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Friday, May 10, 2019

नतीजा, जो आ गया !





अंतरिम बजट के आंकड़े गढ़ने तक मोदी सरकार को यह एहसास हो गया था कि अर्थव्यवस्था की पूंछ पकड़कर लोकसभा चुनाव की वैतरणी पार नहीं होगी. नतीजतन, पांच साल तक न्यू इंडिया का बिगुल बजाने के बाद नरेंद्र मोदी पाकिस्तान से आर-पार के नाम पर चुनाव मैदान में उतर गए.

मार्च में चुनावी राष्ट्रवाद का पारा चढ़ने तक अर्थव्यवस्था में अच्छे दिनों के दुर्दिन शुरू हो गए थे और बाजार मुतमइन हो चुके थे कि चुनाव के नतीजे चाहे जो हों लेकिन

एक अंतरिम बजट में सरकार ने आंकड़ों की जो खिचड़ी पकाई है, वह जल्द ही सड़ जाएगी. सरकार की कमाई घटेगी और घाटा धर दबोचेगा.

दो आर्थिक आंकड़ों को चमकाने की हजार कोशिशों के बावजूद 2019 की आखिरी तिमाही में विकास दर गिरेगी और नरेंद्र मोदी पिछले पांच साल की सबसे खराब अर्थव्यवस्था के साथ वोट मांगने निकलेंगे. (संदर्भ पिछले अर्थात्)

सबसे तेज झटका
चौथे चरण का मतदान खत्म होने तक सरकारी राजस्व में रिकॉर्ड गिरावट दर्ज हो गई और वित्त मंत्रालय ने मान लिया कि अर्थव्यवस्था मंदी में है...अलबत्ता यह किसी ने नहीं सोचा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा इंजन भी थमने लगेगा.

निर्यात, सरकार का खर्च, निजी निवेश और खपतइन चार इंजनों पर चलती है भारतीय अर्थव्यवस्था. इनमें खपत यानी आम लोगों का खर्च सबसे बड़ी ताकत है. निर्यात पहले से मृतप्राय था. बीते दिसंबर में निजी और सरकारी कंपनियों का निवेश 14 साल के न्यूनतम स्तर पर आ गया था. घाटे की मारी सरकार ने 2018-19 की आखिरी तिमाही में खर्च भी काट दिया. इन सबके बीच खर्च-खपत ही था जो अर्थव्यवस्था को ढुलका रहा था अलबत्ता चुनाव के गर्द--गुबार के बीच बाजार को जब यह नजर आया कि मांग की कमी मकानों से लेकर कार और मोटरसाइकिल से होते हुए साबुन, तेल, मंजन तक फैल गई है, तो खौफ लाजिमी था. खपत में गिरावट ऐसा झटका है जिसके लिए अर्थव्यवस्था हरगिज तैयार नहीं है.

क्यों गिरी खपत

पिछले ढाई दशक में पहली बार भारत में खपत गिर रही है यानी कि 135 करोड़ लोगों की अर्थव्यवस्था (पीपीपी) की सबसे मजबूत बुनियाद डगमगा रही है! क्यों?

उपभोग या खपत के दो हिस्से हैं और दोनों एक साथ टूट गए हैं.

पहला है वह उपभोग जो कर्ज के सहारे बढ़ता है, इसमें ऑटोमोबाइल और हाउसिंग प्रमुख हैं. बकाया कर्ज से दबे बैंक उद्योगों को नया कर्ज देने की हालत में पहले से ही नहीं थे अलबत्ता नोटबंदी के दौरान बैंकों में बड़ी मात्रा में जो धन जमा हुआ था उसका बड़ा हिस्सा गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) को कर्ज के तौर पर मिला. तभी तो 2016 से 2018 के बीच ऑटो लोन में एनबीएफसी का हिस्सा 77 फीसद हो गया. लेकिन यह मांग सिर्फ कर्ज के कारण बढ़ी, तेज विकास के कारण नहीं.

इस साल कई बड़ी एनबीएफसी के वित्तीय संकट में फंसने के बाद कर्ज की पाइपलाइन पूरी तरह बंद हो गई इसलिए बाजार को गुलजार करने वाली खपत टूट गई है. मकानों की मांग पहले से ही गर्त में बैठी है इसलिए कर्ज आधारित खपत लौटने में वक्त लगेगा.

