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Saturday, June 29, 2019

...डूब के जाना है!


बात बीते बरस जनवरी से शुरू होती है जब नीरव मोदी बैंकों का बकाया चुकाने में चूके थे. नीरव की करतूत का घोटाला संस्करण बाद में पेश हुआ, पहले तो वित्तीय बाजार के लिए यह एक भरा-पूरा डिफॉल्ट था हीरे जैसे कीमती धंधे के कारोबारी का कर्ज चुकाने में चूकना! नीरव मोदी के डिफॉल्ट के साथ वित्तीय बाजार को मुसीबतों की दुर्गंध महसूस होने लगी थी.

मौसम एक-सा नहीं रहता और कर्ज हमेशा सस्तानहीं रहता. पूंजी की तंगी और कर्ज की लागत बढ़ते ही अर्थव्यवस्था को अपशकुन दिखने लगते हैं क्योंकि कर्ज जब तक सस्ता है, अमन-चैन है. ब्याज की दर एक-दो फीसद (छोटी अवधि के कर्ज-मनी मार्केट) बढ़ते ही, घोटाले के प्रेत कंपनियों की बैलेंस शीट फाड़ कर निकलने लगते हैं और नियामकों (रेटिंग, ऑडिटर) की कलई खुल जाती है.

पंजाब नेशनल बैंक को नीरव मोदी के झटके के एक साल के भीतर ही कई वित्तीय कंपनियां (अब तो एक टेक्सटाइल कंपनी भी) कर्ज चुकाने में चूकने लगीं.

  ·       भारत की सबसे बड़ी वित्तीय कंपनियों में एक, आइएलऐंडएफएस 2018 के अंत में बैंक कर्ज चूकी और डिफाॅल्ट का दुष्चक्र शुरू हो गया. सीरियस फ्रॉड इनवेस्टिगेशन ऑफिस (एसएफआइओ) कर्ज घोटाले में कंपनी के 30 अधिकारियों के खिलाफ पहली चार्जशीट दाखिल कर चुका है.

  ·   दीवान हाउसिंग फाइनेंस (दूसरी बड़ी संकटग्रस्त कंपनी) पर बॉक्स कंपनियां बनाकर कर्ज की बंदरबांट करने का आरोप है. रेड इंटेलीजेंस (वित्तीय डेटा कंपनी) की रिपोर्ट के मुताबिक, बड़ी वित्तीय कंपनियों के प्रवर्तक कुछ कागजी कंपनियां बनाते हैं जो आपस में एक-दूसरे को हिस्सेदारी बेचती हैं और फिर प्रवर्तक की वित्तीय कंपनी से कर्ज लेते हैं और उसी कर्ज से वापस मुख्य वित्तीय कंपनी में हिस्सेदारी खरीदते हैं. इस मामले की जांच होने के आसार हैं.

·       एनबीएफसी का ऑडिट और रेटिंग करने वाली कंपनियां भी घोटाले में शामिल मानी जा रही हैं. सीरियस फ्रॉड ऑफिस ने रिजर्व बैंक से इन कंपनियों के ऑडिट की अनदेखी करने पर रिपोर्ट तलब की है.

·       बकौल रिजर्व बैंक के 2018-19 में बैंकों में 71,500 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी हुई है.

·       एसएफआइओ ने 2017-18 में बड़े कॉर्पोरेट फ्रॉड के 209 मामले दर्ज किए, यह संख्या 2016 के मुकाबले दोगुनी है. जेट एयरवेज और कुछ अंतरराष्ट्रीय ऑडिट कंपनियों सहित करीब आधा दर्जन बड़ी कंपनियां एसएफआइओ की ताजा जांच का हिस्सा हैं.

