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Saturday, September 7, 2019

मंदी के आर-पार


मंदी या लंबी आर्थिक गिरावट सिर्फ इसलिए बुरी नहीं होती कि वह हमें तोड़ देती है बल्कि ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि वह हमें किस हाल में ले जाकर छोड़ देती हैअठारह महीने से जारी यह मंदी कब थमेगीइसके संकेत मिलने अभी बाकी हैंअगली तिमाही और मुश्किल भरी हो सकती है लेकिन मंदी से उबरने तक भारतीय बाजार में प्रतिस्पर्धा कमोबेश हमारा साथ छोड़ चुकी होगी.

·     मोबाइल नेटवर्क चाहे जितने घटिया हों लेकिन अगले कुछ माह में हमें शायद दो कंपनियों में एक को चुनना होगाबीएसएनल की बीमारी लाइलाज हो चुकी हैमंदी के बीच वोडाफोन-आइडिया संकट में है यानी कि टेलीकॉम सेवा में प्रतिस्पर्धा आखिरी सांसें ले रही है.
·     स्मार्ट फोन के बाजार में भी बहुत से विकल्प नहीं रहेंगेवहां भी चीन और कोरिया की दो कंपनियां करीब 50 फीसदी बाजार हिस्सा कब्जा चुकी हैंदेशी कंपनियां किसी गिनती में नहीं रहीं.

·     पिछले सात साल में सबसे बुरा वक्त देख रहे विमानन उद्योग में जेट एयरवेज की विदाई के बाद अब प्रतिस्पर्धा सिर्फ दो कंपनियों के बीच सिमट गई है.

·     2015 में एक दर्जन से अधिक ई-कॉमर्स कंपनियां भारत में हंस खेल रही थीं लेकिन अब पूरा रिटेल (ऑनलाइन और स्टोरबाजार अब पूरी तरह दो अमेरिकी कंपनियों के पास चला गया हैअमेरिकी ग्लोबल रिटेल स्टोर दिग्गज वालमार्ट ने फ्लिपकार्ट के अधिग्रहण के साथ खुद को ई-कॉमर्स में स्थापित कर लिया तो ई-कॉमर्स की सुल्तान अमेरिकी कंपनी अमेजन ने भारतीय रिटेल दिग्गज फ्यूचर ग्रुप में हिस्सेदारी खरीद ली हैअब रिटेल बाजार वालमार्ट बनाम अमेजन में बदल गया है.

·     बीते बरस सितंबर में सेबी के चेयरमैन इस बात पर फिक्रमंद थे कि भारत के म्युचुअल फंड बाजार केवल चार कंपनियां या फंड 47 फीसदी निवेश क्यों संभाल रहे हैं जबकि (ऐसेट मैनेजमेंटकंपनियां तो 38 हैंशेयर बाजार में ताजा गिरावट के बाद तो अब दो या तीन खिलाड़ी ही बचेंगे.

भारतीय बाजार पहले से ही एकाधिकारों और कंपनियों की मिलीभगत का दर्द झेल रहा हैकोयलापेट्रो ईंधनबिजली ग्रिडबिजली उत्पादन जैसे बड़े क्षेत्रों में सरकार का एकाधिकार हैइंडियन ऑयल जल्द ही भारत पेट्रोलियम का अधिग्रहण कर लेगी यानी कि पेट्रो उद्योग में प्रतिस्पर्धा और सिमट जाएगीस्टीलदुपहिया वाहनप्लास्टिकएल्युमिनियमट्रक और बसेंकार्गोरेलवेसड़क परिवहनकई प्रमुख उपभोक्ता उत्पाद सहित करीब एक दर्जन उद्योगों या सेवाओं में एक से लेकर तीन कंपनियां (निजी या सरकारीकाबिज हैं.

लंबी खिंचती मंदी प्रतिस्पर्धा के लिए सबसे बड़ी सजा का ऐलान हैमंदी से लड़ने के तरीके बहुत सीमित हैंउद्योग सरकार से मदद की उम्मीद करते हैं लेकिन जब सरकार के पास खर्च बढ़ाने या टैक्स घटाने के मौके नहीं (जैसा कि अब हैहोते तो उद्योगों के पास कीमत कम करने का आखिरी विकल्प बचता हैत्योहारी मौसम के मद्देनजर देश में यह आखिरी कोशिश शुरू हो रही है.

