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Tuesday, December 22, 2015

टैक्‍सेशन की नई पीढ़ी


असंगत कर ढांचे की बहस को कालीन के नीचे दबाकर जीएसटी पर आगे बढऩा खतरनाक हो सकता है

दि हम यह याद रख पाते कि कि कच्चे तेल की ग्लोबल कीमत 37 डॉलर प्रति बैरल तक गिर चुकी है लेकिन टैक्स के कारण डीजल 46 से 54 रु. और पेट्रोल 61 से 68 रु. प्रति लीटर पर मिल रहा है तो शायद हम जीएसटी की चर्चाओं में जरूरी अर्थ भर सकते थे. यदि हम जीएसटी से ग्रोथ बढऩे की खामखयाली छोड़कर उन तजुर्बों पर बहस करते जो हमें जीएसटी के पूर्वज यानी वैल्यू एडेड टैक्स लागू करने के दौरान मिले थे तो शायद हमें जीएसटी और टैक्स सिस्टम को ठीक करने में ज्यादा मदद मिलती. बहरहाल, अब जबकि राजनीतिक पैंतरों को छोड़ लगभग पूरा सियासी कुनबा जीएसटी की जरूरत पर सहमत है तो अब मौका है कि इस बहस को दो टूक किया जाए और इसे संसद से सड़क तक ले जाया जाए क्योंकि जीएसटी, भारत की विशाल आबादी की खपत, निवेश और रोजगारों पर ऐसा असर छोड़ेगा जो पिछले कई दशकों में नजर नहीं आया है.
असंगत कर ढांचे की बहस को कालीन के नीचे दबाकर जीएसटी पर आगे बढऩा खतरनाक हो सकता है. वित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार की ताजी रिपोर्ट ने जीएसटी को लेकर 12 फीसदी की न्यू्नतम दर, सेवाओं और उत्पादों के लिए 17 से 19 फीसदी की मध्यम दर और 40 फीसदी की सर्वोच्च दरों का ढांचा सुझाया है. इन तीनों दरों की गहराई में जाना जरूरी है. 12 फीसदी की न्यूनतम दर का मतलब है कि अब केंद्र और राज्य में एक्साइज और वैट को लेकर इकाई की दरों का दौर खत्म हो जाएगा यानी कि तमाम उत्पाद जो 6-8 फीसदी टैक्स के तहत हैं उन पर 12 फीसदी टैक्स लगेगा. दूसरी दर के तहत सर्विस टैक्स 14.5 फीसदी से बढ़कर 19 फीसदी पर पहुंच जाएगा. हो सकता है पेट्रो उत्पादों के लिए एक नई दर आए जो 20 फीसदी के इर्दगिर्द होगी. लक्जरी उत्पादों के लिए 40 फीसदी की दर प्रस्तावित है. अगर दरें इतनी भी रहें तो भी जीएसटी हमें बहुत महंगा पड़ेगा.
जीएसटी का ढांचा पत पर ज्यादा और कमाई पर कम टैक्स उस पुराने सिद्धांत से निकला है जिसे बदलने की हमें जरूरत थी. कई बड़े सुधारों के बावजूद हम अपने कर ढांचे को आधुनिक, सहज और उत्साही नहीं बना सके. दुनिया के देशों में कमाई पर ज्यादा और खपत पर सीमित टैक्स लगता है लेकिन भारत के वित्त मंत्री टैक्स और कॉर्पोरेट कर घटाकर लोकप्रियता बटोरते हैं जबकि एक्साइज, सर्विस टैक्स आदि इनडाइरेक्ट रेट बढ़ाकर खुद को चतुर साबित करते हैं. डाइरेक्ट टैक्स का फायदा एक छोटे-से वर्ग को मिलता है लेकिन इनडाइरेक्ट टैक्स बढ़ते ही बहुत बड़ी आबादी की खपत सीमित हो जाती है.
टैक्स का बुनियादी सिद्धांत कहता है कि टैक्स बेस यानी करदाताओं की तादाद बढऩे के साथ कर दरें कम होनी चाहिए. लेकिन अर्थव्यवस्था में ग्रोथ के साथ उत्पादन, खपत और करदाताओं की तादाद बढऩे के बावजूद इनडाइरेक्ट टैक्स (एक्साइज, सर्विस टैक्स, सेस, सरचार्ज) लगातार बढ़े हैं. इसके बदले आयकर और कॉर्पोरेट कर की दरें घटने के बावजूद करदाताओं की संख्या बमुश्किल चार करोड़ लोगों तक पहुंची है, जो आबादी के केवल तीन फीसदी है.
