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Sunday, March 19, 2023

सदि‍यों में होता है जो


 

अर्थव्‍यवस्‍थाओं को हमेशा के लिए कौन बदल सकता है .. 

मंदी

महामारी

युद्ध

राजनीत‍ि

शायद नहीं यह तो वक्‍त चादर की सलवटें हैं ...

अर्थव्‍यवस्‍थायें तो बदलते हैं लोग

बहुत से लोग

जनसंख्‍या की ताकत

दुन‍िया तो दरअसल संतानों का अर्थशास्‍त्र है

यह अर्थशास्‍त्र जब करवट लेता है तो महाप्रतापी समय भी नतमस्‍तक हो जाता है क्‍यों कि यह बदलाव सद‍ियों आते हैं और सदियों तक असर करते हैं.

अब दुनिया ठीक एसे ही एक महासंक्रमण की दहलीज पर है.

इसे समझने के लिए हमें कुछ पीछे जाना होगा

तो आइये बैठ‍िये एक टाइम मशीन में  और शुरु कीजिये तीन सौ साल का सफर. चलते हैं 18 वीं सदी से 21 वीं  सदी की तरफ यानी अतीत से वर्तमान की ओर

इस  यात्रा में सबसे पहले आपको दिखेगा यूरोप का बदलता नक्‍शा.  तीस साल लंबे युद्ध के बाद  यानी थर्टी इयर्स ऑफ वार के यूरोप के देशों के बीच वेस्‍टफीलिया की संध‍ि. 300 साल के सफर में आपको चीन में दो साम्राज्‍यों मिंग और क्‍व‍िंग का पतन नजर आएगा. नेपोल‍ियन के युद्ध मिलेंगे,  फ्रांस की क्रांति मिलेगी, यूरोप की औद्योगिक क्रांति मिलेगी. भारत मे मुगलों का पराभव मिलेगा. भारत और अमेरिका से कारोबार के लिए ब्रिटेन, पुर्तगाली, स्‍पेन, डच के बीच होड़ मिलेगी. फिर दिखेगी अमेरिका और भारत की गुलामी और आजादी का संघर्ष.  इस सफर में मिलेगा लाखों की जाने लेने वाला स्‍पेन‍िश फ्लू , महामंदी मिलेगी, दो महायुद्ध मिलेंगे.  ‍‍

अलबत्‍ता सम्राटों युद्धों और तबाही के इतिहास से अपनी नजरें हटायें तो आपको पता चलेगा कि यह दौर लोगों के लिए यानी आबादी के लिए सबसे बुरा था. गुलामी बर्बरता खून खच्‍चर गरीबी बदहाली . अध‍िकांश लोगों के पास इसके अलावा और कुछ नहीं था. यह दौर था जब दुनिया में औसत आयु केवल 27 साल थी. प्रजनन दन (फर्ट‍िल‍िटी रेट)  काफी ऊंची थी  एक महिला करीब छह बच्‍चों को जन्‍म देती थी लेक‍िन इनमें अधिकांश जीव‍ित नहीं रहते थे. आबादी की वृद्ध‍ि दर बमुश्‍क‍िल आधा फीसदी थी. 17 वीं 18 वीं सद‍ियां और 19 वीं सदी का बड़ा हिस्‍सा ऊंची जन्‍म दर, बड़ी संख्‍या में युवा आबादी, बदतर जीवन स्‍तर और ऊंची मृत्‍यु दर के साथ गुजरा था

फिर आप को म‍िलेगी 19 वीं सदी की शुरुआत जहां जिंदगी थोड़ी सी बदलने लगी. यूरोप में मृत्‍यु दर घटने लगी थी, जन्‍म दर भी कम हुई, फिर यह पूरी दुन‍िया में हुआ  और एक जनसंख्‍या संक्रमण आकार लेने लगा.  बीसवीं सदी की शुरुआत तक दुनिया की आबादी एक अरब के पास पहुंचने लगी थी. आबादी बढ़ने की रफ्तार रफ्ता रफ्ता तेज हो रही थी.