महंगी होती पूंजी और घोटालों के रिश्ते ऐतिहासिक हैं. जनवरी 2009 में सत्यम घोटाला, 2008 में लीमैन बैंक ध्वंस के चलते बाजार में तरलता के संकट के बाद निकला था. अमेरिका का प्रसिद्ध बर्नी मैडॉफ घोटाला भी इसी विध्वंस के बाद खुला. अमेरिका में डॉटकॉम का बुरा दौर शुरू होने के 15 माह और 9/11 के एक माह के बाद, एनरॉन के धतकरम से परदा उठा था.
छोटी अवधि (एक साल या कम) के कर्ज भारतीय कारोबारी दुनिया की प्राण वायु हैं. इनमें अंतर बैंक, बैंक व वित्तीय कंपनी, म्युचुअल फंड और वित्तीय कंपनी, एनबीएफसी और कंपनियों के बीच कर्ज का लेनदेन शामिल है जो विभिन्न माध्यमों (सीधे कर्ज, बॉन्ड या कॉमर्शियल पेपर) के जरिये होता है.

जब तक आसानी से कर्ज मिलता है, कंपनियों के प्रवर्तक मनमाने तरीकों से इसका इस्तेमाल करते और छिपाते रहते हैं. उनकी बैलेंस शीट और रेटिंग चमकदार दिखती है. लेकिन जब कर्ज महंगे होते हैं तो उनकी कारोबारी शृंखला में डिफॉल्ट का दुष्चक्र शुरू हो जाता है.

बड़ी कंपनियां आमतौर पर अपने शेयर या संपत्ति के बदले कर्ज लेती हैं. तलरता के संकट में इनकी कीमत गिरती है और कर्ज देने वाले बैंक वसूली दबाव बढ़ाते हैं. नीरव मोदी, मेहुल चोकसी जैसे मामले इसका उदाहरण हैं.

अर्थव्यवस्था में अच्छी विकास दर के साथ कंपनियों की कमाई बढ़ती रहती है और उनको छोटी अवधि के कर्ज मिलते रहते हैं लेकिन मंदी की शुरुआत के साथ बैंक, कंपनियों के नतीजों पर निगाह जमाकर ब्याज की दर बढ़ाते हैं और संकट फट पड़ता है. मसलन अब ऑटोमोबाइल की बिक्री कम होने के बाद कंपनियों के लिए सस्ता कर्ज मुश्किल हो जाएगा. 

पूंजी और कर्ज की ताजा किल्लत के पीछे धतकरम और घोटाले छिपे हैं. इन्हें सूंघकर ही रिजर्व बैंक ने, सरकार के दबाव को नकार कर संकटग्रस्त गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) की मदद से न केवल इनकार कर दिया है बल्कि इनके लिए नए सख्त नियम भी बना दिए हैं.

दूसरी मोदी सरकार का पहला पूर्ण बजट, कर्ज व डिफॉल्ट की हकीकतों से अलग खड़ा नजर आए तो चौंकिएगा मत. अर्थव्यवस्था के सूत्रधारों की बेचैन निगाहें भी दरअसल बजट पर नहीं बल्कि अगली तिमाही पर है जब गिरती रेटिंग और बढ़ते घोटालों के बीच गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के 1.1 खरब रुपए के बकाया कर्ज वसूली के लिए आएंगे. 


Sunday, May 19, 2019

अबकी बार अलोकप्रिय...



नादेशों में हमेशा एक लोकप्रिय सरकार ही नहीं छिपी होतीकभी-कभी लोग ऐसी सरकार भी चुनते हैं जिसके पास अलोकप्रिय हो जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. 23 मई को जनादेश का ऊंट चाहे जिस करवट बैठेनई सरकार को सौ दिन के भीतर ही अलोकप्रियता का नीलकंठ बनना पड़ेगा.

अगर हर हाल में सत्ता पाना सबसे बड़ा चुनावी मकसद न होता तो जैसी आर्थिक चुनौतियां व हिमालयी दुविधाएं चौतरफा गुर्रा रही हैं उनके बीच किसी भी नए या पुराने नायक को जहर बुझी कीलों का ताज पहनने से पहले एक बार सोचना पड़ता.