मगर ठहरिएकीमतें कम होने से हालात बदल नहीं जाएंगेयहां से एक दुष्चक्र शुरू होने का खतरा हैयह मंदी कीमतें ऊंची होने की वजह से नहीं हैमहंगाई रिकॉर्ड न्यूनतम स्तर पर हैजीएसटी कम हुआ हैमंदी तो आय न बढ़ने के कारण हैलोगों के पास बचत नहीं हैइसलिए खपत नहीं बढ़ी.

दुनिया के अन्य बाजारों के तजुर्बे बताते हैं कि मंदी के दौर में जब कंपनियां कीमत घटाती हैं तो सिर्फ बड़ी कंपनियां इस होड़ में टिक पाती हैंक्योंकि मंदी के बीच कीमत घटाकर उसका असर झेलने की क्षमता सभी कंपनियों में नहीं होतीटेलीकॉम इसका उदाहरण हैजहां कीमतें कम होने से कंपनियां ही मर गईं.
पिछले छह-सात वर्षों मेंभारतीय बाजार में प्रतिर्स्धा सिकुड़ गई हैविदेशी कंपनियों के आक्रामक विलयअधिग्रहण और कर्ज के कारण बड़े पैमाने पर कंपनियां बंद हुई हैंनोटबंदीजीएसटी ने मझोली कंपनियों को सिकोड़कर स्थानीय बाजारों में प्रतिस्पर्धा को भी सीमित कर दियाजिसकी वजह से कई लोकल ब्रांड खेत रहे.

कहते हैं कि मंदी के बाद अमेरिकी पूंजीवाद को वापस लौटने में पांच दशक लग गएभारत भी जब इस मंदी से उबरेगा तो यहां कई क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा सिमट चुकी होगीकंपनियां हमेशा एकाधिकार चाहती हैंगूगल-फेसबुक वाली नई दुनिया तो वैसे ही एकाधिकार से परेशान है.

कंपनियों के एकाधिकार सरकारों के लिए भी मुफीद होते हैं क्योंकि राजनीति-कॉर्पोरेट गठजोड़ आसानी से चलता हैलाइसेंस परमिट राज में यही तो होता थालेकिन इस पर सवाल उठाने होंगेक्योंकि अर्थव्यवस्था को खुली होड़ चाहिएसीमित प्रतिस्पर्धा वाले क्षेत्रों में नई कंपनियों के प्रवेश की नीति जरूरी हैपांच-छह बड़ी और असंख्य छोटी कंपनियां हर क्षेत्र में होनी ही चाहिएइससे निवेश आएगा और रोजगार भी.

हैरत नहीं कि प्रसिद्ध कारोबारी बोर्ड गेम ‘मोनोपॉली’ (भारत में व्यापारअमेरिका की महामंदी के दौरान सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ थाबेकारी के दौर में लोग खेल वाले नोटों की अदला-बदली से समय काटते थे और कृत्रिम कारोबार खरीदते-बेचते थेअगर हम नहीं चेते तो बड़ी कंपनियां मंदी की बिसात पर यह खेल शुरू कर देंगीजिसकी कीमत हम रोजगार में कमीखराब सेवाएं और घटिया उत्पाद खरीद कर चुकाएंगे.

Saturday, August 10, 2019

सुधार की हार



Art- Asit 
ठीक ही कहते थे रोनाल्ड रेगनसरकारें समस्याओं का समाधान नहीं करतीं बल्कि उन्हें नए क्रम में पुनर्गठित कर देती हैंदो साल पुरानी भारत की दूसरी आजादी यानी जीएसटी को लेकर अगर आपको भी ऐसा ही महसूस होता है तो अब देश के संवैधानिक ऑडिटर यानी सीएजी को अपने दर्द से इत्तेफाक करता हुआ पाएंगे.