बीसवीं सदी की शुरुआत के साथ सब कुछ बदल गया जीवन प्रत्‍याशा दर बढ़ी. जन्‍म दर घटी और 21 वीं सदी की शुरुआत तक दुनिया की आबादी 1800 की तुलना में छह गुना बढ़ गई. बच्‍चों की तुलना में बुजुर्गों का अनुपात तीन गुना बढ़ा. करीब सौ साल पहले महिलायें अपने युवा जीवन का 70 फीसदी हिस्‍सा बच्‍चों जन्‍म देने और पालने में गुजारती थीं वह 21 वीं सदी की शुरुआत तक घटकर 14 फीसदी रह गया.

यही वह दौर था जब संतानों अर्थशास्‍त्र ने अर्थव्‍यवस्‍थाओं की सीरत और सूरत बदल दी. अमेरिका में बेबी बूमर्स (1946 से 1964 के बीच जन्मे) ने अमेरिका को 30 साल की सबसे तेज विकास दर की नेमत बख्शी, जिसे 2000 में बिल क्लिं‍टन ने नई अर्थव्यवस्था कहा था। (इन बेबी बूमर्स के हाथ अमेरिका की 70 फीसदी एसी कमाई (खर्च योग्य आय) है जिस पर बाजार झूम उठते हैं है). अमेरिका को एक और बड़े जनसंख्या संक्रमण का लाभ मिला जो 2000 की पीढ़ी थी जिन्हें मिलेनियल्स कहा गया हालांकि यह मिलेन‍ियल्‍स ठीक उस वक्‍त अर्थव्‍यवस्‍था में आए जब 2008 की मंदी आ धमकी थी. इधर 1980 के बाद चीन और भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं ने अपनी जनसंख्या को खपत, उत्पादन और श्रम शक्ति‍ का बाजार बनाया जबकि यूरोप में बुढापा घ‍िरने लगा  

आबादी की चक्‍की

कहते हैं जनसंख्‍या की चक्‍की इतनी धीमी चलती है और इतना महीन पीसती है हम अक्‍सर भूल ही जाते है लोगों से अर्थव्‍यवस्‍था बनती है है अर्थव्‍यवस्‍था से लोग नहीं.  यह पहिया अपना सबसे बड़ा संक्रमण करने जा रहा है. दुनिया में जनसंख्‍या का संतुलन स्‍थायी तौर पर बदलने जा रहा है. यह संक्रमण तीन सौ  साल में सबसे बड़ा बदलाव शुरु हो चुका है पहली बार होगा. आने वाले में दशकों में दुनिया को चाहे जो राजनीति बर्दाश्‍त करनी पड़े, चाहे जो  सरकारें आए या जाएं , विज्ञान और तकनीक के नए श‍िखर कितने भी ऊंचे हों जनसंख्‍या का यह परिवर्तन  कामागारों की कमी , वेतन बढ़ने के दबाव, उत्‍पादन में कमी और जिद्दी महंगाई लेकर आएगा

चौंक गए न !

यह चारों बदलाव अर्थव्‍यवस्‍था के बारे में हमारी मौजूदा समझ को उलट पलट कर सकते हैं लेक‍िन आबादी और अर्थव्‍यवस्‍था को रिश्‍तों को करीब से पढ़ने वाले इस संक्रमण की शुरुआत का बिगुल बजा रहे हैं. महामारी की चीख पुकार के बीच दुनिया के विशेषज्ञ जनसंख्‍या की नई करवट को समझ रहे हैं चार्ल्‍स गुडहार्ट और मनोज प्रधान की ताजा किताब द ग्रेट डेमोग्राफ‍िक रिवर्सल – एजिंग सोसाईटीज, वैनिंग इनइक्‍व‍िलिटीज एंड एन इन्‍फेलशन रिवाइवल इस संक्रमण पर नई रोशनी डालती है

 काम होगा कामगार नहीं

भारत की तपती बेरोजगारी के बीच यह बात कुछ अटपटी सी लगेगी लेक‍िन दुनिया की आबादी की नई करवट समझने वाले इस अनोखी किल्‍लत की तैयारी कर रहे हैं.

