Monday, January 24, 2011

टाइम बम पर बैठे हम

अर्थार्थ
र्थव्यथवस्था के डब्लूटीसी या ताज (होटल) को ढहाने के लिए किसी अल कायदा या लश्क र-ए-तैयबा की जरुरत नहीं हैं, आर्थिक ध्वंस हमेशा देशी बमों से होता है जिन्हें कुछ ताकतवर, लालची, भ्रष्टं या गलतियों के आदी लोगों एक छोटा का समूह बड़े जतन के साथ बनाता है और पूरे देश को उस बम पर बिठाकर घड़ी चला देता है। बड़ी उम्मीदों के साथ नए दशक में पहुंच रही भारतीय अर्थव्यवस्था भी कुछ बेहद भयानक और विध्वंसक टाइम बमों पर बैठी है। हम अचल संपत्ति यानी जमीन जायदाद के क्षेत्र में घोटालों की बारुदी सुरंगों पर कदम ताल कर रहे हैं। बैंक अपने अंधेरे कोनों में कई अनजाने संकट पाल रहे हैं और एक भीमकाय आबादी वाले देश में स्थांयी खाद्य संकट किसी बड़ी आपदा की शर्तिया गारंटी है। खाद्य आपूर्ति, अचल संपत्ति और बैंकिग अब फटे कि तब वाले स्थिति में है। तरह तरह के शोर में इन बमों की टिक टिक भले ही खो जाए लेकिन ग्रोथ की सोन चिडि़या को सबसे बड़ा खतरा इन्ही धमाकों से है।
जमीन में बारुद
वित्तीय तबाहियों का अंतरराष्ट्रीय इतिहास गवाह है कि अचल संपत्ति में बेसिर पैर के निवेश उद्यमिता और वित्तीय तंत्र की कब्रें बनाते हैं। भारत में येदुरप्पाओं, रामलिंग राजुओं से लेकर सेना सियासत, अभिनेता, अपराधी, व्यायपारी, विदेशी निवेशक तक पूरे समर्पण के साथ अर्थव्ययवस्था में यह बारुदी सुरंगे बिछा रहे हैं। मार्क ट्वेन का मजाक (जमीन खरीदो क्यों कि यह दोबारा नहीं बन सकती) भारत में समृद्ध होने का पहला प्रमाण है। भ्रष्ट राजनेता, रिश्वतखोर अफसर, नौदौलतिये कारोबारी, निर्यातक आयातक और माफिया ने पिछले एक दशक में जायदाद का
 गुब्बारा भयानक ढंग से फुला दिया है। अचल संपत्ति काले धन की सबसे बड़ी तिजोरी है और हर बड़ा ताजा घोटाले ( 2जी, आदर्श सोसाइटी, सैन्यमभूमि) जमीन के कारोबार से जुड़ा है। फैलते शहरों के इर्द गिर्द अचल संपत्ति के भ्रष्टांचार की पूरी आबादी पनप रही है। पिछले पांच वर्षों में आवासीय और वाणिज्यिक प्रापर्टी की कीमते बेतहाशा बढ़ने के पीछे वास्तछविक मांग व आपूर्ति का कोई तर्क नहीं है। मुट्ठी भर लोगों की बढ़ी हुई आय या पूंजी के स्रोतों से उनकी निकटता के कारण हम जमीन के जमाखोरों के हाथ फंस गए हैं। जमीन एक कीमती, सीमित और जरुरी संसाधन है जो कायदे से बंटना चाहिए। विकसित होती अर्थव्यवसथा को सबसे जयादा जरुरत इसी संसाधन की है वह भी उचित कीमत पर। मगर यहां तो भूमि से जुड़े कानून कीमत बढ़ाने में सहायक हैं। 1997 के पूर्वी एशिया संकट,अमेरिकी सब प्राइम बाजार की तबाही और दुबई से लेकर डबलिन तक अचल संपत्ति ने बर्बादी की कथाये लिखी हैं। भारत में 400 करोड़ रुपये की मैन्यु फैक्च रिंग परियोजनायें दुर्लभ हैं लेकिन मगर 500 से 1000 करोड़ रुपये रियल इस्टेट प्रोजेक्ट शहरों के चौराहे पर टंगे हैं। बैंक व वित्तीय संस्था यें मिलकर इस बम की ताकत बढ़ा रहे हैं। भारत में यह धमाका कभी भी हो सकता है।
विस्फोटक बैंकिंग
माधवपुरा मर्केंटाइल बैंक याद है आपको। जमाकर्ताओं के दस अरब से ज्यादा शेयर बाजार में लुटाने वाली और केतन पारेख जैसों का मददगार बैंकिंग से यह देश का यह पहला परिचय था। फिर तो सहकारी बैंकों के डूबने का मौसम शुरु हो गया और सहकारी बैंकिंग की साख अब तक नहीं उबरी है। भारत का बैंकिंग उद्योग कई तरह के जोखिम पाल रहा है। विकास के साथ बैंकिंग जटिल होती चली गई है और कंपनियों का दबाव, राजनीतिक हस्तक्षेप और प्रबंधन की अक्षमतायें बढ़ी हैं। एलआईसी हाउसिंग से लेकर सिटी बैंक तक बैकिंग के दागदार चेहरों की कई नुमाइश जारी है। कहीं लालची बिल्ड रों से रिश्वंत लेकर