सीएजी ने जीएसटी की ‘समग्र असफलता’ का रिपोर्ट कार्ड संसद को सौंप दिया हैजिसे पढ़ते हुए बरबस 30 जून, 2017 की मध्य रात्रि याद आ जाती है जब जगमगाते संसद भवन और दिग्गजों से सजे सेंट्रल हॉल में युगांतरकारी जीएसटी अवतरित हुआ थाचैनल-चैनल घूमकर बधाई गाते हुए सरकार के मंत्री बता रहे थे कि जीएसटी के अवतार के बाद

·       कारोबार करना दुनिया में सबसे आसान हो जाएगा
·       टैक्स चोर तो दिखेंगे ही नहीं        
·       सरकार का खजाना भर जाएगा
·       देश की विकास दर में कम से दो फीसद का इजाफा तो तय समझिए 

जीएसटी पर सीएजी की ताजा रिपोर्ट 1991 के बाद भारत के सबसे बडे़ आर्थिक सुधार की श्रद्धांजलि है.

जीएसटी के तहत कारोबारी सहजता (ईज ऑफ डूइंग बिजनेसको तलाशने निकले सीएजी को क्या मिला?

ऑडिटर ने रजिस्ट्रेशन सिस्टम की पड़ताल से शुरुआत की जो करदाता के लिए जीएसटी के तिलिस्म का प्रवेश द्वार हैपता चला कि कई जरूरी सूचनाएं गलत भरी जा रही हैंयहां तक कि कंपोजिशन स्कीम (छोटे टैक्सपेयर के लिए टर्न ओवर आधारित जीएसटीका गलत फायदा लिया जा रहा है.

निर्माता और सप्लायर की इनवॉयस यानी बिल का शत प्रतिशत  (रियल टाइममिलान जीएसटी का सबसे बुनियादी सुधार था क्योंकि इसके आधार पर कच्चे माल पर चुकाया गया कर वापस (रिफंडहोना थायह व्यवस्था कभी लागू नहीं हो सकीनतीजतनजीएसटी में जमकर फ्रॉड हुएएक करदाता ने 6 लाख करोड़ रुके रिफंड का दावा कर दियाजिसे बाद में सुधारा गया.

पंजीकरणहिसाब-किताब (इनवॉयस मिलानकी तरह ही टैक्स भुगतान का सिस्टम भी घिसट रहा हैडेबिट क्रेडिट कार्ड से टैक्स भुगतान आज तक शुरू नहीं हुआइन असफलताओं के चलते औसतन 60 फीसद करदाता ही रिटर्न फाइल करते हैं.

सीएजी ने दुख के साथ सूचित किया कि जीएसटी आने के बाद कर ईमानदारी तो नहीं बढ़ी अलबत्ता चोरी काफी बढ़ गई है.

कर नियमों के पालननए करदाताओं और खपत (कर दरों में रियायत के कारणमें बढ़ोतरी की मदद से राजस्व बढ़ना था लेकिन यह सुधार तो सरकारी खजानों को बहुत महंगा पड़ा हैजीएसटी लागू होने से पहले (2016-17) में सरकार के राजस्व में बढ़ोतरी की दर 21.33 फीसद थी जो घटकर करीब एक-चौथाई यानी 5.80 फीसद (2017-18) रह गईजीएसटी में कई टैक्स शामिल किए गए थेउनसे मिलने वाले राजस्व की तुलना में केंद्र की जीएसटी से कमाई दस फीसद (2017-18) घट गई.

ऑडिटर की रिपोर्ट यह भी बताती है कि सरकार ने अंतर्राज्यीय कारोबार पर लगने वाले आइजीएसटी को राज्यों के साथ बांटने में संविधान के नियमों का उल्लंघन कियाइसमें कई राज्यों के साथ भेदभाव हुआ हैइस गफलत पर सीएजी की मुहर के बाद राज्य मुखर हो सकते हैं.

लगभग 122 पेज की यह रिपोर्ट नियमों में बार-बार बदलावजीएसटीएन में तकनीकी खामियांगलत गणनाओं की पड़ताल करते हुए कहती हैसरकार को यह समझना चाहिए था कि जीएसटी जैसे विशाल और जटिल सिस्टम में जरा सी चूक बड़े नुक्सान व असुविधा का सबब बनेगी लेकिन यहां तो दो साल से जीएसटी का संक्रमण पूरा होता ही नहीं दिख रहा है.

