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Sunday, June 24, 2018

एक सुधार, सौ बीमार


  
 देर से आने वाले हमेशा दुरुस्त होंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है. जैसे जीएसटी. सरकार को लोगों का धन्यवाद करना चाहिए कि उन्होंने दुनिया के सबसे घटिया जीएसटी के साथ एक साल गुजार लिया जो कहने को दुनिया में सबसे नया टैक्स सुधार था.

 पहली सालगिरह पर हमें, टीवी पर जीएसटी की पाठशाला चलाते मंत्री, जीडीपी के एवरेस्ट पर चढ़ जाने का दावा करते अर्थशास्त्री, टैक्स चोरी को मौत की सजा सुनाते भाजपा प्रवक्ताओं और संसद में एक जुलाई की आधी रात के उत्सव को नहीं भूलना होगा, जिसे भारत की दूसरी आजादी कहा गया था.

जीएसटी, यकीनन भव्य था. वजह थी तीन उम्मीदें. एकखपत पर टैक्स में कमी, दोकारोबार में सहजता यानी लागत में बचत, तीनटैक्स चोरी पर निर्णायक रोक.  सुधारों को दो दशक बीत गए लेकिन ये तीन नेमतें हमें नहीं मिली थीं. तेज विकास दर और बेहतर राजस्व के लिए इनका होना जरूरी था.

जीएसटी नोटबंदी नहीं है कि इसके असर को मापा न जा सके. सबसे पहले सरकार से शुरू करते हैं.

-  पिछली जुलाई से इस मई तक औसत मासिक जीएसटी संग्रह 90,000 (केंद्र-राज्य सहित) करोड़ रु. रहा है. न्यूनतम 107 से 110 लाख करोड़ रु. हर माह चाहिए ताकि जीएसटी से पहले का राजस्व स्तर मिल सके. यह इस साल मुश्किल है.

राजस्व मोर्चे पर जीएसटी औंधे मुंह क्यों गिरा?

- क्योंकि देश में बहुत छोटे कारोबारियों को छोड़कर सभी पर जीएसटी लगाया जाना था. हर माह तीन रिटर्न भरे जाने थे. लागत में शामिल टैक्स की वापसी होनी थी. लेकिन जीएसटी ने तो पहले दिन से ही कारोबारी सहजता का पिंडदान करना शुरू कर दिया. मरियल नेटवर्क, किस्म-किस्म की गफलतें देखकर गुजरात चुनाव के पहले सरकार ने 75 फीसदी करदाताओं को निगहबानी से बाहर कर दिया. दर्जनों रियायतें दी गईं.

पहले तीन माह के भीतर वह जीएसटी बचा ही नहीं, सुधार मानकर जिसका अभिषेक हुआ था. जीएसटी का सुधार पक्ष टूटते ही इससे मिलने वाले राजस्व की गणित बेपटरी हो गई. 

तो फिर जीएसटी सुधार क्यों नहीं बन पाया?

- क्योंकि कारोबारी सहजता इसके डीएनए में थी ही नहीं. जीएसटी एक या दो टैक्स दरें लेकर आने वाला था, पांच दरें और सेस नहीं. पूरे तंत्र में जटिलताएं इतनी थीं कि जीएसटी के खिलाफ कारोबारी बगावत की नौबत आ गई.
जन्म से ही दुर्बल और पेचीदा जीएसटी ने तीन माह बाद ही सुधारों वाले सभी दांत दान कर दिए. और फिर लामबंदी, दबावों, असफलताओं के कारण 375 से अधिक बदलावों की मार से जीएसटी उसी नेटवर्क जैसा लुंज-पुंज हो गया जिस पर उसे बिठाया गया था. बड़ी मुश्किल से अंतरराज्यीय कारोबार के लिए ई वे बिल अब लागू हो पाया है.   

किस्सा कोताह यह कि जीएसटी अब निन्यानवे के फेर में है.

- जीएसटी ने सरकारों के खजाने का बाजा बजा दिया है. कारोबारी सहजता के लिए टैक्स दरों की असंगति दूर करना जरूरी है. वह तब तक नहीं हो सकता जब तक राजस्व संग्रह संतोषजनक न हो जाए.

- पेट्रो उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाने की मंजिल भी अभी दूर है.

- टैक्स चोरी जीएसटी की सबसे बड़ी ताजा मुसीबत है, यानी जिसे रोका जाना था वह भरपूर है. अगर राजस्व चाहिए या उपभोक्ताओं को जीएसटी को फायदे देने हैं तो अब कारोबारियों पर सख्ती करनी होगी यानी उनकी नाराजगी को न्योता देना होगा.

कारोबारी दार्शनिक निकोलस नसीम तालेब ने अपनी नई किताब स्किन इन द गेम में कहा है कि हमारे आसपास ऐसे बहुत लोग हैं जो समझने या सुनने की बजाए समझाने की आदत के शिकार हैं. जीएसटी शायद सरकार की इसी आदत का मारा है. इसे बनाने वाले जमीन से कटे और जड़ों से उखड़े थे.

