍स रिटर्न भरते हैं उसमें केवल दो करोड़ लोग टैक्‍स देते हैं.

दूसरा आंकडा है कि केंद्र सरकार का सकल (राज्‍यों का हिस्‍सा निकालने पहले) टैक्स व जीडीपी के अनुपात 17-18 फीसदी के आसापास है. जबकि विकसि‍त देशों यानी अमेरिका और यूरोप (ओईसीडी) से जहां टैक्स जीडीपी अनुपात 24 से 46 फीसदी के बीच है.

अब जरा सच पकड़‍िये. टैक्स जीडीपी अनुपात देश के कुल उत्‍पादन के अनुपात में सरकार के राजस्व का हिसाब किताब है जबकि टैक्‍स तो लोग चुकाते हैं तो इसे औसत प्रति व्यक्ति‍ आय के आधार पर देखना चाहिए. यानी किसी देश के लोग कमाई के अनुपात में कितना टैक्‍स देतही हैं

अमेरिका में प्रति व्यक्ति‍ आय 68000 डॉलर है जिस पर टैक्स जीडीपी अनुपात 24 फीसदी है. रुस में 11000 डॉलर की प्रति व्यक्ति‍ आय पर टैक्स जीडीपी अनुपात 16.5 फीसदी, दक्षि‍ण कोरिया में 31000 डॉलर की आय पर 27 फीसदी,  मलेशि‍या में 11400 डॉलर पर टैक्स जीडीपी अनुपात 16.5 फीसदी है. इंडोनेशि‍या में 3893 डॉलर की आय पर अनुपात 13 फीसदी का है. चीन में 9770 डॉलर की प्रति व्यक्ति‍ आय पर टैक्स जीडीपी अनुपात 27 फीसदी है. 

भारत की प्रति व्यक्ति‍ आय 2020 डॉलर (रु.1,35,,050) है जिस पर 17 फीसदी का टैक्स जीडीपी अनुपात दरअसल एशि‍या के देशों से बेहतर है.

इनमें भारत के वेतनभोगी करदाता सबसे गए गुजरे हैं. वे गैर वेतनभोगी करदाताओं की तुलना में करीब तीन गुना ज्यादा इनकम टैक्स देते हैं 2018-19 के बजट भाषण के अनुसार वेतनभोगी 76306 रुपये का टैक्स देते हैं जबकि गैर वेतन भोगी 25,753 रुपये का. अधि‍कांश टैक्स वेतन मिलने से पहले कट जाता है.

 भारत के लोग अपनी आय की तुलना में कम टैक्स नहीं देते. एक बड़ी आबादी आयकर के दायरे से बाहर इस‍लि‍ए है क्यों कि भारत में ज्यादातर लोग निम्न आय वर्ग में है. उनकी कमाई ही टैक्‍स के लायक नहीं है.

असली टैक्‍स तो इधर है.

भारत की लगभग पूरी आबादी अपने अध‍िकांश खर्चों पर दुनिया में सबसे ज्‍यादा टैक्‍स देने वालों में गिनी जाती है.

सबसे बड़ी तादाद या सबसे भारी बोझ परोक्ष करों का है जो अमीर से लेकर गरीब सभी के खर्च को निचोड़ते हैं भारत में जीएसटी की मीडियन दर 18 फीसदी है जो अंतरराष्ट्रीय औसत दर 14 फीसदी से अधि‍क है लेकिन यह हि‍साब भी इतना सीधा नहीं है. भारत में पेट्रोल डीजल पर टैक्स की दर राज्यों में 15 से 35 फीसदी तक है यह एक्साइज और कस्टम ड्यूटी के अलावा है. पांच दरों वाले जीएसटी में उपभोक्ता के खपत के कई उत्पाद, इलेक्ट्रानिक्स, आटोमोबाइल आदि पर 28 फीसदी की  दर से टैक्स लगता है.

अचल संपत्त‍ि पर टैक्स, हाउस टैक्स, वाटर टैक्सटोल टैक्स और बिजली दरें जीएसटी से बाहर हैं. इसलिए भारत में खपत पर समग्र औसत टैक्स दर दुनिया के सबसे ऊंची दरों 25 से 27 फीसदी के आसपास है.

2010 से 2022 के बीच भारत में टैक्‍स और जीडीपी के बीच एक अनोखा रिश्‍ता बना. इन दस वर्षोां में भारत का महंगाई सहित जीडीपी 93 फीसदी बढ़कर 76.5 लाख करोड से 147.4 लाख करोड हो गया लेक‍िन सरका का टैक्‍स राजस्‍व 303 फीसदी बढ़कर 6.2 लाख करोड़ से बढ़कर 25.2 लाख करोड़ हो गया.

इन संख्‍याओं का मतलब यह कि एक दशक में देश की कुल कमाई जितनी बढ़ी उससे तीन गुना ज्‍यादा बढ़ा सरकार राजस्‍व. यह हुआ जीएसटी के कारण जो अब कारपोरेट इनकम टैक्‍स और व्‍यक्‍तिगत आयकर से भी ज्‍यादा राजस्‍व ला रहा है. सनद रहे कि जीएसटी को टैक्‍स का बोझ कम करने के लिए लाया गया था.  

सनद रहे कि 2017 के बाद भारत में इंपोर्ट ड्यूटी भी बढ़ने लगी हैं, जिसके कारण टैक्‍स पर टैक्‍स की मार और गहरी हो गई. भारत में जीएसटी उत्‍पादों सेवाओं की कीमत पर लगता है इसलिए महंगाई जितनी बढ़ती है सरकार को उतना ज्‍यादा टैक्‍स मिलता है.

कुर्बानी के बदले क्‍या ?

इस हिसाब को जानने के बाद आपको अपनी पीठ ठोंकनी चाहिए क्‍येां कि आप अपना पेट काटकर सरकार को हर तरह से टैक्‍स दे रहे हैं. अबलत्‍ता इस गर्व के अनुभूति से बाहर निकलकर यह पूछना भी हमारा दाय‍ित्‍व बनता है कि इस निम्‍म आय वर्ग के देश से इतना टैक्‍स वसूलने के बाद सरकार लोगों को क्‍या दे रही है.

अमेरिका और यूरोप की छोडि़ये एशि‍या के देशों में अधि‍कांश बच्चे पब्लि‍क स्कूल में पढ़ते हैं. ज्यादातर जगह बेहतर स्वास्थ्य सुविधायें सरकारी हैं.

जबकि 2020 में आई नीति आयोग की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में 50 फीसदी बच्चे निजी स्कूल में पढते हैं. शि‍क्षा पर लोगों के खर्च में 50 फीसद हिस्सा फीस और 20 फीसद किताबोंड्रेस (एनएसएस सर्वे 2017-18) आदि का है. यह पूरा खर्च नि‍जी क्षेत्र को जाता है.

