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Sunday, November 13, 2022

महंगाई ज्‍यादा बुरी है या मंदी ?


 

 

  

एक्‍शन सिनेमा के शौकीन 2009 की फिल्‍म वाचमेन को नहीं भूल सकते.  यह दुविधा और असमंजस का सबसे रोमांचक फिल्‍मांकन है 1980 का दशक अमेरिका में कॉमिक्‍स के दीवानेपन का दौर था. लोग ब्रिट‍िश कॉमिक लेखक एलन मूर के दीवाने थे जिन्‍होंने कॉमिक्‍स की दुनिया को कुछ सबसे मशूर चरित्र दिये. यह मूवी एलन मूर की प्रख्‍यात कॉमिक्‍स वाचमेन पर आधारित थी जिसे फिल्‍म हालीवुड के स्‍टार एक्‍शन फिल्‍म प्रोड्यूसर लॉरेंस गॉर्डन ने बनाया था जो ब्रूस विलिस की एतिहा‍स‍िक फिल्‍म डाइ हार्ड के निर्माता भी थे.

वाचमेन मूवी का खलनायक ओजिमैंड‍ियास कुछ एसा करता है जिसे सही ठहराना जितना मुश्‍क‍िल है. वह गुड विलेन है यानी अच्‍छा खलनायक. उतना ही उसे गलत ठहराना. विज्ञान, न्‍यूक्‍लियर वार और एक्‍शन पर केंद्रित इस मूवी में मानव जाति‍ को नाभिकीय तबाही से बचाने के लिए ओजिमैंड‍ियास दुनिया के अलग हिस्‍सों में बड़ी तबाही बरपा करता है और नाभिकीय हमला टल जाता है. इस मूवी का प्रसि‍द्ध संवाद नाइट आउल और ओजिमैंडिआस के बीच है.

नाइट आउल - तुमने लाखों को मरवा दिया

ओजिमैंडिआस अरबों लोगों को बचाने के लिए

केंद्रीय बैंक यानी गुड विलेन

दुनिया के केंद्रीय बैंक भी गुड विलेन बन गए हैं. उन्‍होंने महंगाई को मारने के लिए ग्रोथ को मार दिया है. यानी मंदी बुला ली है.

लेक‍िन क्‍या उन्‍होंने सही किया है.

कैसे तय हो कि  महंगाई ज्‍यादा बुरी शय है या मंदी ज्‍यादा बुरी बला?

तो अब हम आपको सीधे बहस के बीचो बीच ले चलते हैं इसके बाद तो फिर  जाकी रही भावना जैसी

महंगाई सबसे बड़ी बुराई

इत‍िहास गवाह है कि महंगाई आते ही मौद्रिक नियामकों के तेवर बदल जाते है. हर कीमत पर अर्थव्‍यवस्‍था की ग्रोथ में सस्‍ते कर्ज का ईंधन डालने वालने बैंकर बला के क्रूर हो जाते हैं. यूरोप को देख‍िये मंदी न आए यह तय करने के लिए बीते एक दशक से ब्‍याज दर शून्‍य पर रखी गई लेक‍िन अब महंगाई भड़की तो मंदी का डर का खत्‍म हो गया.

यूरोप और अमेरिका जहां वित्‍तीय निवेश की संस्‍कृति भारत से ज्‍यादा मजबूत है वहां महंगाई के खतरे के प्रति गहरा आग्रह है. मंदी को उतना बुरा नहीं माना जाता. महंगाई का खौफ इसलिए बड़ा है क्‍यों कि वेतनों में बढ़ोत्‍तरी की गति सीमित रहती है. इसलिए जब भी कीमतें बढ़ती हैं जो जिंदगी जीने की लागत बढ़ जाती है. खासतौर पर उनके लिए जिनकी आय सीम‍ित है

हमारे पास जो भी है और उसकी जो भी कीमत है, महंगाई उस मूल्‍य को कम कर देती है. लोग याद करते हैं कि 1970 की महंगाई ने अमेरिका के लोगों को क्रय शक्‍ति (पर्चेज‍िंग पॉवर) का नुकसान 1930 की महामंदी से ज्‍यादा था.