वैट को लेकर हमारा तजुर्बा ताकीद करता है कि जीएसटी की अधिकतम दर तय करने का सुझाव उपयोगी है. राज्यों में सेल्स टैक्स की जगह वैल्यू एडेड टैक्स 2005 से लागू हुआ था. उसमें भी तीन तरह की दरें प्रस्तावित थीं लेकिन लागू होने के तीन साल के भीतर ही पूरा अनुशासन हवा हो गया. अब अलग-अलग राज्यों में एक ही उत्पाद पर अलग-अलग टैक्स हैं और वैट लागू होने के बाद ज्यादातर उत्पाद ऊंची कर दरों के स्लैब में चले गए हैं.
ऊंची कर दरें कारोबार को मुश्किल बनाने की सबसे बड़ी वजह हैं इसलिए कारोबारी सहजता की बहसें भी कर ढांचे पर आकर ठहर जाती हैं. एक और बड़ी विसंगति यह है कि अंतरराष्ट्रीय अनुबंधों के कारण सीमा शुल्क की दरें तेजी से घटी हैं जिनकी भरपाई एक्साइज और सर्विस टैक्स बढ़ाकर की गई. इस प्रक्रिया में देश में उत्पादन महंगा हुआ और निवेश कम और उद्योगों की प्रतिस्पर्धात्मकता घटती गई. जीएसटी की दरें नीचे रखकर ही प्रतिस्पर्धा और मांग बढ़ाने के लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं.
भारत में करों की पीढ़ी बदलने का वक्त आ रहा है. देश को अब ग्रीन टैक्स लगाने होंगे जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली खपत और उत्पादन को रोकते हों. इनमें कंजेशन टैक्स, पॉल्यूशन टैक्स, ग्रीन एनर्जी टैक्स होंगे जो दुनिया के देशों में आजमाए जा रहे हैं. इन नए करों की शुरुआत से पहले सामान्य आर्थिक खपत को महंगा करने वाले इनडाइरेक्ट टैक्स को कम करना जरूरी है अन्यथा भारत का कर ढांचा बुरी तरह असंगत होकर उद्यमिता, मांग और निवेश की उम्मीदों को ध्वस्त कर देगा.
दरअसल टैक्स की बहस सरकारी खर्च कम करने की तरफ मुडऩी चाहिए. लोकलुभावन खर्च के कारण खपत पर टैक्स (इनडाइरेक्ट) को निचोड़ा गया है. सरकारों को अपना आकार और भूमिका सीमित करनी होगी ताकि खपत सिकोडऩे वाली टैक्स थोपने की आदत से निजात मिल सके. यह कतई जरूरी नहीं है कि जीएसटी संसद के इसी सत्र में पारित हो जाए, ज्यादा जरूरी यह है कि ऐसा जीएसटी हमें मिले जो उपभोक्ता और निवेशक के तौर पर हमारी मुसीबतें कम करता हो. अगर ऊंचे टैक्स वाला जीएसटी लागू हुआ तो इसके नतीजे न केवल आर्थिक तौर पर विस्फोटक होंगे बल्कि राजनीतिक तौर पर भी इनका विपरीत असर होगा.
जीएसटी के ताजा विमर्श में इन सवालों से मुठभेड़ बेहद जरूरी है कि क्या जीएसटी का मौजूदा ढांचा भारत में निवेश और कारोबार को आसान करेगा? क्या जीएसटी कर ढांचे में वह असंगतियां दूर करेगा जिनके कारण हम खपत पर लगे भारी टैक्सों का देश हो गए हैं, जो मांग और बेहतर जीवन स्तर की उम्मीदों का गला घोंटते है? और क्या हम जीएसटी के बाद ऐसी व्यवस्था बनते देख पाएंगे जो सरकार को टैक्स लगाने पर नहीं बल्कि फालतू के खर्च सीमित करने पर प्रेरित करती हो? ये तीनों सवाल एक-दूसरे से जुड़े हैं और उपभोक्ताओं, व्यापारियों और निवेशकों को संसद की बहस से इन सवालों के माकूल जवाब चाहिए क्योंकि, एक अदद खराब जीएसटी हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा.

