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Thursday, March 10, 2022

वो सदी आ गई !

 


यह फरवरी 2022 का पहला हफ्ता था.  रुसी राष्‍ट्रपति ब्‍लादीम‍िर पुत‍िन
, बेलारुस के साथ सैन्‍य अभ्‍यास के बहाने यूक्रेन पर यलग़ार की तैयार‍ियां परख रहे थे. ठीक उसी वक्‍त सुदूर पूर्व के  दक्ष‍िण कोर‍िया में आरसीईपी (रीजनल कंप्रहेसिव कोऑपरेटिव पार्टन‍रशि‍प) प्रभावी हो गई, यानी की द‍ुन‍िया की दसवीं अर्थव्‍यवस्‍था विश्‍व के सबसे बड़े व्‍यापार समूह को लागू कर चुकी थी. 2022 की शुरुआत में महामारी का मारा यूरोप खून खच्‍चर और महंगाई के  डर से अधमरा हुआ जा रहा था तब   एश‍िया की नई तस्‍वीर फलक पर उभरने लगी थी.

कोरोना वायरस के नए संस्‍करण ऑम‍िक्रॉन के हल्‍ले के बावजूद, चीन की अगुआई वाली इस व्‍यापार संध‍ि का उद्घाटन इतना तेज तर्रार रहा कि  अमेरिकी राष्‍ट्रपत‍ि जो बाइडेन को कहना पड़ा कि वह भी एक नए व्‍यापार गठजोड़ की कोशि‍श शुरु कर रहे हैं. पिछले अमेरिकी मुखि‍या डोनल्‍ड ट्रंप ने  टीपीपी यानी ट्रांस पैस‍िफि‍क पार्टनरशि‍प के प्रयासों को कचरे के डब्‍बे में फेंक दिया था जो आरसीईपी के लिए चुनौती बन सकती थी.

याद रहे क‍ि इसी भारत इसी आरसीईपी  से बाहर निकल आया था . यह दोनों बड़ी अर्थव्‍यवस्‍थायें इस समझौते का हिस्‍सा नहीं हैं. चाहे न चाहे लेकि‍न चीन इस कारवां सबसे अगले रथ पर सवार हो गया है .

आरसईपी के आंकड़ों की रोशनी में एश‍िया एक नया परिभाषा के साथ उभर आया है आस‍ियान के दस देश (ब्रुनेई, कंबोड‍िया, इंडोनेश‍िया, थाईलैंड, लाओस, मलेश‍िया, म्‍यान्‍मार, फिलीपींस, सिंगापुर, वियतनाम) इसका हिस्‍सा हैं जबकि आस्‍ट्रेल‍िया, चीन, जापान, न्‍यूजीलैंड और दक्ष‍िण कोर‍िया इसके एफटीए पार्टनर हैं. यह चीन का पहला बहुतक्षीय व्‍यापार समझौता है.

दुनिया की करीब 30 फीसदी आबादी, 30 फीसदी जीडीपी और 28 फीसदी व्‍यापार इस समझौते के प्रभाव क्षेत्र में है.  विश्‍व व्‍यापार में हिस्‍सेदारी के पैमाने  इसके करीब पहुंचने वाले व्‍यापार समझौते में अमेरिका कनाडा मैक्‍स‍िको (28%) और यूरोपीय समुदाय (17.9%) हैं

आरसीईपी के 15 सदस्‍य देशों ने अंतर समूह व्‍यापार के लिए 90 फीसदी उत्‍पादों पर सीमा शुल्‍क शून्‍य कर दि‍या है..यानी  कोई कस्‍टम ड्यूटी नहीं. संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के व्‍यापार संगठन अंकटाड ने बताया है कि इस समझौते से 2030 तक आरसीईपी क्षेत्र में निर्यात में करीब 42 अरब डॉलर की बढ़ोत्‍तरी होगी. यह समझौता अगले आठ वर्ष में ग्‍लोबल अर्थव्‍यवस्‍था में 200 अरब डॉलर का सालाना योगदान करने लगेगा. क्‍या यूरोप यह सुन पा रहा है कि बकौल अंकटाड,  अपने आकार और व्‍यापार वैव‍िध्‍य के कारण आरसीईपी  दुन‍िया में व्‍यापार का नया केंद्र होने वाला है. 

आप इसे चीन की दबंगई कहें, अमेरिका की जिद या  भारत का  स्‍वनिर्मित भ्रम लेकिन आरसीईपी और एशि‍या की सदी का उदय एक साथ हो रहा है. वही सदी जिसका जिक्र हम दशकों से नेताओं भाषणों में सुनते आए हैं.  एश‍िया की वह सदी यकीनन अब आ पहुंची है  

यह है नया एश‍िया

एश‍िया की आर्थिक ताकत बढ़ने की गणना 2010 से शुरु हो गई थी, गरीबी पिछड़पेन और आय व‍िि‍वधता के बावजूद एश‍िया ने यूरोप और अमेरिका की जगह दुनिया की अर्थव्‍यवस्‍था में केंद्रीय स्‍थान लेना शुरु कर दिया था. महामारी के बाद जो आंकडे आए हैं, दुन‍िया की आर्थ‍िक धुरी बदलने की तरफ इशारा करते हैं.

कोविड के इस तूफान का सबसे मजबूती से सामना एश‍ियाई अर्थव्‍यवस्‍थाओं ने कि‍या. आईएमफ का आकलन बताता है कि महामारी के दौरान 2020 में दुनिया की अर्थव्‍यवस्‍थायें करीब 3.2 फीसदी सि‍कुड़ी लेक‍िन एशि‍या की ढलान  केवल 1.5 फीसदी थी. एश‍ियाई अर्थव्‍यवस्‍थाओं की वापसी भी तेज थी जुलाई में 2021 में आईएमएफ ने बताया क‍ि 2021 में  एश‍िया  7.5 फीसदी की दर से और 2022 में 6.4 फीसदी की दर से विकास कर करेगा जबकि‍ दुनिया की विकास दर 6 और 4.9 फीसदी रहेगी.