महंगाई को मंदी के मुकाबले ज्‍यादा घातक यूं भी कहा जाता क्‍यों ि‍क यह पेंशनर और युवाओं दोनों को मारती है. जिंदगी जीने के लागत बढ़ने से युवाओं की बचत का मूल्‍य घटता है जो उनके सपनों पर भारी पड़ता है जैसे कि अगर कोई तीन साल बाद मकान लेना चाहता है तो महंगाई से उसकी लागत बढ़ाकर उसे पहुंच से बाहर कर दिया. इधर ब्‍याज या पेंशन पर गुजारा करने वाले रिटायर्ड की सीम‍ित आय महंगाई के सामने पानी भरती है.

महंगाई बचत की दुश्‍मन है और बचत टूटने से अर्थव्‍यवस्‍था का भविष्‍य संकट में पड़ता है अलबत्‍ता सरकारों को महंगाई से फर्क नहीं पड़ता क्‍यों कि आज के खर्च के लिए वह जो कर्ज दे रहें उसे आगे कमजोर मुद्रा में चुकाना होता है लेक‍िन न‍िवेशकों और उद्योगों की मुश्‍किल पेचीदा हो जाती है.

सरकारें मंदी से नहीं महंगाई से डरती हैं क्‍यों? 

महंगाई के बीच यह तय करना मुश्‍क‍िल होता है कि किसकी मांग बढ़ेगी और किसकी कम होगी. मांग आपूर्ति का पूरा गणित ध्‍वस्‍त! एसे में निवेशक और उद्योग गलत जगह निवेश कर बैठते हैं जिनमें महंगाई के बाद मांग टूट जाती है.

महंगाई खुद को ही ताकत देती है. कीमत बढ़ने से डर से लोग जरुरत से ज्‍यादा खरीदते हैं. बाजार में पूंजी ज्‍यादा हो तो महंगाई को और ईंधन. यही वजह है कि बैंक पूंजी की प्रवाह सिकोड़ते हैं.

पूरी दुनिया की सरकारें महंगाई को संभालने में मंदी से ज्‍यादा मेहनत इसल‍िए करती हैं कि महंगाई बढ़ते ही वेतन बढ़ाने का दबाव बनता है. इस वक्‍त यूरोप और लैटिन अमेरिका में यही हो रहा है. 1970 में महंगाई के दबाव कंपनियों को वेतन बढ़ाने पड़े और स्‍टैगफ्लेशन आ गई.

स्‍टैगफ्लेशन यानी उत्‍पादन में गिरावट और महंगाई दोनों एक साथ होना सबसे बुरी बला है. मंदी से ज्‍यादा बुरी बला क्‍यों कि नियामक मानत‍े हैं कि मंदी लंबी नहीं चलती. हाल के दशकों में तो यह एक दो साल से ज्‍यादा उम्रदराज नहीं होती.

 

कर्ज महंगा होने से संपत्‍त‍ियों की कीमत टूटती हैं और अंतत: अर्थव्‍यवस्‍था में कम कीमत पर नई खरीद आती है. मंदी से रोजगारों पर असर पड़ता है लेक‍िन महंगाई को सबसे बुरी बला मानने वाले कहते हैं कि वह अस्‍थायी है. महंगाई में नए रोजगार नहीं आते और जो हैं उनकी कमाई घटती जाती हैं

बैंकर यह मानते हैं कि मंदी दूर सकती है लेक‍िन महंगाई एक बार लंबी हो जाए तो फिर मुश्‍क‍िल से काबू आती है क्‍यों कि इसके बढ़ते जाने की धारणा इसे ताकत देती है. यह वजह है कि पूरा नियामक समुदाय महंगाई का लक्ष्‍य तय करता है और इसके बढ़ने पर हर कीमत पर इसे रोकने लगता है.

