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Friday, October 21, 2022

आने से जिनके आए बहार



 

नागपुर के लालन जी अग्रवाल तपे हुए निवेशक हैं. उन्‍हें पता है कि किस्‍मत की हवा कभी नरम कभी गरम होती ही है लेक‍िन अगर भारत में लोगों का खर्च बढ़ता रहेगा तो तरक्‍की का पहिया चूं चर्र करके चलता रहेगा.

त्‍योहारों की तैयारी के बीच कुछ सुर्ख‍ियां उन्‍हें सोने नहीं देतीं.  भारत में छोटी कारें और कम कीमत वाले बाइक-स्‍कूटरों के ग्राहक लापता हो गए हैं सस्‍ते मोबाइल हैंडसेट की मांग टूट रही है.किफायती मकानों की‍ बिक्री नहीं बढ़ रही.

कहां फंस गई क्रांति

बीते चार बरस में एंट्री लेवल कारों की बिक्री 25 फीसदी कम हुई है. एसयूवी और महंगी (दस लाख से ऊपर) की कारों की मांग बढ़ी है. देश की सबसे बडी कार कंपनी मारुति के चेयरमेन आर सी भार्गव को कहना पड़ा कि छोटी कारों का बाजार खत्‍म हो रहा है.

जून 2022 की तिमाही में सस्‍ती (110 सीसी) बाइक की बिक्री करीब 42 फीसदी गिरी. 125 सीसी के स्‍कूटर का बाजार भी इस दौरान करीब 36 फीसदी सिकुड़ गया.. सिआम के मुताबिक वित्‍त वर्ष 2022 में भारत में दुपह‍िया वाहनों की बिक्री दस साल के न्‍यूनतम स्‍तर पर आ गई.

दुनिया में आटोमोबाइल क्रांति फोर्ड की छोटी कार मॉडल टी से ही शुरु हुई थी लेक‍िन इसका दरख्‍त भारत की जमीन पर उगा. 2010 तक दुनिया की सभी प्रमुख कार कंपनियां भारत में उत्‍पादन या असेंम्‍बल‍िंग करने लगीं.

वाहनों की बिक्री का आख‍िरी रिकॉर्ड 2017-18 में बना था जब 33 लाख कारें और दो करोड बाइक बिकीं. इसके बाद बिक्री ग‍िरने लगी.  फाइनेंस कंपनियां डूबीं, कर्ज मुश्‍क‍िल हुआ, सरकार ने प्रदूषण को लेकर नियम बदले. मांग सिकुड़ने लगी. इसके बाद आ गया कोविड.  अब छोटी कारों और सस्‍ती बाइकों बाजार सिकुड़ रहा है जबक‍ि महिंद्रा की प्रीमियम कार स्‍कॉर्प‍ियो एन को जुलाई में 30 मिनट में एक लाख बुकिंग ि‍मल गईं.

मोबाइल में यह क्‍या

मोबाइल बाजार में भी जून त‍िमाही में 40000 रुपये से ऊपर के  मोबाइल फोन की बिक्री करीब 83 फीसदी बढ़ी जबक‍ि सस्‍ते 8000 रुपये के मोबाइल की बिक्री में गिरावट आई. काउंटरप्‍वाइंट रिसर्च की रिपोर्ट और उद्योग के आंकड़े बताते हैं कि 10000 रुपये तक मोबाइल की बिक्री की करीब 25 फीसदी सिकुड गया है. पुर्जों की कमी कारण मोबाइल हैंडसेट महंगे हुए हैं.. ऑनलाइन शिक्षा का प्रचलन बढने के बाद भी सस्‍ते स्‍मार्ट फोन नहीं बिके.

घर का सपना

प्रॉपर्टी कंसल्टेंट एनारॉक ने बताया कि साल 2022 की पहली छमाही में घरों की कुल बिक्री में महंगे घरों (1.5 करोड़ से ऊपर) की मांग दोगुनी हो गई. साल 2019 में पूरे साल के दौरान घरों की बिक्र में लग्जरी घरों की हिस्सेदारी महज 7 फीसद थी.

देश के 7 प्रमुख शहरों में साल 2021 में लॉन्च 2.36 लाख नए मकानों में 63 फीसदी मकान मिड और हाई एंड सेगमेंट (40 लाख और 1.5 करोड़) के हैं. नई हाउसिंग परियोजनाओं में अफोर्डेबल हाउसिंग की हिस्सेदारी घटकर 26 फीसदी रह गई, जो वर्ष 2019 में 40 फीसद थी.