2020 में महामारी के दौरान दुनिया का व्‍यापार 5 फीसदी सिकुड़ गया लेक‍िन ग्‍लोबल व्‍यापार में एश‍िया का हिस्‍सा 60 फीसदी पर कायम रहा यानी नुकसान यूरोप अमेरिका को ज्‍यादा हुआ. 

2021 में आस‍ियान  चीन का सबसे बड़ा कारोबारी भागीदार बन गया है. इस भागीदारी की ताकत  2019 में मेकेंजी की एक रिपोर्ट से समझी जा सकती  है. एश‍िया का 60 फीसदी व्‍यापार  और 59 फीसदी विदेशी निवेश अंतरक्षेत्रीय  है. चीन से कंपन‍ियों के पलायन के दावों की गर्द अब बैठ चुकी है. 2021 में यूरोपीय  और अमेरिकी चैम्‍बर ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि 80-90 फीसदी कंपन‍ियां चीन छोड़ कर नहीं जाना चाहती. आरसीईपी ने इस पलायन का अध्‍याय बंद कर दिया है क्‍यों कि अध‍िकांश बाजार शुल्‍क मुक्‍त या डयूटी फ्री हो गए  हैं. इन कंपनियों  ज्‍यादातर उत्‍पादन अंतरक्षेत्रीय बाजार में बिकता  है

बात पुरानी है

एशिया की यह नई ताकत एक दशक पहले बनना शुरु हुई थी. मेकेंजी सह‍ित कई अलग अलग सर्वे  2018 में ही बता चुके थे  कि ग्‍लोबल टेक्‍नोलॉजी व्‍यापार के पैमानेां पर  एश‍िया  सबसे तेज दौड़ रहा है.  टेक्‍नोलॉजी राजस्‍व की अंतरराष्‍ट्रीय विकास दर में 52 फीसदी, स्‍टार्ट अफ फंड‍िंग में 43 फीसदी, शोध विकास फंड‍िंग में 51 फीसदी और पेटेंट में 87 फीसदी ह‍िस्‍सा अब एश‍िया का है.

ब्‍लूमबर्ग इन्‍नोवेशन इंडेक्‍स 2021  के तहत कोरिया दुनिया के 60 सबसे इन्‍नोवेटिव देशों की सूची में पहले स्‍थान पर है. अमेरिका शीर्ष दस से बाहर हो गया है. यही वजह है कि   महामारी के बाद न्‍यू इकोनॉमी में एश‍िया के दांव बड़े हो रहे हैं. शोध और विज्ञान का पुराना गुरु जापान जाग रहा है. मार्च 2022 तक जापान में एक विशाल यून‍िवर्स‍िटी इनडाउमेंट फंड काम करने लगेगा  जो करीब 90 अरब डॉलर की शोध पर‍ियोजनाओं को वित्‍तीय मदद देगा. चीन में अब शोध व विकास की क्षमतायें विश्‍व स्‍तर पर पहुंचने के आकलन लगातार आ रहे हैं.

अलबत्‍ता एश‍िया की सदी का सबसे कीमती  आंकड़ा यहां है. अगले एक दशक दुनिया की आधी खपत मांग एश‍िया के उपभोक्‍ताओं से आएगी. मेंकेंजी सहित कई संस्‍थाओं के अध्‍ययन बताते हैं क‍ि यह उपभोक्‍ता बाजार कंपनियों के लिए करीब 10 अरब डॉलर का अवसर है.  क्‍यों क‍ि 2030 तक एश‍िया की करीब 70 फीसदी आबादी उपभोक्‍ता समूह का हिस्‍सा होगी यानी कि वे 11 डॉलर ( 900 रुपये) प्रति द‍िन खर्च कर रहे होंगे. सन 2000 यह प्रतिशित 15 पर था. अगले एक दशक में 80 फीसदी मांग मध्‍यम व उच्‍च आय वर्ग की खपत से निकलेगी. 2030 तक करी 40 फीसदी मांग ड‍िजटिल नैटिव तैयार करेंगे.

दुनिया की कंपनियां इस बदलाव को करीब से पढ़ती रही हैं . कोवडि  से पहले एक दशक में प्रति दो डॉलर के नए विश्‍व निवेश में एक डॉलर एश‍िया में गया था और प्रत्‍येक तीन डॉलर में से एक चीन में लगाया गया. 2020 में दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में  एशि‍या से आए राजस्‍व का हि‍स्‍सा करीब 43 फीसदी था अलबत्‍ता इस मुकाल पर  एश‍िया का सबसे बड़ी कमजोरी भी उभर आती है

सबसे बड़ी दरार  

एश‍िया की कंपन‍ियों के मुनाफे पश्‍च‍ित की कंपनी से  कम हैं. 2005 से 2017 के बीच दुन‍िया में कारपोरेट घाटों में एश‍िया की कंपनियों का हिस्‍सा सबसे बड़ा था. यही हाल संकट में फंसी कंपनियों के सूचकांकों का है एश‍िया की करीब 24 फीसदी कंपन‍ियां ग्‍लोबल कंपन‍ियों के इकनॉमिक प्रॉफि‍ट सूचकांक में सबसे नीचे हैं. शीर्ष में केवल 14 फीसदी कंपन‍ियां एश‍िया से आती हैं. एश‍िया के पास एप्‍पल, जीएम, बॉश, गूगल, यूनीलीवर, नेस्‍ले, फाइजर जैसे चैम्‍पियन नहीं हैं.

