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Tuesday, May 10, 2016

कुछ करते क्यों नहीं !


भ्रष्टाचार से निर्णायक मुक्ति की उम्मीद लगाए, एक मुल्क को राजनैतिक कुश्तियों का तमाशबीन बनाकर रख दिया गया है.

भ्रष्टाचार को लेकर एक और आतिशबाजी शुरू हो चुकी है. पिछले पांच-छह साल में घोटालों पर यह छठी-सातवीं राजनैतिक कुश्ती है, जो हर बार पूरे तेवर-तुर्शी और गोला-बारूद के साथ लड़ी जाती है और राजनीतिजीवी जमात को अपनी आस्थाएं तर करने का मौका देती है. लेकिन हकीकत यह है कि भ्रष्टाचार को लेकर हम एक छलावे के दौर में प्रवेश कर चुके हैं, जिसमें भ्रष्टाचार से निर्णायक मुक्ति की उम्मीद लगाए, एक मुल्क को राजनैतिक कुश्तियों का तमाशबीन बनाकर रख दिया गया है.

भारत भ्रष्टाचार के सभी पैमानों पर सबसे ऊपर है, लेकिन इससे निबटने की व्यवस्था करने, संस्थाएं और पारदर्शी ढांचा बनाने में हम उन 175 देशों में सबसे पीछे हैं, जिन्होंने 2003 में संयुक्त राष्ट्र की भ्रष्टाचार रोधी संधि पर दस्तखत किए थे. हमसे तो आगे पाकिस्तान, मलेशिया, इंडोनेशिया, भूटान और वियतनाम जैसे देश हैं जिनके प्रयास, सफलताएं-विफलताएं भ्रष्टाचार पर ग्लोबल चर्चाओं में जगह पाते हैं.

चॉपरगेट के बहाने हम उन आंदोलनों और बेचैनियों को श्रद्धांजलि दे सकते हैं, जिन्होंने 2011 से 2013 के बीच देश को मथ दिया था. लगता था कि जैसे भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ इंकलाब आ गया है. कोई बता सकता है कि इस बेहद उथल-पुथल भरे दौर से निकला लोकपाल आज कहां है, जिसका कानून तकनीकी तौर पर जनवरी, 2014 से लागू है, लेकिन लोकपाल महोदय प्रकट नहीं हुए.

यह खबर किसी अखबार या टीवी के मतलब की नहीं थी कि दिसंबर, 2014 में मोदी सरकार ने लोकपाल कानून को पुनःविचार और संशोधनों के लिए कानून मंत्रालय की संसदीय समिति को सौंप दिया. एक साल बाद दिसंबर, 2015 में इस समिति ने केंद्रीय सतर्कता आयोग और सीबीआइ के भ्रष्टाचार रोधी विंग को लोकपाल के दायरे में लाने की सिफारिश के साथ अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी.

भ्रष्टाचार को लेकर यह कैसी वचनबद्धता है कि तकनीकी तौर पर लोकपाल कानून बने ढाई साल हो चुके हैं, लेकिन मोदी सरकार लोकपाल पर कुछ नहीं बोली. संयुक्त राष्ट्र की संधि के मुताबिक, भारत को पांच दूसरे कानून भी बनाने हैं. इनमें एक व्हिसलब्लोअर बिल भी है. इस कानून के तहत भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले की सुरक्षा के प्रावधान ढीले करते हुए सरकार अपनी मंशा को दागी करा चुकी है.

यह विधेयक राज्यसभा में अटका है. अदालतों में पारदर्शिता के लिए जुडीशियल अकाउंटेबिलटी बिल, नागरिक सेवाओं से जुड़े अधिकारों के लिए सिटीजन चार्टर ऐंड ग्रीवांस रिड्रेसल बिल, सरकारी सेवाओं में भ्रष्टाचार रोकने के लिए भ्रष्टाचार निरोधक कानून में संशोधन का विधेयक और विदेशी अधिकारियों व अंतरराष्ट्रीय संगठनों में रिश्वतखोरी रोकने के विधेयकों को लेकर पिछले दो साल में सरकार में कहीं कोई सक्रियता नहीं दिखी.

