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Tuesday, August 11, 2015

पटकथा बदलने का मौका


मोदी जब अगले सप्ताह लाल किले की प्राचीर से देश से मुखातिब होंगे तो देश उनसे नैतिक शिक्षा व स्‍कीम राज नहीं बल्कि दो टूक सुधार सुनना चाहेगा 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्या 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से रेलवे, रिटेल और बैंकिंग जैसे बड़े आर्थिक सुधारों की घोषणा करने की हिम्मत जुटा सकते हैं? क्या मोदी ऐलान करेंगे कि संसद के शीत सत्र में एक विधेयक आएगा जो उच्च पदों पर हितों का टकराव रोकने का कानूनी इंतजाम करता हो? क्या यह घोषणा हो सकती है कि सरकार कानून बनाकर सभी खेल संघों में सियासी मौजूदगी खत्म करेगी? क्या प्रधानमंत्री इस ऐलान का साहस दिखा सकते हैं कि राजनैतिक दलों के चंदे की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए छह माह में कानून बन जाएगा?
प्रधानमंत्री ने देश से यह पूछा है न कि लोग स्वाधीनता दिवस पर उनसे सुनना क्या चाहते हैं, तो यह रही अपेक्षाओं सूची. यकीनन, देश अब उनसे नैतिक शिक्षा नहीं सुनना चाहेगा. नई स्कीमों की घोषणाएं तो हरगिज नहीं.
जब किसी दल के पास भव्य जनादेश हो, विपक्ष बुरी तरह टूट चुका हो, केंद्र के साथ देश के 11 राज्यों में उस दल या उसके दोस्तों की सरकार हो, उस दल की सरकार, दरअसल, पिछली सरकार की ही नीतियां लागू कर रही हो और पिछली सरकार चलाने वाली पार्टी अपना राजनैतिक मूलधन भी गवां चुकी हो तो फिर संसद न चल पाने की वजह सिर्फ मुट्ठी भर विपक्ष की उग्रता नहीं है. मोदी सरकार को यह सवाल अब खुद से पूछना होगा कि पिछले 15 अगस्त से इस 15 अगस्त के बीच उसने ऐसा क्या-क्या कर दिया है जिससे हताश विपक्ष को ऐसी एकजुटता और ऊर्जा मिल गई है.
एनडीए सरकार की उलझनों का मजमून मानूसन सत्र में संसदीय गतिरोध की धुंध के पार छिपा है. सरकार एक साल के भीतर ही विश्वसनीयता की दोहरी चुनौती से मुकाबिल है, जो यूपीए की दूसरी पारी से ज्यादा बड़ी है. पहली चुनौती यह है मोदी सरकार भारतीय लोकतंत्र के तीन अलिखित मूल्यों पर कमजोर दिख रही है, जो बहुमत से भरपूर सरकारों को भी अप्रासंगिक कर देते हैं. पहला नियम यह है कि किसी भी स्थिति में सरकार को अभिव्यक्ति की आजादी को रोकते हुए नजर नहीं आना चाहिए. दूसरा सिद्धांत है कि बहुमत हो या अल्पमत, विपक्ष को साथ लेकर चलने की क्षमता होनी चाहिए और तीसरा नियम जो हाल में ही जुड़ा है कि उच्च पदों पर पारदर्शिता को लेकर कोई भी समझौता साख पर बुरी तरह भारी पड़ सकता है.
इस साल में मार्च में अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश की दलील (सूचना तकनीक कानून की धारा 66 ए) खारिज होने के बाद सरकार को चेत जाना चाहिए था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट में (आधार केस) निजता को मौलिक अधिकार न मानने की ताजा दलील, वेबसाइट पर प्रतिबंधों और उनकी वापसी, सूचना के अधिकार पर रोक और स्वयंसेवी संस्थाओं पर चाबुक चलाते हुए लगातार सरकार संकेत दे रही है कि वह कुछ मौलिक आजादियों को लेकर सहज नहीं है. संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष को साथ लेकर चलना 'रकार' होने के लिए अनिवार्य है. राजीव गांधी के 413 सदस्यों के बहुमत के सामने 15 सदस्यों का विपक्ष नगण्य था लेकिन उसे नकारने का नतीजा इतिहास में दर्ज है. बीजेपी को कांग्रेस से मिले सबक की रोशनी में ही उच्च पदों पर पारदर्शिता को लेकर क्रांतिकारी हदों तक सख्त होना चाहिए था. अलबत्ता लोकसभा में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज जब फरार ललित मोदी की मदद को उनकी बीमार पत्नी की मदद मानने की भावुक अपील कर रही थीं तो स्वराज और मोदी परिवार के कारोबारी रिश्तों का अतीत पीछे से झांक रहा था.
सबसे बड़ी असंगति यह है कि भारतीय लोकतंत्र के इन तीन मूल्यों को बीजेपी से बेहतर कोई नहीं समझता, जिसका पूरा राजनैतिक जीवन कांग्रेस के साथ इन्हीं को लेकर लड़ते और उत्पीडऩ झेलते बीता है. लेकिन बीजेपी ने एक साल के भीतर ही उस कांग्रेस को अभिव्यक्ति की आजादी, विपक्ष की अहमियत और पारदर्शिता का सबसे बड़ा पैरोकार बना दिया जो हमेशा इन मूल्यों पर अपने कमजोर अतीत को लेकर असहज रही है.
दूसरी चुनौती भी हलकी नहीं है. मोदी को यह नहीं भूलना होगा कि वे खुले बाजार की पैरोकारी, निजीकरण, सुधार और निजी उद्यमिता को बढ़ावा देने के मॉडल को बखानते हुए सत्ता में आए थे लेकिन पिछले एक साल में उनके नेतृत्व में जो गवर्नेंस निकली है उसमें रेलवे सुधार, बैंकिंग सुधार, सब्सिडी पुनर्गठन, प्रशासनिक सुधार जैसे साहसी फैसले नहीं दिखते. सरकार तो नए सार्वजनिक स्टील प्लांट (राज्यों के साथ) लगा रही है, कांग्रेस की तरह सार्वजनिक उपक्रमों की अक्षमता को ढंक रही है, सरकारी स्कीमों की कतार खड़ी कर रही है, नए मिशन और नौकरशाही गढ़ रही है और सब्सिडी बांटने के नए तरीके ईजाद कर रही है. सामाजिक स्कीमों पर आपत्ति नहीं है लेकिन गवर्नेंस में सुधार का साहस दिखाए बगैर पुराने सिस्टम पर नए मिशन और स्कीमें थोप दी गई हैं. इसलिए हर मिशन सांकेतिक सफलताओं से भी खाली है.
मोदी सरकार से अपेक्षा थी कि वह लोकतांत्रिक मूल्यों और उदारीकरण के नए प्रतिमान गढ़ेगी जो न केवल गवर्नेंस की कांग्रेसी रीति-नीति से अलग होंगे बल्कि विपक्ष के तौर पर बीजेपी की भूलों का प्रतिकार भी करेंगे. लेकिन मोदी सरकार पता नहीं क्यों यह साबित करना चाहती है कि बड़ी सफलताएं अपना विरोधी चरम (ऐंटी क्लाइमेक्स) साथ लेकर आती हैं?