उम्‍मीदों के विपरीत

कोविड से पहले तक बताया जाता कि आटोमबाइल, मोबाइल फोन और मकान ही रोजगार और तरक्‍की इंजन हैं.  

भारत में कारों (प्रति 1000 लोगों पर केवल 22 कारें) वाहनों का बाजार छोटा है केवल 49 फीसदी परिवारों के पास दो पहिया वाहन थे इस के बावजूद 2018 तक आटोमोबाइल भारत की मैन्‍युफैक्‍चरिंग में 49 फीसदी और जीडीपी का 7.5 फीसदी हिस्‍सा ले चुका था. करीब 32 लाख रोजगार यहीं से निकल रहे थे.

सहायक उद्योगों व सेवाओं के साथ 2018 में, भारतीय आटोमोबाइल उद्योग 100 अरब डॉलर के मूल्‍यांकन के साथ दुनिया में चौथे नंबर पर पहुंच गया था. लेक‍िन अब मारुति के चेयरमैन कहते हैं कि छोटी कारें ब्रेड एंड बटर थीं बटर खत्‍म हो गया अब ब्रेड बची है.

आटोमेाबाइल क्रांति सस्‍ती बाइक और छोटी कारों पर केंद्रित थी. यदि इनके ग्राहक नहीं बचे तो भारत में महंगी या इलेक्‍ट्र‍िक कारें में निवेश क्‍यों बढेगा?

मंदी की हवेल‍ियां

हाउसिंग की मंदी  2017 से शुरु हुई थी, नोटबंदी के बाद 2017 में (नाइट फ्रैंक रिपोर्ट) मकानों की बिक्री करीब 7 फीसदी और नई परियोजनाओं की शुरुआत 41 फीसदी कम हुई. मकानों की कीमतें नहीं टूटीं्. जीएसटी की गफलत, एनबीएफसी का संकट, मांग की कमी और  आय कम होने कारण कोविड आने तक यहां    करीब 6.29 लाख मकान ग्राहकों का  इंतजार कर रहे थे.

बड़ी आबादी के पास अपना मकान खरीदने की कुव्वत भले ही  हो लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था में कंस्ट्रक्शन का हिस्सा 15 फीसद (2019) है जो अमेरिकाकनाडाफ्रांस ऑस्ट्रेलिया जैसे 21 बड़े देशों (चीन शामिल नहींसे भी ज्यादा हैयह खेती के बाद रोजगारों का सबसे बड़ा जरिया है.

तो कैसा डिज‍िटल इंड‍िया

2019 तक फीचर फोन बदलने वाले स्‍मार्ट फोन खरीद रहे थे. इसी से डिज‍िटल लेन देन और मोबाइल इंटरनेट का इस्‍तेमाल भी बढ़ा. सस्‍ते फोन की बिक्री घटने से डि‍ज‍िटल सेवाओं की मांग पर असर पड़ेगा. 5जी आने के बाद तो यह बाजार महंगे फोन और महंगी सेवा वालों पर केंद्रित हो जाएगा.

 

कहां गया मध्‍य वर्ग

भारत का उभरता बाजार मध्‍य वर्ग पर केंद्रित था. जिसमें नए परिवार शामिल हो रहे थे.  यही मध्य वर्ग बीते 25 साल में भारत की प्रत्येक चमत्कारी कथा का शुभंकर रहा है नए नगर (80 फीसद मध्य वर्ग नगरीयऔर 60 फीसदी जीडीपी इन्‍हीं की खपत से आता है बीसीजी का आकलन है कि इस वर्ग ने में ने करीब 83 ट्रिलियन रुपए की एक विशाल खपत अर्थव्यवस्था तैयारकी है. मगर प्‍यू रिसर्च ने 2020 में बताया था कि की कोविड की ामर से भारत के करीब 3.2 करोड़ लोग मध्य वर्ग से बाहर हो गए.

क्‍या यही लोग हैं जिनके कारण कारें मकान मोबाइल की बिक्री टूट गई है ? भारी महंगाई और टूटती कमाई इनकी वापसी कैसे होगी?

2047 में विकसित देश होने के लक्ष्‍य की रोशनी में यह जान लेना जरुरी है भारत में 2020 में प्रति व्‍यक्‍ति‍ आय (पीपीपी आधार पर) का जो स्‍तर था अमेरिका ने वह 1896 में और यूके ने 1894 में ही हासि‍ल कर लिया था. 2019 के हाउसहोल्‍ड प‍िरामिड सर्वे आंकडो के मुताबिक आज भारत में प्रति परिवार जितनी कारें है वह स्‍तर अमेरिका में 1915 में आ गया था. जीवन स्‍तर की बेहतरी के अन्‍य पैमाने जैसे फ्रिज ,एसी वाश‍िंग मशीन, कंप्‍यूटर ,भारत इन सबमें अमेरिका 75 से 25 साल तक पीछे है

बाकी आप कुछ समझदार हैं ...