किसी को यह मुगालता नहीं है कि लोकपाल या इन पांच कानूनों के जरिए हम भारत की सियासत और कार्यसंस्कृति में भिदे भ्रष्टाचार को रोक सकेंगे. यह तो सिर्फ भ्रष्टाचार पर रोक, जांच और पारदर्शिता का शुरुआती ढांचा बनाने की कोशिश है, वह भी अभी शुरू नहीं हो सकी है. 2003 में भ्रष्टाचार पर अंतरराष्ट्रीय संधि (2005 से लागू) के बाद लगभग प्रत्येक देश ने अपनी परिस्थिति के आधार पर भ्रष्टाचार से निबटने के लिए रणनीतियां, संस्थाएं, नियम, कानून और एजेंसियां बनाई हैं, जिन्हें लगातार संशोधित कर प्रभावी बनाया जा रहा है.

पिछले कुछ वर्षों में यूएनडीपी और ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने भ्रष्टाचार निरोधक रणनीतियों का अध्ययन किया है, जो इस जटिल जंग में हार-जीत, दोनों की कहानियां सामने लाते हैं. मसलन, रोमानिया ने अपनी पुरानी भूलों से सीखकर एक कामयाब व्यवस्था बनाने की कोशिश की. इंडोनेशिया ने अपनी ऐंटी करप्शन रणनीतियों को गवर्नेंस सुधारों से जोड़कर ग्लोबल स्तर पर सराहना हासिल की है. ऑस्ट्रेलिया ने नेशनल ऐंटी करप्शन रणनीति बनाने की बजाए पारदर्शिता को व्यापक गवर्नेंस और न्यायिक सुधारों से जोड़कर पूरे सिस्टम को पारदर्शी बनाने की राह चुनी, जबकि मलेशिया ने भ्रष्टाचार खत्म करने की रणनीति को गवर्नेंस ट्रांसफॉर्मेशन प्रोग्राम से जोड़ा, जो इस विकासशील देश को 2020 तक विकसित मुल्क में बदलने का लक्ष्य रखता है. चीन तो दुनिया का सबसे कठोर भ्रष्टाचार निरोधक अभियान चला रहा है, जिसमें 2013 से अब तक दो लाख से अधिक अधिकारियों और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों की जांच हो चुकी है और अभियोजन की दर 99 फीसदी है.

भ्रष्टाचार रोकने की रणनीतियां चार बुनियादी आधारों पर टिकी हैं. सबसे पहला है, मजबूत और स्वतंत्र मॉनिटरिंग एजेंसी, दूसरा, भ्रष्टाचार की नियमित और पारदर्शी नापजोख जबकि तीसरा पहलू है, जांच के लिए पर्याप्त संसाधन और विस्तृत तकनीकी क्षमताएं और चौथा है, स्पष्ट कानून व भ्रष्टाचार पर तेज फैसले देने वाली सक्रिय अदालतें.

भारत की तरफ देखिए. हमारे पास इन चारों में से कुछ भी नहीं है. भारत की एक ताकतवर स्वतंत्र एजेंसी बनाने (लोकपाल) की जद्दोजहद अब तक जारी है. केंद्रीय सतर्कता आयोग को गठन के 39 साल बाद 2003 में वैधानिक दर्जा मिला लेकिन जांच का अधिकार नहीं. जांच करने वाली सीबीआइ सरकारों के पिंजरे का तोता है. भ्रष्टाचार की नापजोख का कोई तंत्र कभी बना ही नहीं और अदालतें उन कानूनों से लैस नहीं हैं, जो जटिल भ्रष्टाचार को बांध सकें.

कीचड़ सनी कांग्रेस से तो इस सबकी उम्मीद भी नहीं थी, लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ जनादेश पर बैठकर सत्ता में आई मोदी सरकार से यह अपेक्षा जरूर थी कि वह पुराने घोटालों की तेज जांच करेगी और भारत को भ्रष्टाचार से निबटने के लिए दूरगामी व स्थायी रणनीति और संस्थाएं देगी.

अगस्तावेस्टलैंड के दलाल जानते हैं कि दुनिया के विभिन्न देशों में फैले रिश्वतखोरी के तार जोड़ते-जोड़ते एक दशक निकल जाएगा. सियासत को भी पता है कि जांच में कुछ न होने का, क्योंकि उन्होंने भ्रष्टाचार से निबटने को लेकर संस्थागत तौर पर कुछ किया ही नहीं है. वे तो बस राजनीति के कीचड़ में लिथड़ने के शौकीन हैं, जिसका सीजन कुछ वक्त बाद खत्म हो जाता है.