याद रखना होगा कि आर्थिक सुधार तमाम सतर्कताओं के बाद भी उलटे पड़ सकते हैं. दो माह पहले की ही बात है कि मलेशिया का जीएसटी, खुद भी डूबा और सरकार को भी ले डूबा. इसे भारत के लिए आदर्श माना गया था जो अपने भारतीय संस्‍करण की तुलना में हर तरह से बेहतर भी था.

जीएसटी नेटवर्क की विफलता ने पूरी दुनिया में डिजिटल इंडिया की चुगली की और इसकी ढांचागत खामियों ने सुधारों को लेकर सरकार की काबिलियत पर भरोसे की चूले हिला दी. जीएसटी की पहली छमाही देखकर विश्‍व बैंक को कहना पड़ा कि भारत का जीएसटी दुनिया में सबसे जटिल है. नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबराय बोल पड़े कि जीएसटी को स्थिर होने में दस साल लगेंगे.

एक साल बाद अब ताजा कोशिशें जीएसटी के संक्रमण को दूर करने यानी एक सुधार के नुकसानों को सीमित करने की हैं. जीएसटी खुद कब ठीक होगा इसका कार्यक्रम बाद में घोषित होगा

Tuesday, February 20, 2018

जीएसटी जैसे-तैसे

एक फरवरी 2018 भारत के लिए एक खास तारीख थी. इसलिए नहीं कि उस दिन बजट आया. वह तो हर साल आता है. यह भारत में विशाल अंतरराज्यीय कारोबार को एक सूत्र में पिरोने का दिन था. इस तारीख को द्वारका से दीमापुर और लेह से कोवलम तक कारोबारी सामान की आवाजाही सभी किस्म के अवरोधों से मुक्त होने वाली थी.

जीएसटी ई वे बिल?

सही पकड़े हैं. 

यह जीएसटी का सबसे जरूरी और दूरगामी हिस्सा था. यह वन नेशनवन सिस्टम की शुरुआत था. बस कंप्यूटर से निकला एक बिल और कहीं भी माल ले जाने की छूटन कोई परमिटन चेकपोस्ट! यही वजह थी कि बजट के दिन कारोबारियों की दिलचस्पी वित्त मंत्री के भाषण में नहीं बल्कि ई वे बिल में थी. 

एक फरवरी को बजट भाषण और जीएसटी नेटवर्क से ई वे बिल लेने की जद्दोजहद एक साथ शुरू हुई. बजट भाषण खत्म होने तक जीएसटी का नेटवर्क बैठ चुका था. कुछ राज्यों ने इस पर अमल रद्द करने का ऐलान कर दिया. शाम होते-होते टीवी स्टुडियो में जब बजट गूंज रहा थाउसी दौरान जीएसटी के अफसर एक ट्वीट टिकाकर घर को निकल लिए कि तकनीकी दिक्कतों के कारण ई वे बिल का क्रियान्वयन अनिश्चितकाल के लिए टाला जा रहा है.

और इस तरह देश को एक बाजार बनाने यानी जीएसटी का सबसे बड़ा मकसद भी खेत रहा.

शुरुआत के सात महीने बीतते-बीततेजीएसटी सुधार से चुनौती में तब्दील हो गया है.

- इस बजट में टैक्स की जो मार (कैपिटल गेंससीमा शुल्क में बढ़ोतरीसेस व सरचार्ज) हुई वह जीएसटी का नतीजा है. नेटवर्क की नाकामी से रिटर्न और टैक्स संग्रह का बुरा हाल पहले से था. इस बीच गुजरात चुनाव की चपेट में जीएसटी का ढांचा फेंट दिया गया. 95 फीसदी करदाताओं को रिटर्न भरने से रियायत मिली. नतीजतन पिछले सात माह में जीएसटी से राजस्व बढऩे की उम्मीदें ढह गईं.

- राज्यों को और ज्यादा नुक्सान हुआ. पिछली जुलाई से मार्च तक के लिए केंद्रीय बजट से राज्यों को 60,000 करोड़ रु. की भरपाई होगी और अगले साल 90,000 करोड़ रु. दिए जाएंगे. राजस्व में कमी और क्षतिपूर्ति ने वित्त मंत्री का घाटा नियंत्रण रिकॉर्ड दागदार कर दिया.

- सभी कारोबारियों को करदाता बनाने का मकसद पटरी से उतर गया है. जीएसटीएन की खामी95 फीसदी करदाताओं को तिमाही रिटर्न की सुविधा और एक फीसदी टैक्स व तिमाही रिटर्न वाली कंपोजिशन स्कीम के कारण केवल 30 फीसदी करदाता विस्तृत इनवॉयस रिटर्न भर रहे हैं. जीएसटी की गफलत से काफी बड़ा कारोबार टैक्स निगहबानी से बाहर है. 