उपभोग का दूसरा हिस्सा कमाई या बचत पर आधारित है जिसमें उपभोक्ता उत्पाद, खाद्य, कपड़े आदि आते हैं. अगर आम लोगों की वित्तीय बचतों के आंकड़े पर गौर फरमाया जाए तो साबुन, तेल, मंजन की मांग कम होने की वजह उसमें मिल जाएगी. 2011 में लोगों की वित्तीय बचत जीडीपी के अनुपात में 9.9 फीसदी थी जो 2018 में 6.6 फीसदी रह गई. यानी कि कमाई में कमी के कारण लोग खपत घटाने को मजबूर हैं.

2013-18 के बीच अचल संपत्ति यानी मकानों की कीमतें स्थिर रही हैं लेकिन कुल बचत के अनुपात में भौतिक बचत गिरना मकानों की मांग न बढ़ने का सबूत है. सोने के आयात व मांग में कमी भी इसी क्रम में है

पिछले पांच साल की तथाकथित तेज विकास दर के बीच रिकॉर्ड बेकारी का असर समझना जरूरी है. दुनिया के विभिन्न देशों का तजुर्बा बताता है कि जो देश तेज विकास दर के दौरान पर्याप्त रोजगार नहीं बनाते, उनके यहां बचत दर गिरती जाती है जो अर्थव्यवस्था के भविष्य के लिए विस्फोटक है. सनद रहे कि 2017 में भारत में आम लोगों की कुल बचत दर बीस साल के सबसे निचले स्तर (जीडीपी के अनुपात में 17 फीसदी) पर आ गई थी.

चुनाव का नतीजा चाहे जो हो लेकिन मोदी सरकार के कामकाज का सबसे बड़ा नतीजा आ गया है. अर्थव्यवस्था के आंकड़े रहस्य नहीं हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था आय-बचत-खपत-निवेश में समन्वित गिरावट के दुष्चक्र की तरफ खिसक रही है. विकास दर का आकलन घटाए जाने का दौर शुरू हो चुका है, सबसे बड़ी चिंता यह है कि नई सरकार आने पर कोई जादू नहीं होने वाला है. चुनाव की आंधी तो 23 मई को थम जाएगी लेकिन आर्थिक संकट के थपेड़े हमें लंबे समय तक बेहाल रखेंगे.

Sunday, September 10, 2017

खर्च करेंगे तो बचेंगे

हम सरकार से सहमत या असहमत हो सकते हैं लेकिन अर्थव्यवस्था में ढलान से तो गाफिल नहीं होंगे.

माना कि सरकार ने टैक्स (जीएसटी) थोपने में कोई मुरव्वत नहीं की फिर भी ढहती अर्थव्यवस्था की मदद की खातिर अब शॉपिंग बैग उठाना ही पड़ेगा.

नोटबंदी के बाद आर्थिक विकास दर क्‍यों 
ढह गई! 

सरकारें जब खुद को सर्वशक्तिमान मान लेती हैं तो नोटबंदी जैसे हादसे होते हैं.

जीडीपी यानी आर्थिक उत्पादन बाजार में उपलब्ध  कुल करेंसी और उस करेंसी के इस्तेमाल (करेंसी इन सर्कुलेशन+वेलॉसिटी ऑफ मनी) की दोस्ती से बनता है. इस फॉर्मूले से हम समझ पाते हैं कि प्रत्येक रुपया कितना आर्थिक उत्पादन (जीडीपी) करता है.

वेलॉसिटी ऑफ मनी यानी रुपए का बार-बार इस्तेमाल खासा दिलचस्प है. एक डॉक्टर ने टैक्सी वाले को सौ रुपए दिए. टैक्सी वाले ने वह सौ रुपए देकर खाना खाया. होटल वाले ने उस सौ रुपए से मोबाइल चार्ज करा लिया और मोबाइल वाला वह सौ रुपए इलाज के लिए वापस उसी डॉक्टर को दे आया. डॉक्टर के पास वापस आने तक वह सौ रुपए, चार सौ रुपए का कारोबार कर चुके थे. 

वेलॉसिटी ऑफ मनी की जटिल गणना में नकद लेन-देन ही नहीं, बैंक अकाउंट से भुगतान और निवेश भी शामिल होता है. नकदी तेजी से हाथ बदलती है, जबकि वित्तीय निवेश धीमे चलते हैं. भारत में मनी की वेलॉसिटी, करेंसी के प्रवाह की तुलना में लगभग आठ गुना ज्यादा है. हर नोट औसतन सात से आठ (ज्यादा भी) बार विनिमय में इस्तेमाल होता है.

