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Thursday, November 12, 2020

जागत नींद न कीजै

 


कभी-कभी जीत से कुछ भी साबित नहीं होता और शायद हार से भी नहीं. फैसला करने वाले भी खुद यह नहीं समझ पाते कि बिहार जैसे जनादेश से वे हासिल क्या करना चाहते थे? जातीय समीकरणों के पुराने तराजू हमें यह नहीं बता पाते कि नए जनादेश और ज्यादा विभाजित क्यों कर देते हैं?

मसलन, किसी को यह उम्मीद नहीं है कि जो बाइडन की जीत से अमेरिका में सब कुछ सामान्य हो जाएगा या नई सरकार के नेतृत्व में बिहार नए सिरे से एकजुट हो जाएगा क्योंकि राजनैतिक विभाजन लोगों के मनोविज्ञान के भीतर पैठ कर लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए खतरा बन रहे हैं.

चतुर नेताओं ने लोगों के दिमाग में व्यवहार और विश्वास के बीच एक स्थायी युद्ध छेड़ दिया है. लोग अक्सर ऐसे फैसलों का समर्थन करने लगे हैं जो व्यावहारिक तौर पर उनके लिए नुक्सानदेह हैं. मिसाल के तौर पर उत्तर भारत में हवा दमघोंटू है, इसमें पटाखे चलाने से और ज्यादा बुरा हाल होगा, फिर भी पटाखों पर प्रतिबंध का विरोध सिर्फ इसलिए है क्योंकि लोगों को लगता कि यह पाबंदी एक समुदाय विशेष को प्रभावित करती है.

निष्पक्ष चिंतक इस बात से परेशान हैं कि सरकारों और लोकतांत्रिक संस्थाओं को इस विभाजक माहौल में ईमानदार व भरोसमंद कैसे रखा जाए? सरकारें एक किस्म की सेवा हैं, जिनकी गुणवत्ता और जवाबदेही सुनिश्चत होना अनिवार्य है. मिशिगन यूनिवर्सिटी ने 1960 के बाद अपने तरह के पहले अध्ययन में यह पाया कि लोग तीन वजहों से सरकारों पर भरोसा करते हैं एकसरकार ने अपनी जिम्मेदारी कैसे निभाई? दोसंकट में सरकार कितनी संवेदनशील साबित हुई है? तीनवह अपने वादों और नतीजों में कितनी ईमानदार है?

ताजा अध्ययन बताते हैं कि व्यवहार और विश्वास के बीच विभाजन के कारण लोग सरकारों का सही मूल्यांकन नहीं कर पा रहे हैं. जैसे ब्रेग्जिट या नोटबंदी से होने वाले नुक्सान को लोग समझ नहीं सके. उनके राजनैतिक विश्वास इतने प्रभावी थे कि उन्होंने व्यावहारिक अनुभवों को नकार दिया. 

कारनेगी एंडाउमेंट ऑफ ग्लोबल पीस ने (रिपोर्ट 2019) कई प्रमुख देशों (पोलैंड, तुर्की, ब्राजील, भारत, अमेरिका) में लोकतंत्र की संस्थाओं और समाज पर राजनैतिक ध्रुवीकरण के असर को समझने की कोशिश की है. इन देशों में राजनैतिक विभाजन ने न्यायपालिका, मीडिया, वित्तीय तंत्र, सरकारी विभागों और स्वयंसेवी संस्थाओं तक को बांट दिया है. गरीबों को राहत के बंटवारे भी राजनैतिक आग्रह से प्रभावित हैं. संस्थाएं इस हद तक टूट रही हैं कि इन देशों में अब सियासी दल चुनाव में हार को भी स्वीकार नहीं करते, जैसा कि अमेरिका में हुआ है.

तुर्की का समाज इतना विभाजित है कि दस में आठ लोग उन परिवारों में अपने बच्चे का विवाह या उनके साथ कारोबार नहीं करना चाहते जो उस पार्टी को वोट देते हैं जिसे वे पसंद नहीं करते. भारत में भी ये दिन दूर नहीं हैं.

इस तरह विभाजित मनोदशा में मिथकीय वैज्ञानिक फाउस्ट की झलक मिलती है. जर्मन महाकवि गेटे के महाकाव्य का केंद्रीय चरित्र मानवीय दुविधा का सबसे प्रभावी मिथक है. फाउस्ट ने अपनी आत्मा लूसिफर (शैतान) के हवाले कर दी थी. इस समझौते (फाउस्टियन पैक्ट) ने फाउस्ट के सामान्य विवेक को खत्म कर उसे स्थायी अंतरविरोध से भर दिया, जिससे वह सही फैसले नहीं कर पाता. 