मंदी ज्‍यादा बुरी है

मंदी के पक्ष में भी तर्क कम नहीं है

2007 के बाद वाली मंदी, से हुआ नुकसान महंगाई की तुलना में कहीं ज्‍यादा है. तभी तो शेयर न‍िवेशक जो कर्ज महंगा करने वाले केंद्रीय बैंकों को बिसूर रहे हैं.

यह धारणा गलत है कि महंगाई पूरी अर्थव्‍यवस्‍था को प्रभाव‍ित करती है जबकि मंदी अस्‍थायी तौर पर केवल रोजगारों में कमी करती है. उनका तर्क है कि मंदी पूरी अर्थव्‍यवस्‍था में कमाई कम कर देती है. सभी संसाधनों मसलन पूंजी, श्रम आदि का इस्‍तेमाल क्षमता से कम हो जाता है. 2007 से 2009 की मंदी के दौरान दुनिया की अर्थव्‍यवस्‍था को करीब 20 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हुआ जो पूरी दुन‍िया के एक साल के कुल आर्थ‍िक उत्‍पादन से ज्‍यादा था. उसके बाद दुनिया की विकास दर में कभी पहले जैसी तेजी नहीं आई.

महंगाई से कहां कम होती कमाई ?  

महंगाई रोकने के लिए बैंकों कर्ज महंगा करो मुहिम के खिलाफ यह तर्क दिये जा रहे हैं कि महंगाई सकल आय (सभी कारकों को मिलाकर) कम नहीं करती. एक व्‍यक्‍ति की बढी हुई लागत दूसरे की इनकम है भाई. कच्‍चा तेल महंगा हुआ तो कंपनियों की आय बढ़ी. कीमतें बढती हैं तो किसी न किसी की आय भी तो बढती है. यह आय का पुर्नव‍ितरण है. जैसे महंगाई के साथ कंपनियों की बढ़ती कमाई और उस पर शेयर धारकों का बेहतर रिटर्न. अरे महंगाई से तो राष्‍ट्रीय आय बढती है क्‍यों कि सरकारों का टैक्‍स संग्रह ज्‍यादा होता है.

महंगाई न हो तो इनकम का यह नया बंटवारा करेगा कौन? कुछ लोगों को लगता है कि महंगाई की तुलना में वेतन मजदूरी की वृद्ध‍ि दर कम है लेक‍िन जैसे ही मंदी के वजह रेाजगार घटती है वेतन बढ़ोत्‍तरी के बजाय कमी होने लगती है क्‍यों कि ज्‍यादा लोग बाजार में काम मांग रहे होते हैं. दरअसल मंदी को न केवल बेकारी लाती है बल्‍क‍ि जो काम पर है उनकी कमाई की संभावना को भी सीमित कर देती है.

मंदी से ज्‍यादा बुरा बताने वाले कहते हैं कि केंद्रीय बैंकों को एकदम ब्‍याज दरों में तेज बढ़त नहीं करनी चाहिए बल्‍क‍ि महंगाई को धीरे धीरे ठंडा होने देना चाहिए. क्‍यों कि इतिहास बताता है कि महंगाई घाव तात्‍कालिक होते हैं मंदी का घाव वर्षों नहीं भरता.

 

महंगाई और मंदी के बीच चुनाव जरा मुश्‍क‍िल है ?

पुराने अर्थशास्‍त्री  महंगाई के राजनीतिक अर्थशास्‍त्र एक सूत्र बताते हैं

दरअसल बीते डेढ दशक में दुनिया में महंगाई नहीं आई. सस्‍ते कर्ज के सहारे समृद्ध लोगों ने खूब कमाई की. स्‍टार्ट अप से लेकर शेयर तक धुआंधार निवेश किया. यही वह दौर था जब दुनिया में आय असमानता सबसे तेजी से बढी.

