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Monday, February 11, 2019

सुधारों की हार



चुनाव में वोट डालने से पहले सुधारों को श्रद्धांजलि देना मत भूलिएगा. अंतरिम बजट को गौर से समझिए. पच्चीस साल के सुधारों के बाद हम इस घाट फिसलेंगे! भारत में कोई सरकारी स्कीम अभी या कभी नियमित कमाई का विकल्प नहीं बन सकतीफिर भी भाजपा और कांग्रेस के बीचकिसानों व गरीबों के हाथ में राई के दाने रख महादानी बनने की आत्मघाती प्रतिस्पर्धा शुरू हो चुकी है
.
चुनावी जयघोष के बीच बजट पढऩे के बाद कोई भी निष्पक्षता के साथ दो निष्कर्ष निकाल सकता है.

एकढांचागत सुधारों की जिस अगली पीढ़ी को सामने लाने का दावा करते हुए नरेंद्र मोदी सत्ता में आए थे और सामाजिक स्कीमों का ढांचा व पहुंच ठीक करने की जो उम्मीद उन्होंने दिखाई थीउनकी याद में दो मिनट का मौन तो बनता है.

दोमोदी या राहुल भारत की राजनीति का बुनियादी चरित्र नहीं बदल सकते. यह सुधार विरोधीदकियानूस और चुनाव केंद्रित ही रहेगी.

चुनावी लोकलुभावनवाद नया नहीं हैलेकिन इस बार कुछ नया और बेहद खतरनाक हुआ है. राजनीति घातक प्रतीकवाद पर उतारू है. सरकारें किसी भी कीमत पर लोगों को सम्मानजनक सालाना कमाई नहीं दे सकतीं. लेकिन लाभार्थियों के लिए नगण्य‍ आय सहायता भी बजटों की कमर तोडऩे के लिए पर्याप्त है. मोदी-किसान का इनकम सपोर्ट केवल 500 रु. महीने (दैनिक मजदूरी का पांच फीसदी) का है. कांग्रेस की मेगा बजट वाली मनरेगा हर कोशिश के बावजूद केवल 100 दिन का सालाना रोजगार दे पाई. सरकार की दूसरी सहायतापेंशनबीमा योजनाओं के वर्तमान व संभावित लाभों को बाजार और जीने के खर्च की रोशनी से मापिएआपको सरकारों की समझ पर तरस आ जाएगा.

विशाल आबादीबजटों के घाटेभारी सरकारी कर्ज और लाभार्थ‌ियों की पहचान में बीसियों झोल के कारण इनकम सपोर्ट हर तरह से अभिशप्त है लेकिन बजट की जेब फटे होने के बावजूद नेता इस तमाशे पर उतारू हैंजिनसे लाभार्थियों की ज‌िंदगी में रत्तीभर बदलाव मुश्किल है.



मोदी सरकार की किसान इनकम सपोर्ट सुविचारित नहीं है. फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाकर सरकार पहले ही बजट बिगाड़ चुकी थी. यह फैसला जनवरी में जन्मा जब राहुल गांधी ने गरीबों को न्यूनतम आय का वादा उछाल दिया. इसलिए मोदी-किसान पिछले साल दिसंबर से अमल में आएगी.

तेलंगाना (खर्च 120 अरब रु.)ओडिशा (खर्च 33 अरब रु.) और झारखंड (खर्च 22 अरब रु.) को इस जोखिम से रोकने के बजाए केंद्र सरकार ने भी इस चुनावी घोड़े की सवारी कर ली जो अर्थव्यवस्था को जल्द ही मुसीबत की राह पर पटक देगा.

आगे की राह कुछ ऐसी होने वाली है.