Wednesday, July 29, 2015

पारदर्शिता का तकाजा


एक साल में गवर्नेंस में पारदर्शिता को लेकर नए उपाय करना तो दूर, मोदी सरकार ने मौजूदा व्यवस्था से ही असहमति जता दी. नतीजतन, आज वह उन्हीं सवालों से घिरी है, जिनसे वह कांग्रेस को शर्मसार करती थी


माना कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज (संदर्भः ललित मोदी) उदारमना हैं. शिवराज सिंह चौहान व्यापम घोटाले के व्हिसलब्लोअर हैं और वसुंधरा पर लगे आरोप प्रामाणिक नहीं हैं लेकिन यह सवाल तो फिर भी बना रहता है कि मोदी सरकार को क्रिकेट की साफ सफाई से किसने रोका था? व्यापम घोटाले की जांच के लिए अदालती चाबुक का इंतजार क्यों किया गया? खेलों में फर्जीवाड़ा रोकने वाले विधेयक को कानूनी जामा पहनाने में कौन बाधा डाल रहा है? पारदर्शिता के लिए कानूनी और संस्थागत ढांचा बनाने में कौन-सी समस्या है? मोदी सरकार अगर इस तरह के कदमों व फैसलों के साथ आज संसद में खड़ी होती तो एक साल के भीतर भ्रष्टाचार पर उसे उन्हीं सवालों का सामना नहीं करना पड़ता जो वह पिछले कई वर्षों से लगातार कांग्रेस से पूछती रही है. संसद की खींचतान से ज्यादा गंभीर पहलू यह है कि मोदी सरकार के पहले एक साल में उच्च पदों पर पारदर्शिता को लेकर वह बेबाक फर्क नजर नहीं आया जिसकी उम्मीद उससे की गई थी. केंद्र से लेकर राज्यों तक बीजेपी को शर्मिदगी में डालने वाले ताजे विवाद दरअसल गवर्नेंस की गलतियां हैं, सत्ताजन्य अहंकार या बेफिक्री जिनकी वजह होती है. ये गलतियां पहले ही साल में इसलिए आ धमकीं क्योंकि पिछले एक साल में गवर्नेंस में पारदर्शिता को लेकर नए उपाय करना तो दूर, सरकार ने मौजूदा व्यवस्था से ही असहमति जता दी. दागी व्यक्ति से दूरी बनाना सामान्य सतर्कता है. इसलिए जब सुषमा स्वराज जैसी तजुर्बेकार मंत्री कानून की नजर में अपराधी ललित मोदी की मदद के लिए इतने बेधड़क होकर अपने पद का इस्तेमाल करती हैं तो अचरज होना लाजिमी है. स्वराज और ललित मोदी के बीच पारिवारिक व पेशेवर रिश्तों की रोशनी में सुषमा को और ज्यादा सतर्क होना चाहिए था. पूर्व आइपीएल प्रमुख की मदद अगर विदेश मंत्री की गलती है तो यह चूक दरअसल सत्ता में होने की बेफिक्री का नतीजा है. ललित मोदी के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी होने पर सुषमा ज्यादा मुश्किल में होंगी.
पंकजा मुंडे के चिक्की व खिचड़ी खरीद फैसलों को देखकर अदना-सा क्लर्क भी यह बता देगा कि इस तरह के निर्णय सत्ता की ताकत सिर चढऩे की वजह से होते हैं. राज्य सरकार के नियमों के मुताबिक, एक करोड़ रुपए से ऊपर की खरीद टेंडर से ही हो सकती है जबकि पंकजा ने एकमुश्त 206 करोड़ रु. की खरीद कर डाली. इस सप्ताह विधानसभा में उन्होंने यह गलती मान भी ली. महाराष्ट्र में खेती मशीनों की खरीद का 150 करोड़ रु. और घोटाला खुला है, जिसमें टेंडर के सामान्य नियमों का खुला उल्लंघन किया गया है. फिक्र होनी चाहिए कि अगर बीजेपी की नई सरकारों में अन्य मंत्रियों ने भी सुषमा या पंकजा की तरह मनमाने फैसले किए हैं तो फिर पार्टी और मोदी सरकार के लिए आने वाले महीनों में कई बड़ी मुश्किलें तैयार हो रही हैं. सिर्फ शांता कुमार ही नहीं, बीजेपी में कई लोग यह कहते मिल जाएंगे