सरकार नोट छापकर या उन्हें कागज का टुकड़ा बनाकर (नोटबंदी), करेंसी के प्रवाह को तो नियंत्रित कर सकती है लेकिन सौ रुपए का एक नोट कितनी बार (वेलॉसिटी) इस्तेमाल होगा, इस पर सरकार का कोई बस नहीं है.

मनी की वेलॉसिटी अर्थव्यवस्था में डांडिया नाच की तरह है, जिसमें हर नाचने वाला दूसरे के साथ अपने उत्साह को चटकाता है. वेलॉसिटी खरीद, उपभोग, निवेश से बढ़ती है. यह अर्थव्यवस्था में विश्वास का उत्सव है जिससे मांग बढ़ती है.

सरकारें कभी-कभी ऐसे समाधान लाती हैं जो समस्या से ज्यादा खतरनाक होते हैं. कुछ चूहों को निकालने के लिए पूरे डांडिया पंडाल में नोटबंदी की जहरीली गैस छोड़ दी गई. नाचने वाले निढाल होकर गिर गए. करेंसी के साथ ही वेलॉसिटी भी गई और जीडीपी ढह गया. 

करेंसी तो धीमे-धीमे वापस लौट रही है लेकिन गैस का असर इतना गहरा हुआ कि वेलॉसिटी का डांडिया दोबारा चटकाने यानी खर्च करने का उत्साह खत्म (कंज्यूमर सर्वे-रिजर्व बैंक) हो गया है. आज भी नकदी (करेंसी) की उपलब्धता नोटबंदी के पहले के स्तर से 20 फीसदी कम है. डिजिटल पेमेंट काफी धीमे पड़ गए हैं लेकिन हैरत है कि नकदी की कमी सरकार के लिए नोटबंदी की सफलता है! 

सरकारें अर्थव्यवस्था नहीं चलातीं. भारत का जीडीपी देश के लोगों की मेहनत और उपभोग से बढ़ता है. निजी उपभोग के लिए होने वाला खर्च जीडीपी में 60 फीसदी का हिस्सेदार है. जिन वर्षों में भारत ने सबसे अच्छी विकास दर दर्ज की है, उनमें लोगों का उपभोग खर्च शानदार ऊंचाई पर था. 

पिछले साल नोटबंदी के दौरान, इसी कॉलम में हमने लिखा था कि जीडीपी के अनुपात में नकदी करीब 12 फीसदी है, जिसके अधिकांश हिस्से का इस्तेमाल उपभोग खर्च में होता है. नोटबंदी, जीडीपी की सांस घोंटकर भारत की आर्थिक रफ्तार तोड़ देगी.

नोटबंदी के बाद जीडीपी इसलिए ढहा क्योंकि देश के करोड़ों लोगों ने अपनी खपत सिकोड़ ली. नवंबर के धमाके से पहले, अर्थव्यवस्था की ढलान शुरू हो चुकी थी. नोटबंदी के तत्काल बाद खपत को जीएसटी ने दबोच लिया इसलिए संकट गहरा गया है.

सरकार दो काम करते-करते लगभग थक चुकी है.

·       बजट से खूब खर्च किया गया ताकि किसी तरह ढलान रोकी जा सके लेकिन करोड़ों उपभोक्‍ताओं के उपभोग का विकल्प नहीं है.
·       आर्थिक आंकड़ों को खूब प्रोटीन पिलाया गया ताकि अर्थव्यवस्था को बढ़ता दिखाया जा सके .लेकिन सूरत संवारने में बिगड़ती चली गई.

चीनी दार्शनिक लाओत्सु कहते थे, किसी महान देश में सरकार चलाना छोटी मछली को पकाने जैसा होता है. ज्यादा हस्तक्षेप व्यंजन को बिगाड़ देता है. नोटबंदी में यही हाल हुआ है.

अब जीडीपी को न सस्ता कर्ज उबार सकता है और न सरकारी खर्च और विदेशी निवेश. ढहती अर्थव्यवस्था को हमारे आपके खर्च की जरूरत है. हमारा उत्साह ही इसका इलाज है. 

अपने आर्थिक भविष्य के लिए खर्च करिए.

सरकार के भरोसे मत बैठिए, सरकार अब आपके भरोसे बैठी है.


