Tuesday, June 7, 2016

अब की बार बैंक बीमार


बैंकों की हालत दो साल में देश बदलने के दावों की चुगली खाती है.

भारतीय बैंकों के कुल फंसे हुए कर्ज अब 13 लाख करोड़ रुपए से ऊपर हैं जो न्यूजीलैंड, केन्या, ओमान, उरुग्वे जैसे देशों के जीडीपी से भी ज्यादा है. सुनते थे कि चीन की बैंकिंग बुरे हाल में है लेकिन बैंकों के कर्ज संकट के पैमाने पर एशिया की अन्य अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत के बैंकों की हालत सबसे ज्यादा खराब है. प्रमुख सरकारी बैंकों के वित्तीय नतीजे बताते हैं कि 25 में से 15 सरकारी बैंकों का मुनाफा डूब गया है. बैंकिंग उद्योग का ताजा घाटा अब 23,000 करोड़ रुपए से ऊपर है, जबकि बैंक पिछले साल इसी दौरान मुनाफे में थे.

मोदी सरकार अपनी सालगिरह के उत्सव और गुलाबी आंकड़ों की चाहे जो धूमधाम करे लेकिन यकीन मानिए, बैंकिंग के संकट ने इस जश्न में खलल डाल दिया है. भारतीय बैंकों की हालत अब देसी निवेशकों की ही नहीं बल्कि ग्लोबल चिंता का सबब है और इसे सुधारने में नाकामी पिछले दो साल में मोदी सरकार की सबसे बड़ी विफलता है. कमजोर होते और दरकते बैंक ब्याज दरों में कमी की राह रोक रहे हैं. बैंकों पर टिकी मोदी सरकार की कई बड़ी स्कीमें भी इस संकट के कारण जहां की तहां खड़ी हैं.

वित्त मंत्रालय, बैंकिंग क्षेत्र और शेयर बाजार को टटोलने पर भारतीय बैंकिंग में लगातार बढ़ रहे संकट के कई अनकहे किस्से सुनने को मिलते हैं, जो ताजा आंकड़ों से पुष्ट होते हैं. बैंकों की ताजा वित्तीय सूरतेहाल (2015-16 की आखिरी तिमाही) के मुताबिक, केवल पिछले एक साल में ही बैंकों का फंसा हुआ कर्ज यानी बैड लोन (एनपीए) 3.09 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर 5.08 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गया. अकेले मार्च की तिमाही में ही बैंकों का एनपीए 1.5 लाख करोड़ रुपए बढ़ा है. सरकारी बैंकों का एनपीए अब शेयर बाजार में उनके मूल्य से 1.5 गुना है. यानी अगर किसी ने ऐसे बैंक में निवेश किया है तो वह प्रत्येक 100 रुपए के निवेश पर 150 रुपए का एनपीए ढो रहा है.

बैंकों के इलाज के लिए सरकार नहीं बल्कि रिजर्व बैंक ने कोशिश की है. एनपीए को लेकर सरकार की तरफ से ठोस रणनीति की नामौजूदगी में रिजर्व बैंक ने पिछले साल से बैंकों की बैलेंस शीट साफ करने का अभियान शुरू किया, जिसके तहत बैंकों को फंसे हुए कर्जों के बदले अपनी कुछ राशि अलग से सुरक्षित (प्रॉविजनिंग) रखनी होती है. इस फैसले से एनपीए घटना शुरू हुआ है लेकिन  इसका तात्कालिक नतीजा यह है कि 25 में से 15 प्रमुख सरकारी बैंक घाटे के भंवर में घिर गए हैं. मार्च की तिमाही के दौरान भारी घाटा दर्ज करने वाले बैंकों में पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, बैंक ऑफ इंडिया जैसे बड़े बैंक शामिल हैं. देश के सबसे बड़े बैंक, स्टेट बैंक का मुनाफा भी बुरी तरह टूटा है. यह सफाई अभियान कुछ और समय तक चलने की उम्मीद है यानी बैंकों को फंसे हुए कर्जों के बदले और मुनाफा गंवाना होगा. लिहाजा, अगले छह माह तक बैंकों की हालत सुधरने वाली नहीं है.