कि पारदर्शिता को लेकर मोदी सरकार को कहीं ज्यादा सख्त होना चाहिए था. सख्ती दिखाने के मौकों की कमी भी नहीं थी. मसलन, सत्ता में आने के बाद बीजेपी स्पोर्टिंग फ्रॉड विधेयक को पारित कर सकती थी ताकि क्रिकेट का कीचड़ साफ हो सके. सट्टेबाजी जैसे अपराधों के लिए जेल व भारी जुर्माने की सजा का प्रावधान करने वाला विधेयक दो साल से लंबित है और इसके बिना लोढ़ा समिति की सिफारिशों के तहत सजा पाए मयप्पन और कुंद्रा पर कोई सख्त कार्रवाई नहीं हो सकती. इसी क्रम में खेल संघों को कानून के दायरे लाने की पहल भी खेलों को साफ-सुथरा बनाने के प्रति मोदी सरकार की गंभीरता का सबूत बन सकती थी. लेकिन पारदर्शिता के आग्रहों को मजबूत करने की बजाए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने न केवल सीबीआइ को यह सलाह दे डाली कि उसे फैसलों में ईमानदार गलती (ऑनेस्ट एरर) व भ्रष्टाचार में फर्क समझना होगा, बल्कि इसके लिए भ्रष्टाचार निरोधक कानून में बदलाव की तैयारी भी शुरू कर दी. बजट सत्र के अंत में सरकार व्हिसलब्लोअर कानून में संशोधन ले आई, जिसके तहत भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने को बुरी तरह हतोत्साहित करने का प्रस्ताव है. अगर यह संशोधन पारित हुआ तो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लगभग असंभव हो जाएगी. अगर सूचना के अधिकार पर ताजे पहरे इस फेहरिस्त में जोड़ लिए जाएं तो गवर्नेंस में पारदर्शिता को लेकर सरकार की नीयत पर सवाल उठना लाजिमी है. ताजा विवाद यह महसूस कराते हैं कि सरकार न केवल गवर्नेंस और गलतियों बल्कि भूलों के बचाव में भी कांग्रेसी तौर-तरीकों की ही मुरीद है. मध्य प्रदेश के गवर्नर रामनरेश यादव को फरवरी में ही विदा हो जाना चाहिए था जब व्यापम घोटाले में एफआइआर हुई थी. सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश के बाद तो उनके पद पर बने रहने का मतलब ही नहीं है. यह मानते हुए कि यादव, भोपाल के राजभवन में कांग्रेस की विरासत हैं, उन्हें बनाए रखकर सरकार यूपीए जैसी फजीहत को न्योता दे रही है. सुषमा व पंकजा जैसे मंत्रियों की 'भूलें' बताती हैं कि बीजेपी की सरकारों में भी पारदर्शिता के आग्रह मजबूत नहीं हैं. ताजा विवाद, उच्च पदों पर भ्रष्टाचार को लेकर सरकार के नेतृत्व का असमंजस जाहिर करते हैं. यूपीए सरकार भी ठीक इसी तरह उच्च पदों पर भ्रष्टाचार को लेकर दो टूक फैसलों से बचती रही. नतीजतन अदालतों ने सख्ती की और सरकार अपनी साख गंवा बैठी. मोदी सरकार सत्ता में आने के बाद पहली बार रक्षात्मक दिख रही है और भ्रष्टाचार पर अदालतें फिर सक्रिय (व्यापम) हो चली हैं. प्रधानमंत्री को एहसास होना चाहिए कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त हुए बिना बात नहीं बनेगी. इसके लिए उन्हें उच्च पदों पर पारदर्शिता के कठोर प्रतिमान तय करने होंगे, क्योंकि संसद में विपक्ष का गतिरोध उतनी बड़ी चुनौती नहीं है, ज्यादा बड़ी उलझन यह है कि जो सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ जनादेश पर सवार होकर सत्ता में पहुंची वह एक साल के भीतर भ्रष्टाचार को लेकर बचाव की मुद्रा में है. यह नरेंद्र मोदी को लेकर बनी उम्मीदों का जबरदस्त ऐंटी-क्लाइमेक्स है.