शायद यही वजह थी  एश‍िया के मुल्‍कों की कंपन‍ियों ने सरकारों की ह‍िम्मत बढ़ाई और वे आरसीईपी के जहाज पर सवार  हो गए.  अगली सदी अगर एश‍िया की है तो कंपन‍ियों को इसकी अगुआई करनी है. मुक्‍त  व्‍यापार की विटामिन से लागत घटेगी, बाजार बढ़ेगा और शायद अगले एक दशक में एश‍िया में पास भी ग्‍लोबल चैम्‍प‍ियन होंगे.

आपसी रिश्‍ते तय और अपने लोगों के भव‍िष्‍य को सुरक्ष‍ित के करने के मामलों में यूरोप के सनकी और दंभ भरे नेताओं की तुलना में में एश‍िया के छोटे देशों ने ज्‍यादा समझदारी दि‍खाई है यही वजह है कि आरसीईपी के तहत  चीन जापान व कोरिया एक साथ आए हैं यह इन तीनों प्रत‍िस्‍पि‍र्ध‍ियों का यह पहला कूटनीतिक, व्‍यापार‍िक गठजोड़ है. यूरोप जब जंग के मैदान से लौटेगा तब उसे मंदी के अंधेरे को दूर करने के लिए बाजार की  एश‍िया से रोशनी मांगनी  पड़ेगी.

भारतीय राजनीति दक‍ियानूसी बहसों का नशा किये हुए है जबकि  इस नई उड़ान की पायलट की सीट चीन ने संभाल ली है. भारत के नेताओं को पता चले क‍ि, वह एश‍िया की जिस सदी के नेतृत्‍व का गाल बजाते रहते हैं. वह सदी  शुरु होती है अब ...  

Sunday, January 23, 2022

भविष्‍य की नापजोख

 



बात अक्‍टूबर 2021 की है कोविड का नया अवतार यानी ऑम‍िक्रॉन दुनिया के फलक पर नमूदार नहीं हुआ था, उस दौरान एक बेहद जरुरी खबर उभरी और भारत के नीति न‍िर्माताओं को थरथरा गई.

अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत के आर्थ‍िक विकास दर की अध‍िकतम रफ्तार का अनुमान घटा द‍िया था. यह छमाही या सालाना वाला आईएमएफ का आकलन नहीं था बल्‍क‍ि मुद्रा कोष ने भारत का पोटेंश‍ियल जीडीपी 6.25 फीसदी से घटाकर 6 फीसदी कर द‍िया यानी एक तरह से यह तय कर दिया था कि अगले कुछ वर्षों में भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में 6 फीसदी से ज्‍यादा की दर से नहीं दौड़ सकती.

हर छोटी बड़ी घटना पर लपककर प्रत‍िक्रिया देने वाली सरकार में पत्‍ता तक नहीं खड़का. सरकारी और निजी प्रवक्‍ता सन्‍नाटा खींच गए, केवल वित्‍त आयोग के अध्‍यक्ष एन के सिंह, आईएमएफ के इस आकलन पर अचरज जाह‍िर करते नजर आए.

अलबत्‍ता खतरे की घंट‍ियां बज चुकी थीं. इसलिए जनवरी में जब केंद्रीय सांख्‍य‍िकी संगठन वित्‍त वर्ष 2022 के  पहले आर्थिक अनुमान में बताया कि विकास दर केवल 9.2 फीसदी रहेगी तो बात कुछ साफ होने लगी.  यह आकलन आईएमएफ और रिजर्व बैंक के अनुमान (9.5%) से नीचे था. सनद रहे कि इसमें ऑमिक्रान का असर जोड़ा नहीं गया था यानी कि 2021-22 के मंदी और 21-22 की रिकवरी को मिलाकर चौबीस महीनों में भारत की शुद्ध  विकास  दर शून्‍य या अध‍िकतम एक फीसदी रहेगी.

इस आंकड़े की भीतरी पड़ताल ने हमें बताया कि आईएमएफ के आकलन पर सरकार को सांप क्‍यों सूंघ गया. पोटेंश‍ियल यानी अध‍िकतम संभावित जीडीपी दर, किसी देश की क्षमताओं के आकलन का विवाद‍ित लेक‍िन सबसे  दो टूक पैमाना है.  सनद रहे कि जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्‍पादन  किसी एक समय अवधि‍ में किसी अर्थव्‍यवस्‍था हुए कुल उत्‍पादन का मूल्‍य  जिसमें उत्‍पाद व सेवायें दोनों शाम‍िल हैं.

पोंटेश‍ियल जीडीपी का मतलब है कि एक संतुल‍ित महंगाई दर पर कोई अर्थव्‍यवस्‍था की अपनी पूरी ताकत झोंककर अध‍िकतम कितनी तेजी से दौड़ सकती है. मसलन  यूरोप की किसी कंपनी को भारत में निवेश करना हो तो वह भारत के  मौजूदा तिमाही व सालाना जीडीपी को बल्‍क‍ि उस भारत की अध‍िकतम जीडीपी वृद्ध‍ि क्षमता (पोटेंश‍ियल जीडीपी) को देखेगी क्‍यों कि सभी आर्थि‍क फैसले भविष्‍य पर केंद्रित होते हैं

यद‍ि जीडीपी इससे ज्‍यादा तेज  दौड़ेगा तो महंगाई तय है और अगर इससे नीचे है तो अर्थव्‍यवस्‍था सुस्‍त पड़ रही है. आईएमएफ मान रहा है कि मंदी के बाद अब भारत की अर्थव्‍यवस्‍था, महंगाई या अन्‍य समस्‍याओं को आमंत्रित किये बगैर,  अध‍िकतम छह फीसदी की दर से ज्‍यादा तेज नहीं  दौड़ सकती .  