- जीएसटी में पंजीकरण के शुरुआती आंकड़े सरकार के लिए उत्साहवर्धक हैं. करदाताओं की संख्या 50 फीसदी बढ़ी है. छोटे उद्योगों में एक-तिहाई लेन-देन कारोबारी इकाइयों के बीच हो रहा है. इससे कर नियम पालन कराना आसान है. हर राज्य को उसके औद्योगिक कारोबारी परिदृश्य के हिसाब से पंजीकरण मिले हैं. इससे किसी खास राज्य को नुक्सान या फायदे की आशंका खत्म हुई है. 

- अलबत्ता इन उपयोगी सूचनाओं के जरिए राजस्व बढऩे की उम्मीद कम है क्योंकि जीएसटी का क्रियान्वयन पटरी से उतर चुका है. ई वे बिल के जरिए देश भर में माल की आवाजाही की मॉनिटरिंग होनी थी जो टैक्स चोरी रोकने के लिए जरूरी है. सात-आठ लाख बिल प्रति दिन जारी करने वाला सिस्टम बनाने के लिए एनआइसी (सरकारी कंप्यूटर एजेंसी) को लगाया गया लेकिन यह कोशिश भी असफल रही.

बजट के बाद अपने साक्षात्कारों में वित्त‍ मंत्री ने कहा कि टैक्स नियमों के पालन में सख्ती के साथ जीएसटी का राजस्व बढ़ेगा. वित्त मंत्रालय का कहना है कि निगरानी बढ़ाकर एक लाख करोड़ रु. टैक्स वसूला जा सकता है. सरकार को जानकारी है कि इस सुधार में रियायतों का कोटा पूरा हो गया है. चुनावी डर के चलते दी गई सुविधाओं और तकनीकी खामियों के कारण टैक्स चोरी हो रही है. राजस्व में गिरावट के कारण जीएसटी में अगले सुधार (पेट्रो उत्पादअचल संपत्ति को शामिल करना) जहां के तहां ठहर गए हैं. 


जीएसटी को लेकर सरकार की राजनैतिक दुविधा ज्यादा बड़ी है. इसे पटरी पर लाने के लिए इंस्पेक्टर राज की वापसी यानी छोटे व्यापारियों पर सख्ती करनी होगी. गुजरात की जली सरकार चुनावों के साल यह जोखिम तो लेने से रही. इसलिए सीधे और आसानी से उगाहे जाने वाले टैक्स (इनकम टैक्ससेस और सीमा शुल्क) बढ़ा लिए गए हैंउपभोक्ता तो टैक्स चुका ही रहे हैंकारोबारी टैक्स देंगे या नहींइसका हिसाब चुनाव देखकर होगा. 

जिसका डर था वही हुआ है. भारत का सबसे नया सुधार सिर्फ सात माह में पुराने रेडियो की तरह हो गयाजिसे ठोक-पीट कर किसी तरह चलाया जा रहा है. जीएसटी का सुधारवाद अब इतिहास की बात है. 

Sunday, December 10, 2017

इसलिए खास है गुजरात, इस बार


Image- The mint 2015

हार्दिक पटेल की चमत्‍कारिक लोक‍प्रियताराहुल गांधी की तुर्शीभाजपा के राज्‍य नेतृत्‍व के फीकेपन और जीएसटी की मार के बावजूद कोई समझदार राजनीतिक प्रेक्षक गुजरात में भाजपा को कमजोर आंकने की गलती नहीं कर सकता.

फिर भी इस बार गुजरात खास क्‍यों है  ऐसा क्‍या है जो गुजरात की जंग इतनी कंटीली हो गई है. ?

यह पिछले तीन साल का कमाल है जिसने गुजरात के चुनाव को भारत में पिछले पच्‍चीस सालों का सबसे रहस्‍यमय चुनाव बना दिया है  यह चुनाव तीन ऐसे सवालों के जवाब लेकर आएगा जिनसे भारतीय राजनीति पहली बार मुकाबिल है

पहला - क्‍या गहरी आर्थिक मंदी का चुनावी राजनीति से क्‍या रिश्‍ता है 

दो - क्‍या तरक्‍की के बावजूद असमानतायें बढ़ती रह सकती हैं और उनके चुनावी फलित भी हो सकते हैं

तीसरा - क्‍या खौलते जनआंदोलनों के बावजूद लोगों के चुनावी फैसले अपरिवर्तित रह सकते हैं

बीते तीन साल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्‍य में जो कुछ हुआ है वह भी शेष भारत से पूरी तरह फर्क है. ठीक उसी तरह जैसे कि पिछले दो दशक में गुजरात देश से अलग चमकता रहा था. यह उठा पटक नरेंद्र मोदी के गांधीनगर से दिल्‍ली जाने के बाद हुई. राजनीतिक आबो हवा में इस बदलाव की जड़ें राज्‍य की अर्थव्‍यवस्‍था में हैं.