सत्ता का साथ मिलने पर राजनैतिक विभाजन बहुत तेजी से फैलता है क्योंकि इसमें लाभों का एक सूक्ष्म लेन-देन शामिल होता है. राजनैतिक विभाजन को भरना बहुत मुश्किल है फिर भी बहुत बड़े नुक्सान को रोकने के लिए उपाय शुरू हो गए हैं. केन्या ने 2010 में नए संविधान के जरिए निचली सरकारों की ताकत बढ़ाई ताकि केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के लिए विभाजन की राजनीति पर रोक लगाई जा सके.

अमेरिका के राज्य मेन ने 2016 में नई वोटिंग प्रणाली के जरिए नकारात्मक प्रचार रोकने और मध्यमार्गी प्रत्याशी चुनने का विकल्प दिया है. इक्वाडोर के राष्ट्रपति लेनिन मॉरेनो ने अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपति के विभाजक राजनैतिक फैसलों को वापस लेकर लोकतंत्र की मरम्मत करने कोशिश की है.

जीएसटी और कृषिकानूनों पर केंद्र और राज्य के बीच सीधा व संवैधानिक टकराव सबूत है कि भारत में यह विभाजन बुरी तरह गहरा चुका है. बिहार चुनाव के बाद यह आग और भड़कने वाली है. भारत को जिस वक्त मंदी से निजात और रोजगार के लिए असंख्य फैसलों पर व्यापक राजनैतिक सर्वानुमति की दरकार है तब यह राजनैतिक टकराव लोकतंत्र की संस्थाओं में पैठकर न्याय, समानता, पारदर्शिता, संवेदनशीलता जैसे बुनियादी दायित्वों को प्रभावित करने वाला है. इसके चलते सरकारों से मोहभंग को ताकत मिलेगी.

उपाय क्या है? आग लगाने वालों से इसे बुझाने की उम्मीद निरर्थक है. हमें खुद को बदलना होगा. प्लेटो कहते थे, अगर हम अपनी सरकार के कामकाज से बेफिक्र हैं तो नासमझ हमेशा हम पर शासन करते रहेंगे.

 

Monday, January 22, 2018

भारत, एक नई होड़



तकरीबन डेढ़ दशक बाद भारत को लेकर दुनिया में एक नई होड़ फिर शुरू हो रही है. पूरी दुनिया में मंदी से उबरने के संकेत और यूरोप में राजनैतिक स्थिरता के साथ अटलांटिक के दोनों किनारों पर छाई कूटनीतिक धुंध छंटने लगी है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कूटनीतिक चश्मा कमोबेश साफ हो गया है. ब्रिटेन की विदाई (ब्रेग्जिट) के बाद इमैनुअल मैकरॉन और एंजेला मर्केल के नेतृत्व में यूरोपीय समुदाय आर्थिक एजेंडे पर लौटना चाहते हैं. एशिया के भीतर भी दोस्तों-दुश्मनों के खेमों को लेकर असमंजस खत्‍म हो रहा है.  


मुक्त व्यापार कूटनीति के केंद्र में वापस लौट रहा है, जिसकी शुरुआत अमेरिका ने की है. पाकिस्तान को अमेरिकी सहायता पर ट्रंप के गुस्से के करीब एक सप्ताह बाद अमेरिका ने भारत के सामने आर्थिक- रणनीतिक रिश्तों का खाका पेश कर दिया. ट्रंप के पाकिस्तान वाले ट्वीट पर भारत में पूरे दिन तालियां गडग़ड़ाती रहीं थी लेकिन जब भारत में अमेरिकी राजदूत केनेथ जस्टर ने दिल्ली में एक पॉलिसी स्पीच दी तो दिल्ली के कूटनीतिक खेमों में सन्नाटा तैर गया, जबकि यह हाल के वर्षों में भारत से रिश्तों के लिए अमेरिका की सबसे दो टूक पेशकश थी.