यह कतई जरूरी नहीं है कि संक्रमण का क्षण आने में वर्षों का समय लगे, कभी-कभी एक संक्रमण के तत्काल बाद दूसरा आ सकता है. 2014 नरेंद्र मोदी के पक्ष में आए जनादेश को भारत के ताजा इतिहास का सबसे बड़ा संक्रमण मानने वाले शायद अब खुद को संशोधित करना चाहते होंगे, क्योंकि असली संक्रमण तो दरअसल अब आया है जब मोदी सत्ता में एक साल गुजार चुके हैं और उम्मीदों का उफान ऊब, झुंझलाहट और मोहभंग की नमी लेकर बैठने लगा है. मोदी जब अगले सप्ताह लाल किले की प्राचीर से देश से मुखातिब होंगे तो देश उनसे 'न की बात' नहीं बल्कि गवर्नेंस की दो टूक सुनना चाहेगा, क्योंकि देश के लोग इस बात को एक बार फिर पुख्ता करना चाहते हैं कि उन्होंने कमजोर कंधों पर अपनी उम्मीदों का बोझ नहीं रखा है.

Tuesday, April 7, 2015

मौके जो चूक गए

मोदी और केजरीवाल दोनों ही तल्ख हकीकत की एक जैसी जमीन पर खड़े हैं. अपेक्षाओं का ज्वार नीचे आया है. नेताओं को महामानव और मसीहा बनाने की कोशिशों पर विराम लगा है.

