Monday, September 30, 2013

नेताओं के कबीले


चुनाव की तरफ बढ़ते नेता अपराधियों की अगुआई और खून खच्‍चर वाली कबीलाई सियासत के हिंसक आग्रह से भर गए हैं जो बदलते समाज को न समझ पाने की कुंठा व हताशा से उपजा है।

भारत के नेताओं को समाज को बांटने पर नहीं बल्कि इस बात पर शर्म आनी चाहिए कि वे समाज के विघटन की नई तकनीकें ईजाद नहीं कर सके हैं। किसी भी देश की सियासत समाज को बांटे बिना नहीं सधती। एक समान राजनीतिक विचारधारा वाले समाज सिर्फ तानाशाहों के मातहत बंधते हैं इसलिए दुनिया के लोकतंत्रों की चतुर सियासत ने सत्‍ता पाने के लिए अपने आधुनिक होते समाजों में राजनीतिक प्रतिस्‍पर्धा की नई रचनात्‍मक तकनीकें गढ़ी हैं जो नस्‍लों, जातियों व वर्गों में पहचान, अधिकार व प्रगति के नए सपने रोपती हैं। लेकिन भारत की मौजूदा सियासत तो मजहबी बंटवारे की तरफ वापस लौट रही है, जो राजनीतिक विघटन का सबसे भोंडा तरीका है। इससे तो सत्‍तर अस्सी दशक वाले नेता अच्‍छे थे जो समाज के जातीय ताने बाने से संवाद की मेहनत करते थे और राजनीति को नुमाइंदगी व अधिकारों की उम्‍मीदों से जोड़ते थे। जडों से उखड़े नेताओं की मौजूदा पीढ़ी भारत के बदलते व आधुनिक समाज को समझने की जहमत नहीं उठाना चाहती। उसे तो अपराधियों की अगुआई और खून खच्‍चर वाली कबीलाई सियासत के जरिये चुनावों की कर्मनाशा तैरना आसान लगने लगा है। 
चुनावी लाभ के लिए सांप्रदायिक हिंसा दरअसल एक संस्‍थागत दंगा प्रणाली की देन हैं, जो उत्‍तर प्रदेश सहित कई राज्‍यों में सक्रिय हो चुकी है। भारत की सांप्रदायिक हिंसा के सबसे नामचीन अध्‍येता प्रो. पॉल आर ब्रास  ने मेरठ  में 1961 व 1982 के दंगों में पहली बार संगठित सियासी मंतव्‍य पहचाने थे और इसे इंस्‍टीट्यूशनल रॉयट सिस्‍टम कहा था। क्‍यों कि उन दंगो के बाद हुए विधानसभा व नगर निकायों के चुनाव के
नतीजों पर दंगों का स्‍पष्‍ट असर था। सत्‍तर अस्सी के दशकों तक सांप्रदायिक कत्‍लो-गारत में राजनीति पर्दे के पीछे रहती थी। लेकिन पश्चिम उत्‍तर प्रदेश के ताजे दंगे तो मुख्‍यधारा के राजनीतिक दलों के सीधे नेतृत्‍व में हुए हैं। दंगाइयों के मंच पर राजनीतिक विचारधाराओं का खुला समन्‍वय अभूतपूर्व है। यह पाशविक एकता देश के सियासी नेतृत्‍व की एक नई मनोदशा है, जिसकी पर्तों में उतरना जरुरी है क्‍यों कि चुनाव सर पर टंगे हैं, सांप्रदायिक लोहा पहले से गरम है और इस सबके बीच इंस्‍टीट्यूशनल रॉयट सिस्‍टम की रक्‍तरंजित वापसी दर्ज हो चुकी है।
बढ़ता नगरीकरण और गांवों का अर्धशहरीकरण भारतीय सियासत के बुनियादी रसायन को हिला रहा है। जातिगत पहचान, देश की चुनावी राजनीति का बेसिक ऑपरेटिंग सिस्‍टम है लेकिन शहरों को जातीय गणित समझा पाना हमेशा से मुश्किल से रहा है क्‍यों कि नगरीय जिंदगी जातिगत आग्रहों को पीट पाट कर लोगों को एक विशाल उपभोक्‍ता समुदाय में बदल देती है। मोबाइल व बाइकों पर सवार गांव, अपने फैसलों में शहर से प्रभावित होने लगा है इसलिए सियासत की जातीय इंजीनियरिंग लड़खड़ाने लगी है। जातिगत