Tuesday, July 7, 2015

ग्रीक ट्रेजडी के भारतीय मिथक

ग्रीस की ट्रेजडी को घटिया गवर्नेंस व सियासत ने गढ़ा है. ग्रीस के ताजा संकट के कई मिथक भारत से मिलते हैं 

ग्रीस की पवित्र वातोपेदी मॉनेस्ट्री के महंत इफ्राहीम व देश के शिपिंग मंत्री की पत्नी सहित 14 लोगों को पिछले साल नवंबर में जब ग्रीक सुप्रीम कोर्ट ने धोखाधड़ी का दोषी करार दिया, तब तक यह तय हो चुका था कि ग्रीस (यूनान) आइएमएफ के कर्ज में चूकने वाला पहला विकसित मुल्क बन जाएगा और दीवालिएपन से बचने के लिए उसे लंबी यंत्रणा झेलनी होगी. आप कहेंगे कि 10वीं सदी की क्रिश्चियन मॉनेस्ट्री का ग्रीस के संकट से क्या रिश्ता है? दरअसल, ट्रेजडी का पहला अंक इसी मॉनेस्ट्री ने लिखा था. महंत इफ्राहीम ने 2005 में नेताओं व अफसरों से मिलकर एक बड़ा खेल किया. उन्होंने मॉनेस्ट्री के अधिकार में आने वाली विस्तोनिदा झील ग्रीक सरकार को बेच डाली और बदले में 73 सरकारी भूखंड व भवन लेकर वाणिज्यिक निर्माण शुरू कर दिए.
इन कीमती संपत्तियों में एथेंस ओलंपिक (2004) का जिम्नास्टिक स्टेडियम भी था. 2008 में इसके खुलासे के साथ न केवल तत्कालीन सरकार गिर गई बल्कि भ्रष्टाचार, क्रोनी कैपिटलिज्म व सरकारी फर्जीवाड़े की ऐसी परतें उघड़ीं कि ग्रीस दीवालिएपन की कगार पर टंग गया. ग्रीस, तकनीकी तौर पर मंदी से उपजे कर्ज संकट का शिकार दिखता है लेकिन दरअसल उसकी ट्रेजडी को घटिया गवर्नेंस व सियासत ने गढ़ा है. ग्रीस के ताजा संकट को पढ़ते हुए इस एहसास से बचना मुश्किल है कि भारत में कई ग्रीस पल रहे हैं.
बीते सप्ताह बैंक के बंद होने के बाद ग्रीस की ट्रेजडी का कोरस शुरू हो गया था. कर्ज चुकाने में चूकना किसी देश के लिए घोर नर्क है. तबाही की शुरुआत देश की वित्तीय साख टूटने व खर्च में कटौती से होती है और बैंकों की बर्बादी से दीवालिएपन तक आती है. ग्रीस का पतन 2008 में शुरू हुआ. 2010 के बाद यूरोपीय समुदाय व आइएमएफ ने 240 अरब यूरो के दो पैकेज दिए, जिसमें 1.6 अरब यूरो की देनदारी बीते मंगलवार को थी, ग्रीस जिसमें चूक गया. ताजा डिफॉल्ट के साथ 1.1 करोड़ की आबादी वाला ग्रीक समाज वित्तीय मुश्किलों की लंबी सुरंग में उतर गया है. अब उसे कठोर शर्तें मानकर खर्च में जबरदस्त कटौती करनी होगी या खुद को दीवालिया घोषित करते हुए उस निर्मम दुनिया से निबटना होगा है जहां सूदखोर शायलॉक की तरह कर्ज वसूला जाता है. हाल का सबसे बड़ा डिफॉल्टर अर्जेंटीना पिछले एक दशक से यह आपदा झेल रहा है.
ग्रीस के संकट की वित्तीय पेचीदगियां उबाऊ हो सकती हैं लेकिन इस ट्रेजडी के कारणों में भारत में दिलचस्पी जरूर होनी चाहिए. वहां के सबसे बड़े जमीन घोटाले को अंजाम देने वाले वातोपेदी मॉनेस्ट्री को ही लें, जो उत्तर माउंट एटॉस प्रायद्वीप पर स्थित है और बाइजेंटाइन युग से ऑर्थोडॉक्स क्रिश्चियनिटी का सबसे पुराना केंद्र है. वित्तीय संकटों के अध्येता माइकल लेविस अपनी किताब बूमरैंग में लिखते हैं कि महंत इफ्राहीम इतना रसूखदार था कि वह एक ग्रीक बैंकर के साथ वातोपेदी रियल एस्टेट फंड बनाने वाला था. झील के बदले उसने जो सरकारी संपत्तियां हासिल कीं उनका दर्जा (लैंड यूज) बदलकर उन्हें वाणिज्यिक किया गया ताकि उन पर आधुनिक कॉम्प्लेक्स बनाए जा सकें. वातोपेदी मठ की यह कथा क्या आपको भारत के वाड्रा, आदर्श घोटाले अथवा धर्म ट्रस्टों के जमीन घोटालों की सहोदर नहीं लगती?