भारत को संभालने की चुनौतियां हमेशा से भारत जितनी ही विशाल रही हैं लेकिन गफलत में मत रहिए, 2019, न तो 2009 है और न ही  2014. यह तो कुछ ऐसा है कि जिसमें अब श्रेय लेने की नहीं बल्कि कठोर फैसलों  से सियासी नुक्सान उठाने की बारी हैकरीब दस साल (मनमोहन-मोदीकी लस्तपस्त विकास दरढांचागत सुधारों के सूखे और आत्मतघाती नीतियों (नोटबंदीके बाद भारतीय अर्थव्यवस्था अपने नए नायक के लिए कांटों की कई कुर्सियां लिए बैठी है.

■ भारतीय कृषि अधिक पैदावार-कम कीमत के नियमित दुष्चक्र की शिकार हो चुकी हैसरकार कोई भी होजब तक बड़ा सुधार नहीं होताकम कमाई वाले ग्रामीणों को नकद सहायता (डायरेक्ट इनकमदेनी होगीअन्यथा गांवों का गुस्सासंकट में बदल जाएगा. 

■ भारत में निजी कॉर्पोरेट मॉडल लड़खड़ा गया हैपिछले पांच साल में निजी निवेश नहीं बढ़ाकंपनियों पर कर्ज बढ़ा और मुनाफे घटे हैंडूबती कंपनियों (जेटआइडीबीआइको उबारने का दबाव सरकार पर बढ़ रहा है या फिर बैंकों को बकाया कर्ज पर नुक्सान उठाना पड़ रहा है.बाजार में सिमटती प्रतिस्पर्धा और उभरते कार्टेल नए निवेशकों को हतोत्साहित कर रहे हैं.

■ रोजगार की कमी ने आय व बचत सिकोड़ कर खपत तोड़ दी है जिसे बढ़ाए बिना मांग और निवेश नामुमकिन है.

■ सुस्त विकासकमजोर मांग और घटिया जीएसटी के कारण सरकारों (केंद्र व राज्यका खजाना बदहाल हैकेंद्र का राजस्व (2019) में 11 फीसदी गिराबैंकों के पास सरकार को कर्ज देने के लिए पूंजी नहीं है. 2018-19 में रिजर्व बैंक ने 28 खरब रुपए के सरकारी बॉन्ड खरीदेजो सरकार के कुल जारी बॉन्ड का 70 फीसदी है.

■ बैंकों के बकाया कर्ज का समाधान निकलता इससे पहले ही गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसीबैंक कर्ज चुकाने में चूकने लगींकरीब 30 फीसदी एनबीएफसी को बाजार से नई पूंजी मिलना मुश्किल हैइधर 2022 से सरकारी कर्ज की देनदारी शुरू होने वाली है.

इन पांचों मशीनों को शुरू करने के लिए सरकार को ढेर सारे संसाधन चाहिए ताकि वह किसानों को नकद आय दे सकेबैंकों को नई पूंजी दे सकेथोड़ा बहुत निवेश कर सके जिसकी उंगली पकड़ कर मांग वापस लौटे और यहीं से उसकी विराट दुविधा शुरू होती हैसंसाधनों के लिए नई सरकार को अलोकप्रिय होना ही पड़ेगा.

होने वाला दरअसल यह है कि

■ सब्सिडी (उर्वरकएलपीजीकेरोसिनअन्य स्कीमेंमें कटौती होगी ताकि खर्च बच सकेक्योंकि लोगों को नकद सहायता दी जानी हैजब तक रोजगार नहीं लौटते तब तक यह कटौती लाभार्थियों पर भारी पड़ेगी.

■ सरकारों (खासतौर पर राज्योंको बिजलीपानीट्रांसपोर्ट जैसी सेवाओं की दरें बढ़ानी होंगी ताकि कर्ज और राजस्व का संतुलन ठीक हो सके. 

■ इसके बाद भी सरकारें भरपूर कर्ज उठाएंगीजिसका असर महंगाई और ऊंची ब्याज दरों के तौर पर दिखेगा.