Saturday, July 2, 2022

अच्‍छी नौकर‍ियों के बुरे द‍िन


 

 

स्‍टार्ट अप में फ‍िर छंटनी शुरु हो गई थी. फरवरी से मई के बीच कार 24, वेदंतु, अनअकाडमी, व्‍हाइट हैट जून‍ियर, मीशो, ओ के क्रेड‍िट सहित करीब आधा दर्जन स्‍टार्ट अप ने 8500 कर्मचारी निकाल दिये

यह सुर्ख‍ियां पढ़कर श्रुति का दिल बैठने लगा. वह तो अगले यूनीकॉर्न में नौकरी का आवेदन करने वाली थी. अच्‍छी नौकरियों के अकाल के बीच स्‍टार्ट अप नखलिस्‍तान की तरह उभरे थे. अगर भारत में हर महीने के एक यूनीकॉर्न बन रहा है तो  नौकरियां क्‍यों जा रही हैं? सरकार कह रही है कि भारत में स्‍टार्ट अप क्रांति हो रही है  तो रिजर्व बैंक गवर्नर स्‍टार्ट अप में जोखिम को लेकर चेतावनी दे रहे हैं, शेयर बाजार में स्‍टार्ट अप शेयरों की बुरी गत बनी है. सेबी इन पर बड़ी सख्‍ती कर रहा है.

यदि आपको यह लगता है कि स्‍टार्ट अप केवल मुट्ठी भर नौकर‍ियों की बात है यह तथ्‍य समझना जरुरी है कि भारत में अच्‍छी नौकर‍ियां हैं ही क‍ितनी?  श्रम  मंत्रालय का ताजा तिमाही रोजगार सर्वे (अक्‍टूबर दिसंबर 2021) बताता है कि गैर सरकारी क्षेत्र में फॉर्मल या औपचार‍िक नौकरियां केवल 3.14 करोड़ हैं. श्रम मंत्रालय के नियमों के मुताबिक दस से अध‍िक कामगारों वाले प्रतिष्‍ठान संगठित, स्‍थायी या औपचारिक नौकरियों में गिने जाते हैं बाकी रोजगार असंगठ‍ित और अस्‍थायी हैं.

वित्‍त आयोग, संसद को दी गई जानकारी और आर्थ‍िक सर्वेक्षण 2018 के आंकड़ो के अनुसार केंद्र (सार्वहजनिक कंपनियों सहित), राज्‍य और सुरक्षा बलों को  मिलाकर करीब कुल संगठ‍ित क्षेत्र की  नौकर‍ियां (निजी व सरकारी) 5.5 से छह करोड़ को बीच हैं. यानी कि कुल  48 करोड़ की कामगार आबादी यानी लेबर फोर्स (सीएमआईई अप्रैल 2022) के लिए चुटकी भर रोजगार.

क्‍या हुआ स्‍टार्ट अप को

महंगे होते कर्ज के साथ स्‍टार्ट अप निवेश यानी वेंचर कैपिटल और प्राइवेंट फंड‍िंग घट रही है क्रंच बेस की रिपोर्ट बताती है कि मई तक पूरी दुनिया में  स्‍टार्ट अप में निवेश सालाना आधार पर 20 फीसदी और मासिक आधार पर 14 फीसदी गिरा है. सबसे तेज ग‍िरावट स्‍टार्ट अप के लेट स्‍टेज और टेक्‍नॉलॉजी ग्रोथ वर्ग में आई है. यानी चलते हुए स्‍टार्ट अप को पूंजी नहीं मिल रही है. सीड स्‍टेज यानी शुरुआती स्‍तर पर निवेश अभी बना हुआ है.

2021 में भारत के स्‍टार्ट अप 38.5 अरब डॉलर का वेंचर कैपिटल निवेश आया था. सीबी इनसाइट का आंकड़ा बताता है कि भारत के स्‍टार्ट अप में वेंचर फंडिंग इस साल की दूसरी ति‍माही में अब तक केवल 3.6 अरब डॉलर का निवेश आया जो जनवरी से मार्च के दौरान आए निवेश  का आधा और बीते बरस की इसी अवध‍ि करीब एक तिहाई है.