मुद्रा कोष जैसी कई एजेंस‍ियों को क्‍यों लग रहा है कि भारत की विकास दर अब लंबी सुस्‍ती की गर्त में चली गई है. दहाई के अंक की ग्रोथ तो दूर की बात है भारत के लिए अगले पांच छह साल में औसत सात फीसदी की‍विकास दर भी मुश्‍क‍िल है ? कोविड की मंदी से एसा क्‍या टूट गया है जिससे कि भारत की आर्थिक क्षमता ही कमजोर पड़ रही है.

इन  सवालों के कुछ ताजा आंकडों में मिलते हैं बजट से पहला जिनका सेवन हमारे लिए बेहद जरुरी है

-         भारत की जीडीपी की विकास दर अर्थव्‍यवस्‍था में आय बढ़ने के बजाय महंगाई बढ़ने के कारण आई है . वर्तमान मूल्‍यों पर रिकवरी तेज है जबकि स्‍थायी मूल्‍यों पर कमजोर. यही वजह है कि खपत ने बढ़ने के बावजूद  सरकार का टैक्‍स संग्रह बढ़ा है

-         बीते दो साल में भारत के निर्यात वृद्धि दर घरेलू खपत से तेज रही है. इसमें कमी आएगी क्‍यों कि दुनिया में मंदी के बाद उभरी तात्‍कालिक मांग थमने की संभावना है. ग्‍लोबल महंगाई इस मांग को और कम कर रही है.

-         सितंबर 2021 तक जीएसटी के संग्रह के आंकडे बताते हैं कि बीते दो साल की रिकवरी के दौरान टैक्‍स संग्रह में भागीदारी में छोटे उद्योग बहुत पीछे रह गए हैं जबक‍ि 2017 में यह लगभग एक समान थे. यह तस्‍वीर सबूत है कि बड़ी कंपनियां मंदी से उबर गई हैं लेकिन छोटों की हालत बुरी है. इन पर ही सबसे भयानक असर भी हुआ था और इन्‍हीं में सबसे ज्‍यादा रोजगार निहित हैं.

-         यही वजह है कि गैर कृष‍ि रोजगारों की हाल अभी बुरा है. नए रोजगारों की बात तो दूर सीएमआई के आंकड़ों के अनुसान अभी कोविड वाली बेरोजगारी की भरपाई भी नहीं हुई है.  सनद रहे कह श्रम मंत्रालय के आंकड़े के अनुसार भारत में 92 फीसदी कंपनियों में कर्मचारियों की संख्‍या  100 से कम है और जबकि 70 फीसदी कंपनियों में 40 से कम कर्मचारी हैं.

भारतीय अर्थव्‍यस्‍था की यह तीन नई ढांचागत चुनौतियां का नतीजा है तक जीडीपी में तेज रिकवरी के आंकड़े बरक्‍स भारत में निजी खपत आठ साल के न्‍यूनतम स्‍तर पर यानी जीडीपी का 57.5 फीसदी है. दुनिया की एजेंसियां भारत की विकास की क्षमताओं के आकलन इसलिए घटा रही हैं.

पहली – खपत को खाने और लागत को बढ़ाने वाली महंगाई जड़ें जमा चुकी हैं. इसे रोकना सरकार के वश में नहीं है इसलिए मांग बढ़ने की संभावना सीमत है

दूसरा- महंगाई के साथ ब्‍याज दरें बढ़ने का दौर शुरु हेा चुका है. महंगे कर्ज और टूटती मांग के बीच कंपन‍ियों से नए निवेश की उम्‍मीद बेमानी है. सरकार बीते तीन बरस में अध‍िकतम टैक्‍स रियायत दे चुकी है

तीसरा- राष्‍ट्रीय अर्थव्‍यवस्‍था में केंद्र सरकार के खर्च का हिस्‍सा केवल 15 फीसदी है. बीते दो बरस में इसी खर्च की बदौलत अर्थव्‍यवस्‍था में थोड़ी हलचल दिखी  है लेकिन इस खर्च नतीजे के तौर सरकार का कर्ज जीडीपी के 90 फीसदी के करीब पहुंच रहा. इसलिए अब अगले बजटों में बहुत कुछ ज्‍यादा खर्च की गुंजायश नहीं हैं

 

इस बजट से पूरी द‍ुनिया बस  एक सवाल का जवाब मांगेगी वह सवाल यह है कि मंदी के गड्ढे से उबरने के बाद भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में दौड़ने की कितनी ताकत बचेगी. यानी भारत का पोटेंशि‍यल जीडीपी कि‍तना होगा. व्‍यावहारिक पैमानों पर भी  पोटेंश‍ियल जीडीपी की पैमाइश खासी कीमती है क्‍यों कि यही पैमाना  मांग, खपत, निवेश मुनाफों, रोजगार आदि के मध्‍यवाध‍ि आकलनों का आधार होता है.

यूं समझें कि भारत में न‍िवेश करने की तैयारी करने वाली किसी कंपनी से लेकर स्‍कूलों में पढ़ने वाले युवाओं का भविष्‍य अगली दो ति‍माही की विकास दर या चुनावों के नतीजों पर नहीं बल्‍क‍ि अगल तीन साल में  तेज विकास की तर्कसंगत क्षमताओं पर निर्भर होगा.

नोटबंदी और कई दूसरी ढांचागत चुनौत‍ियों के कारण  भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में चीन दोहराये जाने यानी दोहरे अंकों के विकास दर की उम्‍मीद तो 2016 में ही चुक गई थी. अब कोविड वाली मंदी से उबरने में भारत की काफी ताकत छीज चुकी है इसलिए अगर सरकार के पास कोई ठोस तैयारी नहीं दिखी तो भारत के लिए वक्‍त मुश्‍क‍िल होने वाला है. सनद रहे यद‍ि अगले अगले एक दशक में  भारत ने कम से  8-9 फीसदी की औसत विकास दर हासिल नहीं की तो मध्‍य वर्ग आकार  दोगुना करना बेहद मुश्‍कि‍ल  हो जाएगा. यानी कि भारत की एक तिहाई आबादी का जीवन स्‍तर बेहतर करना उनकी खपत की गुणवत्‍ता सुधार कभी नहीं हो सकेगा.

