Saturday, February 15, 2020

अपने-अपने बिजली-पानी




बाइबल कथाओं के कि‍रदार गोलिएथ ने अपनी सभी जंग अपने विशाल शरीर, भारी कवच और लंबे भाले की बदौलत जीती थीं. जीत के तजुर्बों से लैस महाकाय गोलिएथ के आत्मविश्वास के सामने गुलेलबाज बौना डेविड कुछ था ही नहीं. लेकिन डेविड ने तो लड़ाई का तरीका ही बदल दिया. महाकाय गोलिएथ भरभराकर ढह गया. सनद रहे कि इस संघर्ष के बाद वीरता की कहानियां नए तरीके से लिखी गईं.

अचरज नहीं कि राजनैतिक चैतन्य से भरपूर नगरीय दिल्ली में केजरीवाल की भव्य वापसी के बाद अब कई राज्यों में डेविड अपनी गुलेलें बनाने लगें. संभव है, सस्ती बिजली या पानी, भावनाएं उबालने वाली सियासत को करंट मारने का नुस्खा या भारतीय इतिहास की सबसे ताकतवर चुनावी मशीन को रोकने का मंत्र मान लिया जाए.
इससे पहले कि दूसरे राज्य केजरीवाल मॉडल पर रीझ कर बिजली बोर्डों के घाटे, राजस्व में कमी और कर्ज के बावजूद आत्मघात कर बैठें, इस अनोखे जनादेश के नीतिगत फलित को समझना जरूरी है.

सभी लोगों को सस्ती या आंशि मुफ्त बिजली-पानी की सूझ भले ही पूरी तरह लोकलुभावन उद्देश्यों से निकली हो लेकिन अन्य राज्यों की तुलना में दिल्ली सरकार ने इस दूरगामी कदम का अर्थशास्त्र बखूबी साध लिया.

दिल्ली देश के उन चुनिंदा राज्यों में है जिनके पास घाटे का बोझ नहीं है और राजस्व भरपूर है. कई बड़े खर्च (पुलिस, बडे़ अस्पताल, मेट्रो आदि) केंद्र के हवाले हैं. रोजगार दिल्ली सरकार के लिए उतनी बड़ी चुनौती नहीं है क्योंकिरोजगार के बिना दिल्ली में बसना असंभव है. दिल्ली में आम लोगों की चुनौती कम वेतन और महंगी जिंदगी है. आंशिक मुफ्त बिजली और पानी देकर सरकार ने जिंदगी जीने की लागत कुछ कम कर दी या फिर सस्ती दवाओं के साथ प्राथमिक चिकित्सा का बोझ कुछ कम कर दिया जो कि भारत में औसत लोगों की बीमारी जनित गरीबी की सबसे बड़ी वजह है.

अगर इस जनादेश से राज्य की सरकारें (भाजपा भी) कुछ सीखना चाहें तो उन्हें विकास की स्थानीय स्तर की जरूरतों को परखकर आर्थिक राजनीति और स्कीमों में बड़े बुनियादी बदलाव करने होंगे.

पहली जरूरत है कि केंद्रीय स्कीमों का दबदबा सीमित किया जाए और संसाधनों के इस्तेमाल में स्वाधीनता ली जाए.

राज्यों को स्कीमों की बहुतायत रोक कर लोगों की आय बढ़ाने या खर्च घटाने वाले एक या दो बड़े कार्यक्रम चलाने होंगे. दिल्ली की सरकार ने बिजली-पानी के साथ वही किया जो पिछली भाजपा सरकार ने सस्ते अनाज के साथ छत्तीसगढ़ में किया था या फिर तेलंगाना ने खेती के साथ किया. अधिकांश बड़े राज्य सब कुछ करने की कोशि में कुछ भी नहीं कर पाते.

वक्त अब मदद सीधे पहुंचाने का है. चाहे वह सस्ती सेवाओं के तौर पर हो या फिर किसान सम्मान जैसी प्रत्यक्ष मदद का. अधिकांश राज्यों के पास ऐसी स्कीमों की सूझ तक नहीं है

हर राज्य को एक दो मेगा स्कीम बनाने के लिए अपने खर्च काटने होंगे. या फिर राजस्व बढ़ाना होगा. केंद्र से मिलने वाले संसाधन कम होने वाले हैं. दिल्ली को दोहराने के लिए अचूक बजट प्रबंधन पहली शर्त है. पता नहीं, कितने राज्य इसे लेकर सतर्क हैं?

अब वक्त यूनिवर्सल यानी सभी को फायदा देने वाली स्कीमों का है. दिल्ली में बिजली-पानी की रियायत सबके लिए थी. भारतीय स्कीमों में भ्रष्टाचार या चोरी सिर्फ इसलिए पनपती है क्योंकि स्कीमें सभी के लिए एक समान नहीं होतीं. इनके लिए लाभार्थी चुने जाते हैं और वहीं भ्रष्टाचार होता है.

अधिकांश राज्यों में राज करती रही डबल इंजन वाली सरकारों के तमाम भाजपाई दिग्गज दिल्ली की जनता के सामने सफल सरकारी स्कीम, आदर्श गांव, स्मार्ट सिटी, जीवन स्तर में बेहतरी का एक ठोस नमूना भी पेश नहीं कर सके. वजह यह कि केंद्रीय स्कीमें सर्व प्रासंगि नहीं हो पा रही हैं. उनकी सफलताएं थोथी और सीमित हैं, उनके बारे में ढोल बजाकर बताना पड़ता है जबकि सरकारों का काम दिखना और महसूस होना चाहिए.

किसान कर्ज की चुनावी माफी के दिन लद गए. इतिहास बन रहीं रेवडि़यां भी जनकल्याण के नाम पर अफसरों और पार्टी के फाइनेंसर ठेकेदारों को बांटी जाती हैं. मंदी और बढ़ती नीतिगत असफलताओं के बीच राज्यों को नीतिगत प्रयोग का साहस दिखाना होगा. जमीनी आंकड़ों, बुनियादी जरूरतों और बजट की सीमाओं के अचूक मीजान के साथ राज्यों को अपने-अपने सस्ते बिजली-पानी तलाशने होंगे, जिनका असर सीधे महसूस किया जा सके.

कोई सरकार लोगों की जिंदगी बदल नहीं सकती लेकिन भारत में राज्य सरकारें असंख्य लोगों की जिंदगी आसान जरूर कर सकती हैं. महंगाई, बेकारी, बीमारी से लड़ने की एक नहीं 29 रणनीतियां चाहिए. सनद रहे कि तमाम प्रपंच के बावजूद भारत का गुमनाम वोटर नेताओं को डरा कर रखने का तरीका भूला नहीं है.


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