याद रखना जरूरी है कि उस मध्य रात्रि के जीएसटी अवतरण की गहमागहमी के बीच देश की विकास दर दो फीसद बढ़ने का सपना भी दिखाया गया थाजीएसटी में असंख्य बदलाव हुए लेकिन इस सुधार के बाद न केवल हर प्रमुख उत्पाद की खपत गिरी है बल्कि आर्थिक विकास दर हर तिमाही नए गड्ढे तलाश रही है.

सबसे गंभीर बात यह है कि वित्त मंत्रालय ने तमाम लानत-मलामत के बावजूद सीएजी को जीएसटी के अखिल भारतीय आंकड़े का ऑडिट करने की छूट नहीं दीसीएजी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि ये खामियां फील्ड ऑडिट के आधार पर पाई हैंइसलिए यह सीमित ऑडिट है.

सनद रहे कि जीएसटी कानून के प्रारंभिक प्रारूप की धारा 65 के तहत सीएजी को जीएसटी काउंसिल से सूचनाएं तलब करने का अधिकार था लेकिन अक्तूबर 2017 में जीएसटी काउंसिल ने इस सुधार की निगहबानी से सीएजी को दूर कर दिया. 

समझा जा सकता है कि सरकार जीएसटी से सीएजी को क्यों दूर रखना चाहती थी.

एक घटिया सुधार ने अर्थव्यवस्था के दो साल बर्बाद कर दिएजीएसटी का समग्र ऑडिट और इस विफलता पर सरकार की जवाबदेही अब लोकतंत्र का तकाजा है.


Saturday, July 13, 2019

जिएं तो जिएं कैसे


प्रत्‍येक बड़ा कारोबार कभी न कभी छोटा ही होता है. इस ग्लोबल सुभाषित की भारतीय व्याख्या कुछ इस तरह होगी कि भारत में हर छोटा कारोबार छोटे रहने को अभिशप्तहोता है. आमतौर पर या तो वह घिसट रहा होता है, या फिर मरने के करीब होता है. यहां बड़ा कारोबारी होना अपवाद है और छोटे-मझोले बने रहना नियम. कारोबार बंद होने की संभावनाएं जीवित रहने की संभावनाओं की दोगुनी होती हैं.

भारत में 45 साल की रिकॉर्ड बेकारी की वजहें तलाशते हुए सरकारी आर्थिक समीक्षा को उस सच का सामना करना पड़ा है जिससे ताजा बजट ने आंखें चुरा लीं. यह बात अलग है कि बजट उसी टकसाल में बना है जिसमें आर्थिक समीक्षा गढ़ी जाती है.

सरकार का एक हाथ मान रहा है कि भारत की बेरोजगारी अर्थव्यवस्था के केंद्र या मध्य पर छाए संकट की देन है. कमोबेश स्व-रोजगार पर आधारित खेती और छोटे व्यवसाय अर्थव्यवस्था की बुनियाद हैं जो किसी तरह चलते रहते हैं जबकि बड़ी कंपनियां अर्थव्यवस्था का शिखर हैं जिनके पास संसाधनों और अवसरों का भंडार है. इन्हें कोई खतरा नहीं होता. रोजगारों और उत्पादकता का सबसे बड़ा स्रोत मझोली कंपनियां या व्यवसाय हैं जिनमें 25 से 100 लोग काम करते हैं. बड़े होने की गुंजाइश इन्हीं के पास है. इनके लगातार सिकुड़ने या दम तोड़ने के कारण ही बेरोजगारी गहरा रही है.

मध्यम आकार की कंपनियों का ताजा हाल दरअसल संख्याएं नहीं बल्कि बड़े सवाल हैं, बजट जिनके जवाबों से कन्नी काट गया.

         संगठित मैन्युफैक्चरिंग के पूरे परिवेश में 100 से कम कर्मचारियों वाली कंपनियों का हिस्सा 85 फीसद है लेकिन मैन्युफैक्चरिंग से आने वाले रोजगारों में ये केवल 14 फीसद का योगदान करती हैं. उत्पादकता में भी यह केवल 8 फीसद की हिस्सेदार हैं यानी 92 फीसद उत्पादकता केवल 15 फीसद बड़ी कंपनियों के पास है.