दिल्ली में तैनाती से पहले राष्ट्रपति ट्रंप के उप आर्थिक सलाहकार रहे राजदूत जस्टर ने कहा कि भारत को अमेरिकी कारोबारी गतिविधियों का केंद्र बनने की तैयारी करनी चाहिए, ता‍कि भारत को चीन पर बढ़त मिल सके. अमेरिकी कंपनियों को चीन में संचालन में दिक्कत हो रही है. वे अपने क्षेत्रीय कारोबार के लिए दूसरा केंद्र तलाश रही हैं. भारत, एशिया प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी कारोबारी हितों का केंद्र बन सकता है.

व्हाइट हाउस, भारत व अमेरिका के बीच मुक्त व्यापार संधि (एफटीए) चाहता है, यह संधि व्यापार के मंचों पर चर्चा में रही है लेकिन यह पहला मौका है जब अमेरिका ने आधिकारिक तौर पर दुनिया की पहली और तीसरी शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं के बीच एफटीए की पेश की है. ये वही ट्रंप हैं जो दुनिया की सबसे महत्वाकांक्षी व्यापार संधि, ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) को रद्दी का टोकरा दिखा चुके हैं.

अमेरिका और भारत के बीच व्यापार ब्ल्यूटीओ नियमों के तहत होता है. दुनिया में केवल 20 देशों (प्रमुख देश—कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, इज्राएल, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, मेक्सिको) के साथ अमेरिका के एफटीए हैं. इस संधि का मतलब है कि दो देशों के बीच निवेश और आयात-निर्यात को हर तरह की वरीयता और निर्बाध आवाजाही. 

ट्रंप अकेले नहीं हैं. मोदी के नए दोस्त बेंजामिन नेतन्याहू भी भारत के साथ मुक्त व्यापार संधि चाहते हैं. गणतंत्र दिवस पर आसियान (दक्षिण पूर्व एशिया) के राष्ट्राध्यक्ष भी कुछ इसी तरह का एजेंडा लेकर आने वाले हैं. भारत-आसियान मुक्त व्यापार संधि पिछले दो दशक का सबसे सफल प्रयोग रही है.

मार्च में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैकरॉन भी भारत आएंगे. भारत और यूरोपीय समुदाय के बीच एफटीए पर चर्चा कुछ कदम आगे बढ़कर ठहर गई है. यूरोपीय समुदाय से अलग होने के बाद ब्रिटेन को भारत से ऐसी ही संधि चाहिए. प्रधानमंत्री थेरेसा मे इस साल दिल्ली आएंगी तो व्यापारिक रिश्ते ही उनकी वरीयता पर होंगे.

पिछली कई सदियों का इतिहास गवाह है कि दुनिया जब भी आर्थिक तरक्की के सफर पर निकली है, उसे भारत की तरफ देखना पड़ा है. पिछले दस-बारह साल की मंदी के कारण बाजारों का उदारीकरण जहां का तहां ठहर गया और भारत का ग्रोथ इंजन भी ठंडा पड़ गया. कूटनीतिक स्थिरता और ग्लोबल मंदी के ढलने के साथ व्यापार समझौते वापसी करने को तैयार हैं और भारत इस व्यापार कूटनीति का नया आकर्षण है.

अलबत्ता इस बदलते मौसम पर सरकार के कूटनीतिक हलकों में रहस्यमय सन्नाटा पसरा है. शायद इसलिए कि उदार व्यापार को लेकर मोदी सरकार का नजरिया बेतरह रूढ़िवादी रहा है. विदेश व्यापार नीति दकियानूसी स्वदेशी आग्रहों की बंधक है. पिछले तीन साल में एक भी मुक्त व्यापार संधि नहीं हुई है. यहां तक कि निवेश संधियों का नवीनीकरण तक लंबित है. स्वदेशी और संरक्षणवाद के दबावों में सिमटा वणिज्य मंत्रालय मुक्त व्यापार संधियों की आहट पर सिहर उठता है.


ध्यान रखना जरूरी है कि भारत की अर्थव्यवस्था के सबसे अच्छे दिन भारतीय अर्थव्यवस्था के ग्लोबलाइजेशन के समकालीन हैं. दुनिया से जुड़कर ही भारत को विकास की उड़ान मिली है. थकी और घिसटती अर्थव्यवस्था को निवेश व तकनीक की नई हवा की जरूरत है. भारतीय बाजार के आक्रामक उदारीकरण के अलावा इसका कोई और रास्ता नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय कूटनीति में क्रांतिकारी बदलाव के एक बड़े मौके के बिल्कुल करीब खड़े हैं.