भारत के स्वास्थ्य नेटवर्क में दो ति‍हाई क्षमता नि‍जी क्षेत्र के पास है. इलाज पर 70 फीसदी खर्च लोग अपनी जेब से करते हैं जिसमें 52 फीसदी दवाओं पर, 22 फीसदी निजी अस्पतालों पर और 10 फीसदी पैथोलॉजी पर जाता है. निजी अस्पतालों, पैथोलॉजी और दवाओं पर भारी टैक्स भी है.

भारत में जिन सुविधाओं के लिए हम सरकार को टैक्स देते हैं उन्हीं को निजी क्षेत्र से महंगी दर पर खरीदते हैं. भारत के आम लोगों की  आय का करीब 35 से 45 फीसद हिस्सा टैक्स में जा रहा रहा है लेक‍िन इतने टैक्स के बाद भारत में न तो कोई समाजिक सुरक्षा है सार्वजनिक पेंशन ! तो फिर यह टैक्स कहां जाता है, कौन खा जाता है? हमें एसा लगता है कि टैक्स देकर सुविधायें मांगने हमारे अधिकार का हिस्सा ही नहीं है. 

सबसे बड़ा सच

टैक्‍स से आय असमानता दूर करने का सिद्धांत भारत में  दिवंगत हो चुका है. भारत के टैक्‍स लोगों को गरीब बहुत गरीब बना रहे हैं.

कैसे ?

आइना सामने हैं

एक – अब भारत में कंपिनयां अपनी कमाई पर कम टैक्‍स चुकाती है और आम लोग ज्‍यादा. आम लोगों की कमाई पर इनकम टैक्‍स की अध‍िकतम दर 30 फीसदी है ज‍बकि कंपनियों कमाई पर अध‍िकतम 21.9 फीसदी की दर से टैक्‍स देती हैं. इनमें से आधी से ज्‍यादा कंपनियां 20 से 25 फीसदी टैक्‍स की दायरे में आती हैं 


दूसरा सच

इंडिया रेटिंग्‍स ने 2021 में अपने एक अध्‍ययन में बताया था कि 2010 में केंद्र के कुल राजस्‍व में हर सौ रुपये 40 कंपनियों से और 60 आम लोगों से आते थे अब सरकार आम लोगों से 75 फीसदी टैक्‍स राजस्‍व उगाहती है और कंपनियों से 25 फीसदी. याद  रहे  कि  2018  में  कॉर्पोरेट  टैक्स  में  1.45 लाख करोड़ रुपए की रियायत दी गई है.

2021-22 के बजट का आंकड़ा करीब से देख‍िये तो यह सच पकड़ में आता है. केंद्र सरकार के कुल 27.58 लाख करोड़ के कुल टैक्‍स राजस्‍व में खपत पर लगने वाले टैक्‍स से 20 लाख करोड़ केवल आम लोगों से वसूले गए टैक्‍स से आ रहे हैं.

केंद्र के अलावा राज्‍यों के टैक्‍स लगभग सालाना 36-37 लाख करोड़ रुपये के हैं. यानी भारत में खपत पर लगने वाले टैक्‍स 147 लाख करोड़ जीडीपी के अनुपात में करीब 40 फीसदी हो गए हैं. इस हालत यदि लोग गरीब न हों तो और क्‍या होंगे. 

 

तीसरा – आम लोगों पर टैक्‍स का बोझ कम हो सकता है. सरकार को नया राजस्‍व भी मिल सकता है लेक‍िन भारत टैक्‍स ढांचा बीते एक दशक में लगभग पूरी तरह खपत आधार‍ित बना दिया गया और ऊंची कमाई वालों को रियायतों के तोहफे दिये गए.

अमीरों की आय पर टैक्‍स पूंजीवादी व्‍यवस्‍था की स्‍वीकार्य प्रणाली है इसके दो बडे रास्‍ते हैं और भारत में दोनों ही जानबूझकर बंद रखे गए. पहला है वेल्‍थ टैक्‍स यानी संपत्‍त‍ि कर. यूरोप और अमेरिका के देशों में आयकर के अलावा संपत्‍ति‍ कर भी हैं जो अमीरों की संपत्‍त‍ि पर लगते हैं. भारत में 2015 तक यह टैक्‍स था जिसे अरुण जेटली ने खत्‍म कर दिया.

दूसरी टैक्‍स विरासत पर लगता है जिसे इनहेरिटेंस टैक्‍स कहते हैं. भारत में यह लगाया ही नहीं जाता.

भारत में केवल कैपिटल के ट्रांसफर पर टैक्‍स लगता है जिसे कैपिटल गेंस कहते हैं. अमीरों की अध‍िकांश संपत्त‍ि एसे विकल्‍पों में है जिसे बेचा नहीं जाता. संपत्‍ति‍ बढ़ती जाती है और टैक्‍स नहीं लगता.

यह बात किसी से छिपी नहीं कि भारत समृद्ध लोगों को अपनी वेल्‍थ और विरासत को सामान्‍य आय के बीच छिपाने का कानूनी मौका दिया जाता है और सरकार राजस्‍व में गरीबों की जेब नोचती रहती है.

 

सरकारों की टैक्‍सखोरी के कारण भारत के अध‍िकांश परिवार एसे आदमी में बदल गए हैं जो एक बाल्‍टी में बैठकर उसे हैंडल से उठाने की कोशिश कर रहा है. अगर हम यह भूल गए कि केवल टैक्‍स चुकाना ही देश भक्‍ति नहीं है सरकारों  से  टैक्स  का  हिसाब  मांगना  भी सबसे  बड़ी  देशभक्ति  है यकीन मानिये यह टैक्‍स वाली महंगाई बढती जाएगी और कमाई व बचत को टैक्‍सों डायनासोर निगालता जाएगा.

 


कंपटीशन के दुश्‍मन


 

 दिसंबर 2018 

गूगल प्रमुख सुंदर पि‍चाई बाजार पर मोनोपली यानी एकाधि‍कार के मामले में अमेरिकी कानून निर्माताओं के कठघरे में थे फेसबुक और अमेजन पर भी अमेरिका के कानून निर्माता एंटी ट्रस्‍ट यानी प्रतिस्‍पर्धा रोकने वालों के ख‍िलाफ बने कानून के तहत कार्रवाई की तैयारी में थे

उस सुनवाई के फोटो और वीड‍ियो में अनोखा दृश्‍य नजर आया.  कांग्रेस की सुनवाई के दौरान पिचाई के पीछे तीसरी पंक्ति कुर्स‍ियों में काली टोपी वाले मुच्छड़ रिच अंकल पेनीबैग्स नजर आ रहे थे

रिच पेनीबैग्‍स का तो आपको पता ही होगा. दुनिया भर में मशहूर मोनपली बोर्ड गेम के प्र‍तीक पुरुष हैं पेनीबैग्‍स. 1930 में अमेरिकी महामंदी के दौरान यह सबसे लोकप्र‍िय बोर्ड गेम था जिसका भारतीय संस्‍करण व्‍यापार के नाम से आता था.