गुजरात में माहौल बदलने की पहली सरकारी मुनादी जुलाई 2016 में हुई थी जब देश को पता चला कि 2014-15 के दौरान गुजरात गुजरात भारत में सबसे तेज विकास दर वाले पांच राज्यों से बाहर निकल गया है वह अब दसवें नंबर पर था और गहरी मंदी में धंस गया था. यह आंकड़ा जिस वित्‍तीय साल की तस्‍वीर बता रहा था वह नरेंद्र मोदी के बाद गुजरात का पहला वर्ष था.

इस वक्‍त तक पाटीदार आंदोलन पहला साल पूरा कर चुका था. आरक्षण की मांग कर रहे बेरोजगार युवाओं का आंदोलन भाजपा को राज्‍य का मुखिया बदलने पर मजबूर करने वाला था और 2017 में गुजरात को भाजपा के लिए सबसे करीबी लड़ाई बना देने वाला था जिसे वह चुटकियों में जीतती आई थी

मंदीबेकार और पाटीदार
गुजरात अगर कोई देश होता तो उसकी मंदी दुनिया में चर्चा का विषय होती. पिछले दो दशकों में गुजरात की ग्रोथ जितनी तेज रही है ढलान उससे कहीं ज्‍यादा तेज है. औद्योगिक बुनियादतटीय भूगोल और निजी पूंजी के कारण गुजरात औद्योगिक ग्रोथ का करिश्‍मा रहा है. भारत में सिर्फ छह फीसदी जमीन और पांच फीसदी जनसंख्‍या वाला गुजरात पूरे देश से तेज (दस फीसदी तक) दौड़ा. गुजरात ने देश के जीडीपी में 7.6 फीसदी व निर्यात में 22 फीसदी हिस्‍सा ले लिया. (रिजर्व बैंक और नीति आयोग के आर्थिक आंकड़ों की हैंडबुक में गुजरात के ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट- जीएसडीपी के वित्त वर्ष 2013-14 के बाद के आंकडे उपलब्‍ध नहीं हैं.)

लेकिन मैन्‍युफैक्‍चरिंग पर आधारित अर्थव्‍यवस्‍थायें मंदी में (सेवा या कृषि वाली अर्थव्‍यवस्‍थाओं के मुकाबले) ज्‍यादा तेजी से टूटती हैं इस‍लिए गुजरात में मंदी व बेकारी शेष भारत से कहीं ज्‍यादा गहरी है. यह ढलान 2013 से शुरु हुई. पाटीदार युवा आंदोलन और गुजरात में मंदी की शुरुआत समकालीन हैं. मंदी से कराहता गुजरात का कारोबार नोटबंदी और जीएसटी की चोट से  बिलबिला उठा और चुनावी नुकसान के डर से भाजपा को पूरा जीएसटी सर के बल खड़ा करना पड़ा. 

करिश्‍मे का असमंजस
मोदी के गुजरात का करिश्‍मा उसकी खेती के पुर्नजागरण में छिपा है. 2001 से 2011-12 तक गुजरात का कृषि उत्‍पादन देश की तुलना ( 3 फीसदी के मुकाबले 11 फीसदी) में अप्रत्‍याशित रुप से तेज था. खेतिहर ग्रोथ के बावजूद ग्रामीण गुजरात में सामाजिक सुविधायें पिछड़ी रही जो गवर्नेंस की पिछले दो दशक सबसे बड़ी उलझन है. 2013 से ही खेती भी मुश्किल में है जिसकी वजह मौसम (सूखा-बाढ़) भी है बाजार भी. शहर उद्योगसेवाओं और सरकारी नौकरी के कारण किसी तरह चल रहे हैंलेकिन मंदी ने गांवों के लिए मौके खत्‍म कर दिये हैं इसलिए ग्रामीण गुजरात का गुस्‍सा इस चुनाव में भाजपा की सबसे बड़ी मुश्किल है

आंदोलनों की हुंकार
गुजरात देश से कितना से अलग है पिछले तीन साल इसके गवाह हैं जब शेष भारत केंद्र की नई सरकार के नेतृत्‍व में अच्‍छे दिनों पर चर्चा कर रहा था तब गुजरात आंदोलनों से सुलग रहा था. इस राज्‍य ने जितने आंदोलन पिछले तीन साल में देखे हैं उतने हाल के वर्षों में नहीं हुए. ज्‍यादातर आंदोलन युवाओकिसान, कामगारों और व्‍यापारियों के थे  जो मंदी से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं.

गुजरात अपने छोटे से भूगोल में आार्थिकसामाजिक और राजनीतिक कारकों की पेचीदगी समेटे है इसलिए  गुजरात का चुनाव पिछले दो दशक का सबसे रोमांचक चुनाव हो गया है.

गुजरात के नतीजे पहली बार हमें स्‍पष्‍ट रुप से बतायेंगे कि मंदी और बेकारी के बीच लोग कैसे वोट देते हैं लिखना जरुरी नहीं है कि यह निष्‍कर्ष भारत के भविष्‍य की आर्थिक राजनीति के लिए बहुत कीमती होने वाले हैं.