1. तीन राज्यों में किसानों को दोहरी सहायता मिलेगी. राज्य अपनी किसान-दान योजनाएं बंद नहीं करेंगे बल्कि इस के बाद कई दूसरे राज्य इसी तरह की योजनाएं ला सकते हैं. यानी एक घातक प्रतीकवादी होड़बस शुरू होने वाली है

2. अंतरिम बजट के बाद बॉन्ड बाजार ने खतरे के संकेत दे दिए. केंद्र सरकार के घाटे का आंकड़ा भरोसेमंद नहीं है. 2019-20 में सात लाख करोड़ रु. की सरकारी कर्ज योजना को देखकर बाजार को पसीने आ गए. राज्य भी इस साल और ज्यादा कर्ज लेंगे.

प्रतीकात्मक आय समर्थन इसलिए संकट को न्योता है क्योंकि सरकारें खेती को असंख्य सब्सिडी (खादपानीबिजलीउपकरणकर्ज पर ब्याज) देती हैं. 2020 में केंद्र का कृषि सब्सिडी बिल 2.84 खरब रु. होगा. इसके बाद भी संतोषजनक नियमित आय दे पाना असंभव है.

आय समर्थन का तदर्थवाद सुधारों का शोकगीत है.

1. सरकारें अर्थव्यवस्था में ढांचागत बदलाव और बाजार के विस्तार के जरिये आय बढ़ाने के लिए मेहनत नहीं करना चाहतीं.

2. वे सामाजिक कार्यक्रम में सुधार नहीं सिर्फ वोट खरीदना चाहती हैं.

3. सरकारी खैरातेंइसे बांटने वाले तंत्र को लूट के लिए प्रेरित करती हैं. तमाम स्कीमें इसका उदाहरण हैं. 

सुधारों के ढाई दशक के दौरान भारत में केंद्र की राजकोषीय सेहत कमोबेश संतुलित रही है. यह पहला मौका है जब वित्तीय तंत्र में कर्ज इतने बड़े पैमाने पर एकत्र हुआ है. केंद्र का कर्ज-जीडीपी अनुपात 70 फीसदी की ऊंचाई पर है. राज्यों की कुल देनदारियों में बाजार कर्ज का 74 फीसदी हिस्सा है. बैंकों और एनबीएफसी के कर्ज इससे अलग हैं. 2022 में केंद्र सरकार की सबसे बड़ी कर्ज अदायगी शुरू हो जाएगी.

रेटिंग एजेंसियां के पास आंकड़े मौजूद हैं. भारत की कर्ज साख को झटका लगा तो अगले छह माह के भीतर ही भारत में कर्ज संकट के अलार्म बज उठेंगे.

Sunday, January 20, 2019

नया समीकरण


जब किसी देश के लोग चुनाव दर चुनाव समझदार और स्मार्ट होते जाते हैं तो क्या वहां की सियासत उतनी ही बदहवास व दकियानूस होने लगती है!

2019 में जनता और नेताओं के बीच एक नया समीकरण बन रहा है. एक तरफ होंगे वे वोटर जो अपनी जिंदगी देखकर वोट देने लगे हैं और दूसरी तरफ हैं नेता जिनकी सियासत और पीछे खिसक गई है.

मोदी सरकार पूरे पांच साल अपनी मनरेगा के आविष्कार में जुटी रही, जिसके जरिए 2009 जैसा करिश्मा किया जा सके. वह भूल गई कि यूपीए की दूसरी जीत मनरेगा नहीं बल्कि 2005-08 के बीच गांव और शहरी अर्थव्यवस्था में तेज वृद्धि से निकली थी. मनरेगा ने तो आय बढ़ाने में मदद की थी. 

भाजपा अब चंद ऐसी स्कीमों (जन धन, स्वास्थ्य, बीमा, गांवों में बिजली) को करामाती बताकर चुनाव में उतरने वाली हैं जिन्हें बार-बार आजमाया गया पर नतीजे नहीं बदलते.