कई स्‍टार्ट अप फंडि‍ंग में देरी का सामना कर रहे हैं. अगर पैसा मिलता भी है तो वैल्‍यूएशन से समझौता करना होगा. पूंजी की कमी के कारण स्‍टार्ट अप अध‍िग्रहण तेज हुए हैं. फिनट्रैकर के अनुसार 2021 में 250 से अध‍िक स्‍टार्ट अप अध‍िग्रहण पर 9.4 अरब डॉलर खर्च हुए. सबसे बडा हिस्‍सा ई कॉमर्स, एडुटेक, फिनटेक और हेल्‍थटेक स्‍टार्ट अप का था.

अच्‍छी नौकर‍ियों के बुरे दिन

स्‍टार्ट अप में नौकर‍ियां जाना गंभीर है बकौल श्रम मंत्रालय भारत में मैन्‍युफैक्‍चर‍िंग, भवन निर्माण, व्‍यापार, परिवहन, श‍िक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, होटल रेस्‍टोरेंट, सूचना तकनीक और वित्‍तीय सेवायें यानी केवल कुल नौ उद्योग या सेवाओं में अधिकांश स्‍थायी या अच्‍छी नौकर‍ियां मिलती हैं

इन नौकरियों के बाजार की हकीकत डरावनी है. बैंक ऑफ बड़ोदा के अर्थशास्‍त्र‍ियों ने भारत में बीते पांच छह (2016-21) के दौरान  27 प्रमुख उद्योगों की करीब 2019 शीर्ष कंपनियों बैलेंस शीट में कर्मचारी भर्ती और खर्च के आंकडों का व‍िश्‍लेषण किया है. ताक‍ि भारत में अच्‍छे रोजगारों की हकीकत पता चल सके.

-         27 उद्योगों की दो हजार से अध‍िक कंपन‍ियों में  मार्च 2016 में कर्मचारियों की संखया 54.5 लाख थी जो मार्च 2021 में बढ़कर 59.8 लाख हो गई. यह बढ़ोत्‍तरी केवल 1.9% फीसदी थी यानी इस दौरान जीडीपी की सालाना विकास दर औसत 3.5 से कम.  कोविड के दौरान छंटनी को निकालने के बाद भी रोजगार बढ़ने की दर केवल 2.5 फीसदी नजर आती है जब कि कोविड पूर्व तक पांच वर्ष में जीडीपी दर 6 फीसदी के आसपास रही है

 

 -         27 उद्योगों में केवल नौ उद्योगों या सेवाओं ने  औसत  वृद्ध‍ि दर (1.9 फीसदी) से से बेहतर रोजगार दर हास‍िल की.  सूचना तकनीक, बैंकिंग व फाइनेंस, रियल इस्‍टेट और हेल्‍थकेयर में रोजगार बढ़े लेक‍िन जीडीपी की रफ्तार से कम.

-         कोविड के कारण सबसे ज्‍यादा रोजगार  शिक्षा, होटल और रिटेल में खत्‍म हुए. 

-         बीते पांच साल में प्रति कर्मचारी वेतन में औसत सालाना केवल 5.7 फीसदी की बढ़त हुई है. जो महंगाई की दर से कम है.

नई उम्‍मीद का सूखना 

संगठित रोजगारों के सिकुड़ते बाजार में स्‍टार्ट अप  छोटी सी उम्‍मीद बनकर उभरे थे.

इसी मार्च में संसद को बताया गया था कि देश में करीब 66000 स्‍टार्ट अप ने 2014 से मार्च 2022 तक करीब सात लाख रोजगार तैयार किये. इनमें से कई  रोजगार तो कोविड के दौरान बंद हुए कारोबारों के साथ खत्‍म हो गए.

बचे हुए स्‍टार्ट अप नई पूंजी की मुश्‍क‍िल में हैं. ई कॉमर्स,एडुटेक, ईरिटेल  जैसे स्‍टार्ट अपन जिनके बिजनेस मॉडल उपभोक्‍ता खपत पर आधारित थे जिसमें तेज बढ़त नहीं हुई. बदलते नियम और महंगा कर्ज फिनटेक डि‍ज‍िटल लेंड‍िंग कंपन‍ियों पर भारी पड़ रहे  हैं

सरकारी रोजगारों की बहस ध्‍यान बंटाने वाली है. सरकारी रिपोर्ट और आंकड़े बताते हैं कि केंद्र सरकार ( 2014-15 से से 2020-21 3.3 से 3.1 मिल‍ियन) और सरकारी उपक्रमों  ( 2017-18 -2020-21 1.08 से 0.86 मिल‍ियन) में  नौकर‍ियां घट  रही हैं.    दरअसल अच्‍छी नौकरियों  के अवसर चुनिंदा उद्योग या सेवाओं तक सीम‍ित हैं. 2016 से 2020 तक कंपनि‍यों के मुनाफे बढ़ने की रफ्तार छह फीसदी रही है. खूब टैक्‍स रियायतें, सस्‍ता कर्ज मिला लेक‍िन रोजगार नहीं बढे

नई नौकर‍ियां बाजार से आएंगे सरकार के खजाने से नहीं. इस सच को  समझने में जितनी देरी होगी बेरोज़गारों का मोहभंग उतना ही बढ़ता जाएगा.