बहरहाल अमेरिकी कांग्रेस की सुनवाई में ग्रीडी मोनोपली मैन की मौजूदगी किसी फोटोशॉपीय कला से नहीं हुई. अमेरिका के एक वकील ग्रीडी मोनोपली मैन की वेशभूषा में, इस मामले की प्रत्येक सुनवाई में ठीक उस जगह मौजूद रहे थे जहां से वह तस्वीरों का हिस्सा बन सकें. उनकी कोशिश रंग लाई. लोगों को बाजार का विद्रूप और एकाधि‍कारवादी चेहरा नजर आया मुच्‍छड़ रिच अंकल पेनीबैग्‍स ज‍िसके प्रतीक हैं

तकनीकी कंपनियों के एकाध‍िकारों यानी कि मोनोपली मनीबैग्‍स पर चोट की यह लहर जो अमेरिका से उठी वह यूरोप होते हुए भारत तक आ ही गई. यहां के नियामकों को मजबूर होना पड़ा. एंड्रायड प्‍लेटफॉर्म और प्‍ले स्‍टोर में अपने एकाध‍िकार की दुरुपयोग करने की श‍िकायतों पर भारत के प्रतिस्‍पर्धा आयोग ने गूगल पर 1300 करोड़ का जुर्माना लगाया. गूगल इसके खि‍लाफ सुप्रीम कोर्ट गई है. यूरोप में भी अमेजन फेसबुक और गूगल पर प्रतिस्‍पर्धा‍ नियामकों की चाबुक बरस रहे हैं. भारत की संसदीय सम‍ित‍ि ड‍िजिटल मोनोपली की सचाई स्‍वीकार करने पर मजबूर हुई है 

आप कहेंगे कि भारत के नियामक भी देर आयद मगर दुरुस्‍त आयद हैं. ...

शायद नहीं

प्रतिस्‍पर्धा आयोग की ताजी सख्‍ती पर रीझने से पहले जरा करीब से देख‍िये. गूगलों फेसबुकों पर सख्‍ती से पहले तक भारत दुनिया के सबसे जिद्दी और पेचीदा एकाधिकारवादी बााजर में बदल चुका है. यह बाजार प्रतिस्‍पर्धा आयोग की नाक नीचे बना है जिसे बाजार पर कब्‍जे सेवा और उत्‍पादों की मनमानी कीमतें और राजनीतिक चंदों की जटिल जहरीले तालमेल ने बनाया है.

अब अगर मोनोपली की बात निकली है दूर तलक जानी ही चाहिए केवल ड‍िज‍िटल कंपन‍ियां को ही क्‍यों कानून में बांधा जाए यहां तो ज्‍यादातर जरुरी सामानों और सेवाओं के बाजार पर चुनिंदा कंपन‍ियां काब‍िज हैं.

 

जो बड़ा है वही चढ़ा है

गूगल अमेजन आदि की मोनोपली और एकाध‍िकार की बहस भारत में कुछ फैशनेबल सी हो जाती है या कि इसकी मदद से असली एकाध‍िकारों से ध्‍यान बंटाया जा सकता है. अव्‍वल तो भारत में इंटरनेट का इस्‍तेमाल करने वाली लोग आबादी का केवल 47 फीसदी हैं उनमे भी इंटरनेट का भरपूर इस्‍तेमाल करने वाले और सीमत. दूसरा ड‍ि‍ज‍िटल मोनोपली मुफ्त सेवाओं पर चलती हैं जो ड‍िज‍िटल बाजार की एक दूसरी ही अदा है जिस पर बड़ी बहसें होती हैं

भारत में मोनोपली उन उत्‍पादों और सेवाओं में ज्‍यादा बड़ी जिनकी इस्‍तेमाल सब करते हैं और नाक से पैसा चुकाते हैं. कभी अपने एक महीने के ब‍िल भुगतान को देख‍िये. कुल समाान और सेवाओं पर हमारे भुगतान का करीब 60 फीसदी हिस्‍सा चुनिंदा 25-30 कंपनियों को जाता है जिनका बाजार में एकाध‍िकार या जिन बाजारों में दो कंपनियों का दबदबा है. इनमें सरकारी और निजी दोनों कंपनियां शामिल हैं

चाय, बिस्कुट, चॉकलेट, मक्‍खन, नमक, हेयर आयल, खाने के तेल, बेबी फूड, फुटवि‍यर, इनरवीयर, मोबाइल टेलीकॉम, बिजली उत्‍पादन, बिजली पारेषण, तेल पाइपलाइन, एयरपोर्ट, परिवहन, सड़क, पेट्रोल‍ियम, गैस, रेलवे, मोबाइल हैंडसेट, ऑनलाइन शॉपिंग, एप आधार‍ित टैक्‍सी, ऑन लाइन फूड गिनती बहुत लंबी है  

चौंक गए न

कहां से आई मोनोपली

भारत में कैसे बन गईं इतनी बड़ी मोनोपली ?

2013 के बाद भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में ढलान शुरु होने लगी थी. यही वह वक्‍त था जब भारत में कई उद्योगों में कंपनियां बीमार हुईं, प्रतिस्‍पर्धा सिमटी थी. वह पहला मौका था जब भारत में कंपनियों के अध‍िग्रहण शुरु हुए. दूरंसचार में घोटाले और कंपनियों के बंद होने के बाद धीमे धीमे बाजार दो तीन कंपनयिों तक सिमटता गया. एयर टेल ने इस दौरान कई कंपनि‍यों का अध‍िग्रहण किया था.

वोडाफोन आइड‍िया का विलय उसी वक्‍त हुआ. यह कंपनी आज डूबने के करीब है और बाजार में डुओपली होने वाली है.

यही वह दौर था जब वालमार्ट फ्ल‍िपकार्ट सोनी जी इंटरनेटमेंट एलआईसी आईडीबीआई बैंक जैसे बड़े अध‍िग्रहण सुर्ख‍ियों में आए. आंकडे बताते हैं कि 2015 से 2019 के बीच भारत में अधि‍ग्रहणों पर 310 अरब डॉलर खर्च हुए. यह दौर टेलीकॉम, ऊर्जा और मीडिया में अध‍िग्रहणों का था

लगभग इसी वक्‍त उपभोक्‍ता उत्‍पादों में कंपनियां छोटे ब्रांड निगलने लगी थीं. इंदुलेखा केरल और तमिलनाडु के बाजारों में खासा कामयाब हेयर केयर ( बालों का तेल अन्य उत्पाद)  ब्रांड था. 2016 में हिंदुस्तान यूनिलीवर ने 350 करोड़ रुपए में इस ब्रांड का अधिग्रहण कर लिया. इसे उन्होंने अखिल भारतीय ब्रांड बनाया और नए उत्पाद पेश किए. महज तीन साल में इंदुलेखा, हिंदुस्तान यूनिलीवर के लिए 2,000 करोड़ रुपए का ब्रांड बन गया.