1950 के बाद दुनिया तीन धीमे लेक‍िन बड़े बदलाव हुए हैं. प्रजनन दर यानी फर्टि‍ल‍िटी रेट बीते शताब्‍दी की तुलना मेंआधी करीब 2.7 फीसदी रह गई. जिंदगी लंबी हुई. 2000 तक 50 साल में दुनिया की आबादी दोगुनी हो गई और युवा आबादी का अनुपात मजबूती से बढ़ने लगा. इस बदलाव ने दुनिया में कार्यशील आयु वाली लोगों की संख्‍या में तेज बढ़ोत्‍तरी की. यह चार्ट इस अभूतपूर्व बदलाव की नजीर है

श्रमिकों का आपूर्त‍ि का स्‍वर्ण युग आया 1990 के बाद. तब तक बेबी बूमर्स यानी 1950 से 1964 के बीच जन्‍मे लोग बाजार में आ गए थे. 1991 से 2018 विकस‍ित अर्थव्‍यवस्‍थाओ में श्रमिकों की आूपर्ति दो गुनी से ज्‍यादा हो गई. काम तो मिला लेक‍िन वेतन बहुत नहीं बढ़े क्‍यों कि श्रमिक आपूर्ति ज्‍यादा थी. चीन की विकास कथा इसी दौर मे बनती है. भारत और एश‍िया की अर्थव्‍यवस्‍थाओं ने भी इस संक्रमण को पूरा लाभ लिया. अलबत्‍ता उत्‍पादन बढ़ा और दुनिया ने करीब 28 साल तक महंगाई नहीं देखी. जिसका लाभ जीवन स्‍तर बेहतर होने के तौर पर सामने आया.

बीते करीब 60 सालों में दुनिया का हर परिवार बीती सदी के तुलना में अमीर हुआ है. छोटे परिवार रखना कमाई की गारंटी थी और लंबे समय तक काम करने का मौका था इसलिए आय में बढ़ोत्‍तरी हुई हालांकि यह पूरी दुनिया में असमान थी. क्‍यों कि एक छोटी सी आबादी की आय ज्‍यादा तेजी से बढ़ी.

अब यह पूरा पर‍िदृश्‍य  बदलने वाला है.  एक नई दुनिया हमारे सामने होगी.

दुनिया के ज्‍यादातर देशों में कार्यशील आबादी कम होती जाएगी. अब उतने श्रमिक नहीं होंगे. जापान, कोरिया, जर्मनी, रुस, चीन, इटली, फ्रांस, चीन  में अब बुढ़ापा घिर रहा है. चीन ने 1990 से 2015 के करीब 29 करोड लोग कार्यशील आबादी में जोडे.  अब 2050 तक 22 करोड़ लोग श्रम बाजार से बाहर हो जाएंगे क्‍यों कि उनकी उम्र काम के लायक नहीं रहेगी.

इसका असर धीमी आर्थ‍िक विकास दर के तौर पर सामने आएगा. विशेषज्ञ मान रहे हैं कि उत्‍पादन घटेगा क्‍यों कि श्रमिकों की कमी भी होगी, खपत भी गिरेगी. बहुत तेज विकास दर के दिन अब गए. अगले करीब तीन दशकों में भारत चीन जैसे एश‍ियाई अर्थव्‍यवस्‍थायें औसत 6 से 8 फीसदी के बीच विकास दर हासिल कर पाएंगी. यूरोप की अर्थव्‍यवस्‍थाओं कीविकास दर तो तीन फीसदी से भी नीचे रहेगी. यह संक्रमण  ग्‍लोबलाइजेशन की रफ्तार को भी धीमा कर सकता क्‍यों कि श्रमिकों आपूर्ति सीमित होगी. प्रवासी श्रमिकों को रोजगार देना राजनीतिक रुप से मुफीद नहीं होगा. इसलिए दुनिया को देशों के जो सामान सेवायें आयात करते थे उनमें से कई मामलेां उन्‍हें अपने यहां नई क्षमतायें बनानी होंगी

 महंगाई की वापसी

सन 2000 के बाद यहां युवा और बुजर्ग आबादी का अनुपात बदल रहा है. आबादी का का ड‍िपेंडेंसी रेश‍ियो कमजोर हो रहा है यह इस वक्‍त अर्थव्‍यवस्‍था का सबसे प्रभावी फार्मूला है. यह अनुपात बताता है कि आबादी कार्यशील लोगों पर कितने बच्‍चे और बुजुर्ग निर्भर हैं.