         दस साल की उम्र वाली कंपनियों का रोजगारों में हिस्सा 60 फीसद है जबकि 40 साल वालों का केवल 40 फीसद. अमेरिका में 40 साल से ज्यादा चलने वाली कंपनियां भारत से सात गुना ज्यादा रोजगार बनाती हैं. इसका मतलब यह कि भारत में मझोली कंपनियां लंबे समय तक नहीं चलतीं इसलिए इनमें रोजगार खत्म होने की रफ्तार बहुत तेज है. अचरज नहीं कि नोटबंदी और जीएसटी या सस्ते आयात इन्हीं कंपनियों पर भारी पड़े.

निवेश मेलों में नेताओं के साथ मुस्कराते एक-दो दर्जन बड़े उद्यमी अर्थव्यवस्था का शिखर तो हो सकते हैं लेकिन भारत को असंख्य मझोली कंपनियां चाहिए जो इस विशाल बाजार में स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं की रीढ़ बन सकें. ऐसा न होने से बेकारी के साथ दो बड़ी असंगतियां पैदा हो रही हैं:

एकहर जगह बड़ी कंपनियां नहीं हो सकतीं. विशाल कंपनियों के बिजनेस मॉडल क्रमश: उनका विस्तार रोकते हैं. भारत की स्थानीय अर्थव्यवस्था में (पुणे, कानपुर, जालंधर, कोयंबत्तूर, भुवनेश्वर आदि) इसके विकास में संतुलन का आधार हैं. मझोली कंपनियां इन लोकल बाजारों में रोजगार और खपत दोनों को बढ़ाने का जरिया हैं.

दोमध्यम आकार की ज्यादातर कंपनियां स्थानीय बाजारों में खपत का सामान या सेवाएं देती हैं और आयात का विकल्प बनती हैं. यह बाजार पर एकाधिकार को रोकती हैं. मझोली कंपनियों के प्रवर्तक अब आयातित सामग्री के विक्रेता या बड़ी कंपनियों के डीलर बन रहे हैं जिससे खपत के बड़े हिस्से पर चुनिंदा कंपनियों का नियंत्रण हो रहा है जो कीमतों को अपने तरह से तय करती हैं.

पिछले एक दशक में सरकारें प्रोत्साहन और सुविधाओं के बंटवारे में स्थानीय और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के बीच संतुलन नहीं बना पाईं. रियायतें, सस्ता कर्ज और तकनीक उनके पास पहुंची जो पहले से बड़े थे या प्राकृतिक संसाधनों (जमीन, स्पेक्ट्रम, खनन) को पाकर बड़े हो गए. उन्होंने बाजार में प्रतिस्पर्धा सीमित कर दी. दूसरी तरफ, टैक्स नियम-कानून, महंगी सेवाओं और महंगे कर्ज की मारी मझोली कंपनियां सस्ते आयात की मार खाकर प्रतिस्पर्धा से बाहर हो गईं और उनके प्रवर्तक बड़ी कंपनियों के एजेंट बन गए.

यह देखना दिलचस्प है कि प्रत्यक्ष अनुभव, आंकड़े और सरकारी आर्थिक समीक्षा वही उपदेश दे रहे हैं जो एक चतुर और कामयाब उद्यमी अपनी अगली पीढ़ी से कहता है कि या तो घास बने रहो या फिर जल्द से जल्द बरगद बन जाओ. घास बार-बार हरी हो सकती है और बरगदों को कोई खतरा नहीं है. हर मौसम में मुसीबत सिर्फ उनके लिए है जो बीच में हैं यानी न जिनके पास गहरी जड़ें हैं और न ही मजबूत तने.

चुनावी चंदे बरसाने वाली बड़ी कंपनियों के आभा मंडल के बीच, सरकार नई औद्योगिक नीति पर काम कर रही है. क्या इसे बनाने वालों को याद रहेगा कि गुलाबी बजट की सहोदर आर्थिक समीक्षा अगले दशक में बेकारी का विस्फोट होते देख रही है. जब कामगार आयु वाली आबादी में हर माह 8 लाख लोग (97 लाख सालाना) जुड़ेंगे. इनमें अगर 60 फीसद लोग भी रोजगार के बाजार में आते हैं तो हर महीने पांच लाख (60 लाख सालाना) नए रोजगारों की जरूरत होगी.