आइटीसी ने बंगाल का छोटा-सा ब्रांड निमाइल (Nimyle) खरीद कर  इंदुलेखा  वाला फॉर्मूला दोहराया गया. टाटा ने चाय लोकप्रिय ब्रांड लाल घोड़ा और काला घोड़ा का अधिग्रहण किया.


संकट में मिले मौके

2019 के बाद उद्योगों में संकट बढा. कुछ जीएसटी के कारण कुछ कर्ज के कारण और कुछ बाजार में पिछड़ने के कारण संकट में फंसे.

अब उपभोक्‍ता बाजार में कब्‍जे की बारी थी. 2020 अप्रैल में हिंदुस्‍तान लीवर ने 3045 करोड़ रुपये में जीएसके यानी ग्‍लैक्‍सो स्‍म‍िथक्‍लाइन कंज्यूमर को खरीद लिया. यह एफएमसीजी बाजार का सबसे बड़ा अध‍िग्रहण था. इसी साल आइटीसी ने 2000 करोड़ में सनराइज फूड्स को समेट लिया. 2022 के अंत में डॉबर ने बादशाह मसाले का अध‍िग्रहण कर लिया. सबसे बड़ी ताजा डील टाटा कंज्‍यूमर करने जा रहा है जहां वह 60000 करोड़ में रमेश चौहान के बिसलेरी वाटर ब्रांड को खरीद कर ब्रांडेड पानी के बाजार पर लगभग एकाध‍िकार कर लेगा.

रिटेल बाजार में मेट्रो पर रिलायंस का कब्‍जा, अंबुजा सीमेंट में होलसिम की हिस्‍सेदारी पर अडानी का नियंत्रण और एलएंडटी माइंड ट्री बड़े अध‍िग्रहणों की सूची को और बड़ा करते हैं

स्‍टार्ट अप कंपनियों ने डूबने से पहले एकाध‍िकार के लिए टेकओवर की मुहिम सी चला दी थी. बायजूस ने कई एजुकेशन ब्रांड खरीदे थे.

इस दौर अधि‍ग्रहण आक्रमक थे. इनमें कई कं‍पनियां कर्ज चुकाने में चूकी थीं और उन्‍हें दीवाला प्रक्रिया के तहत खरीद गया था. 2020 से 2022 तक अध‍िग्रहणों का तूफान सा आ गया. करीब 80 फीसदी सौदे नतीजे तक पहुंचे. 2022 में करीब 126 अरब डॉलर के 1185 सौदे हुए.

 

बीते दो बरस में कोविड के कारण जो मंदी आई उसमें कई छोटे ब्रांड अध‍िग्रहणों का श‍िकार हुए और बाजार में एकाध‍िकार के लिए नए युग शुरुआत हो गई.

मुंबई स्थित निवेश फर्म मार्सेलस के मुताबिक, भारत में 20-25 कंपनियों ने अपने-अपने बाजारों में 80 फीसद या उससे भी ज्यादा कारोबार पर एकाधिकार कायम कर रखा है जबकि ज्यादातर देशों में 15 फीसद की बाजार हिस्सेदारी को कंपनी की अग्रणी स्थिति माना जाता है.

2021-22 कंपनियों की कुल आमदनी का करीब 70 फीसद हिस्सा सबसे अव्वल 20 कंपनियों की जेब में गया. इसके मुकाबले, अमेरिका में शीर्ष 20 कंपनियों के खाते में कुल कॉरपोरेट मुनाफे का तकरीबन 25 फीसदी हिस्सा (2019) जाता है इसके बावजूद वहां नियामक (रेगुलेटर) और उपभोक्ता दोनों एकाधिकार वाली कंपनियों की बढ़त रोकने को लेकर तरह तरह के जतन करते रहे हैं.

सरकार को नहीं दिखता यह सब ?

यही तो कहानी का सबसे बड़ा पेंच है. भारत के बाजार की सबसे बड़ी मोनोपली तो सरकार के पास हैं. उदारीकरण के 25 साल बीतने के बावजूद असंख्‍य सेवाओं में सरकार सीधा एकाध‍िकार है या सरकारी कंपनियों के कार्टेल हैं. खनन, सड़क परिवहन , रेलवे, रेलवे इंजीन‍ियरिंग, भारी निर्माण,  बिजली उत्‍पादन और वितरण, कोयला, परमाणु ऊर्जा, पेट्रोल‍ियम वितरण , तेल खोज, नेचुरल गैस,  बैंकिंग, बीमा, अनाज खरीद जैसे कई क्षेत्रों में सरकार का एकाध‍िकार है. नेता और अध‍िकारी यह ताकत छोड़ना नहीं चाहते इसलिए निजी एकाधिकारों पर भी किसी को फर्क नहीं पड़ता.

भारत के प्रतिस्‍पर्धा आयोग ने हाल में वर्षों में कंपनियों के कार्टेल पर जो जुर्माने लगाये हैं वह लोगों की शिकायत हैं और आमतौर पर लंबे कानूनी खींचतान के बाद लगे हैं. एसा इसलिए है क्‍येां कि भारत में कानूनी तौर  पर मोनोपली या डुओपली की परिभाषा साफ नहीं है. यदि कानूनी तस्‍वीर साफ होगी तो सरकार की मोनोपली भी कठघरे में होगी इसलिए कुछ नहीं बदलता.

 

कोई और भी है फायदे में ?

जानना चाहते हैं कि आप कि भारत में मोनोपोली यानी एकाध‍िकार और कार्टेल को लेकर कोई फ‍िक्र क्‍यों नही दिखती इस सवाल का जवाब हमें शेयर बाजार में मिलेगा. बीते चार एक साल में अर्थव्‍यवस्‍था की बुरी गत हो गई. आर्थ‍िक सुस्‍ती तो पहले से ही थी , इसके बाद महामारी ने कमाई, खपत और बचत तीनों तोड़ दिये मगर इस दौरान शेयर बाजारों ने ऊंचाई के रिकार्ड बनाये. बीएसई सेंसेक्‍स जो 2018 में करीब 35000 अंक पर था अब 61000 पर है. निफ्टी 10000 अंकों की बढ़कर 17000 पर पहुंच गया .