किसी भी जनसंख्‍या में बच्‍चे और बुजुर्ग शुद्ध उपभोक्‍ता हैं. वह कार्यशील लोगों पर निर्भर हैं. यह आबादी उत्‍पादन करती है खपत करती है और बचत करती है. इसलिए इस अनुपात में गिरावट अर्थव्‍यवस्‍था के अचछी मानी जाती है. 1950 तक यह अनुपात संतुलित था. बाद के दशकों में इसमें बढोत्‍तरी हुई.  1990 के इसमें बढ़त हुई है. कार्यशील आबादी घट रही है जबकि उस पर निर्भर आबादी बढ़ रही है.

1990 के बाद  श्रम बाजार में औसत श्रमिकों की कार्यशील आयु स्‍थि‍र होने लगी थी. बाद मे वर्षों में इसमें तेज गिरावट आई. इसी के साथ सभी बडी अर्थव्‍यवस्‍थाओं में ड‍िपेंडेसी रेश‍ियो बढ़ने लगा

 आबादी का ड‍िपेंडेसी रेश‍ियो महंगाई के लिए सबसे जरुरी कारक है. 1870 से 2016 के बीच दुनिया के 22 प्रमुख देशों में महंगाई और जनसंख्‍या के रिश्‍तों पर अध्‍ययन बताता है कि कार्यशील आबादी कम होने से वेतन बढ़ने का दबाव बनता है. यद‍ि खपत करने वाली आबादी , उत्‍पादक आबादी से ज्‍यादा है तो मतलब है कि आबादी का एक  बड़ा हिस्‍सा  उतादन नहीं करेगा बल्‍क‍ि केवल उपभोग करेगा. इस उत्‍पादन के ल‍ि कम लोगों को ज्‍यादा वेतन देने होंगे जिसका असर उत्‍पादन लागत पर दिखता है. और इससे बढ़ती है महंगाई. आबादी में आयु का संतुलन बदलने के बाद खपत भी कम होती है जो उत्‍पादकों के कम बिक्री पर ज्‍यादा कीमत वसूलने का मौका देती है.

 जनसंख्‍या की चक्‍की धीमा पीसती है इसलिए सब कुछ तुरंत नहीं बदलेगा अलबत्‍ता लंबी अवध‍ि में कई बडे असर होने वाले हैं

-         महंगाई बढ़ने के साथ खपत में कमी और उपभोग में भी कमी क्‍योंकि बुढ़ाती आबादी की खपत कम होती है. इसका मतलब यह कि अब बल्‍ल‍ियों उछली विकास दर की जरुरत नहीं होगी क्‍यों कि मांग कम रहेगी

-         बुजर्ग आबादी अपनी पुरानी बचतों पर जियेगी नई बचतें नहीं होगी इसलिए  निवेश को कर्ज पर निर्भर रहना होगा. महंगाई के बीच यह पर‍िस्‍थ‍िति‍ ब्‍याज दरों को ऊंचा रख सकती है.

-         निवेश में कमी होने की संभावना कम है क्‍यों कि आबादी का संतुलन बदलने के साथ आवासों पर सबसे जयादा निवेश चाहिए. बुजुर्गों को रहने के लिए घर चाहिए. गुडहार्ट और प्रधान अपने अध्‍ययन बता रहे हैं कि पूरी दुनिया में हाउस‍िंग की मांग बढेगी अलबत्‍ता इसके लिए कर्ज भी जरुरत में भी इजाफा होगा

-         कर्ज इसल‍िए भी महंगा रह सकता है क्‍यों कि सरकारों को बुजुर्ग कल्‍याण पर खर्च बढ़ाना होगा. यह स्‍वास्‍थ्‍य पेंशन शहरी सुव‍िधाओं पर होगा. बीते करीब 40 सालों से सरकारों ने इस तरफ सोचा नहीं. अब बुजुर्ग आबादी सबसे बडी राजनीतिक मजबूरी बनती जाएगी.

-         सरकारों को पेंशन के पूरे ढांचे बदलने होगे. सेवानिवृत्‍त‍ि की आयु बढ़ाना जरुरी होगा क्‍यों कि जीवन प्रत्‍याशा बढ़ने से लोग 70 साल तक काम कर सकते हैं. यह पेंशन बजटों के संतुल‍ित करेगा

-          स्वास्थ्य सेवाओं को सड़कबिजलीदूरसंचार की तर्ज पर विकसित करना होगा ताकि कार्यशील आयु बढ़ाई जा सके और 65 की आयु वाले लोग 55 साल वालों के बराबर उत्पादक हो सकें.

-         मेकेंजी का मानना है कि स्वास्थ्य में नई तकनीकें लाकरबेहतर प्राथमि‍क उपचारसाफ पानी और समय पर इलाज देकर बडी आबादी की सेहत 40 फीसदी तक बेहतर की जा सकती है. स्वास्‍थ्य पर प्रति 100 डॉलर अतिरिक्त खर्च हों जीवन में प्रति वर्षएक स्वस्थ वर्ष बढाया जा सकता है. स्वास्थ्य सुविधायें संभाल कर, 2040 तक दुनिया के जीडीपी में 12 ट्रि‍ि‍लयन डॉलर जोडे जा सकते हैं जो ग्लोबल जीडीपी का 8 फीसदी होगा यानी कि करीब 0.4 फीसदी की सालाना बढ़ोत्तरी

-         विशेषज्ञ मान रहे हैं कि वेतन बढ़ने की संभावनाओं के बीच यह  बदलाव अगले कुछ दशकों में आय असमानता कम कर सकता है लेक‍िन यहां तस्‍वीर बहुत धुंधली है, वक्‍त ही बतायेगा कि क्‍या हुआ.

 

अर्थशास्‍त्र का सबसे लोहा लाट नियम किसी बैंक बजट या मुद्रा पर आधारित नहीं है. यह तो लोगों पर आधार‍ित है

आर्थ‍िक विकास = लोगों की संख्‍या में कमी बेशी+लोगों की उत्‍पादकता में बढ़ोत्‍तरी

 कोई भी अर्थव्‍यवस्‍था अर्थव्‍यवस्‍था लोगों की संख्‍या और उनकी उत्‍पादकता बढाकर ही आगे बढती है. यह फार्मूला मांग बचत और टैक्‍स का फार्मूला है

यही फार्मूला अब नई करवट ले रहा है

अगली सदी की दुनिया नई दुनिया होगी

 

 

Sunday, March 20, 2022

एसे बदलता है इतिहास


क्‍या दुनिया का ऊर्जा बाजार इजरायल और सीरिया व इज‍िप्‍ट के बीच यॉम किपुर युद्ध वाले प्रस्‍थान बिंदु पर आ गया है  ?

युक्रेन पर रुस का हमला और दुनिया के तेल गैस बाजारों में अफरा तफरी हमें 1970 वाले मुकाम पर ले आई है जहां से ऊर्जा बाजार को नई दिशा चुननी पड़ी थी

वह यॉम किपुर का ही दिन था. यहूद‍ियों का सबसे पवित्र सबसे मुबारक दिन. कहते हैं इसी दिन मोजे़ज पर ज्ञान उतरा था यहूदियों के लिए यॉम किपुर को क्षमा याचना और प्रायश्‍च‍ित का दिन है  हैं. 1973 का  यॉम क‍िपुर अक्‍टूबर में आया था.

इज़रायल की खुफ‍िया एजेंसियों को अनुमान तो था कि 1967 के छह दिन वाले युद्ध बदला लेने के लिए इजिप्‍ट और सीरिया कुछ तो करने वाले हैं .. 1967  में जब  इज़रायल की वायुसेना ने 5 जून की सुबह अचानक सुबह इजिप्‍ट और सीरिया के हवाई अड्डों पर हमला इन देशों की 90 फीसदी वायु सेना खत्‍म कर दी थी और  गाज़ा पट्टी व  सि‍नाई प्रायद्वीप पर कब्‍जा कर ल‍िया.

अनवर सादात और असद के नेृतत्‍व में इजिप्‍ट और सीर‍िया ने  6 अक्‍टूबर की दोपहर 1973 इजरायल पर बहुत बड़ा हमला बोला. गोल्‍डा मायर के इज़़रायल को तगड़ी चोट लगी. अमेरिकी राष्‍ट्रपति रिचर्ड निक्‍सन इज़रायल की मदद के लिए आगे आए. तो ओपेक देशों ने अमेरिका को तेल निर्यात रोक दिया और उत्‍पादन घटा दिया. तेल की कीमत खौलने लगी. अमेर‍िका में ऊर्जा संकट शुरु हो गया.

ओपेक का ऑयल इंबार्गो  अमेरिका की महंगाई के बीच आया थी. 1968 से 1973 के बीच ब्रेटन वुड्स व्‍यवस्‍था खत्‍म हो रही थी. जिसके तहत सोने के बदले डॉलर का एक मूल्‍य तय किया गया था  जो 35 डॉलर प्रति औंस था. राष्‍ट्रपति निक्‍सन ने अगस्‍त 1973 में डॉलर और सोने का रिश्‍ता खत्‍म कर दिया. डॉलर के अवमूल्‍यन से अमेरिकी निर्यात को फायदा हुआ लेक‍िन तेल निर्यातक देशों को बड़ा नुकसान हुआ जिनका निर्यात की कमाई डॉलर में थी. इस वजह से भी  अमेर‍िका को तेल निर्यातकों का गुस्‍सा झेलना पड़ा.

ब्रेटन वुड्स गया तो अन्‍य देशों ने अपने मुद्रा विनिमय न‍ियम तय करने शुरु कर दिये. अमेरिका को तेल निर्यात पर पाबंदी मार्च 1974 में खत्‍म हो गई. सितंबर 1978 में कैम्प डेविड समझौते के साथ मध्‍य पूर्व के देशों और इज़रायल का झगड़ा भी निबट गया लेकिन अमेरिका पर ओपेक की छह  माह तेल निर्यात पाबंदी के साथ पूरी दुनिया में  ऊर्जा बाजार में बड़े बदलाव की बुनियाद रख दी गई .

यहां से  यूरोप में नेचुरल गैस और विंड एनर्जी, सौर ऊर्जा और बाद में दशकों में अमेरिका में शेल ऑयल का उत्‍पादन परवान चढ़ा.

अलबत्‍ता इन बदलावों से पहले युक्रेन में फटती मिसाइलों के बीच ऊर्जा बाजार के मौजूदा माहौल को करीब देखना जरुरी है ताकि इसका यॉम किपुर संदर्भ  समझा जा सके

बहुत कुछ बदल गया तब से

2006 और 2009 में रुस ने यूक्रेन के जरिये यूरोप जाने वाली गैस की आपूर्ति में कटौती की थी. यह गैस का रणनीतिक प्रयोग था. कई देशों  में औद्योगिक उत्‍पादन पर गहरा असर पडा. इसके बाद 2010 ने नाटो ने ऊर्जा सुरक्षा पर ब्रसेल्स में एक नया डिवीजन और ल‍िथुआन‍िया में विशेष केंद्र बनाया.

बीसवीं सदी के अंत से दुनिया में पर्यावरण की जागरुकता के साथ बिजली उत्‍पादन  के लिए प्रदूषण वाले कोयले की जगह नेचुरल गैस का प्रयोग होने लगा.  जिसकी मदद से कार्बन उत्‍सर्जन में कमी आई. यूरोस्‍टैट के आंकड़ों के अब केवल 20 फीसदी ऊर्जा कोयले से आती है 80 फीसदी बिजली उत्‍पादन में क्षमता विंड एनर्जी सहित अक्षय ऊर्जा स्रोतों और  नेचुरल गैस व ऑयल बराबर के हिस्‍सेदार हैं.  यूरोप 2025 तक अपने अध‍िकांश कोयला बिजली संयंत्र खत्‍म कर देगा.

इस बदलाव से नेचुरल गैस बीते एक दशक में नेचुरल गैस और एलएनजी की मांग करीब 6 फीसदी की सालाना दर से बढ़ी  जो प्रमुख तेल कंपनी शेल के अनुसान 2040 तक दोगुनी हो जाएगी.

यूरोप को नॉर्थ सी गैसे मिलती थी जिसका उत्‍पादन कम होने लगा था.  यूरोप को बिजली के साथ सर्दी में घर गर्म रखने के लिए भी गैस चाहिए. मांग बढ़ी तो  रुस की ताकत गैस के बाजार में बढ़ती चली गई जो करीब 47.8 अरब क्‍यूबिक मीटर गैस उत्‍पादन के दुनिया का सबसे बड़ा गैस उत्‍पादक है और यूरोप अपनी 40 फीसदी जरुरत के लिए  रुस की गैस का मोहताज़ है. जो चार पाइपलाइनों के जरिये यूरोप आती है जिसमें एक नार्ड स्‍ट्रीम का दूसरा चरण जिस पर अब प्रति‍बंध लग गया है. यह लाइन तैयार है बस शुरु होने वाली थी.  यूरोप के लिए  नार्वे दूसरा बड़ा स्रोत है. अल्‍जीरिया तीसरा.

रुस के बाद  गैस का दूसरा सबसे बड़ा उत्‍पादक देश ईरान है और फिर कतर और अमेरिका हैं. ईरान से टर्की होते हुए एक गैस पाइप लाइन यूरोप तक आनी थी जिसे पर्श‍ियन पाइप लाइन कहा गया था. ईरान पर प्रतिबंधों के बाद यह योजना अधर में है.

रुस की ताकत का तोड़

कच्‍चे तेल के उत्‍पादन में जो ताकत अरब देशों के पास संयुक्‍त तौर पर  है वह गैस में वह अकेले रुस के पास  है.  रुस ने बदलती भू राजनी‍त‍ि में  नेचुरल गैस की बड़ी पाइपलानों से टर्की और चीन को जोड़ा है. टर्कस्‍ट्रीम पाइप लाइन  यूक्रेन को अलग करते हुए ब्‍लैक सी के रास्‍ते टर्की जाती  है जिसका उद्घाटन जनवरी 2020 में हुआ. पॉवर ऑफ साइबेरिया पाइप लाइन चीन को गैस पहुंचाती है. यह यूरोप वाले गैस नेटवर्क का हिस्‍सा नहीं यानी रुस रणनीतिक तौर पर यूरोप में गैस महंगी करती है चीन में नहीं. पॉवर ऑफ साइबेरिया पाइप लाइन का दूसरा चरण शुरु होने वाला है. कजाकस्‍तान के जरिये एक और लाइन डालने की तैयारी भी है.

2019 के बाद यूरोप में विंडी एनर्जी का उत्‍पादन घटा, कोविड के कारण गैस व तेल की आपूर्ति बाधित हुई और 2019 से गैस कीमत बढ़ने लगी. कोविड के बाद 2021 में गैस की कीमत 500 फीसदी तक बढ़ गई. बीते दो बरसों के दौरान ओपेक ने अंतरराष्‍ट्रीय दबाव के बावजूद  तेल उत्‍पादन में बढ़ोत्‍तरी की नियंत्र‍ित रखा है और कीमतों कम नहीं होने द‍िया.

अब रुस यूक्रेन जंग के बाद यूरोप में बिजली और परिवहन महंगी हो रहा है वहीं कोयला संयंत्रों को बंद करने योजना पर फिर से विचार हो रहा है यानी पर्यावरण के लिए खतरा बढ़ जाएगा. दूसरी तरफ पूरी दुनिया में तेल की प्रमुख खपत वाले देशों को पूरी अर्थव्‍यवस्‍था ही टूट रही है. तेल और गैस एक साथ महंगे हाते हैं तो एलएनजी जो टैंकर दुनिया भर में जाती है उसकी कीमतों में भी आग लगी है.

क्‍या बदल गया 1970 के बाद

वापस लौटते हैं यौम किपुर यानी 1970 के तेल इंबार्गो की तरफ, जिसके बाद अमेरिका को ईरान संकट से कारण भी तेल की कमी झेलनी पड़ी थी.  उस संकट ने दुनिया को एक तरह से बदल दिया

पहला- अमेरिका में ऊर्जा नीति बदली. तेल गैस की खोज में निवेश बढ़ा. जो शेल तक आया. तेल के इस्‍तेमाल से अमेरिका में बिजली का उत्‍पादन लगभग खत्‍म हो गया. अमेरिका 2018 में दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्‍पादन और  2019 तेल आयात में  आत्‍मनिर्भर  हो गया. निर्यात भी खोल दिया.

दूसरा- रणनी‍त‍िक तेल रिजर्व बनने शुरु हुए.

तीसरा- आटो कंपनियों के लिए नियम बदले.तेल निगलने वाली कारों की जगह छोटी और ज्‍यादा माइलनेज की कारें बननी शुरु हुई. इस क्रांति पूरी दुनिया में आटो उद्योग को पंख लग गए

चौथा. अक्षय उर्जा यानी विंड सोलर ऊर्जा और एथनॉल के आदि के उत्‍पादन शुरु हुए. इसके बाद यूरोप ने तेजी से अपनी बिजली उत्‍पादन को अक्षय ऊर्जा पर केंद्रित किया

अब आगे क्‍या

रुस यूक्रेन संकट बाद 2022 1970 की तुलना में 2022 और कठिन है क्‍यों कि तेल और गैस की बादशाहत सिरफिरे और जिद्ी नेताओं के हाथ है जबकि दुनिया सस्‍ती ऊर्जा के लिए बेचैन है जिसमें नेचुरल गैस उसकी पूरी रणनीति का केंद्र है. अब रुस और अरब मुल्‍क मिलकर देशों की अर्थव्‍यवस्‍था चौपट कर रहे  हैं.

यहां तीन प्रमुख रास्‍ते निकलते दिखते हैं

पहला- दुनिया इलेक्‍ट्र‍िक वाहनों की तरफ जा रही है ताकि पेट्रोल निर्भरता और प्रदूषण रोका जा सके. लेकिन बिजली के लिए नेचुरल गैस पर निर्भरता बढ़ती जा रही है जहां ओपेक जैसा ही हाल है. अब अगले एक दशक में दुनिया को कोयले से पर्यावरण के तौर पर सुरक्ष‍ित बिजली बनाने पर निवेश करना होगा क्‍यों कि वही एक ऊर्जा स्रोत है जो लगभग हर महाद्वीप के पास है. वर्ल्‍ड कोल एसोस‍िएशन के अध्‍यन मानते हैं कि कोयल से ग्रीन एनर्जी पूरी तरह मुमक‍िन है और इसकी तकनीकें तैयार हैं.

दूसरा- दुनिया के देशों को नेचुरल गैस और तेल के नए स्रोत तलाशने होंगे. साइंस डायरेक्‍ट में प्रकाशित अध्‍ययन मानते हैं कि दुनिया में अभी आधे रिजर्व भी खोजे गए हैं. इनमें बड़ा हिस्‍सा समुद्रों में है. जिसकी तलाश करनी होगी. 2015 में जीई की एक रिपोर्ट ने बताया था भारत में करीब 18 ट्र‍िलियन क्‍यूबिक फिट का रिजर्व पहचाना जा चुका है मगर उत्‍पादन शुरु नहीं हुआ है.

तीसरा- न्‍यूनतम प्रदूषण के साथ हाइड्रोजन एनर्जी भविष्‍य का‍ विकल्‍प है. अभी यह महंगी है और तकनीकें बन रही हैं लेकिन 1970 में शेल गैस या विंड एनर्जी के बारे में भी इसी तरह के ख्‍याल थे

दुनिया का पहले  ऊर्जा मानच‍ित्र को 1970 के अरब इजरायल युद्ध ने बदला था. 2010 तक दुनिया पूरी तरह बदल चुकी थी अब 2050 तक हम नए नई ऊर्जा अर्थव्‍यवस्‍था में होंगे जो शुरुआत में महंगी हो सकती है लेकिन बाद में शायद सुरक्ष‍ित और स्‍थायी हो सकेगी.