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Wednesday, April 29, 2015

नया एशियाई टाइगर !


चीन-पाक समझौते से एक नया पाकिस्तान भारत से मुकाबिल होगा. इस नए समीकरण के बाद भारत के लिए, दक्षिण एशिया की कूटनीति में शर्तें तय करने के ज्यादा विकल्प नहीं बचे हैं.

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की पाकिस्तान यात्रा शायद इसलिए टल रही थी क्योंकि दोनों मुल्क जिस करवट की तैयारी कर रहे थे, वह यकीनन बहुत बड़ी होने वाली थी. पाकिस्तान को अपना आर्थिक भविष्य चीन के हाथ सौंपने से पहले, अमेरिका से दूरी बनाने का साहस जुटाना था जबकि चीन को दुनिया के सबसे जोखिम भरे देश में दखल की रणनीति पर मुतमईन होना था. सब कुछ योजना के मुताबिक हुआ और जिनपिंग और नवाज शरीफ के बीच समझौते के साथ ही दक्षिण एशिया की कूटनीतिक बिसात सिरे से बदल गई. भारत इस बदलाव को चाह कर भी नहीं रोक सका. अमेरिका ने रोकने में रुचि नहीं ली जबकि हाशिये पर सिमटे रूस को ज्यादा मतलब नहीं था. चीन-पाक समझौते से अब न केवल एक नया पाकिस्तान भारत से मुकाबिल होगा बल्कि दिल्ली की सरकार को देश की सीमा से कुछ सौ किलोमीटर दूर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर सहित काश्गर से ग्वादर तक चीनी कंपनियों की धमाचौकड़ी के लिए तैयार रहना होगा.
  46 अरब डॉलर कितने होते हैं? अगर यह सवाल पाकिस्तान से संबंधित हो तो जवाब है कि यह आंकड़ा पाकिस्तान के जीडीपी के 20 फीसदी हिस्से के बराबर है. यही वह निवेश है जिसके समझौते पर जिनपिंग और नवाज शरीफ ने दस्तखत किए हैं. समझना मुश्किल नहीं है कि चीन ने पाकिस्तान की डूब चुकी अर्थव्यवस्था को न केवल गोद में उठा लिया है बल्कि यह निवेश जिस प्रोजेक्ट में हो रहा है, उसके तहत लगभग पूरा पाकिस्तान चीन के प्रभाव में होगा.
   
दुनिया के सबसे बड़े हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट की निर्माता और 60 अरब डॉलर की संपत्तियां संभालने वाली चीन की थ्री गॉर्जेज कॉर्पोरेशन की अगुआई में जब चीन की विशाल सरकारी कंपनियां पाकिस्तान के इतिहास की बड़ी आर्थिक व निर्माण परियोजना शुरू करेंगी तो उनका शोर दिल्ली तक दस्तक देगा. चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर अपने तरह की पहली परियोजना है जिसमें दो मुल्क अपनी आर्थिक संप्रभुता को साझा कर रहे हैं. काराकोरम राजमार्ग पर स्थित उत्तर-पश्चिमी चीनी शहर काश्गर को पाकिस्तान के दक्षिणी बंदरगाह ग्वादर से जोड़ने वाले 3,000 किलोमीटर के इस गलियारे में सड़कों, रेलवे, तेल-गैस पाइपलाइन, औद्योगिक पार्क का नेटवर्क बनेगा, जिसमें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर भी शामिल है. ग्वादर को हांगकांग की तर्ज पर फ्री ट्रेड जोन में बदला जाएगा. लाहौर, मुल्तान, गुजरांवाला, फैसलाबाद, रावलपिंडी और कराची में मेट्रो भी कॉरिडोर का हिस्सा हैं. चीन ने अपनी पांच दिग्गज सरकारी कंपनियों, थ्री गॉर्जेज, चाइना पावर इंटरनेशनल, हुआनेंग ग्रुप, आइसीबीसी कॉर्प, जोनर्जी कॉर्प को पाकिस्तान में उतार दिया है. इनके पीछे इंडस्ट्रियल ऐंड कॉमर्शियल बैंक ऑफ चाइना के संसाधनों की ताकत होगी.
   