 

यह बढोत्‍तरी अर्थव्‍यवस्‍था में समग्र बेहतरी से मेल नहीं खाती. दरअसल सेसेंक्‍स और निफ्टी में जो कंपनियां काबिज हैं उनमें से आधी कंपनियां बाजारा में एकाध‍िकार रखती है, दो कंपनियों के दबदबे यानी डुओपली का हिस्‍सा हैं यानी फिर बाजार में 30 फीसदी से ज्‍यादा हिस्‍सा रखती हैं.

 

निफ्टी की 50 और  सेंसेंक्‍स की 25 कंपनियों की सूची ग्राफि‍क में


भारत के शेयर बाजार में करीब 100 से ऊपर कंपन‍ियां एसी हैं जिनका एकाध‍िकार या किसी बडे कार्टेल का हिस्‍सा है, कोविड के बाद उभरते एकाधि‍कारों के बीच भारतीय शेयर बाजार श्‍ह बदलता स्‍वरुप अच्छी खबर नहीं है. शेयर बाजार में छोटी और मझोली कंपनियों के घटते आकर्षण ने सेबी को सितंबर 2020 में यह आदेश जारी करने पर मजबूर किया कि म्युचुअल फंड को अपने निवेश मिड कैप और स्माल कैप स्टॉक्स का हिस्सा बढाना होगा. क्‍यों कि बाजार में जब प्रतिस्पर्धा कुछ कंपनियों के बीच सीमति है तो शेयर बाजार में निवेश सीमित कंपनियों में सिमटने लगा था.

अर्थव्‍यवस्‍था में कुछ भी हो मगर इनकी ताकत बढ़ती जाती है क्रेड‍िट सुइस ने 2020 में आकलन क‍िया था कि बीएसई 500 की 100 से ज्‍यादा कंपनियां अपने प्रतिस्‍पर्ध‍ियो की तुलना में नए बाजार में पहुंचने, प्रत‍िस्‍पर्धी के अधिग्रहण, ग्‍लोबल बाजार में विस्‍तार की ज्‍यादा क्षमता रखती है. आर्थ‍िक उतार चढ़ाव के बीच इनकी ताकत पर बड़ा फर्क नहीं पड़ता

बीते दो बरस में हमने यही सब होते देखा है जिसका जमीन 2016 से बन रही थी. इन कंपनियेां ने बाजार में छोटै प्रतिर्स्‍धी निगल लिये. पीएलआई जैसी स्‍कीमों का लाभ लिया और सरकारी की रियायतों से ताकत हासलि की. कच्‍चे माल की कीमत बढी तो बाजार में कीमतें बढ़ा दीं. बीते दो बरस में मांग घटने के बावजूद भी भारत की प्रमुख बड़ी कंपनियों के मुनाफों में रिकार्ड बढ़त दर्ज की गई है.

 

जहरीली जोडी

भारत में अब तकनीक, उपभोक्‍ता उत्‍पाद, टेलीकॉम, एयरपोर्ट, ई कॉमर्स में नई मोनोपली उभर रही हैं. यहां कंपन‍ियां ने केवल बाजार में कीमतों को नियंत्र‍ित कर रही हैं बल्‍क‍ि रोजगारों की मांग भी उनके रहमोकरम पर है. यानी मोनोपली और मोनोस्‍पोनी दोनों एक साथ.

 

ब्रिटेन की अर्थशास्‍त्री जोआन रॉबिनसन ने 1930 में इस  बाजार के इस चरित्र को समझाया था. तब तक को निजी और बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों का युग शुरु भी नहीं हुआ था. खतरे को समय से पहले देख लिया था.  जोआन ने बताया था कि मोनोपली और मोनोस्पोनी की घातक जोड़ी असंतुलित बाजारों की पहचान है. मोनोपली के तहत चुनिंदा कंपनियां बाजार में आपूर्ति पर नियंत्रण कर लेती हैं. ग्राहक उनके के बंधक हो जाते हैं जबकि मोनोस्पोनी में यही कंपनियां मांग पर एकाधिकार जमा लेती है और रोजगार के अवसरों सीमित कर देती हैं जिससे रोजगार व कमाई में कमी आती है.

भारत 40 सालों से सरकारी एकाधिकार की सजा भुगत रहा है यह सोचना भी गलत होगा कि निजी एकाधिकार थोड़े से बेहतर होंगे. कीमत तो आखिरकार आम उपभोक्ता को ही चुकानी होगी.  इसका फौरी असर नौकरियों के जाने के तौर पर सामने आ रहा है कि  क्योंकि प्रतिस्पर्धा से नई शुरुआत होती है और प्रतिस्‍पर्धा सिकुड़ने से रोजगार के मौके खत्‍म होते हैं. स्‍टार्ट अप बाजार में यही दि‍ख रहा है.

दुनिया में बीते 50 साल में कई जगह यह देखा है कि सरकारी एकाधिकार की जगह निजी एकाध‍िकार आकर पूरे उदारीकरण का मकसद खत्‍म कर देते हैं. जैसे कि कार्लोस स्लिम हेलु मैक्सि‍को का एक सामान्य शेयर ट्रेडर था. सरकार में पहुंच के जरिये उसने एक विवादि‍त निजीकरण में टेलीकॉम बाजार पर एकाधिकार रखने वाली सरकारी कंपनी टेलीमेक्स का अधिग्रहण कर लिया. उसकी बोली सबसे ऊंची बोली नहीं थी वह एक मुश्त पूरी रकम भी नहीं चुका पाया. तो भी इस कंपनी पर कब्जे ने उसे अंततः दुनिया के सबसे अमीर आदमियों में शामिल कर दिया.

होस्नी मुबारक की सरकार में कुछ शीर्ष कारोबारी मंत्रिमंडल में शामिल हो गए और सरकारी कानून बनाकर उन्होंने प्रतिस्पर्धा को सीमित कर दिया. नतीजतन उनकी कंपनियों ने बाजार पर नियंत्रण कर लिया. अक्‍सर बाजार में एकाध‍िकारों की राजनीत‍ि से गहरी छनती है. राजनीतिक सत्ता मुक्त प्रतिस्पर्धा के बजाय चुनिंदा कंपनियों की मदद करती हैं.  नियामक व्यवस्था की साख बैठ जाती है

 प्रतिस्पर्धा कानून को अमल में आए दो दशक हो चुके हैं. लेकिन अभी तक भारत में एकाधि‍कार और कार्टेल की परिभाषायें स्पष्ट नहीं हैं. भारत में कितने बाजार हिस्से को एकाधि‍कार माना जाए यह स्पष्ट नहीं है. सरकारी कंपनियों के एकाधि‍कार तो किसी गिनती में ही नहीं आते हैं.