Sunday, October 22, 2017

जीएसटी के उखडऩे की जड़


चुनावों में भव्‍य जीत जमीन से जुड़े होने की गारंटी नहीं है. यह बात किसी उलटबांसी जैसी लगती है लेकिन यही तो जीएसटी है.
जीएसटी की खोटनाकामी और किरकिरी इसकी राजनीति की देन हैंइसके अर्थशास्‍त्र या कंप्‍यूटर नेटवर्क की नहीं.

दरअसल,  अगर कोई राजनैतिक दल किसी बड़े सुधार के वक्‍त जमीन से कट जाए तो उसे तीन माह में दो बार दीवाली मनानी पड़ सकती है. पहले जीएसटी लाने की दीवाली (1 जुलाई) और इससे छुटकारे की (6 अक्तूबर). 

जीएसटी मुट्ठी भर बड़ी कंपनियों का नहींबल्कि भाजपा के बुनियादी वोट बैंक का सुधार था. यह देश के लाखों छोटे उद्योगों और व्‍यापार के लिए कारोबार के तौर-तरीके बदलने का सबसे बड़ा अभियान था. 1991 से अब तक भारत ने जितने भी आर्थिक सुधार किएवह संगठित क्षेत्र यानी बड़ी कंपनियों के लिए थे. जीडीपी में करीब 50 फीसदी और रोजगारों के सृजन में 90 फीसदी हिस्‍सा रखने वाले असंगठित क्षेत्र को सुधारों की सुगंध मिलने का संयोग नहीं बन सका.

टैक्‍स सुधार के तौर पर भी जीएसटी भाजपा के वोट बैंक के लिए ही था. बड़ी कंपनियां तो पहले से ही टैक्‍स दे रही हैं और आम तौर पर नियमों की पाबंद हैं. असंगठित क्षेत्र रियायतों की ओट में टैक्‍स न चुकाने के लिए बदनाम है. उसे नियमों का पाबंद बनाया जाना है.

अचरज नहीं कि छोटे कारोबारी जीएसटी को लेकर सबसे ज्‍यादा उत्‍साहित भी थे क्‍योंकि यह उनकी तीन मुरादें पूरी करने का वादा कर रहा थाः

1. टैक्‍स दरों में कमी यानी बेहतर मार्जिन और ज्‍यादा बिक्री
2. आसान नियम यानी टैक्‍स कानून के पालन की लागत में कमी अर्थात् साफ-सुथरे कारोबार का मौका
3. डिजिटल संचालन यानी अफसरों की उगाही और भ्रष्‍टाचार से निजात

छठे आर्थिक सेंसस (2016) ने बताया है कि भारत में खेती के अलावाकरीब 78.2 फीसदी उद्यम पूरी तरह संचालकों के अपने निवेश पर (सेल्‍फ फाइनेंस्‍ड) चलते हैं. उनकी कारोबारी जिंदगी में बैंक या सरकारी कर्ज की कोई भूमिका नहीं है. जीएसटी के उपरोक्‍त तीनों वादे, छोटे कारोबारियों के मुनाफों के लिए खासे कीमती थे. जमीन या किरायेईंधन और बिजली की बढ़ती लागत पर उनका वश नहीं हैजीएसटी के सहारे वह कारोबार में चमक की उम्मीद से लबालब थे. 

2015 की शुरुआत में जब सरकार ने जीएसटी पर राजनैतिक सहमति बनाने की कवायद शुरू की तब छोटे कारोबारियों का उत्‍साह उछलने लगा. 
यही वह वक्‍त था जब उनके साथ सरकार का संवाद शुरू होना चाहिए था ताकि उनकी अपेक्षाएं और मुश्किलें समझी जा सकें. गुरूर में झूमती सरकार ने तब इसकी जरूरत नहीं समझी. कारोबारियों को उस वक्‍त तकजीएसटी की चिडिय़ा का नाक-नक्‍श भी पता नहीं था लेकिन उन्‍हें यह उम्मीद थी कि उनकी अपनी भाजपाजो विशाल छोटे कारोबार की चुनौतियों को सबसे बेहतर समझती हैउनके सपनों का जीएसटी ले ही आएगी.

2016 के मध्य में सरकार ने मॉडल जीएसटी कानून चर्चा के लिए जारी किया. यह जीएसटी के प्रावधानों से, छोटे कारोबारियों का पहला परिचय था. यही वह मौका था जहां से कारोबारियों को जीएसटी ने डराना शुरू कर दिया. तीन स्‍तरीय जीएसटीहर राज्‍य में पंजीकरण और हर महीने तीन रिटर्न से लदा-फदा यह कानून भाजपा के वोट बैंक की उम्‍मीदों के ठीक विपरीत था. इस बीच जब तक कि कारोबार की दुनिया के छोटे मझोले , जीएसटी के पेच समझ पातेउनके धंधे पर नोटबंदी फट पड़ी.