Wednesday, September 2, 2015

जीएसटी है, कोई जादू नहीं


जीएसटी में जितनी उम्मीदें पैवस्त हैंजटिलताओं व किंतु-परंतुओं का हिस्सा उनसे ज्यादा बड़ा हैउम्‍मीदों को तर्कसंगत रखने के लिए जिन्‍हें समझना जरुरी है।
ह शायद हमारी चमत्कारप्रियता का नतीजा ही है कि हम वैसे ही सोचने लगते हैं, जैसा कि सियासत या सरकारें हमसे चाहती  हैं. जैसे, जादू-टोने के कद्रदान हम हिंदुस्तानी यह समझ रहे थे कि कांग्रेस तरक्की का कोई स्विच चुरा ले गई है नई सरकार आते ही उसे फिट कर देगी और सब कुछ चमक उठेगा. ठीक उसी तरह हमें समझाया गया कि गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) लागू होते ही विकास दर छलांगे लगाने लगेगी. यह बात अलग है कि बीजेपी को भी जीएसटी में कमजोर ग्रोथ का शर्तिया इलाज, गद्दीनशीन होने के बाद ही नजर आया. इससे पहले तक जीएसटी महज एक टैक्स सुधार था, जिसमें जल्दबाजी को लेकर बीजेपी को गहरी आपत्ति थी. फिर भी सियासत को माफ किया जा सकता है. ज्यादा बड़ा अचरज यह है कि निवेशकों से विशेषज्ञ तक, सब जीएसटी की बारात में शामिल हो गए. शुक्र है कि सरकार, जब जीएसटी के बुनियादी विधेयक को पारित कराने के लिए संसद के विशेष सत्र की तैयारी कर रही है, तब इस टैक्स सुधार को लेकर तर्कहीन उत्साह की गर्द बैठने लगी है और इसे वास्तविकता की रोशनी में देखने की कोशिश शुरू हो गई है.
जीएसटी के मामले में विपक्ष और पक्ष, दोनों ही खेमों को धन्य कर चुकी बीजेपी को सरकार में आने के बाद उम्मीदों को तर्क का आधार देना चाहिए था. जीएसटी में जितनी उम्मीदें पैवस्त हैं, जटिलताओं व किंतु-परंतुओं का हिस्सा उनसे ज्यादा बड़ा है, जिन्हें न केवल जागरूक बहस के लिए समझना जरूरी है बल्कि इसलिए भी जानना चाहिए ताकि जीएसटी की राह में आने वाले झटकों और यू टर्न के लिए पहले से तैयार रहा जा सके. जैसे कि इस प्रचार को कुछ ठहर कर निगलने की जरूरत है कि जीएसटी लागू होते ही देश की विकास दर एक से दो फीसदी बढ़ जाएगी. आइएमएफ की सूचनाओं के आधार पर एम्बिट कैपिटल का एक ताजा अध्ययन साबित करता है कि इनडायरेक्ट टैक्स सुधार और आर्थिक ग्रोथ का कोई सीधा रिश्ता नहीं है.
1986 से लेकर 2000 के बीच दुनिया के चार अलग-अलग देशों में जीएसटी लागू हुआ था. न्यूजीलैंड ने 1986 में जीएसटी अपनाया और 1989 में इसकी दर बढ़ाई. ऑस्ट्रेलिया में 2000 में जीएसटी आया जबकि कनाडा में 1991 में. कनाडा ने 2006 और 2008 में इसकी दरें बदलीं. थाईलैंड में 1991 में एकमुश्त जीएसटी लागू हुआ. इन चारों देशों में केवल न्यूजीलैंड ऐसा था जहां जीएसटी के बाद ग्रोथ तेज हुई. शेष तीन देशों में ग्रोथ में गिरावट रही. विशेषज्ञ मानते हैं कि न्यूजीलैंड में ग्रोथ की कई और दूसरी वजहें भी थीं.