■ खजाने के आंकड़े बताते हैं कि आने वाली सरकार अपने पहले ही बजट में टैक्स बढ़ाएगीजीएसटी की दरें बढ़ सकती हैसेस लग सकते हैं या फिर इनकम टैक्स  बढे़गा. 

भारतीय अर्थव्यवस्था आम लोगों की खपत पर चलती है और बदकिस्मती यह हैताजा संकट के सभी समाधान यानी नए टैक्स और महंगा कर्ज (मौसमी खतरे जैसे खराब मॉनसूनतेल की कीमतें यानी महंगाईखपत पर ही भारी पड़ेंगेइसलिए मुश्किल भरे अगले दो-तीन वर्षों में सरकारों के लिए भरपूर अलोकप्रियता का खतरा निहित है.

1933 की मंदी के समय मशहूर अर्थविद् जॉन मेनार्ड केंज ने अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट से कहा था कि अब चुनौती दोहरी हैएकअर्थव्यवस्था को उबारनाऔर दोबड़े और लंबित सुधार लागू करनातत्काल विकास दर के लिए तेज फैसले और नतीजे चाहिए जबकि सुधारों से यह रिकवरी जटिल और धीमी हो जाएगीजिससे लोगों का भरोसा कमजोर पड़ेगा.

लोगों का चुनाव पूरा हो रहा हैअब सरकार को तय करना है कि वह क्या चुनती हैकठोर सुधार या खोखली सियासतअब नई सरकार को तारीफें बटोरने के मौके कम ही मिलेंगे.   

Sunday, September 30, 2018

कर्ज पर कर्ज


क्या सरकारी बैंक ही बदकिस्मत हैं क्या वे ही  कर्ज के ढेर में दबे हैं ? तो फिर इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर लीजिंग एंड फाइनेंस लिमिटेड (आइएलऐंडएफएस) को क्या हुआ?

कर्ज का मर्ज और खतरनाक होकर गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) तक फैल गया है. इन्हें तो बैंकों की तरह डिपॉजिट जुटाने की छूट भी नहीं है. ये तो उधार लेकर उधार देने के धंधे में हैं.

भारत की अर्थव्यवस्था कुछ जरूरी सुधारों की अनदेखी करने की बड़ी कीमत चुकाने की तरफ बढ़ रही है.

आइएलऐंडएफएससरकारी-निजी भागीदारी में बुनियादी ढांचा विकास की अगुआ कही जाती है जिसने सरकारी राजमार्गों समेत 1.8 लाख करोड़ रु. के प्रोजेक्ट्स को कर्ज दिया है. इसी अगस्त तक रेटिंग एजेंसियां और बाजार इस पर आंख मूंद कर भरोसा कर रहे थे लेकिन एक माह बाद वह कर्ज चुकाने में नाकाम पाई गई.

कंपनी करीब 91,000 करोड़ रु. के कर्ज में दबी है और ब्याज देने में चूक रही है. प्रोजेक्ट से रिटर्न नहीं आ रहा है. बीते सप्ताह जब कंपनी सरकारी बैंक सिडबी का 1,000 करोड़ रु. का कर्ज नहीं चुका सकी तो अफरा-तफरी मच गई. अगले छह माह में इसे 3,600 करोड़ रु. कर्ज चुकाने हैं. आइएलऐंडएफएस 169 शाखा कंपनियों और संयुक्त उपक्रमों वाला वित्तीय समूह हैसरकारी बीमा कंपनी एलआइसी और स्टेट बैंक जिसमें सबसे बड़े हिस्सेदार हैं.

यह आशंका पहले दिन से ही थी कि अगर एक मंदी लंबी खिंच गई तो गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों का कारोबारी मॉडल घुटनों पर आ जाएगा. गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां बैंकों से कर्ज लेती हैं या कॉमर्शियल पेपर (औसतन एक साल की अवधि) के जरिए बाजार से कर्ज उठाती हैं. आखिर कर्ज लेकर कर्ज देने का मॉडल कैसे चलता?