त्तर प्रदेश की जीतभाजपा के दंभ या गफलत का चरम थी. जीएसटी को लेकर डर और चिंताओं की पूरी जानकारी भाजपा को थी. लेकिन तब तक पार्टी और सरकार ने यह मान लिया था कि छोटे कारोबारी आदतन टैक्‍स चोरी करते हैं. उन्‍हें सुधारने के लिए जीएसटी जरूरी है. इसलिए जीएसटी काउंसिल ने ताबड़तोड़ बैठकों में चार दरों वाले असंगत टैक्‍स ढांचे को तय कियाउनके तहत उत्‍पाद और सेवाएं फिट कीं और लुंजपुंज कंप्‍यूटर नेटवर्क के साथ 1 जुलाई को जीएसटी की पहली दीवाली मना ली गई.

जीएसटी आने के बाद सरकार ने अपने मंत्रियों की फौज इसके प्रचार के लिए उतारी थी लेकिन उन्‍हें जल्‍द ही खेमों में लौटना पड़ा. अंतत: अपने ही जनाधार के जबरदस्‍त विरोध से डरी भाजपा ने गुजरात चुनाव से पहले जीएसटी को सिर के बल खड़ा कर दिया. यह टैक्‍स सुधार वापस कारीगरों के हवाले है जो इसे ठोक-पीटकर भाजपा के वोट बैंक का गुस्‍सा ठंडा कर रहे हैं.



ग्रोथआसान कारोबार या बेहतर राजस्वजीएसटी फिलहाल अपनी किसी भी उम्मीद पर खरा नहीं उतरा क्योंकि इसे लाने वाले लोकप्रियता के शिखर पर चढ़ते हुए राजनैतिक जड़ों से गाफिल हो गए थे. चुनावों में हार-जीत तो चलती रहेगीलेकिन एक बेहद संवेदनशील  सुधारअब शायद ही उबर सके. 

Sunday, October 8, 2017

सोचा न था...


सरकारें आक्रामक हों यह जरूरी नहीं है, लेकिन उन्हें सूझ-बूझ भरा जरूर होना चाहिए.
वे ताबड़तोड़ फैसले भले ही न करें, लेकिन उनके फैसले सधे हुए और सुविचारित जरूर होने चाहिए.
लोगों की जिंदगी में संकटों की कमी नहीं है, सुधार संकट दूर करने वाले होने चाहिए उन्हें बढ़ाने वाले नहीं.
राजनैतिक पेशबंदी चाहे जो हो लेकिन सरकार का तापमान यह बता रहा है कि उसे दो बड़े फैसलों के चूक जाने का एहसास हो चला है. नोटबंदी अपने सभी बड़े लक्ष्य हासिल करने में असफल रही है. जाहिर है कि इनकम टैक्स रिटर्न फाइल करने वालों की संख्या बढ़ाने के लिए तो इतना बड़ा जोखिम नहीं लिया गया था. 
और जीएसटी ! इसे तो एक जुलाई की आधी रात को संसद के केंद्रीय कक्ष में भारत का सबसे  क्रांतिकारी आर्थिक सुधार घोषित किया माना गया था, तब संसद में दीवाली  मनाई गई थी लेकिन तीन माह के भीतर ही यह संकटकारी और लाल फीता शाही बढ़ाने वाला लगने लगा। याद नहीं पड़ता कि हाल के वर्षों में कोई इतना बड़ा सुधार तीन माह बाद ही पूरी तरह सर के बल खड़ा हो गया हो।  
जीएसटी और नोटबंदी को एक साथ देखिए, उनकी विफलताओं में गहरी दोस्ती नजर आएगी.
दोनों ही गवर्नेंस के बुनियादी सिद्धांतों की कमजोरी का शिकार होकर सुधार की जगह खुद संकट बन गएः

1. गवर्नेंस अंधेरे में तीर चलाने का रोमांच नहीं है. प्रबंधन वाले पढ़ाते हैं जिसे आप माप नहीं सकते उसे संभाल नहीं सकते. सवाल पूछना जरूरी है कि क्या नोटबंदी से पहले सरकार ने देश में काली नकदी का कोई आंकड़ा भी जुटाया था? आखिरी सरकारी अध्ययन 1985 में हुआ और सबसे ताजा सरकारी दस्तावेज वह श्वेत पत्र था जो 2012 में संसद में रखा गया. दोनों ही नकद में बड़ी मात्रा में काला धन होने को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं थे.

नकदी और बैंक खातों में जमा रकम को लिक्विड वेल्थ माना जाता है. वित्तीय शोध फर्म कैपिटलमाइंड ने हिसाब लगाया कि भारत में कुल लिक्विड वेल्थ में नकदी का हिस्सा केवल 14 फीसदी (1950 में 50 फीसदी) है, जिसका 99 फीसदी हिस्सा बैंकों से गुजरकर हाथों में वापस पहुंच रहा है. अगर सरकार काले धन के लिए सोना या जमीनों पर निगाह जमाती तो उत्साहजनक नतीजे मिल सकते थे. कम से कम अर्थव्यवस्था का दम घुटने से तो से बच जाता.