महंगे कर्ज को लेकर रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन को कठघरे में खड़ा करने वालों से बैंकों की बैलेंस शीट पर एक नजर डालने की उम्मीद जरूर की जानी चाहिए. मई में कर्ज की मांग घटकर दस फीसदी से भी नीचे आ गई जो सबूत है कि बैंकों को नया कारोबार नहीं मिल रहा है. बैंकों में जमा की ग्रोथ रेट पांच दशक के न्यूनतम स्तर पर है. एनपीए के कारण बैंकिंग उद्योग का पूंजी आधार सिकुड़ गया है. दरअसल, ऊंची ब्याज दरों की वजह रिजर्व बैंक की महंगाई नियंत्रण नीति नहीं है, बैंकों की बदहाली ही ब्याज दरों में कमी को रोक रही है.

बैंकों की हालत दो साल में देश बदलने के दावों की चुगली खाती है. सरकार सूझ और साहस के साथ इस संकट से मुकाबिल नहीं हो सकी. पिछले साल अगस्त में आया बैंकिंग सुधार कार्यक्रम इंद्रधनुष बैंक कर्जों और घाटे की आंधी में उड़ गया. यह कार्यक्रम बैंकों के संकट को गहराई से समझने में नाकाम रहा. बैंकों के फंसे कर्जों को उनकी बैलेंस शीट से बाहर करने की जुगत चाहिए, लेकिन उसके लिए सरकार हिम्मत नहीं जुटा सकी. बैंकों का पूंजी आधार इतनी तेजी से गिरा है कि बजट से बैंकों में पैसा डालने (कैपिटलाइजेशन) से भी बात बनने की उम्मीद नहीं है.

यह समझ से परे था कि जब सरकारी बैंक पिछले कई दशकों की सबसे बुरी वित्तीय हालत में हैं तो सरकार ने अपने प्रमुख लोकलुभावन मिशन बैंकों पर लाद दिए. बैंकिंग का ऐसा इस्तेमाल सत्तर-अस्सी के दशक में होता था जब लोन मेले लगाए जाते थे. पिछले दो साल में शुरू हुई लगभग आधा दर्जन योजनाएं बड़े सरकारी बैंकों पर केंद्रित हैं. मुद्रा बैंक, स्टार्ट-अप इंडिया, सोने के बदले कर्ज तो सीधे कर्ज बांटने से जुड़ी हैं जबकि जन धन, बीमा योजनाएं और डायरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर सेवाओं में बैंकिंग नेटवर्क का इस्तेमाल होगा जिसकी अपनी लागत है. आज अगर मोदी सरकार की कई स्कीमों के जमीनी असर नहीं दिख रहे हैं तो उसकी वजह यह है कि बैंकों की वित्तीय हालत इन्हें लागू करने लायक है ही नहीं.

आइएमएफ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि एशिया की अन्य अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत के सरकारी बैंकों की हालत ज्यादा खराब है. 3 मई को जारी रिपोर्ट के मुताबिक, एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत में कुल (ग्रॉस) लोन में नॉन-परफॉर्मिंग एसेट का हिस्सा अन्य एशियन देशों की तुलना में सबसे ज्यादा है. कुल बैंक कर्ज के अनुपात में 6 फीसदी एनपीए के साथ भारत अब मलेशिया, इंडोनिशया और जापान ही नहीं, चीन से भी आगे है.


अच्छे मॉनसून से विकास दर में तेजी की संभावना है. इसे सस्ते कर्जों और मजबूत बैंकिंग का सहारा चाहिए, लोकलुभावन स्कीमों का नहीं. सरकार को दो साल के जश्न से बाहर निकलकर ठोस बैंकिंग सुधार करने होंगे, जिनसे वह अभी तक बचती रही है. बैंकिंग संकट अगर और गहराया तो यह ग्रोथ की उम्मीदों पर तो भारी पड़ेगा ही, साथ ही भारत के वित्तीय तंत्र की साख को भी ले डूबेगा, जो फिलहाल दुनिया के कई बड़े मुल्कों से बेहतर है.

1 comment:

sameer said...

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