 

 

 

 

इस असमानता कम करने के दो ही तरीकें या तो वेतन बढ़ाये जाएं अध‍िकांश लोगों की आय बढ़े, जो अभी संभव नहीं है तो फिर दूसरा तरीका है कि शेयर, अचल संपत्‍ति‍, सोना जैसी संपत्‍त‍ियां जहां ससती पूंजी लगाई गई है उनकी कीमतों में कमी हो ताकि असमानता दूर हो सके.

महंगाई इन संपत्‍ति‍यों कीमत करती है और इसलि‍ए निवेशकों को सबसे ज्‍यादा नुकसान होता है. अब आप चाहें तो कह सकते कि केंद्रीय बैंक दरअसल महंगाई कम कर के दरअसल निवेशकों को हो रहा नुकसान कम करना चाहते हैं. दूसरा पहलू यह भी होगा कि इस कमी से आम लोगों की कमाई में परोक्ष कमी भी तो बचेगी.

 

भारत को महंगाई और आर्थ‍िक सुस्‍ती दोनों साथ लंबा वक्‍त गुजारने का तजुर्बा है लेक‍िन इस बहस में आप तय कीजिये महंगाई ज्‍यादा बुरी है या मंदी


Thursday, May 20, 2021

बतायेंगे तो बचायेंगे


अगर हमें बताया जाए कि हमारे मुहल्ले, गांव या कस्बे में हर पांचवां व्यक्ति कोविड की चपेट में है, 40 फीसद की हालत गंभीर हो रही है तो क्या हम ज्यादा सुरक्षित होने की कोशिश नहीं करेंगे?

ऑक्सीजन की चीख-पुकार और श्मश्मानों पर कतार के बीच लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि उनकी तबाही सरकारी आंकड़ों में क्यों नहीं दिखती? सच छिपाकर सरकार को क्या मिलता है?

महामारी का विज्ञान रहीम के दोहे जितना आसान है:

खैर, खून, खांसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान/

रहिमन दाबे दबै, जानत सकल जहान

(अच्छी सेहत, खून, खांसी, खुशी, दुश्मनी, प्रेम और मदिरा का नशा छुपाए नहीं छुपता है).

यही वजह है कि अलग-अलग देशों ने एक दूसरे की गलतियों से बहुत कुछ सीखा है लेकिन हम तो विश्व गुरु हैं, भाई! इसलिए हम बीमारी के बजाए आंकड़ों का इलाज कर रहे हैं.

कितने बीमार?

महामारी की नाप-जोख के दोनों ही पैमाने संदेह के कीचड़ में लिथड़े हैं. सरकार के प्रचारक दस लाख की आबादी की पर सबसे कम बीमारों की संख्या पर लहालोट हैं लेकिन भारत में दस लाख की आबादी पर केवल 32,000 जांच हो रही हैं यानी 3 फीसद. देश की कुल आबादी की तुलना में यह मजाक ही है.

महामारी की पैमाइश दो लहरों के बीच तुलना से होती है. विभिन्न राज्यों में संक्रमण (पहली से दूसरी लहर के बीच) 15 से 223 गुना (मई के दूसरे हफ्ते) तक बढ़े जबकि जांच क्षमता पांच गुना भी नहीं बढ़ी. संक्रमणों में 200 गुना तक बढ़ोतरी वाले बड़े राज्यों में दस लाख की आबादी पर 1,000 जांच भी मुश्किल है.

मुट्ठी भर जांच पर 100 में 23 (कई जिलों में 40 तक) बीमार मिल रहे हैं. यानी संक्रमण भयानक है, फिर भी छिपाने की कोशिशें!

कितने दिवंगत?

आबादी के बड़े हिस्से पर महामारी के असर के बाद संक्रमण के अनुपात में मौतों का हिसाब (केस फैटेलिटी रेशियो) अमल में आता है क्योंकि जान बचाना सबसे जरूरी है.

भारत में सरकारें मौतें छिपाने के लिए कुख्यात हैं, जन्म मृत्यु कानून 1969 का  घटिया क्रियान्वयन दस्तावेजी है. पांचवें नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (2019-20) के मुताबिक, अधिकांश भारत में केवल 60 फीसद मौतें दर्ज होती हैं. इनमें बिहार जैसे राज्यों में केवल 37 फीसद हैं. ग्रामीण इलाकों में पंजीकरण और भी कम है.