पूंजीवादी व्यवस्था में प्रतिस्पर्धा पर लगातार निगरानी जरुरी है और इसक मामले में भारतीय नियामक और प्रतिस्पर्धा के नियमों को नए तरह से लिखे जाने की जरुरत है.

सरकारी प्रोत्साहन बाजार मे प्रति‍स्पर्धा केंद्रित करने होंगे. आयात महंगे करने के बजाय स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं में कंपनियों को लागत (जमीन, बिजली, टैक्स)  कम करने के लिए सहायता देनी होगी ताकि वे स्थानीय बाजारों में ताकत के साथ टिके रह सकें.

मेक्सिको, मिस्र, रूस, अर्जेंटीना सरीखे देशों में मुक्त प्रतिस्पर्धा की शुरुआत तो अचछी नहीं लेकिन  कुछ ही सालों में राजनीति की मदद से  चुनिंदा उद्योग घरानों ने  ज्यादातर कारोबारों पर एकाधिकार कायम कर लिए  और फिर  ऐसे देश अक्सर  निम्न आय के दुष्‍चक्र में फंस गए.

उदारीकरण के कारण प्रतिस्पर्धा ने भारत को दो प्रमुख फायदे पहुंचाये एक उपभोक्ताओं को नए विकल्प मिले जिससे जिंदगी बेहतर हुई और दूसरा रोजगारों का सृजन हुआ. लेक‍िन अब वक्‍त बदल रहा है. भारत आर्थ‍िक सुस्‍ती की तरफ खिसक रहा है. यह दौर मोनोपली के लिएउ सबसे माफि‍क है बीमार होती छोटी मझोली कंपनियां बड़ो के लिए आसान चारा हैं.  यही मौका जब सरकार को कुछ बड़ा करना होगा. नहीं तो बहुत देर हो जाएगी.

 

 

 

Sunday, March 19, 2023

सबसे बड़ी स्‍कीम का रिपोर्ट कार्ड


यद‍ि आप से पूछा जाए कि आग की खोज और पहिये यानी व्‍हील के आव‍िष्‍कार के बाद दुनिया की सबसे क्रांतिकारी घटना कौन सी थी

आसानी से जवाब नहीं मिलेगा आपको

क्‍यों कि गुफाओं से निकले मानव के करीब बारह हजार साल के इति‍हास में क्‍या कुछ नहीं घटा है

अबलत्‍ता अगर किसी आर्थिक इतिहासकार से पूछें तो वह कहेगा कि आग की खोज और पहिये आवि‍ष्‍कार के बाद ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति दुनिया की सबसे बड़ी क्रांति थी

इससे पहले तक दुनिया की आबादी कृष‍ि पर निर्भर थी, आबादी बढ़ती थी तो खाना कम फिर आबादी कम होती थी और फिर अनाज उत्‍पादन के साथ बढ़ती थी. इस चक्‍कर को माल्‍थेस‍ियन ट्रैप कहगा गया जिसे  पहले पहले जनसंख्‍याविद और अर्थशास्‍त्री थॉमस माल्‍थस ने समझाया था.

ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति के बाद 1760 से खेती से लोग बाहर निकले, प्रति व्‍यक्‍त‍ि आय बढ़ी,जीवन स्‍तर बेहतर हुआ और आबादी संतुलित हुई. यहीं से राजनीतिक संस्‍थायें बनना शुरु होती हैं.

आप कहेंगे कि इस यह सब याद दिलाने का मकसद क्‍या है

मकसद है जनाब क्‍यों कि इसके बाद औद्योगिक तरक्‍की के लिहाज से दुनिया की से चमत्‍कारिक क्रांति कौन सी थी?

चीन का चमत्‍कार  

यह था चीन का औद्योगीकरण जो ब्रिटेन में मशीनों की खटर पटर शुरु होने के करीब 250 साल बाद आया.

2017 में विकास दर में पहली गिरावट और कोविड के साथ दूसरी बडी गिरावट तक 35 साल में चीन ने दुनिया की करीब 20 फीसदी आबादी को औद्योगीकरण के दायरे में पहुंचा दिया. यह करिश्‍मा पहली बार हुआ.

ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति को दोहराने की कोश‍िशें

उत्‍तरी यूरोप से लेकर अमेरिका और पूर्वी एश‍िया कोरिया व ताइवान तक हुईं. कुछ जगह कामयाबी मिली कुछ जगह नहीं. प्रति व्‍यक्‍ति‍ आय  बढ़ोत्‍तरी उतनी नहीं दिखी जितनी कि अमेरिका में थी, ठीक इसी तरह चीन की क्रांति से सीखने की कोश‍िश कई जगह चल रही है.

 

चीन का मॉडल

भारत ने इसी क्रांति से सबक मैन्‍युफैक्‍चर‍िंग में निवेश बढ़ाने की मुहिम शुरु की. क्‍यों कि फैक्‍ट्र‍ियां लगेंगी तो उत्‍पादन और रोजगार बढेगा. निर्यात बढेगे और मिलेगा तेज आर्थ‍िक विकास. बात शुरु हुई थी विदेशी निवेश खोलने से, फिर दी गई तमाम उद्योग को र‍ियायतें मगर बात बनी नहीं.

विकास होना था मैन्‍युफैक्‍चर‍िंग था जिससे रोजगार आने थे लेक‍िन सेवा क्षेत्र में ज्‍यादा तेज बढ़त हुई. चीन की तर्ज पर उद्योगों केा बुलाने और निर्यातोन्‍मुख उत्‍पादन करने की मुहिक मेक इन इंडिया से होते हुए अब उस नई स्‍कीम पर आ टिकी जिसे पीएलआई या प्रोडक्‍शन लिंक्‍ड इंसेटिव कहते हैं.

यह भारत के इतिहास सबसे बड़ी एक मुश्‍त औद्योग‍िग प्रोत्‍साहन योजना है, जिसमें 15 अलग अलग उद्योगों में  कंपनियों को उत्‍पादन के लिए सरकार के बजट से अगले पांच साल में करीब 1.93 लाख करोड़ की सीधी नकद मदद दी जाएगी है. यह प्रोत्‍साहन अलग अलग उद्योगों के लिए उत्‍पादन और निर्यात की शर्तों को पूरा करने के बदले मिलेगा. सनद रहे कि यह रियायतें अन्‍य टैक्‍स, निवेश  आदि की रियायतों के अलावा है जो सभी उद्येागों को मिलते हैं. 

इन रियायतों की पहली किश्‍त के तहत करीब 400 करोड़ रुपये ताइवान की कंपनी फॉक्‍सकॉन और भारत की कंपनी डिक्‍सन टेक्‍नोलॉजीज  को दिये गए हैं. फॉक्‍सकॉन भारत में एप्‍पल फोन बनाती है. इस कंपनी ने  एक अगस्‍त 2021 से 31 मार्च 2022 के बीच 15000 करोड़ का उत्‍पादन किया.  ड‍ि‍क्‍सन समूह की कंपनी करीब 58 करोड़ का प्रोत्‍साहन भुगतान हुआ है. यह कंपनी भी इलेक्‍ट्रानिक्‍स उत्‍पाद बनाती है.