जीएसटी दस साल से बन रहा है लेकिन इसकी जरूरत, कारोबारी हालात और तैयारियों का एक अध्ययन या जमीनी शोध तक नहीं हुआ. छोटे उद्योग कितनी टैक्स चोरी करते हैं, यह बताने के लिए सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है.किस कारोबार पर इसका क्‍या असर होगा? सरकार से लेकर कारोबार तक कौन कितना तैयार है? सरकार ने तो यह भी नहीं आंका कि जीएसटी से राजस्व का क्या नुक्सान या फायदा होगा. इसलिए जीएसटी तीन माह में बिखर गया. हम ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, मलेशिया के तजुर्बों से सीखकर पूरे सुधार को सहज व पारदर्शी बना सकते थे.

2. यदि संकट सिर पर न खड़ा हो तो कोई आर्थिक सुधार में नुक्सान-फायदों की सही गणना जरुरी होती है. नोटबंदी के समय सरकार ने शायद यह हिसाब भी नहीं लगाया कि एटीएम नए नोटों के साथ कैसे काम करेंगे? रिजर्व बैंक कितने नोट छाप सकता है ? करेंसी कहां और कैसे पहुंचेगी? नियम कैसे बदलने होंगे? जीडीपी में गिरावट, रिजर्व बैंक व बैंकों को नुक्सान, कंपनियों को घाटा, रोजगारों में कमी—नोटबंदी ने 12 लाख करोड़ रु. की चपत (एनआइपीएफपी का आकलन) लगाई है. 

जीएसटी के नुक्सानों का आंकड़ा आना है अलबत्‍ता सरकार ने इस जिस तरह वापस लिया है वह संकेत ददेता है कि जीएसटी ने भी राजस्व, जीडीपी और कंपनियों के मुनाफों में बड़े छेद किये हैं.

3. सुधार कैसे भी हों लेकिन उनसे सेवाओं सामानों की किल्‍लत पैदा नहीं हो चा‍हिए। मांग व आपूर्ति की कमी कुछ लोगों को हाथ में अकूत ताकत दे देती है, यही तो भ्रष्‍टाचार है. नोटबंदी और जीएसटी, दोनों ही भ्रष्टाचार के नए नमूनों के साथ सामने आए. नोटबंदी ने बैंक अफसरों को दो माह के लिए सुल्तान बना दिया. नोटों की अदला-बदली में बैंकिंग तंत्र भ्रष्ट और जन धन ध्व‍स्त हो गए. जीएसटी की किल्लतों के वजह से कच्चे बिल और नकद के कारोबार की साख और मजबूत हो गई. जीएसटी में ताजी तब्‍दीलियों के बाद अब वही पुराना दौर लौटने वाला है जिसमें टैक्‍स चोरी और भष्‍टाचार एक साथ चलता था. 

कमजोर तैयारियां, खराब डिजाइन और बदहाल क्रियान्वयन,  गवर्नेंस के स्थायी रोग हैं. लेकिन हमने दुनिया को दिखाया है कि अर्थव्यवस्था को उलट-पलट देने वाले निर्णय, अगर इन बीमारियों के साथ लागू हों तो दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था को भी विकलांग बनाया जा सकता है.
सरकारों की मंशा पर शक नहीं होना चाहिए वह हमेशा अच्‍छी ही होती है मुसीबत यह है कि सरकारी फैसलों की परख उनकी मंशा से नहीं, नतीजों से होती है. नोटबंदी और जीएसटी सुधार होने का तमगा लुटा चुके हैं. अब तो कवायद इनके असर से बचने और उबरने की है.  

Sunday, September 17, 2017

जीएसटी का इलाज


यदि कोई बंदर कंप्यूटर के की बोर्ड को लंबे वक्त तक लगातार मनचाहे ढंग से पीटता रहे तो वह कभी न कभी अक्षरों का ऐसा पैटर्न बना लेगा जो शेक्सपियर की कविता के करीब होगा.

बीसवीं सदी की शुरुआत में फ्रांस के गणितज्ञ जब इनफाइनाइट मंकी थ्योरी बना रहे थे (जिसे 2011 में अमेरिकी कंप्यूटर प्रोग्रामर ने वर्चुअल बंदरों की मदद से सही सिद्ध कर दिया) तब उन्हें यह कतई अंदाज नहीं रहा होगा कि 21वीं सदी में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे बड़ा टैक्स सुधार इस थ्योरी का उदाहरण बन जाएगा.

प्रधानमंत्री का गुड ऐंड सिंपल टैक्ससरकार और कारोबारियों के लिए इनफाइनाइट मंकी थ्योरी की साधना बन गया है. तीन महीने बाद पहला रिटर्न भरने के तरीकों पर शोध जारी है. आए दिन बदलते नियमों से जीएसटी की गुत्थी और उलझ जाती है.