ईरान-पाकिस्तान के बीच बनने वाली गैस पाइपलाइन को भी चीन की सरपरस्ती मिल गई है. इसका 560 मील लंबा ईरानी हिस्सा (फारस की खाड़ी में असलुया से बलूचिस्तान सीमा तक) तैयार है, अब पाकिस्तान को ग्वादर तक 485 मील पाइपलाइन बिछानी है. करीब दो अरब डॉलर की इस परियोजना की 85 फीसद लागत चीन उठाएगा. यह पाइपलाइन पाकिस्तान को 4,500 मेगावाट की बिजली क्षमता देगी जो पूरे मुल्क की बिजली कमी को खत्म कर देगी.    देश के आर्थिक व रणनीतिक भविष्य को चीन को सौंपने का फैसला यकीनन बड़ा था लेकिन शरीफ को इसमें बहुत मुश्किल नहीं हुई होगी क्योंकि अमेरिका ने 60 वर्ष के रिश्तों में पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को इतनी बड़ी सौगात नहीं दी जो चीन ने एक बार में दे दी. शरीफ ने चीन से पाकिस्तान की किस्मत जोड़कर बहुत कुछ साध लिया है. पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था लगभग डूब चुकी है. निवेश नदारद है और विदेशी मदद भी खत्म हो गई है. चीन परियोजनाओं के तेज क्रियान्वयन के लिए मशहूर है. पूरा कॉरिडोर अगले 15 साल में तैयार होना है जबकि चीन-ईरान पाइपलाइन तो 2017 से काम करने लगेगी. अगर सब कुछ ठीक चला तो अगले कुछ महीनों में पाकिस्तान में तेज निर्माण शुरू हो जाएगा जो अर्थव्यवस्था को गति देने के साथ शरीफ की सियासी मुसीबत कम करेगा. चीन से दोस्ती, शरीफ को सेना का दबदबा घटाने और आतंकवादी गतिविधियां सीमित करने में भी मदद कर सकती है. चीन के युआन अगले पांच साल में पाकिस्तान का चेहरा बदल सकते हैं.
   
आतंक की फैक्टरी, अस्थिर सरकारों और सेना के परोक्ष राज वाले एक जोखिम भरे देश में इतना बड़ा निवेश करने की हिक्वमत केवल चीन ही कर सकता था और विशेषज्ञों की मानें तो जिनपिंग ऐसा करने के लिए उत्सुक भी थे. अफगानिस्तान, ईरान व पश्चिम एशिया के खनिज समृद्ध इलाके चीन की आर्थिक महत्वाकांक्षाओं का नया लक्ष्य हैं और जहां अमेरिका व रूस की रुचि खत्म हो रही है. पाकिस्तान में यह निवेश दक्षिण एशिया में भारत की रणनीति को सीमित करेगा और चीन को अफगानिस्तान से लेकर पश्चिम एशिया तक मुक्त उड़ान की सुविधा देगा. इसके अलावा पाकिस्तान चीन के लिए सस्ते उत्पादन का केंद्र बनेगा और ईरान के गैस व तेल चीन तक लाने का रास्ता भी तैयार करेगा.
   
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कूटनीतिक संकल्प सराहनीय हैं लेकिन उनकी ग्लोबल उड़ानों के नतीजे सामने आने से पहले ही चीन व पाकिस्तान ने भारतीय उपमहाद्वीप के कूटनीतिक समीकरण बदल दिए हैं. भारत के लिए दक्षिण एशिया की कूटनीति में शर्तें तय करने के ज्यादा विकल्प नहीं बचे हैं. म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव और बांग्लादेश के आर्थिक हितों को संजोने के बाद चीन ने पाकिस्तान को भी हथेली पर उठा लिया है. मोदी को अगले माह बीजिंग जाने से पहले यह तय करना होगा कि भारत इस नए चाइनीज ड्रीम के साथ कैसे सामंजस्य स्थापित करेगा.  कूटनीति की दुनिया में शी जिनपिंग की मुहावरेदार भाषा नई नहीं है फिर भी इस बार जब उन्होंने पाकिस्तान को भविष्य का एशियाई टाइगर (पाकिस्तान के डेली टाइम्‍स में छपा उनका लेख) कहा तो चौंकने वाले कम नहीं थे क्योंकि दुनिया की किसी भी महाशक्ति ने पाकिस्तान में यह संभावना कभी नहीं देखी. चीन की दोस्ती में पाकिस्तान शेर बनेगा या नहीं, यह कहना मुश्किल है लेकिन इस बात से इत्तेफाक करना होगा कि चीनी डीएनए के साथ पाकिस्तान की गुर्राहट और चाल जरूर बदल जाएगी.