Tuesday, January 1, 2019

एक था जीएसटी



99 फीसदी सामान व सेवाओं पर 18 फीसदी तक जीएसटी! 
97 फीसदी सामान सेवाएं तो पहले इसी दायरे में हैं
तो क्रांतिकारी उदारता का  यशोगान! 

कभी दूध कुछ इस तरह फट जाता है कि उससे पनीर तो दूररायता भी नहीं बनता. जीएसटी का हाल अब कुछ ऐसा ही समझिए. भारत की दूसरी आजादी (जैसा कि संसद में अर्धरात्रि इसकी शुरुआत के वक्त कहा गया था) 18 माह में ऐसी प्रणाली में बदल गई है जिसके आर्थिक मकसद ध्वस्त हो चुके हैं. जीएसटी दम तोड़ता हुआ एक सुधार हैचुनाव से पहले जिससे सियासी लाभ की बची-खुची बूंदें निचोड़ी जा रही हैं.

जीएसटी का राजस्व‍ संग्रह लक्ष्य से मीलों दूर है और खजानों का हाल खस्ता है. अगर सरकार शुरू से ही दो टैक्स दरों वाला जीएसटी लेकर चली होती तो बात दूसरी थी लेकिन अब तो जटिलताओं का अंबार गढ़ा जा चुका है.

सरकार को ठोस तौर पर यह भी पता नहीं कि गुजरात चुनाव से लेकर आज तक जीएसटी में रियायतों के बाद उत्पादों या सेवाओं की कीमतें कम हुई भी हैं क्योंकि कंपनियां लागत बढऩे के कारण मूल्य बढ़ा रही हैं. जीएसटी के तहत मुनाफाखोरी रोकने वाला तंत्र अभी शुरू नहीं हुआ जिससे पता चले कि रियायतों का फायदा किसे मिला है.

रियायतों के असर से खपत या मांग बढऩे या कंपनियों का कारोबार बढऩे के प्रमाण भी नहीं हैं.

तो फिर अचानक इस टैक्स दयालुता की वजह

·       पिछले 18 माह में सरकार को एहसास हो गया है कि राजस्व के मामले में मासिक एक लाख करोड़ रु. के संग्रह का लक्ष्य फिलहाल मुश्किल है. सेवाओं से टैक्‍स संग्रह में कमी आई है. जीएसटी अब केवल बड़े निर्माता और सेवा प्रदाता (जो पिछली प्रणाली में भी प्रमुख करदाता थे) के कर योगदान पर चल रहा है. छोटे करदाता और नए पंजीकरण वाले कारोबारी रियायतों की मदद से टैक्स चोरी के पुराने ढर्रे पर लौट आए हैं.

·       जीएसटी में अभी औसतन 60 फीसदी कारोबारी रिटर्न भर रहे हैं. ई वे बिल लागू होने के बाद पारदर्शिता आने की उम्मीदें भी खेत रही हैं. चुनाव के मद्देजनर टैक्स चोरी पर सख्ती मुश्किल है.

·       जीएसटी की प्रणालियां व नियम अभी तक स्थिर नहीं हैं. रफू-पैबंद जारी हैं. 

·       इसलिए चुनाव से पहले सरकार ने दो काम किए एकरिटर्न फॉर्म सालाना रिटर्न (9को अगले साल तक के लिए टाल दिया. इसके बिना करदाताओं के हिसाब सुचारु (इनवॉयस मैचिंग) करना और टैक्स क्रेडिट संभव नहीं है. यही वजह है कि जीएसटी का अर्थव्यवस्था पर कोई सकारात्मक असर नहीं दिखा. दोजीएसटी तो चल नहीं रहा तो इससे कम से कम चुनावी फायदा ही हो जाए.

जीएसटी के सियासी इस्तेमाल का केंद्र सरकार के पास यह आखिरी मौका था. पिछले 18 महीने में देश का राजनैतिक भूगोल बदल गया है. जीएसटी काउंसिल में अब विपक्ष के राज्यों की संख्या बढ़ चुकी है इसलिए आगे सहमति मुश्किल होने वाली है. काउंसिल की हालिया बैठक में इसके संकेत भी मिले. विपक्ष शासित राज्यजीएसटी को सिरे से बदलने की बातें करने लगे हैं.