करोड़ों के लोन तो कहीं बैंक अफसर व उद्यमियों का मिला जुला घोटाला। यह घोटाले तो बैंकों में समस्याओं की शुरुआत भर हैं। सरकारें भी अपनों को कर्ज दिलाने या शेयर बाजार में बैंकों का इसतेमाल करती हैं। रिजर्व बैंक की बैंक फ्रॉड सूची में कंपनियों को दिये जाने वाले लेटर ऑफ क्रेडिट और लोन सबसे ऊपर हैं। बैंक शेयर बाजार में हाथ जला चुके हैं अब बारी अचल संपत्ति की है क्यों कि पिछले एक दशक में बैंकों ने अचल संपत्ति में तगड़ा निवेश किया है। जब यह बम फटेगा तो बैंक भी ढहेंगे। बैंकों में घोटालों का बहुत बारुद जमा है। इसका धमाका बहुत जोरदार होगा।
थाली में धमाके
यह ताकत के आफत बनने की दास्तान है। भारत खाद्य संकट के अभूतपूर्व बारुद से खेल रहा है। भोजन की थाली में गेहूं, चावल, दाल, तेल, सबजी, दूध, अंडा आदि सभी जरुरी खाद्य चीजों में महंगाई धमाके कर रही है। करीब सवा अरब की आबादी, जिसमें ज्यादातर गरीब व निम्न आय वाले, मुल्कब के लिए वाले मुल्कअ के लिए खाद्य संकट आरडीएक्स का थैला है। बढ़ती शहरीकरण और बढ़ती आय वाले देश के लिए खाने पीने की चीजों की कमी एक नए किस्म पेचीदा समस्या है। खाद्य संकट का यह बम खराब होती खेती ने बनाया है। भारत ने उदारीकरण के दो दशकों में खेती में बहुत कुछ खो दिया है। खाद्य वस्तुतओं की आपूर्ति करने वाली भारत की भोजन फैक्ट्री चौतरफा मुश्किलों में है। शहरों के इर्दगिर्द बिल्डिरों ने खेतिहर जमीन को निगल कर सब्जियों जैसी दैनिक आपूर्ति को दूर और महंगा कर दिया है। जमीन की कमी बुनियादी समस्याो है। निवेश, बीज, तकनीक, बुनियादी ढांचे की कमी, उपज में गिरावट, खेती पर राजनीति और उत्पा,दों पर बिचौलियों के राज की चर्चा पुरानी है दरअसल उद्योग, सेवा, वित्तीपय बाजार की नीतियों आए दिन बदलने वाले केंद्र में एक संतुलित कृषि नीति नदारतद है और राज्योंप में तो खेती किसी खेत की मूली नहीं है। सरकारी कोशिशें सस्तेम बैंकिंग कर्ज ( बाद में कर्ज माफी) और सब्सिडी व समर्थन मूलय से बाहर नहीं निकलती । जबकि खपत के बदलते ढंग को देखते हुए खेती को न केवल हर साल बदलना बल्कि चीन की तरह अपने लिए विदेश में उपज (वर्चुअल फार्मिंग) की तरफ बढ़ना चाहिए था। सवा अरब की आबादी का पेट दुनिया कोई बाजार नहीं भर सकता। भारत को अपने रोटी, दाल, चावल, तेल सब्जी का जुगाड़ खुद करना होगा, वह भी सस्तीब कीमत पर। खाद्य संकट के बम की घड़ी सबसे तेज भाग रही है।
संकट के लिए हमें विदेशी बैंक या अंतरराष्ट्रीय घोटालेबाज नहीं चाहिए। यहां तो बिल्डर, बैंकर, नेता और व्यापारी मिलकर संकटों का सिलसिला बना सकते हैं। हम गजब के किस्मती हैं कि बीस साल में हमें किसी बडे़ संकट ने नहीं घेरा। यूं भी कह सकते हैं कि संकटों की बारुद अब तक बन नहीं पाई थी जो अब तैयार है। हमे विकास के लिए अगर पूंजी, श्रम व मांग तीनों उपलब्ध हैं तो विनाश के लिए लूट, लालच, लापरवाही और महंगाई की भी कमी नहीं हैं। प्रगति और दुर्गति के बीच की विभाजक रेखा बहुत पतली होती है। इस लाइन के पार करते ही बारुदी सुरंगों का इलाका है। इसी विभाजक रेखा पर खड़ी भारत की अर्थव्यवस्था किसी भी समय अपना पैर विस्फोटकों पर रख सकती है। .... खुदा खैर करे।
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1 comment:

Atul kushwah said...

wakai ye aisi duniya hai jahan hajaron jindagiyan jannat ki aishgahon me aur lakhon jindagiyan dojakh ke gattar me tabdeel hoti chali aa rahi hain lekin fir bhi economic system kabhi patjhad aur kabhi basanti hawayein chalata hai,,,,,....jaisa ki apne khubsurati se abhivyakt kiya hai....
Atul Kushwaha
Gwalior....