सरकार में 29 लाख पद खाली हैं, भर्ती करने के संसाधन नहीं हैं और आर्थिक आधार पर सरकारी नौकरियों में आरक्षण के गुब्बारे उड़ा दिए गए.
दूसरी तरफ विपक्ष के बीच गठबंधनों का वही लेन देन, अंकगणित का खेल. खजाना लुटाने के वादे और कर्ज माफी की राजनीति.

चुनावों की तैयारी में जुटे सत्ता पक्ष और विपक्ष के संवादों में भयानक भविष्यहीनता है. लगता है इनकी निगाहें एक अंधेरी सुरंग में फिट कर दी गईं, जिसके छोर पर सिर्फ चुनाव दिखते हैं और कुछ नहीं. राजनैतिक दल पिछले दशक में जिस तरह वादे करते थे जैसी स्कीमें गढ़ते थे जैसे अवसरवादी गठजोड़ करते थे, आज भी सब कुछ वैसा ही है.

जबकि मतदाता कहीं ज्यादा समझदार हो चले हैं.

नेता हमेशा मुगालते में रहते हैं कि वोटर भावनाओं, करिश्माई नेता और विभाजक सियासत पर रीझ जाता है. लेकिन 13 प्रमुख राज्यों में पिछले तीन लोकसभा चुनावों और इस दौरान हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे बताते हैं कि राज्यों का जीडीपी यानी आर्थिक विकास दर गांवों में मजदूरी की दर में कमी या बढ़ोतरी मतदान के फैसलों में निर्णायक रही है.

2004 और 2018 के बीच जिन राज्यों में आर्थिक विकास दर या मजदूरी बढ़ी वहां सत्तारुढ़ दलों को ज्यादा वोट मिले और विकास दर कम होने पर उलटा हुआ. यही वजह है कि 2018 के पहले चुनाव चक्रों में उन राज्यों (केंद्र में भी) में सरकारों को दोबारा मौका मिला जिनकी विकास दर ठीक थी.

शहरी मध्य वर्ग ही राजनैतिक बहसों का मिजाज तय करता है. भारत का मध्यम वर्ग लगातार बढ़ रहा है. अब इसमें 60 से 70 करोड़ लोग (द लोकल इंपैक्ट ऑफ ग्लोबलाइजेशन इन साउथ ऐंड साउथईस्ट एशिया) शामिल हैं जिनमें शहरों के छोटे हुनरमंद कामगार भी हैं.

पिछले दो दशकों में यह पहला मौका है जब भारत में मध्य वर्ग के लिए रोजगार, कमाई, खपत और बचत एक साथ बुरी तरह गिरे हैं. गुजरात तक, जो शहरी मध्य वर्ग सत्तारुढ़ भाजपा के साथ था वह बाद के चुनावों में सत्ता विरोधी लहर के हक में आ गया.

25 साल के आर्थिक उदारीकरण में देश भली तरह से तीन बातें समझ गया है जो नेता नहीं समझ सके.
एक: बाजार जितना बड़ा और सरकार जितनी छोटी होगी रोजगार उतने ही बढ़ेंगे
दो: सरकार का खर्च रोजगार और कमाई का विकल्प नहीं है. सरकार अगर ईमानदार है तो वह हद से हद कमाई के अवसर बढ़ा सकती है
तीन: सरकारी स्कीमें केवल संकटों में मदद कर सकती हैं और सुविधा बढ़ा सकती हैं बशर्ते सरकारों के काम करने के तरीकों में तब्दीली आए.  

गौर से देखिए, चुनाव से पहले भारत की राजनीति हमें क्या थमा रही है: आरक्षण, गठबंधन और आजमाई जा चुकी स्कीमें.

पश्चिम के देश चुनावों से अच्छी सरकारें न निकलने को लेकर फिक्रमंद हो रहे हैं. उनको लगता है कि मतदाता सही फैसला नहीं कर पाते क्रिस्टोफर एचेन और लैरी बार्टेल्स की ताजा पुस्तक डेमोक्रेसी फॉर रियलिस्ट्सव्हाई इलेक्शसन्स डू नॉट प्रोड्यूस रिस्पांसिव गवर्नेमेंट खासी चर्चा में रही है जो बताती है कि चुनावों में मतदाता विभाजक राजनीति में बह जाते हैं लेकिन भारत के चुनाव नतीजे बार-बार इस बात की ताकीद करते हैं कि यहां के भोले मतदाता यूरोप और अमेरिका के वोटरों से कहीं ज्यादा समझदार हैं.