इक्रा और बीसीजी (बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप) की ताजा रिपोर्ट बताती है कि हमारे नियामक और सरकार कैसी खुशफहमियों में जी रहे हैः
  • ·      2014 से 2017 के बीच कुल कर्ज में बैंकों का हिस्सा 49 फीसदी से घटकर 28 फीसदी पर आ गया जबकि एनबीएफसी का हिस्सा 21 फीसदी से बढ़कर 44 फीसदी हो गया. यानी बैंकों से कर्ज लेकर इन्होंने बैंकों से ज्यादा कर्ज बांट दिए.
  • ·       इस साल मार्च के अंत तक इन कंपनियों ने करीब 7.5 खरब रु. का खुदरा कर्ज बांटा था. इनके कर्ज में अनसिक्योर्ड (गैर-जमानती) कर्ज (माइक्रोफाइनेंसछोटे निजी लोन जैसे मोबाइल) सबसे तेजी से (40 से 53 फीसदी) से बढ़ रहे हैं. जानना जरूरी है कि अनसिक्योर्ड कर्ज सबसे ज्यादा जोखिम भरे होते हैं.
  • ·   एनबीएफसी अपने 40 फीसदी संसाधन बैंकों के कर्ज से और 38 फीसदी बाजार से डिबेंचर के जरिए जुटाती है. इन पर बकाया बैंक कर्ज 27 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रहा है. इस साल मार्च में यह एक लाख करोड़ रु. था. अगले छह माह में एनबीएफसी के 60 फीसदी डिबेंचर वसूली के लिए तैयार हैं. दूसरी तरफब्याज दर बढऩे लगी है.
  • ·       एनबीएफसी के कुल फंसा हुआ कर्ज उनके कुल कर्ज के अनुपात में 5.8 फीसद है और बैंकों के 11.8 फीसदी. यानी कि पूरा वित्तीय सिस्टम कर्ज के टाइम बम पर बैठा है.

·       बैंकों के बाद एनबीएफसी के लडख़ड़ाने के तीन बड़े असर होने वाले हैः
  • बैंकों के कर्ज वैसे भी ठप हैं, ऑटोमोबाइल (सबसे ज्यादा ट्रैक्टर)उपभोक्ता उत्पादोंछोटे उद्योगों को कर्ज की आपूर्ति और सीमित हो जाएगीजिसका असर मांग पर नजर आएगा.
  • · एनबीएफसी की मुसीबतों ने कर्ज के बाजार को तोड़ दिया है. निवेशकों ने बड़े पैमाने पर बिकवाली की है. अगर डिफॉल्ट बढ़ते हैं तो सबसे बड़ा असर म्युचुअल फंड पर होगा जो इन कंपनियों के कर्ज इश्यू में भारी निवेश करते हैं. छोटे निवेशक मार खाएंगे. शेयर बाजार टूटने से उनके हाथ पहले ही जल रहे हैं.

कौन कहता है कि भारत में चीन की तरह शैडो बैंकिंग नहीं है. कर्ज लेकर कर्ज देने का काम तब खूब चला जब तक मंदी नहीं थी. बस एक मंदी आई तो कर्ज संकट के पलीते सुलग उठे हैं. महान सुधारों के दावेदारों को बताना चाहिए कि पिछले चार साल में उन्होंने वित्तीय तंत्र में कौन से सुधार किए. बैंकों की बीमारी तो दूर हुई नहींगैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां भी संकट के घाट पहुंचने लगी हैं. 

बैंकों को तो सरकार बचा लेगी लेकिन इन कंपनियों की मदद कौन करेगाइनके डूबने से क्या बैंक और शेयर बाजार नहीं डूबेंगेबैंकों से लेकर एनबीएफसी तक हर जगह आम लोगों की बचत ही दांव पर है.

यूरोप-अमेरिका के कर्ज संकट से तुलना डरावनी हो सकती है लेकिन हमने लीमैन संकट से कुछ नहीं सीखा. आर्थिक विपदाएं आम लोगों को ही मारती हैंनेताओं की तो हमेशा पौ-बारह है.