भारतीय जनता पार्टी में लोकसभा चुनाव से पहले जो घटा था वैसा ही आम आदमी पार्टी में दिल्ली चुनाव के बाद हुआ. फर्क सिर्फ यह था कि आडवाणी के आंसू, सुषमा स्वराज की कुंठा, वरिष्ठ नेताओं का हाशिया प्रवास मर्यादित और शालीन थे जबकि आम आदमी पार्टी में यह अनगढ़ और भदेस ढंग से हुआ, जो गली की छुटभैया सियासत जैसा था. फिर भी भाजपा और आप में यह एकरूपता इतनी फिक्र पैदा नहीं करती जितनी निराशा इस पर होती है कि भारत में नई गवर्नेंस और नई राजनीति की उम्मीदें इतनी जल्दी मुरझा रही हैं और दोनों के कारण एक जैसे हैं. नरेंद्र मोदी बीजेपी में प्रभुत्वपूर्ण राजनीति लेकर उभरे थे इसलिए वे सरकार में अपनी ही पार्टी के अनुभवों का पर्याप्त समावेश नहीं कर पाए जो गवर्नेंस में दूरगामी बदलावों के लिए एक तरह से जरूरी था, नतीजतन उनकी ताकतवर सरकार, वजनदार और प्रभावी नहीं हो सकी. दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल ने सत्ता में पहुंचते ही समावेशी राजनीति की पूंजी गंवा दी, जो उन्हें औरों से अलग करती थी.
आम आदमी पार्टी का विघटन, किसी पारंपरिक राजनीतिक दल में फूट से ज्यादा दूरगामी असर वाली घटना है. यह पार्टी उस ईंट गारे से बनती नहीं दिखी थी जिससे अन्य राजनैतिक दल बने हैं. परिवार, व्यक्ति, पहचान या विचार पर आस्थाएं भारत की पारंपरिक दलीय राजनीति की बुनियाद हैं, जो भले ही पार्टियों को दकियानूसी बनाए रखती हों लेकिन इनके सहारे एकजुटता बनी रहती है. केजरीवाल के पास ऐसी कोई पहचान नहीं है. उनकी 49 दिन की बेहद घटिया गवर्नेंस को इसलिए भुलाया गया क्योंकि आम आदमी पार्टी सहभागिता, पारदर्शिता और जमीन से जुड़ी एक नई राजनीति गढ़ रही थी, जिसे बहुत-से लोग आजमाना चाहते थे. 
'आप' का प्रहसन देखने के बाद यह कहना मुश्किल है कि इसके अगुआ नेताओं में महत्वाकांक्षाएं नहीं थीं या इस पार्टी में दूसरे दलों जैसी हाइकमान संस्कृति नहीं है. अलबत्ता जब आप आदर्श की चोटी पर चढ़कर चीख रहे हों तो आपको राजनीतिक असहमतियों को संभालने का आदर्शवादी तरीका भी ईजाद कर लेना चाहिए. केजरीवाल की पार्टी असहमति के एक छोटे झटके में ही चौराहे पर आ गई जबकि पारंपरिक दल इससे ज्यादा बड़े विवादों को कायदे से संभालते रहे हैं.
दिल्ली की जीत बताती है कि केजरीवाल ने गवर्नेंस की तैयारी भले ही की हो लेकिन एक आदर्श दलीय सियासत उनसे नहीं सधी जो बेहतर गवर्नेंस के लिए अनिवार्य है. दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर लोग केजरीवाल की सीमाएं जानते हैं, अलबत्ता नई राजनीति के आविष्कारक के तौर पर उनसे अपेक्षाओं की फेहरिस्त बहुत लंबी थी. केजरीवाल के पास पांच साल का वक्त है. वे दिल्ली को ठीक-ठाक गवर्नेंस दे सकते हैं लेकिन वे अच्छी राजनीति देने का मौका चूक गए हैं. राजनीतिक पैमाने पर आम आदमी पार्टी  अब सपा, बीजेडी, तृणमूल, डीएमके जैसी ही हो गई है जो एक राज्य तक सीमित हैं. इस नए प्रयोग के राष्ट्रीय विस्तार की संभावनाओं पर संदेह करना जायज है.