Tuesday, May 26, 2015

मूल्यांकन शुरु होता है अब

करोड़ों बेरोजगार युवाओं और मध्य वर्ग को अपने प्रचार से बांध पाना मोदी के लिए दूसरे साल की सबसे बड़ी चुनौती होने वाली है.

ब्बीस मई 2016 शायद नरेंद्र मोदी के आकलन के लिए ज्यादा उपयुक्त तारीख होगी. इसलिए नहीं कि उस दिन सरकार दो साल पूरे करेगी बल्कि इसलिए कि उस दिन तक यह तय हो जाएगा कि मोदी ने भारत के मध्य वर्ग और युवा को ठोस ढंग से क्या सौंपा है जो बीजेपी की पालकी की अपने कंधे पर यहां तक लाया हैमोदी सरकार की सबसे बड़ी गफलत यह नहीं है कि वह पहले ही साल में किसानों व गांवों से कट गई. गांव न तो बीजेपी के राजनैतिक गणित का हिस्सा थे और न ही मोदी का चुनाव अभियान गांवों पर केंद्रित था. मोदी के लिए ज्यादा बड़ी चिंता युवा व मध्य वर्ग की अपेक्षाएं हैं जिन्होंने उनकी राजनीति को नया आयाम दिया है और पहले वर्ष में मोदी इनके लिए कुछ नहीं कर सके.
रोजगार और महंगाईभारतीय गवर्नेंस की सबसे घिसी हुई बहसे हैं लेकिन इन्हीं दोनों मामलों में मोदी से लीक तोड़ने की सबसे ज्यादा उम्मीदें भी हैं क्योंकि कांग्रेस के खिलाफ अभूतपूर्व जनादेश में पांच साल की महंगाई और 2008 के बाद उभरी नई बेकारी भिदी हुई थी. मोदी सरकार की पहली सालगिरह पर भाषणों को सुनते और विज्ञापनों को पढ़ते हुएअगर मुतमईन करने वाले सबसे कम तर्क आपको इन्हीं दो मुद्दों पर मिले तो चौंकिएगा नहीं.
याद कीजिए पिछले साल की गर्मियों में मोदी की चुनावी रैलियों में उमड़ती युवाओं की भीड़. कैसे भूल सकते हैं आप पड़ोस के परिवारों में मोदी के समर्थन की उत्तेजक बहसेंयह बीजेपी का पारंपरिक वोटर नहीं था. यह समाजवादी व उदारवादी प्रयोगों के तजुर्बों से लैस मध्य वर्ग था जो मोदी के संदेश को गांवों व निचले तबकों तक ले गया. यकीननएक साल में मोदी से जादू की उम्मीद किसी को नहीं थी लेकिन लगभग हर दूसरे दिन बोलते सुने गए और बच्चों से लेकर ड्रग ऐडिक्ट तक से मन की बात करने वाले प्रधानमंत्री की रोजगारों पर चुप्पी अप्रत्याशित थी. मोदी का मौन उनकी नौकरियों पर सरकार की निष्क्रियता की देन था.
दरअसलस्थायीअस्थायीनिजीसरकारी व स्वरोजगारसभी आयामों पर 2015 में रोजगारों का हाल 2014 से बुरा हो गया. लेबर ब्यूरो ने इसी अप्रैल में बताया कि प्रमुख आठ उद्योगों में रोजगार सृजन की दर तिमाही के न्यूनतम स्तर पर है. फसल की बर्बादी और रोजगार कार्यक्रम रुकने से गांव और बुरे हाल में हैं. सफलताओं के गुणगान में सरकार स्किल डेवलपमेंट का सुर ऊंचा करेगी लेकिन स्किल वाले महकमे के मुताबिकसबसे ज्यादा रोजगार (6 करोड़ सालाना) भवन निर्माणरिटेल और ट्रांसपोर्ट से निकलते हैं. इन क्षेत्रों में मंदी नापने के लिए आपको आर्थिक विशेषज्ञ होने की जरूरत नहीं है. रियल एस्टेट गर्त में हैरिटेल बाजार को सरकार खोलना नहीं चाहती और ट्रांसपोर्ट की मांग इन दोनों पर निर्भर है. दरअसलदूसरे मिशन इंतजार कर सकते थे अलबत्ता रोजगारों के लिए नई सूझ से लैस मिशन की ही अपेक्षा थी. अब जबकि मॉनसून डरा रहा है और ग्लोबल एजेंसियां भारत की ग्रोथ के लक्ष्य घटाने वाली हैं तो मोदी के लिएअगले एक साल के दौरान करोड़ों बेरोजगार युवाओं को अपने प्रचार से बांध पाना बड़ा मुश्किल होने वाला है.