 

 

 

Thursday, December 30, 2021

बेरोजागारी की गारंटी


 फरीदाबाद की फैक्‍ट्री में लेबर सुपरवाइजर था व‍िनोदओवर टाइम आदि मिलाकर 500-600 रुपये की द‍िहाड़ी बन जाती थी. कोविड लॉकडाउन के बाद से गांव में मनरेगा मजदूर हो गया.  अब तो सरपंच या मुखि‍या के दरवाजे पर ही लेबर चौक बन गया है, वि‍नोद वहीं हाज‍िरी लगाता है. मनरेगा वैसे भी केवल साल 180 दि‍न का काम देती थी लेक‍िन बीते दो बरस से विनोद के पर‍िवार को  साल में 50 द‍िन का  का काम भी मुश्‍क‍िल से मिला है.

आप विनोद को बेरोजगार कहेंगे या कामगार ?  

गौतम  को बेरोजगार कर गया लॉकडाउन. उधार के सहारे कटा वक्‍त. पुराना वाला रिटेल स्‍टोर तो नहीं खुला लेक‍िन खासी मशक्‍कत के बाद एक मॉल में काम म‍िल गया. वेतन पहले से 25 फीसदी कम है और काम के घंटे 8 की जगह दस हो गए हैं, अलबत्‍ता शहर की महंगाई उनकी जान निकाल रही है.

क्‍या गौतम मंदी से उबर गया है ?   

महामारी ने भारत में रोजगारों की तस्‍वीर ही नहीं आर्थ‍िक समझ भी बदल दी है. महंगाई और बेकारी के र‍िश्‍ते को बताने वाला फिल‍िप्‍स कर्व सिर के बल खड़ा हो कर नृत्‍य कर रहा है यहां बेकारी और महंगाई दोनों की नई ऊंचाई पर हैं इधर मनरेगा में कामगारों की भीड़ को सरकारी रोजगार योजनाओं की सफलता का गारंटी कार्ड बता द‍िया गया है. सब कुछ गड्ड मड्ड हो गया है .


यद‍ि हम यह कहें क‍ि मनरेगा यानी महात्‍मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना भारत में बेकारी का सबसे मूल्‍यवान सूचकांक हो गई है तो शायद आपको व्‍यंग्‍य की खनक सुनाई देगी लगेगा. लेकनि महामार‍ियां और महायुद्ध हमारी पुरानी समझ का ताना बाना तोड़ देते हैं इसलिए मनरेगा में अब भारत के वेलफेयर स्‍टेट  की सफलता नहीं भीषण नाकामी दिखती है

आइये आपको  भारत में बेरोजगारी के सबसे विकराल और विदारक सच से मिलवाते हैं. मनरेगा श्रम की मांग पर आधार‍ित योजना है इसल‍िए यह बाजार में रोजगार की मांग घटने या बढ़ने का सबसे उपयुक्‍त पैमाना है. दूसरा तथ्‍य यह कि  मनरेगा  अस्‍थायी रोजगार कार्यक्रम है इसलिए इसके जरिये बाजार में स्‍थायी रोजगारों की हालात का तर्कसंगत आकलन हो सकता है.

वित्‍त वर्ष 2021 के दौरान मनरेगा में लगभग 11.2 करोड़ लोगों यानी लगभग 93 लाख लोगों को प्रति माह काम मिला. 2020-21 का साल शहरों की गरीबी के गांवों में वापस लौटने का था, इसल‍िए मनरेगा में काम हास‍िल करने वालों की तादाद करीब 42 फीसदी बढ़ गई.  इस साल यानी वित्‍त वर्ष 2022 के पहले आठ माह (अप्रैल नवंबर 2021)  में प्रति माह करीब 1.12 करोड़ लोगों मनरेगा की शरण में पहुंचे,यानी पर मनरेगा पर निर्भरता में करीब 20 फीसदी की बढ़ोत्‍तरी.  

अब उतरते हैं इस आंकडे के और भीतर जो यह बताता है क‍ि अर्थव्‍यवस्‍था में कामकाज शुरु होने और रिकवरी के ढोल वादन के बावजूद श्रम बाजार की हालात बदतर बनी हुई है. श्रमिक शहरों में नहीं लौटे इसल‍िए मनरेगा ही गांवो में एक मात्र रोजगार शरण बनी हुई है.

