Monday, December 26, 2016

न होती नोटबंदी तो ..

डिमॉनेटाइजेशन में क्‍या ऐसा है  जो हमें इसकी मंशा पर नहीं बल्कि इसे नतीजों को लेकर बहुत अााश्‍वस्‍त नहीं करता 

रकारी नीतियों का मूल्यांकन मंशा से नहीं बल्कि ठोस नतीजों पर होता है. इसलिए जब नीतियां उलझती हैं तो राजनेता अमूर्त उम्मीदों की लंबी रस्सी थमा देते हैं. नोटबंदी को लेकर उम्मीदों का दौर खत्म हो रहा हैअब बारी पहले आधिकारिक नतीजों की हैजिनकी तरफ बढ़ता चार बड़े सवालों से मुकाबिल है।

एकः कितना काला धन नकदी में थानोटबंदी से पहले तक आयकर छापों में औसतन पांच फीसदी अघोषित धन नकद (काले धन पर श्वेत पत्र 2012) के तौर पर मिला है. रिजर्व बैंक के पास लगभग उतनी नकदी पहुंच गई है जितनी बाजार में थी. कालिख वालों को बच निकलने का एक और मौका क्यों मिल रहा है?

दोः काले धन के खिलाफ निर्णायक लड़ाई जरूरी है लेकिन क्या नोटबंदी से इस पर लगाम लगी हैलगता है कि काला धन नए गुलाबी नोटों में बदल गया है. बैंक भ्रष्ट साबित हुए हैं और अब इंस्पेक्टर राज आने वाला है.

तीनः रोजगार को गहरी चोट पहुंची है फायदे होंगे भी कि नहीं ? पता नहीं कष्ट कितना लंबा होगा? पैसा निकालने से पाबंदियां कब हटेंगी?

चारः अगर इनकम टैक्स के छापे ही काला धन का इलाज थे तो पूरे देश को सजा देने की क्या जरूरत थी?

इन सवालों की रोशनी में नोटबंदी को लेकर चार तरह के निष्कर्ष हमारे सामने हैः

पहलाः नोटबंदी असफल हो चुकी है क्योंकि पूरे अभियान में दर्जनों छेद थे.
दूसराः नोटबंदी इतनी कामयाब नहीं हुई कि त्याग व बलिदान बेकार जाते महसूस न होते.
तीनः इसकी सफलता इसके बाद उठाए जाने वाले कदमों से तय होगी.
चारः काले धन के खिलाफ ऐसा कुछ क्या हो सकता था कि इस दर्द से गुजरना ही न पड़ता.

दरअसलनोटबंदी के पूरे अभियान को गौर से देखने पर कुछ तथ्य सामने आते हैंजिनकी नामौजूदगी में पूरी कवायद पटरी से उतर गई. अगर कुछ फैसले पहले ही हो गए होते तो क्‍या पता कि नोटबंदी का दर्द देने की जरूरत ही नहीं पड़ती. दिलचस्प यह भी है कि नोटबंदी को निर्णायक नतीजे तक पहुंचाने के लिए इन्हीं फैसलों को लागू किये बिना बात नहीं बनेगी।  

क्या नोटबंदी का दर्द टल सकता था और कैसे?

1. कितना नकद लेन-देन और कितनी नकदीनोटबंदी शुरू होते ही इनकम टैक्स अफसरों को पता चल गया था कि ज्यादातर काला धन कॉर्पोरेटसरकारी खजानेबिजनेसराजनैतिक दलवित्तीय कंपनियोंबैंक और धार्मिक संस्थाओं व ट्रस्ट का हिस्सा बनकर सफेद होने जा रहा है. नकदी रखने की कोई सीमा नहीं है. इनकम टैक्स नियमों के तहत व्यक्तिगत करदाताओं को नकद जमा (सोने की खरीद भी) को बताने की शर्त नहीं है जब तक कि आयकर विभाग अघोषित संपत्ति की जांच न करे. कारोबारी नकदी (कैश इन हैंड) को लेकर तो नियम ही नहीं है.