हेलेनिक या पश्चिमी सभ्यता के गढ़ ग्रीस की बदहाली बताती है कि सरकारें जब सच छिपाती हैं तो कयामत आती है. यूरोमुद्रा अपनाने के लिए ग्रीस को घाटे व कर्ज को (यूरोजोन ग्रोथ ऐंड स्टेबिलिटी पैक्ट) को काबू में रखने की शर्तें माननी थीं. इन्हें पूरा करने के लिए सरकार ने कई तरह के ब्याज, पेंशन, कर्जों की माफी, स्वास्थ्य सब्सिडी आदि भुगतानों को बजट से छिपा लिया और घाटे को नियंत्रित दिखाते हुए बाजार से खूब कर्ज उठाया. यूरोपीय समुदाय के आंकड़ा संगठन (यूरोस्टैट) की पड़ताल में पता चला कि 2009 में देश का घाटा जीडीपी के अनुपात में 12.5 फीसदी था जबकि सरकार ने 3.7 फीसदी होने का दावा किया था. इसके बाद देश की साख ढह गई. भारत के आंकड़ों में तो इतने फर्जीवाड़े हैं कि एक दो नहीं दसियों ग्रीस मिल जाएंगे. 
माइकल लुइस बूमरैंग में एक कंस्ट्रक्शन कंपनी का जिक्र करते हैं, जिसने एथेंस शहर में कई बड़ी इमारतें बनाकर बेच डालीं और एक भी यूरो का टैक्स नहीं दिया जबकि उस पर करीब 1.5 करोड़ यूरो के टैक्स की देनदारी बनती थी. इस फर्म ने दर्जनों छोटी कंपनियां बनाईं, फर्जी खर्च दिखाए और अंततः केवल 2,000 यूरो का टैक्स देकर बच निकली. ग्रीस में टैक्स चोरी के नायाब तरीके भले ही यूरोप व अमेरिका में दंतकथाओं की तरह सुने जाते हों लेकिन एथेंस की कंस्ट्रक्शन कंपनी की कर चोरी जैसे कई किस्से तो भारत में आपको एक अदना टैक्स इंस्पेक्टर सुना देगा.
 ग्रीस के बैंक उसकी त्रासदी का मंच हैं और बैंकों के मामले में भारत व ग्रीस में संकट के आकार का ही अंतर है. यूरोपीय बैंक अगर जोखिम भरे निवेश में डूबे हैं तो भारतीय बैंक सियासी-कॉर्पोरेट गठजोड़ में हाथ जला रहे हैं. भारतीय बैंक करीब तीन लाख करोड़ का कर्ज फंसाए बैठे हैं, जिनमें 40 फीसदी कर्ज सिर्फ 30 बड़ी कंपनियों पर बकाया है. भारत में बैंक नहीं डूबते क्योंकि सरकार बजट से पैसा देती रही हैं. देशी बैंक जमाकर्ताओं के पैसे से सरकार को कर्ज देते हैं और फिर सरकार उन्हें उसी पैसे से उबार लेती है. दरअसल यह आम लोगों की बचत या टैक्स भुगतान ही हैं जो बैंकों, सरकार व चुनिंदा कंपनियों के बीच घूमता है.
सरकारों का डिफॉल्टर होना नया नहीं है. दुनिया ने 1824 से 2006 के बीच 257 बार सॉवरिन डिफॉल्ट देखे हैं. दिवालिएपन पर आर्थिक शोध का अंबार मौजूद है, जिसे पढ़े बिना भी यह जाना जा सकता है कि यह त्रासदी सिर्फ वित्तीय बाजार की आकस्मिकताओं से नहीं आती बल्कि खराब गवर्नेंस, भ्रष्टाचार व वित्तीय अपारदर्शिता देशों मोहताज बना देती है.
यूरोप में कहावत है कि ग्रीस हमेशा अपनी क्षमता से बड़ा इतिहास बनाता है. उसने इस बार भी निराश नहीं किया. भारत व ग्रीस अब सिर्फ मिथकों या इतिहास के आइने में एक जैसे नहीं हैं, ग्रीस का वर्तमान भी भारत के लिए नसीहतें भेज रहा है. शुक्र है कि हम सुरक्षित हैं लेकिन क्या हम ग्रीस से कुछ सीखना चाहेंगे?