भारत पर जैसी जनता, वैसे नेता की कहावत हमेशा गलत साबित होती रही है. यह संयोग है या दुर्योग लेकिन 2019 में पहले से कहीं ज्यादा सयाना मतदाता, पहले से कहीं ज्यादा पिछड़ी राजनीति के सामने होगा. हमें जैसी राजनीति मिल रही है, हम उससे कहीं ज्यादा बेहतर नेताओं के हकदार हैं.


Sunday, January 6, 2019

महंगाई की दूसरी धार


अभी खुदरा महंगाई सोलह महीने के सबसे निचले स्तर पर है और थोक महंगाई चार महीने के न्यूनतम स्तर पर लेकिन..

·       महंगाई में कमी और जीएसटी दरें कम होने के बावजूद खपत में कोई बढ़त नहीं है.

·   बिक्री में लगातार गिरावट के बावजूद कार कंपनियां कीमत बढ़ा रही हैं

·       जीएसटी में टैक्स कम होने के बावजूद सामान्यतः खपत खर्च में घरेलू सामान की खरीद का हिस्सा 50 फीसदी रह गया है, जो दस साल पहले 70 फीसदी होता था

·       जीएसटी के असर से उपभोक्ता उत्पादों या सेवाओं की कीमतें नहीं घटी 
हैं. कुछ कंपनियों ने लागत बढऩे की वजह से कीमतें बढ़ाई ही हैं

·       पर्सनल लोन की मांग जनवरी 2018 से लगातार घट रही है

·       उद्योगों को कर्ज की मांग में कोई बढ़त नहीं हुई क्योंकि नए निवेश नहीं हो रहे हैं  

·      महंगाई में कमी का आंकड़ा अगर सही है तो ब्याज दरें मुताबिक कम नहीं हुई हैं बल्कि बढ़ी ही हैं

इतनी कम महंगाई के बाद अगर लोग खर्च नहीं कर रहे तो क्या बचत बढ़ रही है?

लेकिन मार्च 2017 में बचत दर पांच साल के न्यूनतम स्तर पर थी. अब 
इक्विटी म्युचुअल फंड में निवेश घट रहा है.

महंगाई कम होना तो राजनैतिक नेमत है. इससे मध्य वर्ग प्रसन्न होता है. लेकिन तेल की कीमतों में ताजा बढ़त और रुपए की कमजोरी के बावजूद महंगाई नहीं बढ़ी है.

अर्थव्यवस्था जटिल हो चुकी है और सियासत दकियानूसी. महंगाई दुधारी तलवार है. अब लगातार घटते जाना अर्थव्यवस्था को गहराई से काट रहा है. महंगाई के न बढ़ने के मतलब मांग, निवेश, खपत में कमी, लागत के मुताबिक कीमत न मिलना होता है. महंगाई में यह गिरावट इसलिए और भी जटिल है क्योंकि दैनिक खपत वस्तुओं में स्थानीय महंगाई कायम है. यानी आटा, दाल, सब्जी, तेल की कीमत औसतन बढ़ी है जिसके स्थानीय कारण हैं.



पिछले चार साल में वित्त मंत्रालय यह समझ ही नहीं पाया कि उसकी चुनौती मांग और खपत में कमी है न कि महंगाई. किसी अर्थव्यवस्था में मांग को निर्धारित करने वाले चार प्रमुख कारक होते है.