काले धन पर एसआइटी ने आयकर कानून में संशोधन के जरिए नकद लेन-देन के लिए तीन लाख रुपए और कारोबार में 15 लाख रुपए तक नकद की सीमा तय करने की सलाह दी थीजिसे लागू किए बिना बात नहीं बनेगी.  

2. कौन खरीद रहा है सोना और जमीनसोने-जेवरात की बड़े पैमाने पर खरीद बगैर पैन नंबर या पहचान के होती है. इस कारोबार में ग्राहक की पहचान (केवाइसी) निर्धारित करना जरूरी है. नोटबंदी के बाद बड़े पैमाने पर सोने की खरीद हुई. ठीक इसी तरह अगर बेनामी संपत्ति को रोकने का कानून और पहचान रजिस्टर करने का नियम लागू होता तो नोटबंदी के दौरान खासकर कृषि भूमि में बड़े निवेश न होते.
नोटबंदी के बाद सबसे बड़ी उम्मीद मकान-जमीन सस्ते होने की है. सर्किल रेट (सरकारी दर) और बाजार मूल्य के बीच अंतर यहां काले धन की वजह है. सर्किल रेट घटाकर इसे रोका जा सकता है जो नोटबंदी के पहले होना चाहिए था. यह काम बाद में भी हो सकेगाइस पर शक है क्योंकि राज्य सरकारें मुश्किल से तैयार होंगी. नतीजतन नई नकदी वापस जमीन की खरीद में लग जाएगी.

3. दर्जनों कंपनियां-दसियों खातेकाले धन की धुलाई के कानूनी तरीकेगैर-कानूनी तरीकों से कई गुना ज्यादा हैं. नोटबंदी से पहले बैंकों- कंपनियों में अकाउंटिंग रिफॉर्म (फोरेंसिक अकाउंटिंग) होने चाहिए थे ताकि दर्जनों कंपनियां और विदेश में ट्रस्ट बनाकर या राउंड ट्रिपिंगमल्टीपल अकाउंटघाटा दिखानेखर्च दिखानेकैपिटल बढ़ाकर नकदी की धुलाई न हो पाती. जीएसटी लागू करने के बाद अगर नोटबंदी आती तो शायद कामयाबी ज्यादा होती.

4. सियासत की कालिख राजनैतिक दलों के लिए इनकम टैक्स कानून (धारा 13 ए) के तहत छूट व गोपनीयता बरकरार रखकर सरकार ने पूरे अभियान की साख को पलीता लगा लिया. राजनैतिक दलों के लिए 20,000 रुपए से कम की राशि को सार्वजनिक न करने की छूट है. ज्यादातर काला चंदा इसी छेद से आता है. 2005 से 2013 के बीच बीजेपी और कांग्रेस सहित पांच प्रमुख दलों के कुल 5,000 करोड़ रुपए के चंदे का 73 फीसदी हिस्सा अज्ञात स्रोतों से आया. सरकार अगर काले धन वालों को राहत देने के लिए नोटबंदी के बीच में ही कानून बदल सकती थी तो सियासत के लिए कानून क्यों नहीं बदला जा सकता?


सरकारों की मंशा कभी खराब नहीं होती. युद्ध भी शांति के इरादे के साथ लड़े जाते हैं. सरकारी नीतियों की सफलता उनके नतीजों से तय होती है. नोटबंदी के दो माह पूरे होने के बाद 30 दिसंबर को प्रधानमंत्री मोदी (यदि) देश से बात करेंगे तो उनके आह्वान पर ''पस्या" कर चुके लोग अब नोटबंदी के पीछे की मंशा नहीं बल्कि नतीजों पर जवाब की अपेक्षा करेंगे. 



सरकार में सबको मालूम है कि नकदीकॉर्पोरेट अकाउंटिंगअचल संपत्ति और राजनैतिक चंदे के नियम बदल कर ही नतीजे सामने आ सकते हैं. प्रधानमंत्री को अब यह साबित करना होगा कि नोटबंदी से उन ''खा" लोगों की जिंदगी पर क्या असर पड़ा जिन्हें सजा देने के लिए आम लोगों को गहरी यंत्रणा से गुजरना पड़ रहा है.

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