मनरेगा के काम का हिसाब दो श्रेणि‍यों में मापा जाता है एक काम की मांग यानी वर्क डिमांडेड और एक काम की आपू‍र्ति अर्थात वर्क प्रोवाइडेड‍. नवंबर 2021 में मनरेगा के तहत काम की मांग (वर्क डिमांडेड) नवंबर 20 की तुलना में 90 फीसदी ज्यादा थी. मतलब यह क‍ि  रिकार्ड जीडीपी रिकवरी के बावजूद मनरेगा में काम की मांग कम नहीं हुई. इस बेरोजगारी का नतीजा यह हुआ क‍ि मनरेगा में दिये गए काम का प्रतिशत मांगे गए काम का केवल 61.5% फीसदी रह गया. यानी 100 में केवल 61 लोगों को काम मिला. यह औसत पहले 85 का था. यही वजह थी कि इस वित्‍त वर्ष में सरकार को मनरेगा को 220 अरब रुपये का अत‍िर‍िक्‍त आवंटन करना पड़ा.

मनरेगा एक और विद्रूप चेहरा है जो हमें रोजगार बाजार के बदलती तस्‍वीर बता रहा है. मनरेगा में काम मांगने वालों में युवाओं की प्रतिशत आठ साल के सबसे ऊंचे स्‍तर पर है. मनरेगा के मजदूरों में करीब 12 फीसदी लोग 18 से 30 साल की आयु वर्ग के हैं. 2019 में यह प्रतिशत 7.3 था. मनरेगा जो कभी गांव में प्रौढ़ आबादी के लिए मौसमी मजदूरी का जर‍िया थी वह अब बेरोजगार युवाओं की आखि‍री उम्‍मीद है.

तीसरा और सबसे चिंताजनक पहलू है मनरेगा की सबसे बड़ी विफलता. मनरेगा कानून के तहत प्रति परिवार कम से कम 100 दिन का काम या रोजगार की गारंटी है. लेक‍िन अब प्रति‍ परिवार साल में 46 दिन यानी महीने में औसत चार द‍िहाड़ी मिल पाती है. कोव‍िड से पहले यह औसत करीब 50 दिन का था. इस पैमाने पर उत्‍तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, कर्नाटक, तम‍िलनाडु जैसे राज्‍य हैं जहां साल में 39-40 द‍िन का रोजगार भी मुश्‍क‍िल है

सनद रहे क‍ि मनरेगा अस्‍थायी रोजगार का साधन है और दैन‍िक मजदूरी है केवल 210 रुपये. यदि एक परिवार को माह में केवल चार दिहाड़ी मिल पा रही है तो यह महीने में 1000 रुपये से भी कम है. यानी क‍ि विनोद जिसका जिक्र हमने शुरुआत में किया वह  गांव में गरीबी के टाइम बम पर बैठकर महंगाई की बीड़ी  जला रहा है. यही वजह है कि गांवों से साबुन तेल मंजन की मांग नहीं निकल रही है.  

अब बारी गौतम वाली बेरोजगारी की.  

वैसे महंगाई और बेरोजगारी से याद आया क‍ि एक थे अल्‍बन विल‍ियम हाउसगो फ‍िल‍िप्‍स वही फ‍िल‍िप्‍स कर्व वाले. बड़ा ही रोमांचक जीवन था फ‍िलि‍प्‍स का. न्‍यूजीलैंड किसान पर‍िवार में पैदा हुए. पढ़ ल‍िख नहीं पाए तो 1937 में  23 साल की उम्र में दुन‍िया घूमने न‍िकल पड़े लेक‍िन जा रहे थे चीन पहुंच गए जापान यानी युद्ध छिड़ गया तो जहाज ने शंघाई की जगह योकोहामा ले जा पटका. वहां से कोरिया मंचूर‍िया रुस होते हुए लंदन पहुंचे और बिजली के इंजीन‍ियर हो गए.

फिलि‍प्‍स दूसरे वि‍श्‍व युद्ध में रायल ब्रिटिश फोर्स का हिस्‍सा बन कर पहुंच गए स‍िंगापुर. 1942 में जब जापान ने जब स‍िंगापुर पर कब्‍जा कर लिया तो  आखि‍री जहाज पर सवार हो कर भाग रहे थे कि जापान ने हवाई हमला कर दिया.  जहाज ने जावा पहुंचा दिया जहां तीन साल जेल में रहे और फिर वापस न्‍यूजीलैंड पहुंचे. तंबाकू के लती और अवसादग्रस्‍त फि‍ि‍लप्‍स ने अंतत: वापस लंदन लौटे और लंदन स्‍कूल ऑफ इकोनॉमिक्‍स में भर्ती हो गए. जहां उन्‍होंने 1958 में महंगाई और बेकारी को रि‍श्‍ते के समझाने वाला स‍िद्धांत यानी फि‍ल‍िप्‍स कर्व प्रत‍िपाद‍ित कि‍या.