कभी किसी मंत्री ने कहा था कि देश में हवाई चप्पल या कार पर एक जैसा कर नहीं हो सकता (अब 99 फीसदी...) या जीएसटी देश से टैक्स चोरी को मिटा देगा अथवा इससे कारोबार की लागत कम होगी या इससे जीडीपी बढ़ जाएगा. आज सरकार इन पर सवाल भी सुनना नहीं चाहती.

क्या जीएसटी राज्यों के वैट जैसे भविष्य की तरफ बढ़ रहा हैअपने शुरुआती वर्षों (2005-08में सफलता के बादराजनीति और वित्तीय दिक्कतों के चलते राज्यों ने वैट का अनुशासन तार-तार कर दिया. हालांकि जीएसटी वैट से कहीं ज्यादा सुगठित है लेकिन जब केंद्र सरकार ही चुनावी राजनीति के खातिर इसके अनुशासन का मुरब्बा बना चुकी तो राज्य भी अनुशासन तोड़ेंगे. ई वे बिल में राज्य स्तरीय रियायतें इसका नमूना हैं.

इसी फरवरी में हमने लिखा था कि जीएसटी का सुधारवाद अब इतिहास की बात है. भारत का सबसे नया सुधार सिर्फ सात माह में पुराने रेडियो की तरह हो गयाजिसे ठोक-पीट कर चलाया जा रहा है. अठारह माह बाद इस रेडियो में अब केवल चुनावी प्रसारण चल रहे हैं. कहना मुश्किल है कि अगले साल जीएसटी का क्या होगा लेकिन 2019 लगते-लगते यह साबित हो गया है कि हमारी सियासत सुधारों की समझ और साहस सिरे से दरिद्र हैं.

Monday, July 9, 2018

दरार पर इश्तिहार


बहुत पुराने मिस्तरी थे वे. लेकिन खलीफा की दीवारें अक्सर टेढी होती थीं. कोई टोके तो कहते कि प्लास्टर में ठीक हो जाएगी लेकिन टेढ़ी दीवार प्लास्टर में कहां छिपती है इसलिए प्लास्टर के बाद खलीफा कहते थे, क्या खूब डिजाइन बनी है.

जीएसटी के विश्वकर्मा एक साल बाद भी यह मानने को तैयार नहीं कि खामियां डिजाइन नहीं होतीं.

और तर्कों का तो क्या कहना...?

हवाई चप्पल और मर्सिडीज पर एक जैसा टैक्स कैसे लग सकता है?

जवाबी कुतर्क यह हो सकता है कि जब गरीब और अमीर के लिए मोबाइल और इंटरनेट की दर एक हो सकती है, छोटे-बड़े किसान को एक ही समर्थन और मूल्य मिलता है तो फिर खपत पर टैक्स में गरीब और अमीर का बंटवारा क्यों?

फिर भी बेपर की उड़ाते हुए मान लें कि 100 रु. की चप्पल और 50 लाख की मर्सिडीज पर एक समान दस फीसदी जीएसटी है तो चप्पल 110 रु. की होगी और मर्सिडीज 55 लाख रु. की. जिसे जो चाहिए वह लेगा. इसमें दिक्कत क्या है?

टैक्स दरों की भीड़ के इस वामपंथ की कोई पवित्र आर्थिक वजह नहीं है. बस, लकीर पर फकीर चले जा रहे हैं और दकियानूसी को सुधार बता रहे हैं.

         अगर जूते की दुकान में घुसने से पहले आपको यह मालूम हो कि हवाई चप्पल से लेकर सबसे महंगे जूते पर टैक्स की दर एक (जीएसटी के तहत विभिन्न कीमत के जूतों पर अलग-अलग दर है) ही है तो फिर समझदार ग्राहक जरूरत, क्वालिटी और पैसे की पूरी कीमत (वैल्यू फॉर मनी) के आधार पर जूता चुनेगा.

         टैक्स वैल्यू एडिशन (उत्पाद की बेहतरी) पर लगता है न कि कई टैक्स दरों के जरिए खपत के बाजार को अलग-अलग आय वर्गों के लिए दिया जाए. टैक्स के डंडे से खपत के चुनाव को प्रभावित करने की क्या तुक है? लोग क्रमशः बेहतर उत्पादों की तरफ बढ़ते हैं तो वह टैक्स लगाकर महंगे नहीं किए जाने चाहिए.