पंद्रह अलग अलग उद्योगों में उत्‍पादन के लिए सीधी नकद मदद देनी वाली इस स्‍कीम को अब 32 महीने पूरे हो रहे हैं.

बजट से पहले देखना च‍ाहि‍ए कि कहां तक पहुंची चीन के मॉडल को आजमाने  की यह मुहिम

प्रोत्‍साहनों सबसे बडा मेला

उदारीकरण यानी 1991 के बाद भारत की सबसे बड़ी प्रत्‍यक्ष निवेश और निर्यात प्रोत्‍साहन स्‍कीम यानी पीएलाआई का आव‍िष्‍कार बडे अजीबोगरीब ढंग से हुआ. 

बात नवंबर 2019 की है. जब भारत डब्‍लूटीओ की अदालत में एक बड़ी लड़ाई हार गया. अचरज होगा कि इस वक्‍त भारत और अमेरिका यानी मोदी और ट्रंप के रिश्‍तों की बड़ी गूंज थी लेक‍िन अमेरिका ने भारत को डब्‍लूटीओ में धर रगड़ा और मोदी सरकार भारत की सभी निर्यात प्रोत्‍साहन स्‍कीमें चार माह के भीतर बंद करनी पड़ीं. 

उस वक्‍त तक मर्चेंडाइज एक्‍सपोर्ट्स ऑफ इंड‍िया (एमईआईएस) भारत की सबसे बड़ी निर्यात प्रोत्‍साहन स्‍कीम थी जिसमें निर्यात योग्‍य उत्‍पादन पर लगने वाले कच्‍चे माल और सेवाओं पर टैक्‍स की वापसी की जाती थी. इस स्‍कीम के तहत 2019-20 में बजट  करीब 40000 करोड़ रुपये टैक्‍स के वापसी की गई.

मोदी सरकार ने 2015 में पांच निर्यात प्रोत्‍साहन स्‍कीमें मिलाकर इसे बनाया था. अगले दो साल में निर्यात को इससे कोई बड़ा फायदा नहीं हुआ. 2019 में एक और स्‍कीम लाई गई जिसका नाम भी रेमिशन ऑफ ड्यूटीज एंड टैक्‍सेस ऑन एक्‍सपोर्ट प्रोडक्‍टर (आरओडीटीपी). इसके बाद भी निर्यात नहीं बढ़े. निर्यात में जो बढ़त दिखी वह  कोविड के दौरान ही थी.  

 

इस बीच 2019 में निर्यात प्रोत्‍साहन बंद करने पड़े. जिसके बाद सरकार ने एमईआएस की जगह यह स्‍कीम शुरु की. जिसमें उत्‍पादन और निर्यात की शर्तों पर चुनिंदा उद्योगों को बजट से सीधा प्रोत्‍साहन मिलेगा. इसमें करीब 15 उद्योगों शामिल किया गया.

लेन देन का हिसाब किताब

अब तक पंद्रह उद्योगों के लिए उपलब्‍ध  इस स्‍कीम से 2027 तक करीब 2.5 से 3 लाख करोड़ का पूंजी निवेश लाने का लक्ष्‍य रखा गया है. स्‍कीम के नियामक मानते हैं कि प्रमुख उद्योगों का करीब 13 से 15 फीसदी निवेश इस स्‍कीम के जरिये आएगा और पांच साल में करीब 37-38 लाख करोड़ का अत‍िरिक्‍त उत्‍पादन होगा. सरकार मान रही है कि पीएलआई भारत के नॉम‍िनल जीडीपी में हर साल करीब 1.1 फीसदी की बढोत्‍तरी करेगी.

लक्ष्‍यों का क्‍या है, सुहाने ही होते हैं 

पीएलआई स्‍कीम में लगभग 11 उद्योगों में 60 फीसदी पूंजी निवेश के प्रस्‍ताव भी मंजूर हो चुके हैं मगर नतीजों को लेकर तस्‍वीर साफ नहीं हैं. पूरे परिदृश्‍य को आंकड़ों को मदद से धुंध रहित करना होगा.  क्रेडिट सुइसी, क्रि‍स‍िल और केयर रेटिंग्‍स ने हाल में पीएलआई स्‍कीम पर कुछ कीमती विश्‍लेषण पेश किये हैं जो मैन्‍युफैक्‍चरिंग को लेकर भारत के इस सबसे बडे और महंगे दांव की चुनौतियों सफलताओं को समझने में हमारी मदद करते हैं क्‍यों अंतत: सफलता इस बात से तय होगी कि क‍ितना निवेश हुआ और आए क‍ितने रोजगार?

पीएलआई स्‍कीम में आए प्रस्‍ताव तीन वर्गों में है.

पहला हिस्‍सा असेम्‍बलिंग में निवेश का है. यानी पुर्जे आयात कर उन्‍हें जोड़ने की फैक्‍ट्र‍ियां. मोबाइल, कंप्‍यूटर और टेलीकॉम हार्डवेयर में आया और संभावित न‍िवेश इसी वर्ग का है. इस वर्ग के तहत 2027 तक करीब 2108 मिलियन डॉलर के पूंजी निवेश पर सरकार सरकार करीब 8000 मिल‍ियन डॉलर के प्रोत्‍साहन देने का प्रस्‍ताव किया है. इस वर्ग के उत्‍पादन से सालाना  कुल 38000 मिल‍ियन डॉलर के बिक्री (निर्यात और घरेलू बाजार में बिक्री) टर्नओवर की उम्‍मीद है.

दूसरा हिस्‍सा ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है जिसमें नई मैन्‍युफैक्‍चरिंग शुरु की जानी है. सोलर, बैटरी, बल्‍क ड्रग, चिक‍ित्‍सा उत्‍पाद इस वर्ग में आते हैं. इस निवेश से नई तकनीक आने का उम्‍मीद लगाई गई है. इन्‍हीं के जरिये आयात पर निर्भरता भी कम होगी.

तीसरा और सबसे बडा हिस्‍सा कंपनियों के नियम‍ित पूंजी निवेश का है. जिसमें आटोमोबाइल, फूड, कपड़ा, फार्मा, उपभोक्‍ता इलेक्‍ट्रानिक्‍स जैसे  टीवी फ्र‍िज और स्‍टील आद‍ि शामिल हैं. इनमें कुछ कंपनियों ने स्‍कीम की शर्तों को स्‍वीकारते हुए निवेश का प्रस्‍ताव मंजूर कराया है.