एक —निजी उपभोग खर्च जिसका जीडीपी में हिस्सा 60 फीसदी होता था, वह घटकर अब 54 फीसदी के आसपास है. 2015 के बाद से शुरू हुई यह गिरावट अभी जारी है, यानी कम महंगाई और कथित तौर पर टैक्स कम होने के बावजूद लोग खर्च नहीं कर रहे हैं.

दो—अर्थव्यवस्था में पूंजी निवेश खपत की मांग से बढ़ता है. 2016-17 की पहली तिमाही से इसमें गिरावट शुरू हुई और 2017-18 की दूसरी तिमाही में यह जीडीपी के अनुपात में 29 फीसदी पर आ गया. रिजर्व बैंक मान रहा है कि मशीनरी का उत्पादन ठप है. उत्पादन क्षमताओं का इस्तेमाल घट रहा है. दिसंबर तिमाही में निवेश 14 साल के निचले स्तर पर है. ऑटोमोबाइल उद्योग इसका उदाहरण है.

तीन— निर्यात मांग को बढ़ाने वाला तीसरा कारक है. पिछले चार साल से निर्यात में व्यापक मंदी है. आयात बढ़ने के कारण जीडीपी में व्यापार घाटे का हिस्सा दोगुना हो गया है.

चार—100 रुपए जीडीपी में केवल 12 रुपए का खर्च सरकार करती है. इस खर्च में बढ़ोतरी हुई लेकिन 88 फीसदी हिस्से में तो मंदी है. खर्च बढ़ाकर सरकार ने घाटा बढ़ा लिया लेकिन मांग नही बढ़ी.

गिरती महंगाई एक तरफ किसानों को मार रही है, जिन्हें बाजार में समर्थन मूल्य के बराबर कीमत मिलना मुश्किल है. खुदरा कीमतें भले ही ऊंची हों लेकिन फल-सब्जियों की थोक कीमतों का सूचकांक पिछले तीन साल से जहां का तहां स्थिर है. दूसरी ओर, महंगाई में कमी जिसे मध्य वर्ग लिए वरदान माना जाता है वह आय-रोजगार के स्रोत सीमित कर रही है.

आय, खपत और महंगाई के बीच एक नाजुक संतुलन होता है. आपूर्ति का प्रबंधन आसान है लेकिन मांग बढ़ाने के लिए ठोस सुधार चाहिए. 2012-13 में जो होटल, ई कॉमर्स, दूरसंचार, ट्रांसपोर्ट जैसे उद्योग व सेवाएं मांग का अगुआई कर रहे थे, पिछले वर्षों में वे भी सुस्त पड़ गए. मोदी सरकार को अर्थव्यवस्था में मांग का प्रबंधन करना था ताकि लोग खपत करें और आय व रोजगार बढ़ें लेकिन नोटबंदी ने तो मांग की जान ही निकाल दी.

2009 में आठ नौ फीसदी की महंगाई के बाद भी यूपीए इसलिए जीत गया क्योंकि मांग व खपत बढ़ रही थी और सबसे कम महंगाई की छाया में हुए ताजा चुनावों में सत्तारूढ़ दल खेत रहा. तो क्या बेहद कम या नगण्य महंगाई 2019 में मोदी सरकार की सबसे बड़ी चुनौती है, न कि महंगाई का बढ़ना? 

Sunday, December 23, 2018

माफी की सजा



गर कांग्रेस को यह लगता है कि वह मध्य प्रदेश में किसान कर्ज माफी के वादे पर जीती है तो फिर यह करिश्मा राजस्थान में क्यों नहीं हुआ, जहां इस फरवरी में 8,500 करोड़ रु. के कर्ज माफ करने का ऐलान किया गया था !

अगर छत्तीसगढ़ में कांग्रेस कर्ज माफी के वादे पर जीती तो इसी पर कर्नाटक में भाजपा को बहुमत क्यों नहीं मिला. उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार ने कर्ज माफी की थी फिर भी लोगों को भरोसा नहीं हुआ !