फ‍िल‍िप्‍स कर्व के आधार पर तो गौतम को पहले से ज्‍यादा वेतन म‍िलना चाहिए क्‍यों क‍ि यह सिद्धांत कहता है कि उत्‍पादन बढ़ाने के लिए वेतन बढ़ाने होते हैं जिससे महंगाई बढ़ती है जबक‍ि यदि उत्‍पादन कम है वेतन कम हैं तो महंगाई भी कम रहेगी.

महामारी के बाद भारत की अर्थव्‍यवस्‍था अजीब तरह से बदल रही है. यहां मंदी के बाद उत्‍पादन बढ़ाने की जद्दोहजहद तो दि‍ख रही है लेकनि गौतम जैसे लोग पहले से कम वेतन काम कर रहे हैं. जबक‍ि और हजार वजहों से महंगाई भड़क रही है बस कमाई नहीं बढ़ रही है.

भारत की ग्रामीण और नगरीय अर्थव्‍यवस्‍थाओं में   कम वेतन की लंबी खौफनाक ठंड शुरु हो रही है. सरकारी रोजगार योजनाओं में बेंचमार्क मजदूरी इतनी कम है कि अब इसके असर पूरा रोजगार बाजार बुरी तरह मंदी में आ गया है. मुसीबत यह है कि कम पगार की इस सर्दी के बीच महंगाई की शीत लहर चल रही है यानी कि अगर अर्थव्‍यवस्‍था में मांग बढ़ती
भी है और वेतन में कुछ बढ़त होती है तो वह पहले से मौजूदा भयानक महंगाई को और ज्‍यादा ताकत देगी या लोगों की मौजूदा कमाई में बढ़ोत्‍तरी चाट जाएगी.

क्‍या बजटोन्‍मुख सरकार के पास कोई इलाज है इसका ? अब या तो महंगाई घटानी होगी या कमाई बढ़ानी होगी, इससे कम पर भारत की आर्थि‍क पीड़ा कम होने वाली नहीं है.

  

Friday, August 20, 2021

मंदी की हवेलियां


 भारतीय शहरों की दहलीज पर खड़ी हजारों भुतहा इमारतों  में मंदी की मशीनें लगी हैं. हर एक अधबना-अनबिका मकान एक छोटी मंदी है. करीब 6.29 लाख मंदियां (ग्राहकों का इंतजार करते मकान) अर्थव्यवस्था के पैरों में पत्थर की तरह बंधी हैं. भारत के अचल संपत्ति बाजार पर प्रापर्टी कंसल्टेंट एनरॉक की ताजा रिपोर्ट पढ़ते हुए, अर्थविद् एड लीमर नजर आने लगे. लीमर कहते थे कि समग्र अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों में अचल संपत्ति के असर को कभी गंभीरता से नहीं लिया गया जबकि बीती 11 मंदियों में आठ का जन्म प्रॉपर्टी बाजार में ही हुआ था.

जिनको लगता है कि महामारी के बाद बाजार खुल जाने से मंदी गायब हो जाएगी या सरकारी स्कीमों की बारात में झांझ-मंजीरे बजने से मांग और रोजगार के नृत्य शुरू हो जाएंगे उन्हें इन भुतही इमारतों का मारक अर्थशास्त्र समझना चाहिए, जहां मंदी के कारखाने, कोविड की आमद से साल भर पहले ही शुरू हो चुके थे.

तकरीबन डूब चुका रियल एस्टेट (अचल संपत्ति) कारोबार मंदी के प्रेत की सबसे बड़ी ताकत है. ऐसा लग रहा है कि यह संकट एक दूसरे संकट की मदद से ही दूर हो सकेगा