राजनीति, समाज के जटिल तंत्र की समझ बूझ और नई उम्‍मीदों के आविष्कार पर निर्भर है इसलिए नेताओं की पिछली पीढ़ी पहचान, अधिकारों व प्रगति की सामुदायिक होड़ बनाये रखने पर गहरी मेहनत करती थी। आलस व जहालत से भरी मौजूदा सियासत के पास इन प्रयासों का धैर्य नहीं है। इसके बजाय शहरी व अर्धशहरी समाज को सांप्रदा‍यिक गिरोहों में बांट देना आसान है क्‍यों कि शहरों की बसावट में सांप्रदायिक बंटवारा ज्‍यादा स्‍पष्‍ट है और इस गिरोहबंदी को शहरों से जुड़े गावों तक ले जाना भी अब ज्‍यादा सहज हो गया है।  सांप्रदायिक दंगे पूरी तरह नगरीय विकृति हैं। देश में इस हिंसा का ज्ञात इतिहास नगरों तक सीमित है। इसलिए बढ़ते नगरीकरण के साथ राजनीति का यह नया चेहरा बड़ा जानलेवा होने वाला है।
इस चुनाव की बुनियादी बहस तो यह थी किसकी गवर्नेंस का गमछा कितना उजला है। यह बहस उस मध्‍यवर्ग की अपेक्षाओं से उपजी थी जो गुजरात से गोवा तक और दिल्‍ली से चेन्‍नई तक सैकड़ों घोटालों के बाद पारदर्शिता की मांग को लेकर सड़क पर उतरा था, या घटिया कानून बदलवाने के लिए राजपथ पर चढ़ दौड़ा था। यह भारत के पहले ऐसे आमचुनाव हैं जिसकी पृष्‍ठभूमि में विशाल नगरीय जनांदोलन हैं जो रोजगार, बिजली, पानी, मंदिर, मस्जिद के लिए नहीं बलिक सियासत की आदत बदलने के लिए हुए थे। महंगाई, आर्थिक असफलताओं, और संवैधानिक संस्‍थाओं से भिड़ती सरकार ने गवर्नेंस की बहस को और जीवंत कर दिया है। इन विमर्शों की रोशनी में यह बेहद जागरुक आम चुनाव होने चाहिए थे लेकिन सियासत ने इन बहसों को काटने के नगरों को सांप्रदायिकता के तलवार-चापड़ से लैस कर दिया है। तभी तो गुजरात से गर्वर्नेंस का झंडा लेकर निकले नरेंद्र मोदी उत्‍तर प्रदेश पहुंचते पहुंचते हिंदू हृदय सम्राट हो गए हैं और तमाम सामाजिक स्कीमों के बावजूद कांग्रेस अपना हाथ अल्‍पसंख्‍यकों साथ दिखाने को बेताब है। क्षेत्रीय दलों की छोटी सी दुनिया में तो सांप्रदायिकता सियासत की रोटी और बोटी है।
 चुनाव की तरफ बढ़ती राजनीति एक अनदेखे हिंसक आग्रह से भर गई है। जो बदलते समाज को न समझ पाने की कुंठा व हताशा से उपजा है। ऐसा लगता है कि जैसे सियासत परिवर्तन की मांग कर रहे लोगों को सबक सिखाना चाहती है। यह राजनीति का कबीलाई आग्रह ही तो है जो राजनीति का अपराधीकरण जारी रखने का अध्‍यादेश लाता है। अदालतों के दूरदर्शी फैसलों को मुंह चिढ़ाता है और चुनाव में काले पैसे का इस्‍तेमाल को रोकने के लिए पारदर्शिता को कोशिशों का गला घोंट देता है। और तो और हठी राजेनता मजहबी खून खराबे की चुनावी सियासत की वापसी पर आमादा हैं, जो भारत की नई नगरीय क्रांति को लहूलुहान कर देगी। सुनते हैं कि लाशों की सियासत से उकताकर पश्चिम उत्‍तर प्रदेश के कुछ गांवों में महिलाओं ने संगठन बनाकर यह तय किया है कि वह किसी को वोट नहीं देंगी। देश में कितने लोग पता नहीं कब से वोटिंग मशीन पर उस बटन को तलाश रहे हैं जिसे दबाकर वह पूरे हक के साथ नेताओं की इस जमात को नकार सकें।

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