चुनावी नशे में डूबी राजनीति शायद इस भव‍िष्‍य को नहीं समझ पा रही है लेकिन भारत पर दांव लगाने वाली कंपन‍ियां मंदी की जली हैं, वे सरकारी दावों का छाछ भी फूंक फूंक कर पिएंगी.

 

Thursday, December 30, 2021

बेरोजागारी की गारंटी


 फरीदाबाद की फैक्‍ट्री में लेबर सुपरवाइजर था व‍िनोदओवर टाइम आदि मिलाकर 500-600 रुपये की द‍िहाड़ी बन जाती थी. कोविड लॉकडाउन के बाद से गांव में मनरेगा मजदूर हो गया.  अब तो सरपंच या मुखि‍या के दरवाजे पर ही लेबर चौक बन गया है, वि‍नोद वहीं हाज‍िरी लगाता है. मनरेगा वैसे भी केवल साल 180 दि‍न का काम देती थी लेक‍िन बीते दो बरस से विनोद के पर‍िवार को  साल में 50 द‍िन का  का काम भी मुश्‍क‍िल से मिला है.

आप विनोद को बेरोजगार कहेंगे या कामगार ?  

गौतम  को बेरोजगार कर गया लॉकडाउन. उधार के सहारे कटा वक्‍त. पुराना वाला रिटेल स्‍टोर तो नहीं खुला लेक‍िन खासी मशक्‍कत के बाद एक मॉल में काम म‍िल गया. वेतन पहले से 25 फीसदी कम है और काम के घंटे 8 की जगह दस हो गए हैं, अलबत्‍ता शहर की महंगाई उनकी जान निकाल रही है.

क्‍या गौतम मंदी से उबर गया है ?   

महामारी ने भारत में रोजगारों की तस्‍वीर ही नहीं आर्थ‍िक समझ भी बदल दी है. महंगाई और बेकारी के र‍िश्‍ते को बताने वाला फिल‍िप्‍स कर्व सिर के बल खड़ा हो कर नृत्‍य कर रहा है यहां बेकारी और महंगाई दोनों की नई ऊंचाई पर हैं इधर मनरेगा में कामगारों की भीड़ को सरकारी रोजगार योजनाओं की सफलता का गारंटी कार्ड बता द‍िया गया है. सब कुछ गड्ड मड्ड हो गया है .


यद‍ि हम यह कहें क‍ि मनरेगा यानी महात्‍मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना भारत में बेकारी का सबसे मूल्‍यवान सूचकांक हो गई है तो शायद आपको व्‍यंग्‍य की खनक सुनाई देगी लगेगा. लेकनि महामार‍ियां और महायुद्ध हमारी पुरानी समझ का ताना बाना तोड़ देते हैं इसलिए मनरेगा में अब भारत के वेलफेयर स्‍टेट  की सफलता नहीं भीषण नाकामी दिखती है

आइये आपको  भारत में बेरोजगारी के सबसे विकराल और विदारक सच से मिलवाते हैं. मनरेगा श्रम की मांग पर आधार‍ित योजना है इसल‍िए यह बाजार में रोजगार की मांग घटने या बढ़ने का सबसे उपयुक्‍त पैमाना है. दूसरा तथ्‍य यह कि  मनरेगा  अस्‍थायी रोजगार कार्यक्रम है इसलिए इसके जरिये बाजार में स्‍थायी रोजगारों की हालात का तर्कसंगत आकलन हो सकता है.

वित्‍त वर्ष 2021 के दौरान मनरेगा में लगभग 11.2 करोड़ लोगों यानी लगभग 93 लाख लोगों को प्रति माह काम मिला. 2020-21 का साल शहरों की गरीबी के गांवों में वापस लौटने का था, इसल‍िए मनरेगा में काम हास‍िल करने वालों की तादाद करीब 42 फीसदी बढ़ गई.  इस साल यानी वित्‍त वर्ष 2022 के पहले आठ माह (अप्रैल नवंबर 2021)  में प्रति माह करीब 1.12 करोड़ लोगों मनरेगा की शरण में पहुंचे,यानी पर मनरेगा पर निर्भरता में करीब 20 फीसदी की बढ़ोत्‍तरी.  

अब उतरते हैं इस आंकडे के और भीतर जो यह बताता है क‍ि अर्थव्‍यवस्‍था में कामकाज शुरु होने और रिकवरी के ढोल वादन के बावजूद श्रम बाजार की हालात बदतर बनी हुई है. श्रमिक शहरों में नहीं लौटे इसल‍िए मनरेगा ही गांवो में एक मात्र रोजगार शरण बनी हुई है.

मनरेगा के काम का हिसाब दो श्रेणि‍यों में मापा जाता है एक काम की मांग यानी वर्क डिमांडेड और एक काम की आपू‍र्ति अर्थात वर्क प्रोवाइडेड‍. नवंबर 2021 में मनरेगा के तहत काम की मांग (वर्क डिमांडेड) नवंबर 20 की तुलना में 90 फीसदी ज्यादा थी. मतलब यह क‍ि  रिकार्ड जीडीपी रिकवरी के बावजूद मनरेगा में काम की मांग कम नहीं हुई. इस बेरोजगारी का नतीजा यह हुआ क‍ि मनरेगा में दिये गए काम का प्रतिशत मांगे गए काम का केवल 61.5% फीसदी रह गया. यानी 100 में केवल 61 लोगों को काम मिला. यह औसत पहले 85 का था. यही वजह थी कि इस वित्‍त वर्ष में सरकार को मनरेगा को 220 अरब रुपये का अत‍िर‍िक्‍त आवंटन करना पड़ा.