 मंदी की नींव

यह मंदी इतनी जिद्दी इसलिए है क्योंकि 2018 तक कारखाने नहीं बल्कि बनते-बिकते-बसते लाखों मकान ही अर्थव्यवस्था का टरबाइन थे. बहुत बड़ी आबादी के पास अपना मकान खरीदने की कुव्वत भले ही हो लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था में कंस्ट्रक्शन का हिस्सा 15 फीसद (2019) है जो दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा (पहला इंडोनेशिया) स्तर है जो अमेरिका, कनाडा, फ्रांस ऑस्ट्रेलिया जैसे 21 बड़े देशों (चीन शामिल नहीं) से भी ज्यादा है. मोतीलाल  ओसवाल रिसर्च का विस्तृत अध्ययन बताता है कि 2012 में 19.7 फीसद के साथ निर्माण में निवेश अपने शिखर पर था, तब केवल इंडोनेशिया और स्पेन भारत से आगे थे 

मंदी और निवेश टूटने के बावजूद इस वक्त भी भारत में मकान निर्माण में निवेश (जीडीपी का 7.8 % ) दुनिया में सबसे ऊंचा है.

2000 के दशक के दौरान कुल निवेश में कंस्ट्रक्शन का हिस्सा 60 फीसद था. बीते एक दशक में यह घटकर 52-53 फीसद रह गया जो दो दशक का न्यूनतम है. इसके साथ ही लंबी मंदी की नींव रख दी गई.

बीते एक दशक में घर बनाने में निवेश गिरने (2012 में 13 फीसद से 2017 में 7.8 फीसद) लगा जबकि गैर-आवासीय निर्माण में निवेश ( 2012 में 6.9 फीसद से 2017 में 7.6 फीसद) बढ़ा. इस तरह पहले मकानों का कारोबार डूबा फिर दुकान और वाणिज्यिक निर्माण का.   

कोविड की दस्तक से पहले ही भारतीय अर्थव्यवस्था की यह सबसे बड़ी टरबाइन बंद हो चुकी थी. मंदी सीमेंट-स्टील की मांग से लेकर सरकार के खजानों तक फैल गई थी. भवन निर्माण में गिरावट से राज्यों में स्टांप ड्यूटी का संग्रह बढ़ने की गति  2019-20 में 19 फीसद से घटकर 7 फीसद रह गई.

खेती के बाद रोजगारों का दूसरा बड़ा स्रोत भवन निर्माण है. 2012 में यहां 5 करोड़ लोगों (2000 में 1.7 करोड़) को काम मिला जो कुल कामगारों का करीब 10.6 फीसद (1983 में 3.2 फीसद) है. 2016 के बाद से यहां रोजगार गिरना शुरू हुए. नतीजन 2017-18 में बेकारी की दर 6.1 फीसद यानी 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई.

 टाइम बम की टिक-टिक

दुनिया का पता नहीं लेकिन अगर एड लीमर के अध्ययन की रोशनी में भारत में प्रॉपर्टी बाजार और अर्थव्यवस्था के आंकड़े करीब से पढ़े जाएं तो दिल बैठने लगेगा. लीमर कहते थे कि अन्य कारोबारों की तरह आवास निर्माण का भी एक बिजनेस साइकिल है जो शिखर से तलहटी की तरफ जाता ही है. इस पैमाने की रोशनी में महसूस होता है कि असली संकट तो अभी आया नहीं है क्योंकि मंदी के बावजूद भारत के रियल एस्टेट बाजार में कीमतें नहीं घटीं.

मोतीलाल ओसवाल रिसर्च ने बताया कि दुनिया के सभी देश जहां हाउसिंग की मांग टूटी और निवेश गिरा वहां कीमतों में कमी हुई है लेकिन भारत में आवास क्षेत्र में 2014 के बाद कीमतों में 2.7

फीसद की तेजी आई.

सबसे सस्ते होम लोन, रेरा कानून की मदद और केंद्र सरकार के पैकेज के बावजूद 6.29 लाख मकान (एनरॉक रिपोर्ट अगस्त 2021) इसलिए अधबने-अनबिके खड़े हैं क्योंकि मकानो की कीमतें नहीं गिरी हैं.

लेकिन ठहरिए और पेच समझिए.

अगर मकानों की कीमतें गिरीं तो उसके साथ बैंक भी गिरेंगे, जिनके कर्ज की दम पर इन सन्नाटा भरी इमारतों में पांच लाख करोड़ का निवेश फंसा है.

अर्थव्यवस्था को कंस्ट्रक्शन और हाउसिंग में मांग-निवेश की संजीवनी चाहिए लेकिन इसे लाने के लिए आग के दरिया में डूब कर जाना होगा. कीमतें टूटेंगी, बिल्डर डूबेंगे, बैंकों के कर्ज का सत्यानाश होगा तब जाकर बाजार में ग्राहक लौटेंगे. यह दर्दनाक सर्जरी कब होगी, यह सरकार को तय करना है लेकिन इस बलिदान के बिना मंदी का प्रेत वापस नहीं जाएगा.