         भारतीय बाजार में बिस्कुट, चीज, चाय, ब्रेड या जूते आदि की इतनी कम किस्में क्यों हैं? उपभोक्ताओं की बदलती रुचि व आदत के हिसाब से उत्पाद व पैकेजिंग लगातार बदलते हैं. बहुस्तरीय टैक्स रचनात्मक उत्पादन में बाधा है. टैक्स के झंझट से बचने के लिए कंपनियां उत्पादों के सीमित संस्करण बनाती हैं.

तो क्या हवाई चप्पल और मर्सिडीज पर एक जैसा टैक्स होना चाहिए?

भई, हवाई चप्पल पर टैक्स होना ही क्यों चाहिए?

आम खपत की एक सैकड़ा चीजों पर टैक्स की जरूरत ही नहीं है. सब्सिडी लुटाने से तो यह तरीका ज्यादा बेहतर है कि टैक्स से बढऩे वाली महंगाई को रोका जाए. अगर एक टैक्स रेट बहुत मुश्किल है तो आम खपत की चीजों को निकालकर बचे हुए उत्पादों को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है और उन पर दो दरें तय कर दी जाएं. लेकिन चार टैक्स रेट वाला जीएसटी तो बेतुका है.

देश के एक फीसदी उपभोक्ताओं को भी इस जीएसटी में अपनी खरीदारी पर टैक्स की दरें पता नहीं होंगी. कंपनियां और कारोबारी भी कम हलाकान नहीं हैं लेकिन फिर भी सरकार ने यह मायावी जीएसटी क्यों रचा?

जानने के लिए जीएसटी की जड़ें खोदनी होंगी.

सन् 2000 में जीएसटी की संकल्पना एक राजकोषीय सुधार के तौर पर हुई थी. सरकारों को सिकोडऩा, खर्च में कमी, घाटे पर काबू के साथ जीएसटी के जरिए टैक्स दरों के जंजाल को काटना था ताकि कर नियमों का पालन और खपत बढ़े जो बेहतर राजस्व लेकर आएगा.

जीएसटी बना तो सब गड्डमड्ड  हो गया. खर्चखोर सरकारें जीएसटी के जरिए खपत को निचोडऩे के लिए पिल पड़ीं और इस तरह हमें वह जीएसटी मिला जिससे न लागत कम हुई, न मांग बढ़ी, न कारोबार सहज व पारदर्शी हुआ और न राजस्व बढ़ा. हालांकि टैक्स चोरी कई गुना बढ़ गई. 

फायदा सिर्फ  यह हुआ है कि टैक्स दरों के मकडज़ाल के बाद चार्टर्ड एकाउंटेंट की बन आई. परेशान कारोबारी सरकार को अदालत में फींच रहे हैं और उलझनों व गफलतों पर टैक्स नौकरशाही मौज कर रही है.

एक साल का हो चुका जीएसटी बिल्कुल अपने पूर्वजों पर गया है. करीब 50 से अधिक उत्पाद और सेवा श्रेणियों (चैप्टर) पर टैक्स की तीन या चार दरें लागू हैं जैसे प्लास्टिक की बाल्टी और बोतल पर अलग-अलग टैक्स. एक्साइज, वैट, सर्विस टैक्स में भी ऐसा ही होता था.

असफलता के एक साल बाद जीएसटी पर खिच खिच शुरु हो गई है. राजस्‍व उगाहने वालों को लगता है कि जीएसटी की गाड़ी तो शानदार थी, वो सड़क (जीएसटीएन) ने धोखा दे दिया (राजस्‍व सचिव हसमुख अधिया का ताजा बयान)


हकीकत यह है जीएसटी की डिजाइन खोटी है. नेटवर्क इस ऊटपटांग जीएसटी से तालमेल की कोशिश कर रहा था अंतत: असंगत जीएसटी के सामने कंप्‍यूटर भी हार मान गए. इश्तिहारों से दरारें नहीं भरतीं. प्रचार के ढोल फट जाएंगे लेकिन टैक्स दरों की संख्या को कम किए बिना जीएसटी को सुधार बनाना नामुमकिन है.