केजरीवाल के समर्थक, जैसे आज योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पार्टी के लिए गैर जरूरी और बोझ साबित कर रहे हैं, ठीक इसी तरह नरेंद्र मोदी के समर्थक उस वक्त पार्टी की पुरानी पीढ़ी को नाकारा बता रहे थे जब बीजेपी की राष्ट्रीय राजनीति में मोदी युग की शुरुआत हो रही थी. नौ माह में मोदी की लोकप्रियता में जबर्दस्त गिरावट (इंडिया टुडे विशेष जनमत सर्वेक्षण) देखते हुए यह महसूस करना मुश्किल नहीं है कि गवर्नेंस में मोदी की विफलताएं भी शायद उनके राजनीति के मॉडल से निकली हैं जो हाइकमान संस्कृति और पार्टी में असहमति रखने वालों को वानप्रस्थ देने के मामले में कांग्रेस से ज्यादा तल्ख और दो टूक साबित हुआ.
प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी के संकल्प और सदाशयता के बावजूद अगर एक साल के भीतर ही उनकी सरकार किसी आम सरकार जैसी ही दिखने लगी है तो इसकी दो वजहें हैं. एक-मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने गवर्नेंस के लिए कोई तैयारी नहीं की थी और दो-विशाल बहुमत के बावजूद एक प्रभावी सरकार आकार नहीं ले सकी. बीजेपी चुनाव से पहले अपनी सरकार का विजन डाक्यूमेंट तक नहीं बना सकी थी. घोषणा पत्र तो मतदान शुरू होने के बाद आया. चुनाव की ऊभ-चूभ में ये बातें आई गई हो गईं लेकिन सच यह है कि बीजेपी नई गवर्नेंस के दूरदर्शी मॉडल के बिना सत्ता में आ गई क्योंकि गवर्नेंस की तामीर गढऩे का काम ही नहीं हुआ और ऐसा करने वाले लोग हाशिए पर धकेल दिए गए थे. यही वजह है कि सरकार ने जब फैसले लिए तो वे चुनावी संकल्पों से अलग दिखे या पिछली सरकार को दोहराते नजर आए.
सत्ता में आने के करीब साल भर बाद भी मोदी अगर एक दमदार अनुभवी और प्रतिभाशाली सरकार नहीं गढ़ पा रहे हैं जो इस विशाल देश की गवर्नेंस का रसायन बदलने का भरोसा जगाती हो तो शायद इसकी वजह भी उनका राजनीतिक तौर तरीका है. मोदी केंद्र में गुजरात जैसी गवर्नेंस लाना चाहते थे पर दरअसल वे बीजेपी को चलाने का गुजराती मॉडल पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति में ले आए, जो सबको साथ लेकर चलने में यकीन ही नहीं करता या औसत टीम से खेलने को बहादुरी मानता है. एनडीए की पिछली सरकार का पहला साल ही नहीं बल्कि पूरा कार्यकाल दूरदर्शी फैसलों से भरपूर था. विपरीत माहौल और गठजोड़ की सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी इतना कुछ इसलिए कर सके क्योंकि उनके पास गवर्नेंस का स्पष्ट रोड मैप था और उन्हें सबको सहेजने, सबका सर्वश्रेष्ठ सामने लाने की कला आती थी.
राजनीति और गवर्नेंस गहराई से गुंथे होते हैं. मोदी और केजरीवाल इस अंतरसंबंध को कायदे से साध नहीं सके. अब दोनों ही तल्ख हकीकत की एक जैसी जमीन पर खड़े हैं. अपेक्षाओं का ज्वार नीचे आया है. नेताओं को महामानव और मसीहा बनाने की कोशिशों पर विराम लगा है. मोदी और केजरीवाल के पास उद्घाटन के साथ ही कड़वी नसीहतों का अभूतपूर्व खजाना जुट गया है. सरकारों की शुरुआत बेहद कीमती होती है क्योंकि कर दिखाने के लिए ज्यादा समय नहीं होता. मोदी और केजरीवाल ने गवर्नेंस और सियासत की शानदार शुरुआत का मौका गंवा दिया है, फिर भी, जब जागे तब सवेरा.




