Saturday, October 5, 2019

इनके जीते, जीत है


मंदी का इलाज है कहांवहीं जहां इसका दर्द तप रहा हैदरअसलमेक इन इंडिया के मेलों की शुरुआत (2014) तक भारतीय अर्थव्यवस्थाएक दशक तक अपने इतिहास की सबसे तेज विकास दर के बाद ढलान की तरफ जाने लगी थीलेकिन 2015 में जीडीपी का नवनिर्मित (फॉर्मूलानक्कारखाना गूंज उठा और भारत की स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं के दरकने के दर्द को अनसुना कर दिया गयाअलग-अलग सूबों के निवेश उत्सवों में निवेश के जो वादे हुएअगर उनका आधा भी आया होता तो हम दो अंकों की विकास दर में दौड़ रहे होते.

खपत और निवेश टूटने से आई इस मंदी की चुभन देश भर में फैली राज्य और नगरीय अर्थव्यवस्थाओं में जाकर महसूस की जा सकती हैजो पिछले दशक में मांग और नए रोजगारों का नेतृत्व करती रही हैं. 1995 से 2012 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था का क्षेत्रीयस्थानीय और अंतरराज्यीय स्वरूप पूरी तरह बदल चुका हैपिछले सात-आठ वर्षों की नीतियां इस बदलाव से कटकर हवा में टंग गई हैंइसलिए मंदी पेचीदा हो रही है

भारतीय अर्थव्यवस्था की बदली ताकत का नया वितरण काफी अनोखा हैजिसे मैकेंजी जैसी एजेंसियांआर्थिक सर्वेक्षण और सरकार के आंकड़े नापते-जोखते रहे हैं.

·       दिल्ली में सरकार चाहे जो बनाते हों लेकिन भारत को मंदी से निकालने का दारोमदार 12 अत्यंत तेज और तेज विकास दर वाले राज्यों पर है. 2002-12 के दौरान इनमें से आठ की विकास दर भारत के जीडीपी से एक फीसद ज्यादा थीगोवाचंडीगढ़दिल्लीपुदुच्चेरीहरियाणामहाराष्ट्रगुजरातकेरलहिमाचलतमिलनाडुपंजाब और उत्तराखंड आज देश का 50 फीसद जीडीपी और करीब 58 फीसद उपभोक्ताओं की मेजबानी करते हैंअगले सात साल में इनमें आठ से दस राज्य यूरोप की छोटे देशों जैसी अर्थव्यवस्था हो जाएंगेमंदी से लड़ाई की अगुआई इन्हें ही करनी है.

·       अगले सात साल में भारत की करीब 38 फीसद आबादी (करीब 55-58 करोड़ लोगनगरीय होगीभारत के 65 नगरीय जिले (जैसे दिल्लीनोएडाहुगलीनागपुररांचीबरेलीइंदौरनेल्लोरउदयपुरकोलकातामुंबईसूरतराजकोट आदिदेश की खपत का नेतृत्व करते हैंदेश की करीब 26 फीसद आबादी, 45 फीसद उपभोक्ता वर्ग और 37 फीसद खपत और 40 फीसद जीडीपी इन्हीं में केंद्रित हैअगले पांच साल में खपत के सूरमा जिलों की संख्या 79 हो जाएगीखपत बढ़ाने की रणनीति इन जिलों के कंधों पर सवार होगी.

·       यूं ही नहीं भारत में रोजगार के अवसर गिने-चुने इलाकों में केंद्रित हैंलगभग 49 क्लस्टर (उद्योगनगरबाजारभारत मे जीडीपी में 70 फीसद का योगदान करते हैंइनके दायरे में करीब 250 से 450 शहर आते हैंयही रोजगार का चुंबक हैं और यहीं से बचत गांवों में जाती हैभारत के अंतरदेशीय प्रवास के ताजा अध्ययन इन केंद्रों के आकर्षण का प्रमाण हैंदुर्भाग्य से नोटबंदी और जीएसटी की तबाही का इलाका भी यही है.

2008 के बाद दुनिया में आए संकट को करीब से देखने के बाद दुनिया के कई देशों में यह महसूस किया गया कि उनकी स्थानीय समृद्धि कुछ दर्जन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के पास सिमट गईजबकि अगर स्थानीय अर्थव्यवस्था में 100 डॉलर लगाए जाएं तो कम से 60 फीसद पूंजी स्थानीय बाजार में रहती हैइसके आधार पर दुनिया में कई जगह लोकल इकोनॉमी (आर्थिक भाषा में लोकल मल्टीप्लायरताकत देने के अभियान शुरू हुएबैंकिंग संकट और ब्रेग्जिट के बीच उत्तर इंग्लैंड के शहर प्रेस्टन का लोकल ग्रोथ मॉडल चर्चा में रहा हैजहां उपभोक्ताओं से जुटाए गए टैक्स और संसाधनों का स्थानीय स्तर पर इस्तेमाल किया गया.

कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती से मांग या रोजगार बढ़ने के दावे जड़ नहीं पकड़ रहे हैंबार्कलेज बैंक ने हिसाब लगाया हैअगर अपने मुनाफे पर टैक्स देने वाली कंपनियों की कारोबारी आय पिछले वर्षों की रफ्तार से बढे़ (जो कि मुश्किल हैतो यह कटौती जीडीपी को ज्यादा से ज्यादा 5.6 फीसद तक ले जाएगी और अगर आय कम हुई (जो कि तय लग रहा हैतो कॉर्पोरेट कर में कमी से जीडीपी हद से हद 5.2 फीसद तक जाएगायानी करीब 1.5 लाख करोड़ रुपए के तोहफे के बदले छह फीसद की ग्रोथ भी दुर्लभ है.
रोजगारों के बाजार में बड़ी कंपनियों की भूमिका पहले भी सीमित थी और आज भी हैहमारे पड़ोस की ग्रोथ फैक्ट्रियों और बाजारों के सहारे ही भारत की उपभोक्ता खपत 2002 से 2012 के बीच हर साल सात फीसद (7.7 फीसद की जीडीपी ग्रोथ के लगभग बराबरबढ़ी और निवेश जीडीपी के अनुपात में 35 फीसद के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचानतीजा यह हुआ कि करीब 14 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकले और लगभग 20 करोड़ लोग इंटरनेट से जुड़ गए.

रोजगार और खपत बढ़ाने के लिए ज्यादा नहीं केवल एक दर्जन राज्य स्तरीय और 50 स्थानीय रणनीतियों की जरूरत हैअब मेक इन इंडिया की जगह मेक इन लुधियानापुणेकानपुरबेंगलूरूसूरतचंडीगढ़ की जरूरत हैइन्हीं के दम पर मंदी रोकी जा सकती हैयाद रहे कि भारत का कीमती एक दशक पहले ही बर्बाद हो चुका है.



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