मनरेगा एक और विद्रूप चेहरा है जो हमें रोजगार बाजार के बदलती तस्‍वीर बता रहा है. मनरेगा में काम मांगने वालों में युवाओं की प्रतिशत आठ साल के सबसे ऊंचे स्‍तर पर है. मनरेगा के मजदूरों में करीब 12 फीसदी लोग 18 से 30 साल की आयु वर्ग के हैं. 2019 में यह प्रतिशत 7.3 था. मनरेगा जो कभी गांव में प्रौढ़ आबादी के लिए मौसमी मजदूरी का जर‍िया थी वह अब बेरोजगार युवाओं की आखि‍री उम्‍मीद है.

तीसरा और सबसे चिंताजनक पहलू है मनरेगा की सबसे बड़ी विफलता. मनरेगा कानून के तहत प्रति परिवार कम से कम 100 दिन का काम या रोजगार की गारंटी है. लेक‍िन अब प्रति‍ परिवार साल में 46 दिन यानी महीने में औसत चार द‍िहाड़ी मिल पाती है. कोव‍िड से पहले यह औसत करीब 50 दिन का था. इस पैमाने पर उत्‍तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, कर्नाटक, तम‍िलनाडु जैसे राज्‍य हैं जहां साल में 39-40 द‍िन का रोजगार भी मुश्‍क‍िल है

सनद रहे क‍ि मनरेगा अस्‍थायी रोजगार का साधन है और दैन‍िक मजदूरी है केवल 210 रुपये. यदि एक परिवार को माह में केवल चार दिहाड़ी मिल पा रही है तो यह महीने में 1000 रुपये से भी कम है. यानी क‍ि विनोद जिसका जिक्र हमने शुरुआत में किया वह  गांव में गरीबी के टाइम बम पर बैठकर महंगाई की बीड़ी  जला रहा है. यही वजह है कि गांवों से साबुन तेल मंजन की मांग नहीं निकल रही है.  

अब बारी गौतम वाली बेरोजगारी की.  

वैसे महंगाई और बेरोजगारी से याद आया क‍ि एक थे अल्‍बन विल‍ियम हाउसगो फ‍िल‍िप्‍स वही फ‍िल‍िप्‍स कर्व वाले. बड़ा ही रोमांचक जीवन था फ‍िलि‍प्‍स का. न्‍यूजीलैंड किसान पर‍िवार में पैदा हुए. पढ़ ल‍िख नहीं पाए तो 1937 में  23 साल की उम्र में दुन‍िया घूमने न‍िकल पड़े लेक‍िन जा रहे थे चीन पहुंच गए जापान यानी युद्ध छिड़ गया तो जहाज ने शंघाई की जगह योकोहामा ले जा पटका. वहां से कोरिया मंचूर‍िया रुस होते हुए लंदन पहुंचे और बिजली के इंजीन‍ियर हो गए.

फिलि‍प्‍स दूसरे वि‍श्‍व युद्ध में रायल ब्रिटिश फोर्स का हिस्‍सा बन कर पहुंच गए स‍िंगापुर. 1942 में जब जापान ने जब स‍िंगापुर पर कब्‍जा कर लिया तो  आखि‍री जहाज पर सवार हो कर भाग रहे थे कि जापान ने हवाई हमला कर दिया.  जहाज ने जावा पहुंचा दिया जहां तीन साल जेल में रहे और फिर वापस न्‍यूजीलैंड पहुंचे. तंबाकू के लती और अवसादग्रस्‍त फि‍ि‍लप्‍स ने अंतत: वापस लंदन लौटे और लंदन स्‍कूल ऑफ इकोनॉमिक्‍स में भर्ती हो गए. जहां उन्‍होंने 1958 में महंगाई और बेकारी को रि‍श्‍ते के समझाने वाला स‍िद्धांत यानी फि‍ल‍िप्‍स कर्व प्रत‍िपाद‍ित कि‍या.

फ‍िल‍िप्‍स कर्व के आधार पर तो गौतम को पहले से ज्‍यादा वेतन म‍िलना चाहिए क्‍यों क‍ि यह सिद्धांत कहता है कि उत्‍पादन बढ़ाने के लिए वेतन बढ़ाने होते हैं जिससे महंगाई बढ़ती है जबक‍ि यदि उत्‍पादन कम है वेतन कम हैं तो महंगाई भी कम रहेगी.

महामारी के बाद भारत की अर्थव्‍यवस्‍था अजीब तरह से बदल रही है. यहां मंदी के बाद उत्‍पादन बढ़ाने की जद्दोहजहद तो दि‍ख रही है लेकनि गौतम जैसे लोग पहले से कम वेतन काम कर रहे हैं. जबक‍ि और हजार वजहों से महंगाई भड़क रही है बस कमाई नहीं बढ़ रही है.

भारत की ग्रामीण और नगरीय अर्थव्‍यवस्‍थाओं में   कम वेतन की लंबी खौफनाक ठंड शुरु हो रही है. सरकारी रोजगार योजनाओं में बेंचमार्क मजदूरी इतनी कम है कि अब इसके असर पूरा रोजगार बाजार बुरी तरह मंदी में आ गया है. मुसीबत यह है कि कम पगार की इस सर्दी के बीच महंगाई की शीत लहर चल रही है यानी कि अगर अर्थव्‍यवस्‍था में मांग बढ़ती
भी है और वेतन में कुछ बढ़त होती है तो वह पहले से मौजूदा भयानक महंगाई को और ज्‍यादा ताकत देगी या लोगों की मौजूदा कमाई में बढ़ोत्‍तरी चाट जाएगी.