कर्नाटक में कांग्रेस ने 2017 में सहकारी बैंकों के 8,500 करोड़ रु. के कर्ज माफ किए थे. लेकिन राज्य के लोग जद (एस) के कर्ज माफी वादे पर भी पूरी तरह बिछ नहीं गए.

बस एक बड़ी चुनावी हार या किस्मत से मिली एक जीत के असर से राजनीति बदहवास हो जाती है. देश में पिछले साल दिसंबर से अब तक सात राज्यों (पंजाब और महाराष्ट्र-जून 2017, उत्तर प्रदेश-अप्रैल 2017, राजस्थान-फरवरी 2018, कर्नाटक-जुलाई 2018, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश-दिसंबर 2018) में 1,72,146 करोड़ रु. किसान कर्ज माफ करने का ऐलान हुआ.

क्या इनसे चुनावों के नतीजे बदले?

क्या भाजपा और कांग्रेस की सरकारों की कर्ज माफी बाद में हुए चुनावों में उनके काम आई?

किसानों के कर्ज भारतीय राजनीति की सर्वदलीय ग्रंथि बन गए हैं. कर्ज माफी जरूरतमंद किसानों तक नहीं पहुंचती, इसे जानने के लिए वैज्ञानिक होने की जरूरत नहीं है लेकिन इससे वित्तीय तंत्र में बन रहे दुष्चक्र बताते हैं कि सियासत किस हद तक गैर-जिम्मेदार हो चली है.
·       मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में किसान कर्ज माफी के बाद अब देश अधिकांश कृषि आधारित राज्य इस होड़ की चपेट में हैं. बिहार, बंगाल और कुछ अन्य राज्यों में इसे दोहराया जाएगा. मध्य प्रदेश और राजस्थान की कर्ज माफी बैंकों व सरकार के लिए दर्दनाक होने वाली है. बकौल रिजर्व बैंक, मध्य प्रदेश में कुल बैंक कर्ज में खेती के लिए मिलने वाले कर्ज का हिस्सा  29 फीसदी और राजस्थान में 35 फीसदी है. जो अन्य राज्यों की तुलना में काफी ऊंचा है. मध्य प्रदेश में खेती में फंसे हुए कर्ज 11 फीसदी हैं. यह स्तर राष्ट्रीय औसत से काफी ऊंचा है.

·       लोन माफी पर दस्तखत करते हुए मध्य प्रदेश के मुख्‍यमंत्री ने यह भी नहीं बताया कि 35,000 करोड़ रु. का यह बिल कौन भरेगा? कर्नाटक के कुल बैंक कर्ज में खेती के कर्ज 15 फीसदी है. इनकी माफी का आधा बोझ बैंकों और आधा राज्य के बजट पर होगा. यह फॉर्मूला अभी तक बन नहीं पाया है इसलिए कर्ज माफी लागू करने में देरी हो रही है.

·       उत्तर प्रदेश (36,359 करोड़ रु.) और महाराष्ट्र  (34,022 करोड़ रु.) ने पूरी कर्ज माफी बजट पर ले ली. महाराष्ट्र को खर्च चलाने के लिए शिरडी मंदिर से कर्ज लेना पड़ा और उत्तर प्रदेश को पूंजी खर्च (निर्माण व विकास) खर्च में 33 फीसदी की कटौती करनी पड़ी. कर्ज माफी करने वाले सभी राज्यों की रेटिंग गिरी है यानी उन्हें महंगे कर्ज लेने होंगे.

·       बार बार कर्ज माफी के कारण सरकारी बैंक किसानों को कर्ज देने में हिचकते हैं. कृषि कर्ज में स्टेट बैंक का हिस्सा काफी तेजी से गिरा है जबकि निजी बैंक ज्यादा बड़ा हिस्सा ले रहे हैं, जिनसे कर्ज माफ कराना मुश्किल है. कर्नाटक में माइक्रोफाइनेंस कंपनियों को नोटबंदी व कर्ज माफी के बाद गहरी चोट लगी.

