Monday, August 22, 2011

बड़ी जिद्दी लड़ाई

रकारें क्या ऐसे मान जाती हैं ? किस राजनीतिक दल के चुनाव घोषणापत्र में आपने भ्रष्टाचार मिटाने की रणनीति पढ़ी है?  कब कहां किस सरकार ने अपनी तरफ पारदर्शिता की ठोस पहल की है? पारदर्शिता राजनीतिक व प्रशासनिक विशेषाधिकारों का स्वर्ग उजाड़ देती है, तो यह आ बैल मुझे मार कौन करेगा? लोकतंत्र में भ्रष्टाचार से जंग तो सर पटक कर पत्थर तोड़ने की कोशिश जैसी है क्योंक कि यहां चुनी हुई ही सरकारें पारदर्शिता रोकती हैं और सत्ता् पर निगाह जमाये विपक्ष सिर्फ पहलू बदलता है। मगर लोकतंत्र ही इस लड़ाई के सबसे मुफीद माहौल भी देता है। दुनिया गवाह है कि भ्रषटाचार के खिलाफ लड़ाई हमेशा स्वरयंसेवी संगठनों व जनता ने ही शुरु की है। विश्व् बैंक, ओईसीडी जैसे अंतरराष्‍ट्रीय वित्तीय मंचों और संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्थाओं ने जब इस लड़ाई का परचम संभाला है , तब जाकर सरकारें कुछ दबाव में आई हैं। हमें किसी गफलत में नहीं रहना चाहिए। हम बड़ी ही जिद्दी किस्म की लड़ाई में कूद पडे है।
कठिन मोर्चा नए सिपाही
भ्रष्टाचार से अंतरराष्ट्रीय जंग केवल बीस साल पुरानी है। अंतरराष्ट्रीय आर्थिक उदारीकरण व पूर्व-पश्चिम यूरोप के एकीकरण की पृष्ठभूमि में स्वयंसेवी संगठनों 1990 की शुरुआत में यह झंडा उठाया था। मुहिम स्थापित राजनीतिक मंचों के बाहर से शुरु हुई थी। 2001 में पोर्तो अलेग्री (ब्राजील) में वलर्ड सोशल फोरम मंच पर जुटे दुनिया भर के स्वयंसेवी संगठन अगले एक दशक में पारदर्शिता के सबसे बड़े पहरुए बन गए। भारतीय सिपाही भी इसी जमात के हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल भ्रष्टाचार को लेकर विश्व बैंक की उपेक्षा पर गुस्से से उपजा (1993) था। जो अब भ्रष्ट देशों की अपनी सूची, रिश्वनतखोरी सूचकांक और नीतियों की समीक्षा के जरिये सरकारों को दबाव में रखता है। इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ प्रॉसीक्यूटर्स और इंटरनेशनल चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स ने मुहिम को तेज किया। तब जाकर 1997 में विश्व बैंक ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की कमान संभाली, संयुक्तब राष्ट्रन संघ ने भ्रष्टाचार विरोधी अंतरराष्ट्रीय संधि (2003) लागू की और यूएन एंटी करप्शन कांपैक्ट बनाया जिससे तहत सैकड़ा से अधिक एनजीओ दुनिया भर में भ्रष्टा चार के खिलाफ लड़ रहे हैं। बर्न डिक्लेयरेशन (स्विस सवयंसेवी संगठन समूह) ने नाइजीरिया और अंगोला के भ्रष्ट शासकों की लूट को वापस उनके देशों तक पहुंचाकर इस लड़ाई को दूसरा ही अर्थ दे दिया। ठीक ऐसी ही लड़ाई अफ्रीकी एनजीओ शेरपा ने लड़ी थी और कांगों, सिएरा लियोन, गैबन ( अफ्रीकी देशों) की लूट को फ्रांस के बैंकों से निकलवाया था। दुनिया में हर जनांदोलन का पट्टा राजनीति के नाम नहीं लिखा है। राजनीति इस लड़ाई को कैसी लड़ेगी, वह तो इसी व्यनवस्थाी को पोसती है।
ताकत के पुराने तरीके