ग्लोबल सेंटर फॉर हेल्थ रिसर्च ने रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया के साथ अपनी मिलियन डेथ स्टडी (1998-2014) में पाया कि केवल 21 फीसद मौतें चिकित्सकीय प्रमाणन यानी सही कारण के साथ दर्ज होती हैं.

भारत अब दुनिया की सबसे बड़ी संक्रमित आबादी वाला देश है, सच छिपाने की कवायद के बावजूद भारत में केस फैटेलिटी रेशियो अलग-अलग राज्यों में 1 से 2 फीसद के बीच है, जो कोविड से सबसे ज्यादा प्रभावित और बेहतर सेहत इंतजाम वाले देशों के बराबर ही है

सनद रहे कि छह महानगरों में 14 अप्रैल से 12 मई के बीच चार सप्ताह में 17,000 मौतें दर्ज की गईं जहां रिकॉर्ड किए गए कोविड मरीजों का प्रतिशत देश में केवल 15 फीसद है. (जनरक्षा/पीएचएफआइतो गांवों का क्या हाल होगा. 

मई के पहले 19 दिनोंं में भारत में कुल 75000 मौंतेंं हुईंं. मृत्यु की दैनिक गति के आधार पर यह आंकड़ा मई के अंत तक एक लाख हो सकता है. दुनिया के किसी भी कोविड प्रभावित देश में एक माह में यह में मौतों की सबसे बड़ी संख्या हो सकती है.        

सबको पता है कि कोविड से हुई मौतें किस सुरंग में गुम हो रही हैं. जब अस्पतालों में मौतों के कारण छिपाए जा रहे हैं तो होम आइसोलेशन में और ऑक्सीजन के बगैर जो मौतें हुई हैं उनकी गिनती कौन कर रहा है?

इटली में मौतों के आंकड़े चौंकाने वाले थे लेकिन अध्ययन बताते हैं वहां कोविड के कारण और कोविड के साथ अन्य बीमारी से मौत में फर्क नहीं किया गया जबकि कई अन्य देशों में मौतों को लेकर बड़ी गफलत रही.

लोग जब अस्पताल और श्मशान के बीच भटक रहे हों तो सच छिपाने से सरकारों की छवि संवरती नहीं बल्कि गुस्सा बढ़ता है. यहां हाल ही अजीब है. प्रधानमंत्री आंकड़े छिपाने के लिए कहते हैं और राज्य आंकड़े घटाकर जीत का ऐलान करते नजर आते हैं.

डब्ल्यूएचओ ने आगाह किया था कि कोविड को लेकर अनिश्चितताएं हैं और इन्हें स्वीकारने और पारदर्शिता लाने से लोग जागरूक होंगे. संचार के अध्ययन बताते हैं कि एड्स को लेकर बढ़ा डर, इससे बचने में खासा कारगर साबित हुआ. इतिहास यह भी बताता है कि स्पैनिश फ्लू (1914) के दौरान तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने सूचनाएं छिपाकर गांवों को मरघट में बदल दिया था.

महाभारत के मौसल पर्व की तरह, कोविड का काल हर घर को सूंघता हुआ घूम रहा है. इसके बीच जीत के ऐलान घातक हैं. इस भ्रम में फंसकर लोग जीविका बचाने निकल पड़ेंगे और जान से जाएंगे. अव्व्ल तो वैक्सीन अभी दूर है और उसके बाद भी सुरक्षित होने की गारंटी नहीं है इसलिए अगर सरकार कहे भी कि संक्रमण घट रहा है, तो कतई मत मानिएगा. याद रखिए क्या आप उस डॉक्टर पर भरोसा करेंगे जो आपकी गंभीर बीमारी की रिपोर्ट छिपाकर आपको चलता कर दे?