हाल में पेट्रोल और डीजल की कीमतें जब अपने कंटीले स्तर पर लौट आईं और मौसम की मार के बाद जरूरी चीजों के दाम नई ऊंचाई छूने लगे तो मध्य व निचले वर्ग को सिर्फ यही महसूस नहीं हुआ कि किस्मत की मेहरबानी खत्म हो गई बल्कि इससे ज्यादा गहरा एहसास यह था कि इस सरकार के पास भी जिंदगी जीने की लागत को कम करने की कोई सूझ नहीं है. महंगाई से निबटने के मोदी मॉडल की चर्चा याद हैचुनाव के दौरान इस पर काफी संवाद हुआ था. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी की एक रिपोर्ट का हवाला दिया गया. मांग की बजाए आपूर्ति के रास्ते महंगाई को थामने के विचार हवा में तैर रहे थे. कीमतों में तेजी रोकने के लिए प्राइस स्टेबलाइजेशन फंड को सरकार ने अपनी 'ताकतवरसूझ कहा था. अलबत्ता जुलाई 2014 में घोषित यह फंड मई, 2015 में बन पाया और वह भी केवल 500 करोड़ रु. के कोष के साथजो फिलहाल आलू-प्याज की महंगाई से आगे सोच नहीं पा रहा है. सत्ता में आने के बाद नई सरकार नेमहंगाई रोकने के लिए राज्यों को मंडी कानून खत्म करने का फरमान जारी किया था जिसे बीजेपी शासित राज्यों ने भी लागू नहीं किया. व्यापारियों की नाराजगी कौन मोल ले?
महंगाई सर पर टंगी हो और मांग कम हो तो कीमतों की आग में टैक्सों का पेट्रोल नहीं छिड़का जाना चाहिए. लेकिन सरकार का दूसरा बजट एक्साइज और सर्विस टैक्स के नए चाबुकों से लैस था. कच्चा तेल 100 डॉलर पार नहीं गया है लेकिन भारत में पेट्रो उत्पाद महंगाई से फिर जलने लगे हैं तो इसके लिए बजट जिम्मेदार हैजिसने पेट्रो उत्पादों पर नए टैक्स थोप दिए. सरकार जब तक एक साल के जश्न से निकल कर अगले वर्ष की सोचना शुरू करेगी तब तक सर्विस टैक्स की दर में दो फीसदी की बढ़त महंगाई को नए तेवर दे चुकी होगी. रबी की फसल का नुक्सान खाद्य उत्पादों की कीमतों में फटने लगा है. अगर मॉनूसन ने धोखा दिया तो मोदी अगले सालठीक उन्हीं सवालों का सामना कर रहे होंगे जो वह प्रचार के दौरान कांग्रेस से पूछ रहे थे.
नारे हालांकि घिस कर असर छोड़ देते हैंफिर भी अच्छे दिन लाने का वादा भारत के ताजा इतिहास में सबसे बड़ा राजनैतिक बयान थामध्य वर्ग पर जिसका अभूतपूर्व मनोवैज्ञानिक प्रभाव हुआ. मोदी इसी मध्य वर्ग के नेता हैंजिसकी कोई भी चर्चा रोजगार व महंगाई की चिंता के बिना पूरी नहीं होतीक्योंकि देश के महज दस फीसद लोग ही स्थायी वेतनभोगी हैं और आम लोग अपनी कमाई का 45 से 60 फीसद हिस्सा सिर्फ खाने पर खर्च करते हैं. सरकार जब अपना पहला साल पूरा कर रही है तो खपत दस साल के न्यूनतम स्तर पर हैरोजगारों में बढ़ोत्तरी शून्य है और महंगाई वापस लौट रही है. मोदी सरकार का असली मूल्यांकन अब शुरू हो रहा हैपहला साल तो केवल तैयारियों के लिए था.