·       क्या हमारे राजनेता जानना चाहेंगे कि भारत के बैंक खेती को छूने से डरने लगे हैं? 2007 से 2017 के बीच खेती को कर्ज की वृद्धि दर 33 फीसदी से घटकर 8.2 फीसदी पर आ गई. आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु में पिछले तीन साल में कर्ज माफी के बाद खेती को कर्ज की आपूर्ति बुरी तरह गिरी है.

बात कर्ज माफी से आगे बढ़कर बिजली बिल माफी तक पहुंच गई है. कल होम लोन माफ करने की भी राजनीति होगी.

अंतत: हम उस तरफ बढ़ रहे हैं जहां या तो किसानों को कर्ज मिलना मुश्किल हो जाएगा या फिर कर्ज माफी के बाद हर तरह का टैक्स बढ़ेगा या विकास सिकुड़ जाएगा.

अगर भारत के राज्य कोई कंपनी होते जो कमलनाथ, वसुंधरा राजे या योगी आदित्यनाथ के अपने पैसे से बनी होती तो क्या असर और फायदे जाने बगैर वे कर्ज माफी के दांव लगाते रहते? यह पूरा ड्रामा करदाताओं या जमाकर्ताओं के पैसे पर होता है और हमें  बार-बार छला जाता है. कर्ज माफ हो रहा है, अब कीमत चुकाने को तैयार रहिए.

Monday, November 26, 2018

आगे ढलान है !




पिछले चार साल में मेक इन इंडिया के जरिए उद्योग के सरदारों को रिझा रही सरकार को अचानक बेचारे बेबस और नोटबंदी-जीएसटी के मारे छोटे उद्योग क्यों याद आ गए, जिन्हें सामने रखकर वित्त मंत्रालय ने रिजर्व बैंक पर तोप तान दी है. 




हम इस पर आश्चर्य कर सकते हैं, यह जानते हुए भी कि बैंक और वित्तीय प्रणाली कर्ज के फंदे में फंसकर बुरी तरह हांफ रहे हैं और छह माह बाद यह मुसीबत फट पड़ेगी, फिर भी सरकार आखिर बैंकों को कर्ज की रेवडिय़ों का बाजार खोलने के लिए क्यों कह रही है?

दरअसल, चुनाव सामने है और भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर बन आई है. मौसम बिगड़ रहा है. पिछले दो माह का घटनाक्रम बता रहा है कि बड़े चुनाव से पहले ग्रोथ के आंकड़े सरकार के चुनाव प्रचार को बदमजा कर सकते हैं. कर्ज को लेकर सरकार की ताजा बेचैनी इसी डर से उपजी है.

आर्थिक विकास दर में अब तेज गिरावट के आसार हैं. चार कमजोरियां पहले से ही मौजूद हैं. एक—नोटबंदी और जीएसटी के बाद से बाजार में मांग नदारद है क्योंकि न तो निजी निवेश में बढ़त हो रही है और न उपभोक्ता खपत में. दो—ब्याज दरों में बढ़ोतरी का दौर प्रारंभ हो चुका है. तीन—जीएसटी की चपत से सरकार के राजस्व में गिरावट है, घाटा और नतीजतन कर्ज बढ़ रहा है. और चार—बकाया कर्ज से परेशान बैंक नए कर्ज बांटने की स्थिति में नहीं हैं और न ही सरकार अपनी जेब से इन बैंकों के उद्धार का बोझ उठा सकती है.

इन तीन बुनियादी चुनौतियों के बावजूद अर्थव्यवस्था किसी तरह ढुलक रही थी लेकिन सितंबर के बाद माहौल बुरी तरह बदल गया. रुपए की कमजोरी और कच्चे तेल की कीमतों में उफान के बीच वित्तीय बाजार में संकट का चक्र शुरू हो रहा है.