Tuesday, June 2, 2015

जोखिम में है गवर्नेंस



निगहबान और नियामक संस्‍थायें सरकार का सुरक्षा चक्र होती हैं. इनकी गैरमौजूदगी की वजह से पारदर्शिता के मामले में मोदी सरकार के जोखिम बढ़ने लगे हैं
सरकार के पहले एक साल में भ्रष्टाचार के किसी बड़े मामले का सामने न आना सिर्फ राहत की बात है, महोत्सव की हरगिज नहीं. ग्रैंड करप्शन सरकारों के पहले साल में नहीं उपजता. केंद्र में यूपीए की सरकार से लेकर राज्यों तक दर्जनों उदाहरण इसकी ताकीद करते हैं कि पुरानी होती सरकारें भ्रष्टाचार के खतरे के करीब खिसकती जाती हैं. यूपीए के घोटाले तो उसके दूसरे कार्यकाल के अंतिम वर्षों में निकले थे. ज्यादा चिंता इस बात पर होनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी सरकार ने पूरा साल उन जरूरी संस्थाओं को बनाने या मजबूत किए बगैर बिता दिया है जो एक विशाल देश के जटिल तंत्र में साफ-सुथरे कामकाज के लिए जरूरी हैं. मोदी ने पहले साल में न तो सरकारी तंत्र पर निगाह रखने वाली संवैधानिक संस्थाओं को ताकत दी और न ही नियामक सुधारों की सुध ली. निगहबानी संस्थाएं सरकारों का सुरक्षा चक्र होती हैं और स्वतंत्र नियामक खुले बाजार का. इस सुरक्षा चक्र की नामौजूदगी के कारण पारदर्शिता के मामले में मोदी सरकार के जोखिम बढऩे लगे हैं.
पिछले एक साल के फैसलों और उन्हें लेने के तरीकों को गहराई से परखने पर सरकार में गवर्नेंस की दुविधा झलकने लगती है. बात केवल केंद्रीय सतर्कता आयुक्त या केंद्रीय सूचना आयुक्तों की एक साल से लंबित नियुक्ति की ही नहीं है जिसे लेकर विपक्ष के तेवरों के बाद प्रधानमंत्री ने पहली बार सक्रियता दिखाई हैं. हकीकत यह है कि लोकपाल की स्थापना से लेकर विभिन्न क्षेत्रों में नियामक बनाने तक, सरकार पिछले साल में एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकी. ऊहापोह केंद्रीकृत बनाम विकेंद्रित गवर्नेंस के बीच चुनाव की है. मोदी सत्ता के केंद्रीकरण को चुनते रहे हैं, जिसमें लोकपाल या सतर्कता आयोग जैसी संस्थाओं या स्वतंत्र आर्थिक नियामकों के लिए जगह मुश्किल से बनती है. जबकि आर्थिक सुधारों के बाद भारत में गवर्नेंस का जो मॉडल विकसित हुआ, उसमें सरकार और बाजार पर निगाह रखने वाली स्वायत्त संस्थाओं की ताकत बढ़ी है. दूरसंचार, बिजली बीमा और वित्तीय सेवाओं तक खुले बाजार को नियामकों ने बखूबी संभाला है जबकि सुप्रीम कोर्ट और सीएजी जैसी संवैधानिक संस्थाओं ने सरकारों की निगहबानी की है. इस नई व्यवस्था से अधिकारों में टकराव, फैसलों में देरी जैसी उलझनें जरूर पैदा हुई हैं लेकिन एक विशाल देश के भीमकाय बाजार और मनमाने राजनैतिक तंत्र को संभालने में इनकी उपयोगिता साबित भी हुई है.  मोदी सरकार अपने पहले एक साल में गवर्नेंस के इस बदले हुए ढांचे पर ठोस राय कायम नहीं कर सकी जिससे न केवल एक तदर्थवाद पैदा हुआ है, बल्कि रिजर्व बैंक के अधिकार कम करने की मुहिम ने यह बताया है कि सरकार स्वतंत्र नियामकों को लेकर सहज नहीं हैं. आदर्श तौर पर कोयला खदानों के पुनःआवंटन की प्रक्रिया एक स्वतंत्र नियामक को तय करनी चाहिए थी. यदि आवंटन में जल्दी थी तो उसके तत्काल बाद कोयला नियामक बनना चाहिए था ताकि कोयले की गुणवत्ता तय करने, कंपनियों के विवाद निबटाने, खनन की मॉनीटरिंग करने और कोयले की कीमत निर्धारित करने में सरकार का दखल कम होता. खदानों का आवंटन तो हो गया लेकिन नियामक न होने के कारण कोयला क्षेत्र में अपारदर्शिता व तदर्थवाद जस का तस है.