Monday, February 3, 2014

चुनावी सियासत के आर्थिक कौतुक

लोकलुभावन नीतियां ही भारत की सियासत का चिरंतन सत्‍य हैं, जिसके सामने कांग्रेस की युवा हुंकार और भाजपा की अनुभवी गर्जना मिमियाने लगती है।
भारत की चुनावी राजनीति का शिखर आने से पहले आर्थिक राजनीति की ढलान आ गई है। देश केवल नई सरकार ही नहीं पिछले सुधारों में सुधार और कुछ मौलिक प्रयोगों का इंतजार भी कर रहा था और उम्मीद थी कि ग्रोथ, रोजगार व बेहतर जीवन स्‍तर से जुड़ी नई सूझ, चुनावी विमर्श का हिससा बनेगी लेकिन चुनावी बहसें अंतत: एक तदर्थवादी और दकियानूसी आर्थिक सोच में फंसती जा रही है। भारत में सत्‍ता परिवर्तन पर बड़े दांव लगा रहे ग्‍लोबल निवेशकों को भी यह अंदाज होने लगा है कि यहा के राजनीतिक सूरमा चाहे जितना दहाड़ें लेकिन आर्थिक सुधारों की बात पर  वह चूजों की तरह दुबक जाते हैं। सुधारों की बाहें फटकारने वाली कांग्रेस ने एलपीजी सब्सिडी को लेकर प्‍याज और पत्‍थर दोनों ही खा लिये और यह साबित कर दिया सुधारों की बात उसने धोखे से कर दी थी। विदेशी निवेश जैसे मुद्दों पर  भाजपा का अतीत तो वामपं‍थियों जैसा रहा है इसलिए आर्थिक सुधारों पर वह ज्‍यादा ही दब्‍बू व भ्रमित दिख रही है। और चुनावी सियासत के नए सूरमा आम आदमियों के पास तो सुधारों की सोच ही गड्मड्ड है। अधिसंख्‍य भारत जो बदले हुए परिवेश में नई सूझबूझ की बाट जोह रहा था वह इन चुनावों को  भी गंभीर आर्थिक मुद्दों पर करतब व कौतुक के तमाशे में बदलता देख रहा है।
एलपीजी सब्सिडी की ताजी कॉमेडी सबूत है आर्थिक सुधार भारत के लिए अपवाद ही हैं। कांग्रेस ने एलपीजी सब्सिडी की प्रणाली किसी दूरगामी सोच व तैयारी के साथ नहीं बदली थी। वह फैसला तो बीते साल उस वक्‍त हुआ, जब भारत की रेटिंग पर तलवार टंगी थी और सरकार को सुधार करते हुए दिखना था। इसलिए पहले छह और फिर नौ सिलेंडर किये गए। सरकार को उस वक्‍त भी यह नहीं पता था कि सब्सिडी वाले नौ और शेष महंगे सिलेंडरों की यह राशनिंग प्रणाली कैसे लागू होगी और भोजन पकाने के सिर्फ एकमात्र ईंधन पर निर्भर शहरी आबादी इसे कैसे अपनाएगी। वह फैसला तात्‍कालिक सुधारवादी आग्रहों से निकला और बगैर किसी होमवर्क के लागू हो गया। सरकार आधार और डायरेक्‍ट बेनीफिट ट्रांसफर स्‍कीम के जोश में थी इसलिए एक एलपीजी सब्सिडी के एक अधकचरे फैसले को एक पायलट स्‍कीम से जोड़कर उपभोक्‍ताओं की जिंदगी मुश्किल कर दी गई। लोग सब्सिडी पाने के लिए आधार नंबर व बैंक खाते की जुगत में धक्के खाने लगे और गिरते पड़ते जब करीब 20 फीसद एलपीजी उपभोक्‍ताओं ने 291 जिलों में आधार से जुड़े बैंक खाते जुटा लिये तो अचानक राहुल गांधी ने बकवास अध्यादेश की तर्ज पर पूरी स्‍कीम खारिज कर दी। आर्थिक नीतियों के मामले में कांग्रेस अब वहीं खड़ी है जहां वह 2009 के चुनाव के पहले थी।