वन नेशनवन टेंशन

भारत का सबसे बड़ा टैक्स सुधार गहरी मुश्किल में है जीएसटी खुद बीमार हो गया है और इससे कारोबार में भी बीमारी फैल गई है। 
  •  जीएसटी के सूचना तकनीक नेटवर्क (जीएसटीएन) के बिना जीएसटी लागू होना नामुमकिन है. यह नेटवर्क असफल सा‍बित हो गया है. रिटर्न भरने की भी तारीखें आगे बढ़ा दी गई हैं. इस नेटवर्क के भरोसे लाखों इनवॉयस मिलानेटैक्स  क्रे‍डिटमाल ले जाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक परमिट देनेकेंद्र और राज्य के बीच राजस्व बंटवारे का काम मुश्किल दिख रहा है.
  • जीएसटीएन की असफलता की पड़ताल के लिए राज्यों के वित्त मंत्रियों की समिति बनानी पड़ गई है. सनद रहे कि इस नेटवर्क की तैयारी को लेकर देश को लगातार गुमराह किया गया. शनिवार को बंगलौर में जीएसटी 'उपचार'  समिति की बैठक के बाद सरकार ने स्वीकार किया कि नेटवर्क में समस्‍यायें हैं जिन्‍हें दूर करने की कोशिश हो रही है.
  • उत्पादों और सेवाओं को विभिन्न दरों में बांटने वाली जीएसटी (फिटमेंट) कमेटी ने पर्याप्त तैयारीशोध और उद्योगों से संवाद नहीं किया. इसी गफलत के चलते जुलाई के तीसरे सप्ताह में सिगरेट कंपनी आइटीसी का शेयर एक दिन में 13 फीसदी टूट गया यानी निवेशकों को करीब 50,000 करोड़ रुपए का नुक्सान. यह हुआ सिगरेट पर जीएसटी लगाने की गलती से. पहले सिगरेट पर जीएसटी की दर कम रखी गई फिर गलती समझ में आई तो उसे बढ़ा दिया गया. यह पहला मामला नहीं था इसके बाद जीएसटी काउंसिल लगातार उत्पादों और सेवाओं पर टैक्स की दरें बदल रही है.
  •  नेटवर्क की विफलता और नियमों के फेरबदल से राजस्व संग्रह पर खतरा बढ़ गया है. राज्यों ने केंद्रीय जीएसटी में हिस्सा न मिलने की शिकायत की है. नाराज व्या‍पारी अदालतों से गुहार लगाने लगे हैं.
 विफलता के नतीजे  
  •  ऑनलाइन नेटवर्क की असफलता के कारण नियम पालन और टैक्स चोरी रोकने का मॉडल लडख़ड़ा गया है. अब अधिकांश कारोबार नकद और कच्चे बिल में हो रहा है.
  •   जटिलता और नेटवर्क की उलझनों के कारण जीएसटीकारोबारी सहजता (ईज ऑफ डूइंग बिजनेस) पर आतंकी हमले की तरह सामने आया है.
  •    उत्पादन और बिक्री बेहद सुस्त है. जीडीपी में गिरावट गहरी और लंबी हो सकती है.

सहजता ही इलाज है
इसी स्तंभ में हमने लिखा था जीएसटी बेहद जटिल है. 24 से लेकर 36 रिटर्न की शर्तों और पेचीदा नियमों से लंदे फंदे जीएसटी को ऐसे सूचना तकनीक नेटवर्क के हवाले किया गया है जिसका कायदे से परीक्षण भी नहीं हुआ. यह गठजोड़ की विफलता अर्थव्यवस्था के लिए विस्फोटक हो सकती है. अफसोस कि हम गलत साबित नहीं हुए.  
·   जीएसटी एक ऐसा सुधार है जो तीन माह में ही खुद बीमार हो गया है. इसका ढांचा बदले बिना इसे खड़ा कर पाना अब मुश्किल लगता है.
  •   जीएसटी को चलाना है तो रिटर्न और तमाम प्रक्रियाओं में बड़े पैमाने पर कमी की जरूरत है. सरकार को कारोबारियों पर हमेशा शक करने की आदत छोडऩी होगी. सरकार को यह तय करना होगा कि उसे कितनी सूचना चाहिए. हर छोटी-बड़ी सूचना हासिल करने की जिद हटाकर प्रक्रिया को आसान करना पड़ेगा.
  • छोटे और बड़े कारोबारियों के लिए नियम अलग-अलग तय करने नहीं तो गैर जीएसटी कारोबार बढऩे लगेगा या फिर छोटे कारोबार और व्यापार बंद होने की नौबत आ जाएगी. 
  • कर नियमों में आए दिन बदलाव रोकना होगा ताकि कारोबारी स्थायित्व को लेकर आश्वस्त हो सकें.
याद कीजिए 30 जून की मध्यरात्रि को संसद में हुए जीएसटी उत्सव को. उस जलसे को याद करने पर जीएसटी का ताजा हाल हमें शर्मिंदा करता है. सुधारों की शुरुआत कोई उत्सव नहीं होतीत्योहार तो उनकी सफलता पर मनाया जाता है.




मिल्टन फ्रीडमैन ठीक ही कहते थे: ‘‘सरकारें नसीहत नहीं लेतीसबक तो सिर्फ जनता को मिलते हैं.’’