Saturday, January 4, 2020

बीस की बीमारी


·       भारत में हर साल करीब 4.6 फीसद लोग केवल इलाज के खर्च के कारण गरीब हो जाते हैं. (पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडियापीएचएफआइकी सर्वे रिपोर्ट)
·       पांच लाख से ज्यादा ग्रामीण और नगरीय लोगों के बीच एनएसएसओ के सर्वे से पता चला कि पूरे देश में आठ फीसद लोग पिछले पंद्रह दिन में किसी  किसी बीमारी के शिकार हुए हैं. 45 से 59 साल के आयु वर्ग में 100 में 12 लोग और 60 साल से ऊपर की आबादी में 100 में 27 लोग हर पखवाड़े इलाज कराते हैं


इन तथ्यों से किसी धार्मिक या जातीय भावनाओं में कोई उबाल नहीं आताये कोई रोमांच नहीं जगाते फिर भी हम उनसे नजरें मिलाते हुए डरते हैंकड़कड़ाती ठंड में खून खौलाऊ राजनीति के बीच हमारे पास बीमारियों को लेकर कुछ ताजा सच हैंबीमारीभूखबेकारीबुढ़ापापर्यावरण की त्रासदीइन सबको लेकर हमने जो लक्ष्य तय किए थे अब बारी उनकी हार-जीत के नतीजे भुगतने की है.

बीते माह सरकार की सर्वे एजेंसी (एनएसएसओने नया हेल्थ सर्वेक्षण जारी किया जो जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच हुआ थाआखिरी खबर आने तक सरकार ने इसे नकारा नहीं थाइन आंकड़ों को स्वतंत्र सर्वेक्षणों (पीएचएफआइऔर विश्व बैंक (2018), डब्ल्यूएचओ (2016), लैंसेट (दिसंबर 2017) और आर्थिक समीक्षा (2017-18) के साथ पढ़ने पर 2020 की शुरुआत में हमें भारतीयों की सेहत और स्वास्थ्य सुविधाओं की जो तस्वीर मिलती है,
वह आने वाले दशक की सबसे बड़ी चिंता होने वाली है. 
·       अस्पताल में भर्ती होने वालों (प्रसव के अलावाकी संख्या लगातार बढ़ रही हैनगरीय आबादी बीमारी से कहीं ज्यादा प्रभावित हैसबसे ज्यादा बुरी हालत महिलाओं और बुजर्गों की हैगांवों में 100 में आठ और नगरों में दस महिलाएं हर पंद्रह दिन में बीमार पड़ती हैंलेकिन अस्पताल में भर्ती होने के मामले में इनकी संख्या पुरुषों से कम हैइसकी एक बड़ी वजह महिलाओं की उपेक्षा हो सकती है 

·       इलाज के लिए निजी अस्पताल ही वरीयता पर हैंकरीब 23 फीसद बीमारियों का इलाज निजी अस्पतालों में और 43 फीसदी का प्राइवेट क्लीनिक में होता हैसरकारी अस्पताल केवल 30 फीसद हिस्सा रखते हैं 

·       केवल 14 फीसद ग्रामीण और 19 फीसद नगरीय आबादी के पास सेहत का बीमा हैग्रामीण इलाकों में निजी बीमा की पहुंच सीमित है

·       और अंततभारत के गांवों में अस्पताल में भर्ती पर (विभिन्न बीमारियों के इलाज के लिए भर्ती अवधि‍ के औसत पर आधारितखर्च 16,676 रुपए है जबकि शहरों में करीब 27,000 रुपए.

तो प्रधानमंत्री आयुष्मान से क्या फर्क पड़ायह स्कीम अभी तो अस्पतालों के फ्रॉडनकली कार्डोंराज्यों के साथ समन्वयबीमा कंपनियों के नखरेइलाज की दरों में असमंजस से जूझ रही है लेकिन दरअसल यह स्कीम भारत की बीमारी जनित गरीबी का इलाज नहीं हैयह स्कीम तो गंभीर बीमारियों पर अस्पतालों में भर्ती के खर्च का इलाज करती हैयहां मुसीबत कुछ दूसरी है.

भारत में हर साल जो 5.5 करोड़ लोग बीमारी की वजह से गरीब हो जाते हैंउनमें 72 फीसद खर्च केवल प्राथमिक चिकित्सा पर हैपीएचएफआइ का सर्वे बताता है कि इलाज से गरीबी की 70 फीसद वजह महंगी दवाएं हैंएनएसएओ का सर्वे बताता है कि भारत में इलाज का 70-80 फीसद खर्च गाढ़ी कमाई की बचत या कर्ज से पूरा होता हैसनद रहे कि शहरों में 1,000 रुपए और गांवों में 816 रुपए प्रति माह खर्च कर पाने वाले लोग गरीबी की रेखा से नीचे आते हैं.

जिंदगी बचाने या इलाज से गरीबी रोकने के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य नेटवर्क चाहिए जो पूरी तरह ध्वस्त हैभारत में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च बांग्लादेशनेपाल और घाना से भी कम है और डॉक्टर या अस्पताल बनाम मरीज का औसत डब्ल्यूएचओ पैमाने से बहुत नीचे है.
अगर हम हकीकत से आंख मिलाना चाहते हैं तो हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि

·       रोजगार की कमी और आय-बचत में गिरावट के बीच बीमारियां बढ़ रही हैं और गरीबी बढ़ा रही हैं

·       भारत में निजी अस्पताल बेहद महंगे हैंखासतौर पर दवाओं और जांच की कीमतें बहुत ज्यादा हैं

·       अगले पांच साल में देश के कई राज्यों में बुजुर्ग आबादी में इजाफे के साथ स्वास्थ्य एक गंभीर संकट बनने वाला है

अगर इन हकीकतों को सवालों में बदलना चाहें तो हमें सरकार से पूछना होगा कि जब हम टैक्स भरने में कोई कोताही नहीं करते हैंहर बढ़े हुए टैक्स को हंसते हुए झेलते हैंहमारी बचत पूरी तरह सरकार के हवाले है तो फिर स्वास्थ्य पर खर्च जो 1995 में जीडीपी का 4 फीसद था वह 2017 में केवल 1.15 फीसद क्यों रह गया?

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