रेलवे में विदेशी निवेश परवान क्यों नहीं चढ़ा? रेलवे के लिए नियम बनाने का काम किसी स्वतंत्र रेगुलेटर को देना होगा ताकि बाजार में बराबरी की प्रतिस्पर्धा हो सके. रेलवे में सुधार के लिए बिबेक देबराय समिति मोदी सरकार ने ही बनाई थी लेकिन जब समिति ने रेगुलेटर बनाने की सिफारिश की तो सरकार सुस्त पड़ गई. विमानन, वित्तीय सेवाओं और रियल एस्टेट में रेगुलेटर बनाने पर भी कोई सक्रियता नजर नहीं आई है. मोदी को अपने पहले ही साल में लोकपाल के गठन की पहल करनी चाहिए थी. लेकिन यहां तो एक साल में केंद्रीय सतर्कता आयोग के अध्यक्ष का चयन भी नहीं हो सका. मोदी के लिए पारदर्शिता को लेकर अपने संकल्प को साबित करने का यह सबसे अच्छा मौका है, क्योंकि बीजेपी शुरू से सरकारी तंत्र के लिए लोकपाल जैसे ताकतवर नियामक के पक्ष में रही है. काला धन जैसे कानूनों के जरिए सरकारी अधिकारियों को नई ताकत से लैस किया जा रहा है, इस ताकत की निगहबानी के लिए संवैधानिक संस्थाओं का गठन और मजबूती, दरअसल पारदर्शिता को लेकर सरकार के कौल को और मुखर करेगी. मोदी का गवर्नेंस मॉडल राज्यों के लिए नजीर बन रहा है. पिछले बारह महीनों में जिस तरह प्रधानमंत्री कार्यालय में सत्ता का केंद्रीकरण बढ़ा है, ठीक उसी तर्ज पर राज्यों में मुख्यमंत्री कार्यालयों ने भी शक्तियां समेटी हैं. केंद्र में तो कम-से-कम सीएजी, सुप्रीम कोर्ट और दूसरी सक्रिय एजेंसियां हैं जो गवर्नेंस की निगहबानी कर सकती हैं, राज्यों में न तो सतर्कता का ढांचा है और न ही अदालतों के पास निगहबानी का अनुभव है. राज्यों में अभी नियामक सुधार शुरू भी नहीं हुए हैं जबकि निजीकरण और सरकारी खर्च के अगले बड़े आयोजन राज्यों में ही होने हैं.  निगहबानी व नियमन करने वाली संस्थाएं सरकार के अधिकारों में हिस्सा बंटाती हैं जो कोई सियासी नेता आसानी से देना नहीं चाहता. नरेंद्र मोदी ने भले गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर लोकायुक्त की ताकत को सीमित रखा हो या स्वतंत्र नियामक बनाने पर बहुत ध्यान न दिया हो लेकिन प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें लोकपाल बनाने, सतर्कता ढांचे मजबूत करने और नियामक सुधारों में देर नहीं करनी चाहिए. सरकार को एक साल में यह एहसास हो गया है कि अच्छे दिन लाना जादू नहीं है, ठीक इसी तरह खुले बाजार में एक साफ-सुथरी सरकार चलाना भी जादू नहीं है. नेतृत्व के पारदर्शी होना, पूरे सिस्टम के साफ-सुथरा होने की गारंटी नहीं भी है. इस सरकार में सभी फैसले प्रधानमंत्री केंद्रित हैं इसलिए अगर सरकार पारदर्शिता के मोर्चे पर फिसलती है तो खामियाजे भी प्रधानमंत्री के खाते में ही दर्ज होंगे. मजबूत और ताकतवर नियामक-निगहबान संस्थाओं का सुरक्षा चक्र बनाकर ही मोदी इस जोखिम को सीमित कर सकते हैं. क्या वे ऐसा कर पाएंगे?