पारदर्शिता की कोशिशों पर सरकारों की चिढ़ नई नहीं है। यह नेताओं व अफसरों के उस खास दर्जे और विशेषाधिकारों को निगल लेती है, जिसके सहारे ही भ्रष्टाचार पनपता है इसलिए दुनिया के प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देशों में भी इस तरह की कोशिशों के खिलाफ राजनीति हमेशा से आक्रामक रही है। दक्षिण अफीका में चर्चित स्कोर्पियन कमीशन को दो साल पहले खत्म कर दिया गया। कई बड़े राजनेताओं के खिलाफ जांच करने वाले स्कोर्पियन कमीशन की जांच के दायरे में वर्तमान राष्ट्रंपति जैकब जुमा भी आए थे। यह काम जुमा के राष्ट्रपति बनने से एक साल पहले हुआ और वह भी संसद के वोट से। इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोननी खर्च घटाने के लिए एंटी करप्शन कमीशन को खत्मव करने की पेश कर चुके हैं। यहां तक कि ब्रिटेन की सरकार ने राष्ट्रीय य सुरक्षा आड़ लेकर ब्रिटेश रक्षा कंपनी बीएई की जांच रोक दी। सऊदी अरब के अधिकारियों को बीएई से मिली रिश्वत कारपोरेट घूसखोरी का सबसे चर्चित प्रसंग है। यही वजह है कि भ्रष्टाचार की लड़ाई में राजनीति पर भरोसा नहीं जमता। सरकारों ने जबर्दस्त दबाव के बाद ही भ्रष्टाचार की जांच के लिए व्यवस्थायें की हैं। जैसे जिम्बावे के विवादित राष्ट्पाति राबर्ट मुगाबे ने हाल में भ्रष्टाचार निरोधक समिति बनाई है। जिन देशों में एंटी करप्शन कमीशन काम कर भी रहे हैं, वहां भी जनदबाव और स्‍वयंसेवी संगठनों की मॉनीटरिंग ही उन्हें स्वतंत्र व ताकतवर बनाती है। सरकारें तो उन्हें चलने भी न दें।
आगे और लड़ाई है
हम अभी भ्रष्टाचार से लड़ाई का ककहरा ही पढ़ रहे है और हजार आफत हैं। भ्रष्टाचार में देने वाले हाथों को बांधना भी जरुरी होता है। विकासशील देशों में कंपनियां 20 से 40 अरब डॉलर की रिश्वतें हर साल देती हैं जो नेताओं व अधिकारियों की जेब में जाती हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने दुनिया की निजी कंपनियों के 2700 अधिकारियों के बीच एक सर्वे में पाया था कि भारत, पाकिस्तान, इजिप्ट, नाइजीरिया में करीब 60 फीसदी कंपनियों को रिश्‍वत देनी होती है। बहुरराष्ट्री य कंपनियों के अधिकारी मानते हैं कि भ्रष्टाचार परियोजनाओं की लागत 10 से 25 फीसदी तक बढ़ा देता है। इथिस्फियर संगठन, दुनिया में सबसे साफ सुथरी कंपनियों की पड़ताल करता है, इसकी सूची में एक भी भारतीय कंपनी नहीं है। यहां तक दुनिया के तमाम नामचीन ब्रांडों व कंपनियों को कारोबारी पारदर्शिता की रेटिंग में जगह नहीं मिली है। इथिस्फियर ने निष्कर्ष दिया था कि पारदर्शी कंपनियों ने 2007 से 2011 तक  शेयर बाजार में अन्य कंपनियों के मुकाबले ज्यादा बेहतर प्रदर्शन किया। यानी बाजार पारदर्शिता की कद्र करता है। जब भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम निजी क्षेत्र की दिशा में बढ़ेगी तो पेचीदगी और चुनौतियां नए किस्म की होंगी। यूरोप व अमेरिका इन देने वाले हाथों की मुश्कें भी कसने लगे हैं।
 भ्रष्टाचार से लड़ाई, गुलामी से जंग के मुकाबले ज्यादा कठिन है क्यों कि इसमें अपनी व्यवस्था के खिलाफ अपने ही लोग लड़ते हैं। सरकारें विशाल मशीन हैं। राजनीति जिन्हें चलाती हैं। लोकतंत्रों में पांच साल के लिए मिला जनसमर्थन अक्समर संविधान के मनमाने इसतेमाल की गारंटी बन जाता है। पारदर्शिता को रोकने के लिए सरकारों ने अपनी इस संवैधानिक ताकत अक्सर बेजा इस्तेमाल किया है। फिर भी दुनिया भ्रष्टाचार से लड़ रही है क्यों कि भ्रष्टाचार सबसे संगठित किस्म का मानवाधिकार उल्लंघन है। यह वित्तीय पारदर्शिता को समाप्त करता है और विकास को रोकता है। दुनिया के बहुतेरे देश हमारे साहस पर रश्क कर रहे हैं। हमें फख्र होना चाहिए कि हम दुनिया में बहुतों से पहले जग गए हैं। और जब जग गए तो हैं तो अब सोने का कोई मतलब नहीं है।
----

No comments: