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Saturday, June 1, 2019

अब नहीं तो कब?


नरेंद्र मोदी भारत के आर्थिक उदारीकरण की एक नई लहर का नेतृत्व करने के करीब खड़े हैंअमेरिका और चीन का व्यापार युद्ध भारत को इस मुकाम पर ले आया है जहां से भारतीय अर्थव्यवस्था का दूसरा वैश्वीकरण शुरू हो सकता है.

इस बदले परिदृश्य को समझने में इतिहास हमारी मदद के लिए खड़ा है

क्रिस्टोफर कोलम्बस की अटलांटिक पार यात्रा में अभी 62 साल बाकी थेकोलम्बस के जहाजी बेड़े सांता मारिया से पांच गुना बड़े जहाजी कारवां के साथ अफ्रीका तक की छह ऐतिहासिक यात्राओं के बाद महान चीनी कप्तान जेंग ही जब तक चीन लौटा (1424), तब तक मिंग सम्राट योंगल का निधन हो चुका थाचीन के नए राजवंश ने समुद्री यात्राओं पर पाबंदी लगाते हुए दो मस्तूल से अधिक बड़े जहाज बनाने पर मौत की सजा का ऐलान कर दियाचीन का विदेश व्यापार जिस समय अंधेरे में गुम हो रहा थाउस समय स्पेन और पुर्तगाल के बंदरगाहों पर जहाजों के बेड़े सजने लगे थे जो एशिया की तरफ कूच करने वाले थे.

चीन को यह बात समझने में 500 से अधिक साल लगे कि जहाज बंदरगाह पर खड़े होने के लिए नहीं बनाए जातेदूसरी तरफ मुक्त बाजार के संस्कारों की छाया में स्वाधीन होने वाले भारत को भी यह समझने में वक्त लगा कि व्यापार से दुनिया का कोई देश कभी बर्बाद नहीं हुआ है (बेंजामिन फ्रैंकलिन).

चीन ने जब एक बार ग्लोबलाइजेशन की सवारी की तो दुनिया फिर उसके पीछे हो ली लेकिन मुक्त व्यापार के फायदों से सराबोर भारत की दुविधाएं पिछले पांच साल में कई गुना बढ़ गई हैं.

नरेंद्र मोदी यदि पिछले कार्यकाल की तरफ देखना चाहें तो उन्हें नजर आएगा कि एक तरफ वे ताबड़तोड़ विदेश यात्राएं कर रहे थेदूसरी तरफ स्वदेशी और संरक्षणवाद में जकड़ी उनकी विदेश व्यापार नीति उन फायदों को भी गंवा रही थी जो उनके पूर्ववर्तियों ने उठाए थे.

अलबत्तासमय मोदी को जहां ले आया हैवहां वे भारत के दूसरे ग्लोबलाइजेशन के अगुआ बन सकते हैंअमेरिका-चीन व्यापार युद्ध के नजरिये से भारत के हालात 1980 के चीन जैसे हैं जब अमेरिका-जापान के बीच व्यापार युद्ध चल रहा थाजापान के साथ कारोबार में अमेरिकी घाटा कुल घाटे का 80 फीसदी (आज के चीन से ज्यादापर थाअमेरिका ने जापान से आयात पर शत प्रतिशत कस्टम ड्यूटी  लगाने का ऐलान किया जिसके बाद 1985 में दोनों के बीच प्लाजा समझौता हुआजापानी येन मजबूत हुआप्रॉपर्टी बाजार गरमाकर फट गया और जापान लंबी मंदी में धंस गया.


अमेरिका बनाम जापान के दौरान देंग शियाओ ‌पिंग के नेतृत्व में चीन का ग्लोबलाइजेशन शुरू हुआजापान से उखड़े निवेशक चीन में उतरने लगे और दो दशक में चीन मैन्युफैक्चरिंग का केंद्र बन गयाइसके बूते उसने तीन दशक तक दुनिया के व्यापार पर राज किया है.

अमेरिका-चीन के ताजा व्यापार युद्ध के दो संभावित असर हो सकते हैंएकयुआन का अवमूल्यन जिसके बाद अमेरिका और ड‍्यूटी लगाएगादोचीन की अर्थव्यवस्था का पुनर्गठननिर्यात पर कम निर्भरता यानी तात्कालिक मंदीग्लोबल मंदी के झटके हमें भी लगेंगे लेकिन यह व्यापार युद्ध भारत के लिए मौका है. 

आज का भारत 1980 के चीन से बेहतर स्थिति में हैउदारीकरण की नींव पर कुछ मंजिलें बन चुकी हैंफायदे स्थापित हैंनीति आयोग के मुखिया रहे अरविंद पानगड़िया की आंकड़ों से लैस महत्वपूर्ण ताजा किताब (फ्री ट्रेड ऐंड प्रॉस्पेरिटीबताती है कि मुक्त व्यापार और ग्लोबलाइजेशन के चलते पिछले दो दशक में भारत की ग्रोथ में 4.6 फीसदी का इजाफा हुआ हैइसी ‘चमत्कार’ से 1992-93 से 2011-12 के बीच गरीबी रेखा से नीचे की आबादी 45 फीसदी से घटकर 22 फीसदी रह गई.

स्वदेशी के दकियानूसी आग्रहों को तथ्यों सहित काटते हुए पानगड़िया उदाहरणों के साथ यह सिद्ध करते हैं कि समझदार सरकारें अक्षम देशी उद्योगों के संरक्षण के बजाएहमेशा भविष्य के विजेताओं को चुनती हैं क्योंकि आर्थिक नीति का अंतिम मकसद रोजगार और आय में बढ़ोतरी हैपिछले पांच वर्षों में बंद दरवाजों वाली विदेश व्यापार नीति के तहत भारतीय निर्यात की बदहालीअंतरराष्ट्रीय व्यापार में घटती हिस्सेदारी और व्यापार समझौतों की नामौजूदगीमुक्त बाजार के पक्ष को सही साबित करती है.

भारत से निर्यात पर अमेरिकायूरोपकनाडाऑस्ट्रेलिया के डब्ल्यूटीओ में मुकदमेअमेरिकी आयात में वरीयता की समाप्ति और लंबित व्यापार समझौतेप्रधानमंत्री मोदी की दूसरी पारी का इंतजार कर रहे हैंमोदी के एक तरफ होगी ढहती अर्थव्यवस्था और दूसरी तरफ होगा भारत के अभूतपूर्व उदारीकरण का मौका.

सनद रहे कि संरक्षणवाद सबसे सस्ता राष्ट्रवाद है जो आर्थिक सुरक्षा को कमजोर करता है.

कोफी अन्नान कहते थे कि वैश्वीकरण के खिलाफ बहस करना गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध बहस करने जैसा हैक्या नई सरकारनए वैश्वीकरण को नए भारत का परचम बनाएगी?

Monday, September 10, 2018

बाजार बीमार है !


सेबी के चेयरमैन म्युचुअल फंड उद्योग की बैठक में मानो आईना लेकर गए थे. यह उद्योग अब 23.5 लाख करोड़ रुपए (2013 में केवल 5 लाख करोड़ रु.) की निवेश संपत्तियों को संभालता है. इस उत्सवी बैठक में सेबी अध्यक्ष ने पूछा, इस कारोबार में केवल चार म्युचुअल फंड 47 फीसदी निवेश क्यों संभाल रहे हैं जबकि (एसेट मैनेजमेंट) कंपनियां तो 38 हैं. 
कारोबार तो बढ़ा पर प्रतिस्पर्धा क्यों नहीं बढ़ी?
नियामकों को ठीक ऐसे ही सवाल पूछने चाहिए. 
लेकिन टीआरएआइ चेयरमैन ने यही सवाल टेलीकॉम कंपनियों से क्यों नहीं पूछा जहां प्रतिस्पर्धा घिसते-घिसते तीन ऑपरेटरों तक सीमित हो गई है. कभी हर सर्किल में तीन ऑपरेटर थे. अब 135 करोड़ के देश में तीन मोबाइल कंपनियां हैं.  

क्या पेट्रोलियम मंत्रालय यह पूछेगा कि पूरा बाजार तीन सरकारी पेट्रोल कंपनियों के पास ही क्यों है?

2015 में एक दर्जन से अधिक ई-कॉमर्स कंपनियों से गुलजार भारत का बाजार अब पूरी तरह दो अमेरिकी कंपनियों के पास चला गया है. सबसे बड़े ई-रिटेलर फ्लिपकार्ट को अमेरिकी ग्लोबल रिटेल दिग्गज वालमार्ट ने उठा लिया. अब वालमार्ट का मुकाबला ई-कॉमर्स बाजार की सबसे बड़ी कंपनी अमेजन से है जो भारत में पहले से है. यानी देसी ई- कॉमर्स कंपनियों का सूर्य डूब रहा है.
क्या भारत की मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था एडिय़ां रगडऩे लगी है?

प्रतिस्पर्धा जमने से पहले ही बेदखल होने लगी है?

नए बाजारवादी एकाधिकार उभर रहे हैं?

क्या बाजार चुनिंदा हाथों में केंद्रित हो रहा है?

दरअसल, जो सेबी चेयरमैन ने म्युचुअल फंड उद्योग से पूछा, अगर उसका विस्तार किया जाए तो ऊपर लिखे सच को स्वीकारना होगा.
क्या सरकार बताना चाहेगी कि ऐप आधारित टैक्सी सेवा में केवल दो ही कंपनियां क्यों हैं? जेट एयरवेज अगर बीमार हुई तो विमान सेवाओं के अधिकांश बाजार पर तीन (दो निजी, एक सरकारी) कंपनियों का एकाधिकार हो जाएगा! 

स्टील, दुपहिया वाहन, प्लास्टिक रॉ मटीरियल, एल्युमिनियम, ट्रक और बसें, कार्गो, रेलवे, कोयला, सड़क परिवहन, तेल उत्पादन, बिजली वितरण, कुछ प्रमुख उपभोक्ता उत्पाद सहित करीब एक दर्जन प्रमुख क्षेत्रों का अधिकांश बाजार एक से लेकर तीन कंपनियों (निजी या सरकारी) के हाथ में केंद्रित है. केवल कार, कंप्यूटर, फार्मास्यूटिकल्स, मोबाइल का बाजार ही ऐसा है जहां पर्याप्त प्रतिस्पर्धा दिखती है.
उदारीकरण के करीब दो दशक बाद प्रतिस्पर्धा बढऩे, मंदी के झटके, नई तकनीकों की आमद, नए अवसरों की तलाश और पूंजी की कमी से बाजार में पुनर्गठन शुरू हुआ. कंपनियों के अधिग्रहण और विलय हुए. वोडाफोन-आइडिया, वालमार्ट-फ्लिपकार्ट, अडानी-रिलायंस एनर्जी, मिंत्रा-जबांग, एमटीएस-रिलायंस कम्युनिकेशंस, रिलायंस-एयरसेल, कोटक-बीएसएस माइक्रोफाइनांस, फ्लिपकार्ट-ई बे, बिरला कॉर्प-रिलायंस सीमेंट... फेहरिस्त लंबी है.

2017 में भारत में 46.5 अरब डॉलर के निवेश से कंपनियां बेची और खरीदी गईं. यह विलय व अधिग्रहण अगले साल 53 अरब डॉलर से ऊपर निकल जाएगा.

बैंक कर्ज में फंसी कंपनियों की बिक्री और बंदी भी प्रतिस्पर्धा को मार रही है. करीब 34 निजी बिजली कंपनियां कर्ज में दबी हैं. कर्ज की वसूली उन्हें बंदी या बिक्री के कगार पर ले आएगी. यानी बिजली बाजार में भी कुछ ही कंपनियां ही बचेंगी.

प्रतिस्पर्धा कम होने से मोबाइल सेवाओं, स्टील, ई-कॉमर्स, विमानन में रोजगार में खासी कमी आई है. उपभोक्ताओं पर मनमानी या खराब सेवाएं थोपी जा रही हैं. प्रतिस्पर्धा की कमी से कई उत्पादों में नए प्रयोग भी सीमित हो रहे हैं. 

मुक्त बाजार में सरकारों और नियामकों की जिम्मेदारी होती है कि वे बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ाएं, नई कंपनियों के प्रवेश का रास्ता खोलें, कार्टेल और एकाधिकार समाप्त करें. 

गूगल-फेसबुक वाली नई दुनिया की सबसे ताजा चिंता बाजार पर निजी एकाधिकार हैं. अमेरिका की 100 प्रमुख कंपनियां देश की आधी अर्थव्यवस्था पर काबिज हैं. 1955 में अमेरिका की अर्थव्यवस्था में  फॉच्र्यून 500 कंपनियों का हिस्सा 35 फीसदी था, आज यह 72 फीसदी है.

ताकत और अवसरों का केंद्रीकरण राजनीति और बाजार, दोनों जगह खतरनाक है. लोकतंत्र में सरकार और बाजार को एक दूसरे की यह ताकत तोड़ते रहना चाहिए लेकिन अब तो राजनीति (सरकार) बाजार में एकाधिकारों को पोस रही है और बदले में बाजार राजनीति को सर्वशक्तिमान बना रहा है. यह गठजोड़ हर तरह की आजादी के लिए, शायद सबसे बड़ा खतरा है.

Tuesday, July 3, 2018

मंदी में आजादी


आर्थिक मंदी से क्या लोकतांत्रिक आजादियों पर खतरा मंडराने लगता है?

क्या ताकत बढ़ाने की दीवानी सरकारों को आर्थिक मुसीबतें रास आती हैं?

लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी के लिए मुक्त बाजार को सिकुड़ने से बचाना क्यों जरूरी है?

लोकशाही में आजादियों से जुड़े ये सबसे टटके और नुकीले सवाल हैं. बीते बीसेक बरस में लोकशाही का नया अर्थशास्त्र बना है जिसकी मदद से मुक्त बाजार ने आर्थिक स्वाधीनता को संवार करसरकारों को माई बाप होने से रोक दिया है.

खुली अर्थव्यवस्था के साथ सरकारों पर जनता की निर्भरता कम होती चली गईइसलिए नेता अब उन मौकों की तलाश में हैं जिनके सहारे आजादियों की सीमित किया जा सके.

क्या आर्थिक मंदी लोकतंत्र की दुश्मन है?

फ्रीडम हाउस (लोकतंत्रों की प्रामाणिकता को आंकने वाली सबसे प्रतिष्ठित संस्था) की रिपोर्ट "फ्रीडम इन द वर्ल्ड लोकशाही का ख्यात सूचकांक है. 2018 की रिपोर्ट के मुताबिकलोकतंत्र पिछले कई दशकों के सबसे गहरे संकट से मुकाबिल है. 2107 में 75 लोकतंत्रों (देशों) में राजनैतिक अधिकारप्रेस की आजादीअल्पसंख्यकों के हक और कानून का राज कमजोर हुए.

लोकतंत्र की आजादियों में लगातार गिरावट का यह 12वां साल है. "फ्रीडम इन द वर्ल्ड'' बताती है कि 12 साल में 112 देशों में लोकतंत्र दुर्बल हुआ. तानाशाही वाले देशों की तादाद 43 से बढ़कर 48 हो गई.

लोकतंत्रों के बुरे दिनों ने 2008 के बाद से जोर पकड़ा. ठीक इसी साल दुनिया में मंदी शुरू हुई थी जो अब तक जारी है. 1990 के बाद पूरी दुनिया में लोकतंत्रों की सूरत और सीरत बेहतर हुई थी. अचरज नहीं कि ठीक इसी समय दुनिया के कई देशों में आर्थिक उदारीकरण प्रारंभ हुआ था और ग्लोबल विकास को पंख लग गए थे.

यानी कि तेज आर्थिक विकास की छाया में स्वाधीनताएं खूब फली-फूलीं.

आर्थिक संकट से किसे फायदा?

आर्थिक उदारीकण और लोकतंत्र के रिश्ते दिलचस्प हैं. जहां भी बाजार मुक्त हुआ और उद्यमिता को आजादी मिलीवहां सरकारों को अपनी ताकत गंवानी पड़ीइसलिए मंदी जैसे ही बाजार को सिकोड़ती है और निजी उद्यमिता को सीमित करती हैसरकारों को ताकत बढ़ाने के मौके मिल जाते हैं. ताजा तजुर्बे बताते हैं कि जो देश मंदी से बुरी तरह घिरे रहे हैंवहां लोकतंत्र की ताकत घटी है.

सरकारें मंदी की मदद से दो तरह से ताकत बढ़ाती हैः

एकः मंदी के दौरान सरकार अपने खजाने से मुक्त बाजार में दखल देती है और सबसे बड़ी निवेशक बन जाती है. भारत में 1991 से पहले तक सरकार ही अर्थव्यवस्था की सूत्रधार थी.

दोः आर्थिक चुनौतियों के चलते बाजार में रोजगारों में कमी होती है और सरकारें लोगों की जिंदगी-जीविका में गहरा दखल देने लगती हैं.

तो क्या हर नेता को एक मंदी चाहिए जिससे वह दानवीर और ताकतवर हो सके?

लाचार बाजार तो अभिव्यक्ति बेजार!

विज्ञापनों की दुनिया से जुड़े एक पुराने मित्र किस्सा सुनाते थे कि 2001 से 2005 के दौरान अखबारों और टीवी के पास सस्ते सरकारी विज्ञापनों के लिए जगह नहीं होती थी. बाजार से मिल रहे विज्ञापन सरकारों के लिए जगह ही नहीं छोड़ते थे. मंदी की स्थिति में सरकार सबसे बड़ी विज्ञापक व प्रचारक हो जाती है और आजादी को सिकुडऩा पड़ता है.

"फ्रीडम इन द वर्ल्ड'' ने 2013 में बताया था कि ग्लोबल मंदी के बाद यूरोपीय देशों में प्रेस की स्वाधीनता कमजोर पड़ी. खासतौर पर यूरोपीय समुदाय के मुल्कों में प्रेस की आजादी के मामले में जिनका रिकॉर्ड बेजोड़ रहा है

प्रसंगवशकांग्रेस के आधिकारिक इतिहासकार प्रणब मुखर्जी ने लिखा है कि 1975 के आपातकाल की पृष्ठभूमि में 1973 के तेल संकट से उपजी महंगाईबेकारीहड़तालें और उसके विरोध में पूरे देश में फूट पड़े आंदोलन थेजिसने राजनैतिक माहौल बिगाड़ दिया. यानी कि इमर्जेंसी के पीछे मंदी और महंगाई थी!

वैसेअब अगर आजादियां पूरी तरह सरकार की पाबंद नहीं हैं तो सरकारें भी आजादियों का उतना बेशर्म अपहरण नहीं करतीं जैसा कि 1975 के भारतीय आपातकाल में हुआ.

आजादियों को मुक्त बाजार और तेज आर्थिक प्रगति चाहिए क्योंकि चतुर सरकारों ने लोकतंत्र के भीतर स्वाधीनता के अपहरण के सूक्ष्म तरीके विकसित कर लिये हैं. यकीनन मुक्त बाजार निरापद नहीं है लेकिन उसे संभलाने के लिए हमारे पास सरकार है. सरकारों की निरंकुशता को कौन संभालेगाइसके लिए तो उन्हें छोटा ही रखना जरूरी है.

Monday, January 22, 2018

भारत, एक नई होड़



तकरीबन डेढ़ दशक बाद भारत को लेकर दुनिया में एक नई होड़ फिर शुरू हो रही है. पूरी दुनिया में मंदी से उबरने के संकेत और यूरोप में राजनैतिक स्थिरता के साथ अटलांटिक के दोनों किनारों पर छाई कूटनीतिक धुंध छंटने लगी है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कूटनीतिक चश्मा कमोबेश साफ हो गया है. ब्रिटेन की विदाई (ब्रेग्जिट) के बाद इमैनुअल मैकरॉन और एंजेला मर्केल के नेतृत्व में यूरोपीय समुदाय आर्थिक एजेंडे पर लौटना चाहते हैं. एशिया के भीतर भी दोस्तों-दुश्मनों के खेमों को लेकर असमंजस खत्‍म हो रहा है.  


मुक्त व्यापार कूटनीति के केंद्र में वापस लौट रहा है, जिसकी शुरुआत अमेरिका ने की है. पाकिस्तान को अमेरिकी सहायता पर ट्रंप के गुस्से के करीब एक सप्ताह बाद अमेरिका ने भारत के सामने आर्थिक- रणनीतिक रिश्तों का खाका पेश कर दिया. ट्रंप के पाकिस्तान वाले ट्वीट पर भारत में पूरे दिन तालियां गडग़ड़ाती रहीं थी लेकिन जब भारत में अमेरिकी राजदूत केनेथ जस्टर ने दिल्ली में एक पॉलिसी स्पीच दी तो दिल्ली के कूटनीतिक खेमों में सन्नाटा तैर गया, जबकि यह हाल के वर्षों में भारत से रिश्तों के लिए अमेरिका की सबसे दो टूक पेशकश थी.

दिल्ली में तैनाती से पहले राष्ट्रपति ट्रंप के उप आर्थिक सलाहकार रहे राजदूत जस्टर ने कहा कि भारत को अमेरिकी कारोबारी गतिविधियों का केंद्र बनने की तैयारी करनी चाहिए, ता‍कि भारत को चीन पर बढ़त मिल सके. अमेरिकी कंपनियों को चीन में संचालन में दिक्कत हो रही है. वे अपने क्षेत्रीय कारोबार के लिए दूसरा केंद्र तलाश रही हैं. भारत, एशिया प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी कारोबारी हितों का केंद्र बन सकता है.

व्हाइट हाउस, भारत व अमेरिका के बीच मुक्त व्यापार संधि (एफटीए) चाहता है, यह संधि व्यापार के मंचों पर चर्चा में रही है लेकिन यह पहला मौका है जब अमेरिका ने आधिकारिक तौर पर दुनिया की पहली और तीसरी शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं के बीच एफटीए की पेश की है. ये वही ट्रंप हैं जो दुनिया की सबसे महत्वाकांक्षी व्यापार संधि, ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) को रद्दी का टोकरा दिखा चुके हैं.

अमेरिका और भारत के बीच व्यापार ब्ल्यूटीओ नियमों के तहत होता है. दुनिया में केवल 20 देशों (प्रमुख देश—कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, इज्राएल, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, मेक्सिको) के साथ अमेरिका के एफटीए हैं. इस संधि का मतलब है कि दो देशों के बीच निवेश और आयात-निर्यात को हर तरह की वरीयता और निर्बाध आवाजाही. 

ट्रंप अकेले नहीं हैं. मोदी के नए दोस्त बेंजामिन नेतन्याहू भी भारत के साथ मुक्त व्यापार संधि चाहते हैं. गणतंत्र दिवस पर आसियान (दक्षिण पूर्व एशिया) के राष्ट्राध्यक्ष भी कुछ इसी तरह का एजेंडा लेकर आने वाले हैं. भारत-आसियान मुक्त व्यापार संधि पिछले दो दशक का सबसे सफल प्रयोग रही है.

मार्च में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैकरॉन भी भारत आएंगे. भारत और यूरोपीय समुदाय के बीच एफटीए पर चर्चा कुछ कदम आगे बढ़कर ठहर गई है. यूरोपीय समुदाय से अलग होने के बाद ब्रिटेन को भारत से ऐसी ही संधि चाहिए. प्रधानमंत्री थेरेसा मे इस साल दिल्ली आएंगी तो व्यापारिक रिश्ते ही उनकी वरीयता पर होंगे.

पिछली कई सदियों का इतिहास गवाह है कि दुनिया जब भी आर्थिक तरक्की के सफर पर निकली है, उसे भारत की तरफ देखना पड़ा है. पिछले दस-बारह साल की मंदी के कारण बाजारों का उदारीकरण जहां का तहां ठहर गया और भारत का ग्रोथ इंजन भी ठंडा पड़ गया. कूटनीतिक स्थिरता और ग्लोबल मंदी के ढलने के साथ व्यापार समझौते वापसी करने को तैयार हैं और भारत इस व्यापार कूटनीति का नया आकर्षण है.

अलबत्ता इस बदलते मौसम पर सरकार के कूटनीतिक हलकों में रहस्यमय सन्नाटा पसरा है. शायद इसलिए कि उदार व्यापार को लेकर मोदी सरकार का नजरिया बेतरह रूढ़िवादी रहा है. विदेश व्यापार नीति दकियानूसी स्वदेशी आग्रहों की बंधक है. पिछले तीन साल में एक भी मुक्त व्यापार संधि नहीं हुई है. यहां तक कि निवेश संधियों का नवीनीकरण तक लंबित है. स्वदेशी और संरक्षणवाद के दबावों में सिमटा वणिज्य मंत्रालय मुक्त व्यापार संधियों की आहट पर सिहर उठता है.


ध्यान रखना जरूरी है कि भारत की अर्थव्यवस्था के सबसे अच्छे दिन भारतीय अर्थव्यवस्था के ग्लोबलाइजेशन के समकालीन हैं. दुनिया से जुड़कर ही भारत को विकास की उड़ान मिली है. थकी और घिसटती अर्थव्यवस्था को निवेश व तकनीक की नई हवा की जरूरत है. भारतीय बाजार के आक्रामक उदारीकरण के अलावा इसका कोई और रास्ता नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय कूटनीति में क्रांतिकारी बदलाव के एक बड़े मौके के बिल्कुल करीब खड़े हैं.