सितंबर के पहले सप्ताह में अचानक कई गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) बैंकों की तरह ही बकाया कर्ज की बीमारी की चपेट में आ गईं. ठीक यही मौका था जब बाजार में ब्याज दर भी बढऩे लगी थी इसलिए उनके लिए नया कर्ज जुटाना मुश्किल हो
गया और बाजार में पूंजी की कमी हो गई. 

अब खतरा विकास दर गिरने का है क्योंकि...

1. बैंकों के बकाया कर्ज के जाल में फंसने के बाद गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां कर्ज और पूंजी का प्रमुख स्रोत थीं. 2014-18 के बीच एनबीएफसी कर्ज पर अर्थव्यवस्था की निर्भरता पांच फीसदी से अधिक बढ़ी है. एनबीएफसी के डूबने के साथ सबसे बड़ा खतरा अचल संपत्ति के बाजार पर है जहां हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों की कर्ज की आपूर्ति 2013-18 के बीच 27 फीसदी की गति से बढ़ी है. एनबीएफसी और हाउसिंग फाइनेंस से कर्ज की आपूर्ति में कमी या महंगे कर्ज की वजह से अचल संपत्ति बाजार में गहरे संकट का अंदेशा है. खतरा है कि कई अचल संपत्ति कंपनियां और डेवलपर मुश्किल में होंगे जैसा कि आइएलएफएस के साथ हुआ है. सरकार बेतरह उलझे कर्ज बाजार में बैंकों को और ज्यादा जोखिम की तरफ धकेल रही है.

2. बाजार में मंदी के ताजा दौर ट्रैक्टर, मोबाइल फोन और दूसरे उपभोक्ता उत्पादों की खरीद एनबीएफसी के कर्ज पर निर्भर थी. यहां मांग और बिक्री बुरी तरह प्रभावित हुई है, जिसका असर इस बार त्योहारी मौसम की खरीद पर भी दिखा. छोटे कारोबारियों के रोजमर्रा की पूंजी और माइक्रोफाइनेंस की जरूरतें भी इस समानांतर बैंकिंग से पूरी हो रही थीं.

3. सरकार ने भले ही रिजर्व बैंक के जरिए बैंकों से कर्ज पाइप खुलवाने की कोशिश की है, बैंकों के एनपीए का इलाज रोक दिया है लेकिन कर्ज की महंगाई रोकना उसके बस का नहीं है. पिछले दो महीने में बैकों ने नए कर्ज पर ब्याज दरें बढ़ाई हैं. जमा दरें कम होने की गुंजाइश नहीं है इसलिए एनबीएफसी के साथ ही उपभोक्ताओं व कारोबारियो को मिलने वाला कर्ज भी महंगा होगा और इसके अलावा अमेरिका व यूरोप में भी ब्याज दरें बढऩे लगी हैं.

ब्याज दरों और ग्रोथ का रिश्ता संवेदनशील है. भारतीय अर्थव्यवस्था का ताजा इतिहास बताता है कि अगर छोटी अवधि के कर्ज (जैसा कि अभी है) पर ब्याज दरों में बढ़त लंबे समय तक जारी रहती है तो विकास दर में गिरावट तय है. चुनाव सामने है और सरकार का बजट बेपटरी है इसलिए नए सरकारी निवेश की गुंजाइश कम है.

अगली तिमाही से जीडीपी यानी आर्थिक विकास दर में ढलान शुरू हो सकती है. अगले साल फरवरी से मई तक जब देश में चुनाव का अश्वमेध यज्ञ चल रहा होगा तब बड़ी बात नहीं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर ढलान की नई मंजिलें नाप रही हो. 2020 में विकास दर 6 फीसदी तक लुढ़कने के खतरे जायज हैं क्योंकि तब तक वित्तीय तंत्र में बीमारियां अपने उफान पर होंगी. यानी कि आर्थिक ग्रोथ के मामले में 2019 में हम शायद वहीं खड़े होंगे 2014 में जहां से चले थे.