Monday, September 29, 2014

प्रतिस्पर्धी कूटनीति का रोमांच



मोदी ने भारत की ठंडी कूटनीति को तेज रफ्तार फिल्मों के प्रतिस्पर्धी रोमांच से भर दिया है. यह बात दूसरी है कि उनके कूटनीतिक अभियान चमकदार शुरुआत के बाद यथार्थ के धरातल पर आ टिके हैं. लेकिन अब बारी कठिन अौर निर्णायक कूटनीति की है.


ताजा इतिहास में ऐसे उदाहरण मुश्किल हैं कि जब कोई राष्ट्र प्रमुख अपने पड़ोसी की मेजबानी में संबंधों का कथित नया युग गढ़ रहा हो और उसकी सेना उसी पड़ोसी की सीमा में घुसकर तंबू लगाने लगे. लेकिन यह भी कम अचरज भरा नहीं था कि एक प्रधानमंत्री ने अपनी पहली विदेश यात्रा में ही दो पारंपरिक शत्रुओं में एक की मेजबानी का आनंद लेते हुए दूसरे को उसकी सीमाएं (चीन के विस्तारवाद पर जापान में भारतीय प्रधानमंत्री का बयान) बता डालीं. हैरत तब और बढ़ी जब मोदी ने जापान से लौटते ही यूरेनियम आपूर्ति पर ऑस्ट्रेलिया से समझौता कर लिया. परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत न करने वाले किसी देश के साथ ऑस्ट्रेलिया का यह पहला समझौता, भारत की नाभिकीय ऊर्जा तैयारियों को लेकर जापान के अलग-थलग पडऩे का संदेश था. बात यहीं पूरी नहीं होती. चीन के राष्ट्रपति जब साबरमती के तट पर दोस्ती के हिंडोले में बैठे थे तब हनोई में, राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की मौजूदगी में भारत, दक्षिण चीन सागर में तेल खोज के लिए विएतनाम के साथ करार कर रहा रहा था और चीन का विदेश मंत्रालय इसके विरोध का बयान तैयार कर था.
दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सौ दिनों में भारत की ठंडी कूटनीति को तेज रफ्तार फिल्मों के प्रतिस्पर्धी रोमांच से भर दिया है. अमेरिका उनके कूटनीतिक सफर का निर्णायक पड़ाव है. वाशिंगटन में यह तय नहीं होगा कि भारत में तत्काल कितना अमेरिकी निवेश आएगा बल्कि विश्व यह देखना चाहेगा कि भारतीय प्रधानमंत्री, अपनी कूटनीतिक तुर्शी के साथ भारत को विश्व फलक में किस धुरी के पास स्थापित करेंगे.
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Tuesday, September 16, 2014

चीन का डिजिटल डिजाइन


पिछले साल नवंबर में जबभारत की सियासत बड़े परिवर्तन के लिए पर तोल रही थी, ठीक उसी वक्त बीजिंग में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपने तीसरे प्लेनम में राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ अर्थव्यवस्था को रिफ्रेश करने की जुगत में लगी थी. चीन के सुधार पुरोधा देंग जियाओपिंग ने आर्थिक सुधारों को चीन की (माओ की क्रांति के बाद) दूसरी क्रांति भले ही कहा हो लेकिन देंग से जिनपिंग तक आते-आते 35 साल में चीनी नेतृत्व को यह एहसास हो गया कि ज्यादा घिसने से सुधारों का मुलम्मा भी छूट जाता है. इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी की महाबैठक से सुधारों का जो नया एजेंडा निकला वह ‘‘मेड इन चाइना’’ की ग्लोबल धमक पर नहीं बल्कि देश की भीतरी तरक्की पर केंद्रित था. दुनिया अचरज में थी कि विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अपनी देसी इकोनॉमी में ऐसा क्या करने वाली है जिससे 1.35 अरब लोगों की आय में बढ़ोतरी होती रहेगी? संयोग से राष्ट्रपति जिनपिंग के दिल्ली पहुंचने से पहले दुनिया को चीन की ‘‘तीसरी क्रांति’’ के एजेंडे का मोटा-मोटा खाका मिल गया है. चीन 2025 तक अपने जीडीपी को दोगुना करने वाला है. यह करिश्मा इंटरनेट इकोनॉमी से होगा
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