Monday, November 18, 2013

महंगाई का यंगिस्‍तान

बढ़ती कीमतों को आर्थिक समस्‍या मानने वाली दुनिया भारत में महंगाई का जनसंख्‍याशास्‍त्र बनता देख रही है।

दिल्‍ली के तख्‍त का ताज किसे मिलेगा यह उतना बड़ा सवाल नहीं है जितनी बड़ी पहेली यह है कि क्‍या भारत की सबसे बडी नेमत ही दरअसल उसकी सबसे बड़ी मुसीबत बनने वाली है। भारत की सबसे बड़ी संभावना के तौर

चमकने वाली युवा आबादी अब, समृद्धि की जयगाथा नहीं बल्कि मुसीबतों का नया अर्थशास्‍त्र लिखने लगी है। भारत की लंबी और जिद्दी महंगाई में इस यंगिस्‍तान की भूमिका अचानक बड़ी होने लगी है। एक तरफ उत्‍पादन व उत्‍पादकता में गिरावट और दूसरी तरफ खपत की क्षमताओं से लैस इस कार्यशील आबादी ने ताजा महंगाई को एक जटिल सामाजिक परिघटना बना दिया है। भारत में लोगों की कमाई को कोई पंख नहीं लगे हैं, लेकिन खपत में सक्षम आबादी बढ़ने से महंगाई की नींव में मांग व आपूर्ति में स्‍थायी असंतुलन का सीमेंट भर गया है। तभी तो रिकार्ड कृषि उत्‍पादन और ब्‍याज दरों में लगातार वृ‍द्धि के बावजूद जिद्दी महंगाई पिछले पांच साल से जीत का अट्टहास कर रही है और बढ़ती कीमतों को आर्थिक समस्‍या मानने वाली दुनिया भारत में महंगाई का जनसंख्‍याशास्‍त्र बनता देख रही है।
मिल्‍टन फ्रीडमैन ने बड़े ठोस विश्‍वास के साथ कहा था कि मुद्रास्‍फीति हर जगह और हमेशा एक मौद्रिक परिघटना है। खुले बाजार व मु्द्रास्‍फीति के विशेषज्ञ अमेरिकी अर्थविद फ्रीडमैन मानते थे कि सरकारें जितनी ज्‍यादा करेंसी छापेंगी मुद्रास्‍फीति उतनी ही बढ़ेगी। लेकिन बीसवीं सदी के इस वैचारिक पुरोधा को इक्‍कीसवीं सदी के पूर्वार्ध में गलत

Monday, November 4, 2013

खर्च की अमावस



 भारत की खर्च लक्ष्‍मी इस बार इतनी रुठी और अनमनी थी कि उपभोक्‍ता खर्च सबसे बड़ा भारतीय उत्‍सव, कंजूसी की अमावस बन कर गुजर गया।

स दीवाली अधिकांश भारतीय जब गणेश लक्ष्‍मी को गुहार रहे थे ठीक उस समय दुनिया की तमाम कंपनियां और निवेशक भारतीयों की खर्च लक्ष्‍मी को मनाने में जुटे थे। इस दीप पर्व पर भारतीय उपभोक्‍ताओं ने जितनी बार जेब टटोल कर खरीद रोकी या असली शॉपिंग को विंडो शॉपिंग में बदल दिया, उतनी बार निवेशकों के दिमाग में यह पटाखा बजा कि आखिर भारतीयों की खरीदारी दिया बाती, गणेश लक्ष्‍मी, खील बताशे से आगे क्‍यों नहीं बढ़ी ? कारपोरेट और निवेश की दुनिया में इस सवाल की गूंज उस धूम धड़ाके से ज्‍यादा जोरदार है जो दीवाली के ऐन पहले शेयरों में रिकार्ड तेजी बन कर नमूदार हुआ था। यह पिछले एक दशक की पहली ऐसी दीपावली थी जब भारतीयों ने सबसे कम खर्च किया। भारी महंगाई व घटती कमाई के कारण भारत की खर्च लक्ष्‍मी इस बार इतनी रुठी और अनमनी थी कि उपभोक्‍ता खर्च सबसे बड़ा भारतीय उत्‍सव, कंजूसी की अमावस बन कर गुजर गया। 
शेयरों में तेजी की ताजा फुलझड़ी तो विेदेशी पूंजी के तात्‍कालिक प्रवाह और भारत में बुरी तरह गिर चुकी शेयरों की कीमत से मिलकर बनी थी जो दीवाली साथ खतम हो गई।  इसलिए पटाखों का धुआं और शेयरों में तेजी की धमक बैठते ही निवेशक वापस भारत में उपभोग खर्च कम होने के सच से