सुधारों को लेकर कांग्रेस का यह करतब तो दस साल से चल रहा है लेकिन भाजपा में सुधारों की सूझ को लेकर नीम अंधेरा ज्‍यादा चिंतित करता है क्‍यों कि नरेंद्र मोदी के भाषण आर्थिक चुनौतियों की बहस को अक्‍सर अलादीन के चिराग जैसे कौतुक में बदल देते हैं। आर्थिक सुधारों की बहस सब्सिडी, विदेशी निवेश और निजीकरण के इर्द गिर्द घूमती रही है। यह तीन बड़े सुधार एक व्‍यापक पारदर्शिता के ढांचे के भीतर आर्थिक बदलाव बुनियादी रसायन बनाते दिखते हैं। इन चारों मुद्दों पर राजनीतिक सर्वानुमति कभी नहीं बनी । जबकि देशी विदेशी निवेशक भारत की अगली सरकार को इन्‍ही कसौटियों पर कस रहे हैं। सब्सिडी की बहस राजकोष की सेहत सुधारने से लेकर सरकारी भ्रष्‍टाचार तक फैली है। इस बहस में भाजपा का पिछला रिकार्ड कोई उम्‍मीद नहीं जगाता। केंद्र में अपने एकमात्र कार्यकाल में भाजपा ने सब्सिडी को लेकर निष्क्रिय रही जबक यूपीए राज के सब्सिडी सुधारो में भाजपा ने विपक्ष की लीक पीटी क्‍यों कि उसकी राज्‍य सरकारें सब्सिडी के तंत्र को पोस रहीं हैं।
उदारीकरण के पिछले दो दशकों में विदेशी निवेश की बड़ी भूमिका रही है लेकिन यह इस पहलू पर भाजपा का असमंजस ऐतिहासिक है। तभी तो क्‍यों कि राजसथान की नई सरकार ने खुदरा में विदेशी निवेश का फैसला पलट दिया है। विदेशी निवेश खिलाफ भाजपा की आक्रामक स्‍वदेशी मुद्रायें, भारत में निवेश क्रांति लाने के नरेंद्र मोदी के दावों की चुगली खाती हैं। ठीक इसी तरह सरकारी उपक्रमों व सेवाओं के निजीकरण पर भाजपा में सोच का कुहरा, निवेशकों को उलझाता है। पारदर्शिता, आर्थिक विमर्श का नया कोण है। समाजवादी और निजी दोनों तरह की अर्थव्‍यवसथाओं का प्रसाद पा चुके लोग अब भ्रष्‍टाचार के खात्‍मे को तरक्‍की से जोड़ते हैं और आर्थिक सुधारों पर ऐसी बहस की चाहते हैं, जो आम लोगों के अनुभवों से जुड़ी हो और तर्कसंगत अपेक्षायें जगाती है। भाजपा जब इस बहस के बदले बुलेट ट्रेन, नए शहरों व ब्रॉड बैंड नेटवर्क के दावे करती है तो नारेबाजी की गंध पकड़ में आ जाती है।  
देश में आर्थिक तरक्‍की राह में नए पत्थर अड़ गए हैं जिन पर भाषणों के करतब कारगर नहीं होते। जमीन, खदान, स्‍पेक्‍ट्रम जैसे  प्राकृतिक संसाधनों का पारदर्शी आवंटन, सस्‍ता कर्ज, महंगाई में कमी, केंद्र व राज्‍य के बीच इकाईनुमा तालमेल, नियामकों की ताकत, नेताओं के विवेकाधिकारों में कमी, छोटे कारोबार शुरु करने की सुविधा व लागत जैसे जटिल मुद्दे  सुधारों की बहस का नया पहलू हैं जबकि अभी तो केंद्र सरकार के स्‍तर पर सब्सिडी, विदेशी निवेश व निजीकरण की पुरानी बहसें ही हल होनी हैं। राज्‍यो में तो इन बहसों की शुरुआत तक नहीं हुई है। यही वजह है कि चुनाव आते ही सियासी दल की अपनी उस आर्थिक हीनग्रंथि जगा दिया है जो जटिल बहसों से उनकी रक्षा करती है। अभी तक के चुनावी विमर्श बता रहे हैं कि लोकलुभावन नीतियां ही भारत की सियासत का चिरंतन सत्‍य हैं, जिसके सामने कांग्रेस की युवा हुंकार और भाजपा की अनुभवी गर्जना मिमियाने लगती है। सब्सिडी भारत की लोकलुभावन राजनीति का वह किनारा है जहां भाजपा व कांग्रेस की धारायें मिलकर एक हो जाती है और चुनाव के पहले इस धारा में स्‍नान होड़ शुरु हो गई है। ठोस सुधारों के घाट पर कोई नहीं उतरना चाहता।