तो फिर जीएसटी लागू होने के बाद भारत में विकास दर दो फीसदी बढ़ जाने का आकलन आखिर आया कहां से? दरअसल, एनसीएईआर ने 2009 में एक रिपोर्ट दी थी जिसके मुताबिक, यदि भारत में आदर्श और आधुनिक जीएसटी लागू होता है तो ग्रोथ की उम्मीद लगाई जानी चाहिए. लेकिन अब जो जीएसटी आने वाला है, उसमें पांच स्तरीय टैक्स होंगे. सीजीएसटी के तहत केंद्र के टैक्स (एक्साइज, सर्विस), एसजीएसटी के तहत राज्यों के टैक्स—अंतरराज्यीय बिक्री पर आइजीएसटी (सेंट्रल सेल्स टैक्स की जगह), अंतरराज्यीय आपूर्ति पर एक फीसदी अतिरिक्त टैक्स और पेट्रोल डीजल, एविएशन फ्यूल पर टैक्स अलग से होंगे. इस पांच मंजिला जीएसटी के बाद ग्रोथ का तर्क अपने अपने आप दुबक जाता है.
जीएसटी दोहरा-तिहरा टैक्स खत्म करता है इसलिए महंगाई में कमी का इसका रिश्ता जरूर स्थापित होता है. ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, थाईलैंड और न्यूजीलैंड में जीएसटी के बाद महंगाई घटी. लेकिन भारत में जीएसटी को लेकर सबसे बड़ा असमंजस इसी पहलू पर है. जिन देशों ने हाल में इसे लागू किया है, वहां जीएसटी दर पांच (जापान) से लेकर 19.5 फीसदी (यूरोपीय यूनियन) तक है. जीएसटी में एक रेवेन्यू न्यूट्रल रेट होता है यानी कि जिस दर पर सरकार को राजस्व का नुक्सान नहीं होगा. मौजूदा आकलनों में भारत के लिए यह दर 18 फीसद आंकी गई है इससे राजस्व तो नहीं बढ़ेगा लेकिन सरकारों को नुक्सान भी नहीं होगा.
भारत में इनडायरेक्ट टैक्स की औसत दर इस समय 24 फीसदी है इसलिए जीएसटी दर इससे ऊपर ही होने की संभावना है, क्योंकि सरकारों को बढ़ते खर्च को संभालने के वास्ते राजस्व में बढ़ोतरी चाहिए. एम्बिट का अध्ययन बताता है कि 25 फीसदी का जीएसटी रेट होने पर सरकारों का टैक्स जीडीपी अनुपात एक से दो फीसदी बढ़ेगा. उनको ज्यादा राजस्व मिलेगा, जिसे वे विकास में खर्च कर सकती हैं. लेकिन 25 फीसदी की जीएसटी दर महंगाई को भड़का देगी, जिससे मांग कम हो सकती है.
जीएसटी को लेकर केवल क्रियान्वयन की उलझन ही नहीं है बल्कि व्यावहारिक पेचीदगियां हैं, जिन्हें पारदर्शिता के साथ बताया जाना चाहिए. मसलन, अगर जीएसटी दर 18 फीसदी तय होती है तो शायद कारें, उपभोक्ता सामान, भवन निर्माण सामग्री सस्ती होगी लेकिन अगर दर 25 फीसदी तक रही तो कीमतें ऊंची ही रहेंगी. भारत में टेलीफोन, शिक्षा, होटल आदि दर्जनों सेवाओं की लागत आम लोगों के खर्च का बड़ा हिस्सा है. सेवाओं को लेकर जीएसटी में हर तरह से चोट लगनी है. सर्विस टैक्स की दर 14 फीसद है, जिसे बढ़ाकर 18 फीसद (आरएनआर) तो किया ही जाना है. यानी सेवाएं महंगी होंगी और अगर जीएसटी दर 25 या उससे ऊपर हुई तो सेवाओं पर टैक्स लगभग दोगुना हो जाएगा.

आर्थिक सुधारों को लेकर उम्मीदें जायज हैं लेकिन हवाई किले औंधे मुंह ला पटकते हैं. प्रत्येक आर्थिक सुधार फायदे और चुभन साथ लेकर आता है. सुधारों की स्लेट पर पहले हस्ताक्षर को बेताब सरकार का एक संवेदनशील, बहुआयामी और पेचीदा सुधार को जादुई बनाकर पेश करना स्वीकार हो सकता है, लेकिन यह समझना मुश्किल है कि जीएसटी पर कोई चर्चा राजनैतिक दायरे से निकलकर उत्पादक, व्यापारी और उपभोक्ता तक क्यों नहीं पहुंचाई गई, जिन्हें इसे लगाना, वसूलना और चुकाना है. जीएसटी को लेकर दीवानगी का आलम तैयार करने की बजाए इस पर ठोस चर्चा जरूरी है, क्योंकि इस टैक्स सुधार में फूल और कांटों का औसत रह-रहकर बदलने वाला है.