क्‍या बजटोन्‍मुख सरकार के पास कोई इलाज है इसका ? अब या तो महंगाई घटानी होगी या कमाई बढ़ानी होगी, इससे कम पर भारत की आर्थि‍क पीड़ा कम होने वाली नहीं है.

  

Wednesday, December 22, 2021

ये क्‍या हुआ, कैसे हुआ !


 कंपन‍ियां, बैकों का कर्ज चुका कर हल्‍की हो रही हैं और आम परिवार कर्ज में डूब कर जिंदगी खत्‍म कर रहे हैं. छोटे उद्यमी आत्‍महत्‍या चुन रहे हैं और बड़ी कंपन‍ियां अधिग्रहण कर रही हैं गुरु जी अखबार किनारे रखकर कबीर की उलटबांसी बुदबुदा उठे ... एक अचंभा देखा भाई, ठाढ़ा सिंघ चरावे गाई... 

इसी बीच उनके मोबाइल पर आ गि‍री वर्ल्‍ड इनइक्‍व‍िल‍िटी रिपोर्ट, जिसे मशहूर अर्थविद तोमा प‍िकेटी व तीन अर्थव‍िदों ने बनाया है. रिपोर्ट चीखी, आय असमानता में भारत दुन‍िया में सबसे आगे न‍िकल रहा है. एक फीसदी लोगों के पास 33 फीसदी संपत्‍ति‍ है सबसे नि‍चले दर्जे वाले  50 फीसदी वयस्‍क लोगों की औसत सालाना कमाई केवल 53000 रुपये है.

गुरु सोच रहे थे कि काश, भारतीय पर‍िवारों, को कंपन‍ियों जैसी कुछ नेमत मिल जाती !

यद‍ि आपको कंपन‍ियों और पर‍िवारों की तुलना असंगत लगती है तो  याद  कीजिये भारत में आम लोग कोविड के दौरान क्‍या कर रहे थे और क्‍या हो रहा था कंपनियों में? लोग अपने जेवर गिरवी रख रहे थे, रोजगार खत्‍म होने से बचत खा रहे थे या कर्ज उठा रहे थे और दूसरी तरफ कंपन‍ियों को स‍ितंबर 2020 की तिमाही में 60 त‍िमाहियों से ज्‍यादा मुनाफा हुआ था

महामारी की गर्द छंटने के बाद हमें दि‍खता है क‍ि भारत की  कारपोरेट और परिवार यानी हाउसहोल्‍ड अर्थव्‍यवस्थायें एक दूसरे की विपरीत दि‍शा में चल रही हैं. यानी असमानता की दरारों में पीपल के नए बीज.

किसने कमाया क‍िसने गंवाया

वित्‍त वर्ष 2020-21 में जब जीडीपी, कोवडि वाली मंदी के अंधे कुएं में गिर गया तब शेयर बाजार में सूचीबद्ध भारतीय कंपन‍ियों के मुनाफे र‍िकार्ड 57.6 फीसदी बढ़ कर 5.31 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गए. जो जीडीपी के अनुपात में 2.63 फीसदी है यानी (नकारात्‍मक जीडीपी के बावजूद) दस साल में सर्वाध‍िक.

यह बढत जारी है. इस साल की पहली छमाही का मुनाफा बीते बरस के कुल लाभ 80% है. कंपन‍ियों के प्रॉफ‍िट मार्ज‍िन 10.35 फीसदी की रिकार्ड ऊंचाई पर हैं.

पर‍िवारों की अर्थव्‍यवस्‍थाओं के ल‍िए बीता डेढ़ साल सबसे भयावह रहा. रिकार्ड बेरोजागारी की मार से लगभग 1.26 करोड़ नौकर‍ीपेशा काम गंवा बैठे. भारत में लेबर पार्टीस‍िपेशन दर ही 40 से नीचे चली गई यानी लाखों लोग रोजगार बाजार से बाहर हो गए. जबक‍ि 2020-21 के पहले छह माह में सभी (शेयर बाजार सहितकंपनियों के मुनाफे करीब 24 फीसद बढ़े अलबत्ता वेतन में बढ़ोतरी नगण्य थी (सीएमआईई)

सीएसओ के मुताबिक 2020-21 में प्रति व्यक्ति आय 8,637 रुपए घटी हैनिजी और  असंगठित क्षेत्र में बेरोजगारी और वेतन कटौती के कारण आयमें 16,000 करोड़ रुपए की कमी आई है. (एसबीआइ रिसर्च)

कमाई के आंकड़ों की करीबी पड़ताल बताती है क‍ि अप्रैल से अगस्‍त 2021 के बीच भी गांवों में गैर मनरेगा मजदूरी में कोई खास बढत नहीं हुई. 2020 का साल तो मजदूरी थी ही नहीं, केवल मनरेगा में काम मिला था.

इस बीच आ धमकी महंगाई. नोटबंदी के बाद से वेतन मजदूरी में बढ़ोत्‍तरी महंगाई से पिछड़ चुकी थी. कोव‍िड के दौरान लोगों ने उपचार पर न‍ियम‍ित खर्च के अलावा 66000 करोड़ रुपये किये. उपभोग खर्च में स्वास्थ्य का हिस्‍सा पांच फीसदी के औसत से बढ़कर एक साल में 11 फीसद हो गया. पेट्रोल डीजल की महंगाई के कारण सुव‍िधा बढ़ाने वाले उत्‍पाद सेवाओं पर खर्च बीते छह माह में करीब 60 फीसद घटा द‍िया (एसबीआइ रिसर्च)

किस्‍सा कोताह क‍ि बाजार में कहीं मांग नहीं थी. लेक‍िन इसके बाद भी कंपनियों ने रिकार्ड मुनाफे कमाये तो इसलिए क्‍यों क‍ि उन्‍हें 2018 में कर रियायतें मिलीं, खर्च में कमी हुई, रोजगारों की छंटनी और मंदी के कारण कमॉडिटी लागत बचत हुई इसलिए शेयर बाजारों में जश्‍न जारी है.