Monday, December 3, 2012

महाबहस का मौका


  ह महाबहस का वक्‍त है। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की बहस को महाबहस होना भी चाहिए क्‍यों कि इससे बड़ा कारोबार भारत में है भी कौन सा समृद्ध व्‍यापारिक अतीत, नए उपभोक्‍ता और खुलेपन की चुनौ‍तियों को जोड़ने वाला यही तो एक मुद्दा है, जो तेज तर्रार, तर्कपूर्ण लोकतां‍त्रिक महाबहस की काबिलियत रखता है। संगठित बहुराष्‍ट्रीय खुदरा कारोबार राक्षस है या रहनुमा ? करोड़ो उपभोक्‍ताओं के हित ज्‍यादा जरुरी हैं या लाखों व्‍यापारियों के? देश के किसानों को बिचौलिये या आढ़तिये ज्‍यादा लूटते हैं या फिर बहुराष्‍ट्रीय कंपनियां ज्यादा लूटेंगी? बहुतों की दुकाने बंद होने का खौफ सच है या रोजगार बाजार के गुलजार होने की उम्‍मीदें ?... गजब के ताकतवर प्रतिस्‍पर्धी तर्कों की सेनायें सजी हैं। बात सिर्फ इतनी नहीं है कि संसद रिटेल में विदेश निवेश पर क्‍या फैसला देगी यह देखना भी महत्‍वपूर्ण होगा कि भारत की संसद गंभीर मुद्दों पर कितनी गहरी है और सांसद कितने समझदार। या फिर भारत के नेता राजनीतिक अतिसाधारणीकरण में इस संवेदनशील सुधार की बहस को नारेबाजी में बदल देते हैं।
आधुनिक अतीत 
यह देश के आर्थिक उदारीकरण की पहली ऐसी बहस हैं जिसमें सियासत भारत के मध्‍य वर्ग से मुखातिब होगी। वह मध्‍यवर्ग जो पिछले दो दशक में उभरा और तकनीक व उपभोक्‍ता खर्च जिसकी पहचान है। भारत की ग्रोथ को अपने खर्च से सींचने वाले इस नए इं‍डिया को इस रिटेल (खुदरा कारोबार) के रहस्‍यों की जानकारी देश के नेताओं से कहीं ज्‍यादा है। यह उपभोक्‍ता भारत संगठित रिटेल को अपनी नई पहचान से जोड़ता है। इसलिए मध्‍य वर्ग ने खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की चर्चाओं में सबसे दिलचस्पी