पीएलआई का रिपोर्ट कार्ड

इस स्‍कीम की अब तक की कामयाबी का पहला पैमाना पूंजी निवेश है, जिस पर सारा दारोमदार है. बीते दो बरस में अध‍िकांश पूंजी उन उद्योगों में आई है जहां कंपनियां पहले परियोजनायें चला रही हैं जैसे कि आटोमोबाइल और स्‍टील. नए उत्‍पादन में पीवी माड्यूल और  बैटरी प्रमुख है जहां ज्‍यादा संभावनायें बनती दिख रही हैं. यहां रिलायंस, एलंडटी और ओला जैसी बड़ी कंपनियों ने भी प्रस्‍ताव मंजूर कराये हैं. अगर यहां निवेश के नतीजे आए तो भारत में बैटरी की बडी क्षमतायें बन सकती हैं. अब तक मंजूर हुए कुल निवेश प्रस्‍तावों का 48 फीसदी हिस्‍सा जो क्रियान्‍वयन में है वह स्‍टील आटो, बैटरी और सोलर मॉड्यूल में केंद्रित है

अब दूसरा पैमाना जहां नतीजे मिले जुले है. नई इकाइयों को लेकर  दुनिया की बडी तकनीकी कंपनियों में निवेश में रुच‍ि नहीं ली है. बैटरी और सोलर पैनल में कोई बडी ग्‍लोबल कंपनी अब तक नहीं आई है इसलिए तकनीकी हस्‍तांतरण में पीएलआई का फायदा मिलता नहीं दिख रहा. अलबत्‍ता मोबाइल असेम्‍बली, कंप्‍यूटर हार्डवेयर और उपभोक्‍ता इलेक्‍ट्रानिक्‍स में विदेशी बहुराष्‍ट्रीय कंपन‍ियों ने निवेश में रुच‍ि ली है. इनमें से कई कंपनियां पहले से भारत में हैं.

अब तीसरा पैमाना है उत्‍पादन में वैल्‍यू एडीशन का यानी मौजूदा उत्‍पादन को बेहतर करना. बैटरी स्‍टील फार्मा आदि क्षेत्रों में उत्‍पादों में वैल्‍यू एडीशन की गुंजाइश है मगर क्रेडिट सुइसी का मानना है कि इसके लिए स्‍कीम में और जयादा प्रोत्‍साहन और स्‍पष्‍टता जरुरी है.  यदि एसा होता है तो 2027 तक करीब 18 अरब डॉलर का वैल्‍यू एडीशन मिल सकता है. of GDP.

क्रेडिट सुइसी का मानना है कि मौजूदा हालात में यह स्‍कीम 2025 तक 70 अरब डॉलर के कुल कारोबार के साथ जीडीपी में करीब 0.7 फीसदी का अतिरिक्‍त योगदान कर सकती है. जबक‍ि क्रिसिल का आकलन है कि 2025 तक देश के प्रमुख उद्योगों में 13 से 15 फीसदी पूंजी निवेश इस स्‍कीम के जरिये आ सकता है.

भारत के लिए यह स्‍कीम बड़ा और शायद आख‍िरी मौका है. दुनिया में घटती विकास दर और लंबी चलने वाली महंगाई की रोशनी में उत्‍पादन का ढांचा बदल रहा है. कई देश अपने यहां जरुरी सामानों की उत्‍पादन क्षमतायें तैयार कर रहे हैं जिनके लिए वह आयात पर निर्भर थे. भारत में इस स्‍कीम की सफलता के लिए केवल दो वर्ष हैं और यह इस बात से तय होगा कि चीन की तुलना में कितने बडे ब्रांड और बहुराष्‍ट्रीय कंपनियां भारत आते हैं. क्‍यों कि उनके जरिये ही भारत ग्‍लोबल सप्‍लाई चेन का हिस्‍सा बन सकता है.

सबसे कठिन पहेली

हम वापस ब्रिटेन और चीन की औद्योगिक क्रांति की तरफ लौटते हैं. क्‍यों इनकी रोशनी में यह समझना आसान है कि औद्योगिक क्रांत‍ियां इतनी कठिन क्‍यों होती हैं और क्‍यों हर देश में ब्रिटेन या चीन दोहराया नहीं जा पाता. औद्योगिक निवेश को लेकर बीते कुछ वर्षों में नए संदर्भों में अध्‍ययन हुए हैं. जिनसे पता चला है कि ब्रिटेन, अमेरिका, जापान और चीन में औद्योगिक विकास का मॉडल लगभग एक जैसा था. इस चारों ही अर्थव्‍यवस्‍थाओं में प्रोटो इंडस्‍ट्रि‍यलाइजेशन का अतीत था यानी व्‍यापक शुरुआती ग्रामीण और कुटीर उद्योग. ब्रिटेन में 1600 से 1760 के बीच अमीर व्‍यापार‍ियों ने छोटे उद्योग में निवेश किया था. इसने औदयोगिक क्रांति को आधार दिया. यही समय था जब जापान में इडो और प्रारंभिक मेइजी युग (1600 से 1800) में ग्रामीण उद्योग फल फूल रहे थे. अमेरिका में 1820 में  प्रोटो इंडस्‍ट्रि‍यलाइजेशन गांवों कस्‍बों में उभर आया था जो 19 वीं सदी के अंत में रेल रोड के विकास से औद्योगिक क्रांति का हिससा बन गया. और अंत में चीन जहां 1978 से 1988 के बीच गांवों में लाखो छोटे उद्योग थे जो देंग श्‍याओ पेंग की औद्योगिक क्रांति‍ का आधार बने

दुनिया के अन्‍य देश जहां मैन्‍युफैक्‍चरिंग क्रांति की कोशिश परवान नहीं चढ़ी वहां शायद ब्रिटेन अमेरिका जापान या चीन जैसा ग्रामीण कुटीर उद्योग अतीत नहीं था. मगर भारत के पास व्‍यापार का पुराना अतीत रहा है और

आजादी के बाद बढती खपत के साथ भारत में छोटे उद्योग बड़े पैमाने पर उभरे थे. अबलत्‍ता औद्योगीकरण की ताजा कोशि‍शों में  इनकी कोई भूमिका नहीं दिखती. यह पूरी क्रांति कहीं पीछे छूट गई.  

 पीएलआई यानी अब तक की सबसे बड़ी निवेश प्रोत्‍साहन योजना अगर भारत के औद्योगिक परिदृश्‍य में नए छोटे निर्माता, सप्‍लायर और सेवा प्रदाता जोड़ सकी तो क्रांति हो पाएगी नहीं तो सरकारी मदद के सहोर चुनिंदा कंपनियों के एकाध‍िकार और बढ़ते जाने का खतरा ज्‍यादा बड़ा है