गुरु ठीक ही सोच रहे हैं क‍ि काश कम से कुछ आम भारतीय पर‍िवार इन कंपन‍ियों से जैसे हो जाते. 

कौन डूबा कर्ज में

बीते दो साल में जब सरकार के इशारे पर रिजर्व बैंक जमाकर्ताओं से कुर्बानी मांग रहा था यानी कर्ज सस्‍ता कर रहा था और जमा पर ब्‍याज दर घट रही थी तब मकसद यही था कि सस्‍ता कर्ज लेकर कंपन‍ियां नि‍वेश करेंगी, रोजगार मिलेगा और कमाई बढ़ेगी लेकिन हो उलटा हो गया.

कोविड कालीन मुनाफों का फायदा लेकर शीर्ष 15 उद्योगों की 1000 सूचीबद्ध कंपन‍ियों ने वित्‍त वर्ष 2021 अपने कर्ज में 1.7 लाख करोड़ की कमी की. इनमें भी रिफाइन‍िंग, स्‍टील, उर्वरक, कपड़ा, खनन की कंपनियों बड़े पैमानों पर बैंकों को कर्ज वापस चुकाये.. यहीं से सबसे ज्‍यादा रोजगारों की उम्‍मीद थी और जहां न‍िवेश हुआ ही नहीं.

कैपिटल लाइन के आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल 20 से मार्च 21 के बीच  भारत के कारपोरेट क्षेत्र का सकल कर्ज करीब 30 फीसदी घट गया. शुद्ध कर्ज में 17 फीसदी कमी आई.

तो फिर कर्ज में डूबा कौन ? वही पर‍िवार जिनके पास कमाई नहीं थी.

कोविड से पहले 2010 से 2019 में परिवारों पर कुल कर्ज उनकी खर्च योग्य आय के 30 फीसद से बढ़कर 44 फीसद हो चुका था (मोतीलाल ओसवाल रि‍सर्च)

कोव‍िड के दौरान 2020-21 में भारत में जीडीपी के अनुपात में पर‍िवारो का कर्ज 37.3 फीसदी हो गया जो इससे पहले साल 32.5 फीसदी था. जबकि जीडीपी के अनुपात में पर‍िवारों की शुद्ध वित्‍तीय बचत (कर्ज निकाल कर)  8.2 फीसदी पर है जो लॉकडाउन के दौरान तात्‍कालिक बढ़त के बाद वापस स‍िकुड़ गई.

 

कर्ज के कारण भोपाल में परि‍वार की खुदकुशी या छोटे उद्म‍ियों की बढ़ती आत्‍महत्‍या की घटनाओं को आंकड़ों में तलाशा जा सकता है. कई वर्ष में पहली बार एसा हुआ जब 2021 में वह कर्ज बढ़ा जिसके बदले कुछ भी गिरवी नहीं था. जाहिर है एसा कर्ज महंगा और जोखिम भरा होता है. बीते साल की चौथी तिमाही तक गैर आवास कर्ज में बढ़त 11.8 फीसदी थी जो मकानों के ल‍िए कर्ज से करीब चार फीसदी ज्‍यादा है. इस साल जून में गोल्‍ड लोन कंपन‍ियों ने 1900 करोड रुपये के  जेवरात की नीलामी की जो उनके पास गिरवी थे.

टैक्‍स की बैलेंस शीट

हमें हैरत होनी ही चाह‍िए कि भारत में अब कंपन‍ियां कम और लोग ज्‍यादा टैक्‍स देते हैं. इंडिया रेटिंग्‍स की रिपोर्ट बताती है क‍ि 2010 में केंद्र सरकार के प्रति सौ रुपए के राजस्व में  कंपन‍ियों से 40 रुपए  और  आम  लोगों  से  60  रुपए  आते  थे. अब 2020 में कंपनियां केवल 25 रुपए और आम परि‍वार 75  रुपए का टैक्‍स दे रहे हैं.  2018 में कॉर्पोरेट टैक्स में 1.45 लाख करोड़ रुपए की  रियायत दी गई है.

2010 से 2020 के बीच भारतीय परिवारों पर टैक्स (इनकम टैक्‍स और जीएसटी) का बोझ 60 से बढकर 75 फीसदी हासे गया. पिछले सात साल पेट्रो उत्‍पादों से टैक्स संग्रह 700 फीसद बढ़ा हैयह बोझ जीएसटी के बाद भी नहीं घटा. इस हिसाब में राज्‍यों के टैक्‍स शामि‍ल नहीं हैं जो लगातार बढ़ रहे हैं.

भारत और दुन‍िया में अब बड़ा फर्क आ चुका है. कोविड के दौरान भारतीय सबसे ज्‍यादा गरीब हुए. ताजा अध्‍ययन बताते हैं क‍ि अमेरिका, कनाडाऑस्ट्रेलिया व यूरोप में सरकारों ने सीधी मदद के जरिए परिवारों की कमाई में कमी नहीं होने दी. जबक‍ि भारत में राष्‍ट्रीय आय का 80 फीसद नुक्सान परिवार (और छोटी कंपन‍ियों) में खाते में गया.

कंपनियां कमायें और आम लोग गंवाये. कर्ज में डूबते जाएं. यह किसी भी आर्थि‍क मॉडल में चल ही नहीं सकता. परिवारों और कंपन‍ियों की अर्थव्‍यवस्‍थायें एक दूसरे के विपरीत दि‍शा चलना आर्थ‍िक बिखराव की शर्त‍िया गारंटी है. भारत के नी‍ति‍ नियामकों को यह समझने में ज‍ितनी देर लगेगी, हमारा भविष्‍य उतना ही ज्‍यादा अन‍िश्‍चित हो जाएगा