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Sunday, September 16, 2018

तेल निकालने की नीति


पेट्रोल-डीजल की कीमतों की आग आसमान छू रही है!

छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनावों से पहले सरकारी खर्च पर मोबाइल बांटे जा रहे हैं!

अगर महंगे पेट्रोल-डीजल की जड़ तलाशनी हो तो हमें इन दो अलग-अलग घटनाक्रमों का रिश्ता समझना होगा.

हम फिजूल खर्च सरकारों यानी असंख्य मैक्सिमम गवर्नमेंट’ के चंगुल में फंस चुके हैं. जो बिजलीपेट्रोल-डीजल और गैस सहित पूरे ऊर्जा क्षेत्र को दशकों से एक दमघोंट टैक्स नीति निचोड़ रही हैं. कच्चे तेल की कीमत बढ़ते ही यह नीति जानलेवा हो जाती है. पेट्रो उत्पादों पर टैक्स की नीति शुरू से बेसिर-पैर है. कच्चे तेल की मंदी के बीच लगातार एक्साइज ड्यूटी बढ़ाकर मोदी सरकार ने इसे और बिगाड़ दिया.

भारत में राजस्व को लेकर सरकारें (केंद्र व राज्य) आरामतलब हैं और खर्च को लेकर बेफिक्र. उनके पास देश में सबसे ज्यादा खपत वाले उत्पाद को निचोडऩे का मौका मौजूद है. चुनाव के आसपास उठने वाली राजनैतिक बेचैनी के अलावा पेट्रो उत्पाद हमेशा से टैक्स पर टैक्स का खौफनाक नमूना है जो भारत को दुनिया में सबसे महंगी ऊर्जा वाली अर्थव्यवस्था बनाता है.

पेट्रोलियम उद्योग पर टैक्स की कहानी एक्साइज व वैट (पेट्रोल-डीजल पर 25 से 38 रुपए प्रति लीटर का टैक्स) तक सीमित नहीं है. डीजल पर रोड सेसपेट्रो मशीनरी पर कस्टम ड्यूटी व जीएसटीतेल कंपनियों पर कॉर्पोरेट टैक्सउनसे सरकार को मिलने वाले लाभांश पर टैक्सऔर तेल खनन पर राज्यों को रायल्टीज! यह सभी तेल की महंगाई का हिस्सा हैं.

तो फिर कच्चे तेल की महंगाई और रुपए की छीजती ताकत के बीच कैसे कम होंगी कीमतें?

न घटाइए एक्साइज और वैटलेकिन यह तो कर सकते हैं:

•   तेल व गैस का पूरा बाजार सरकारी तेल कंपनियों के हाथ में है. पांचों पेट्रो कंपनियां (ओएनजीसीआइओसीएचपीसीएलबीपीसीएलगेल) सरकार को सबसे अधिक कॉर्पोरेट टैक्स देने वाली शीर्ष 20 कंपनियों में शामिल हैं. ये कंपनियां हर साल सरकार को 17,000 करोड़ रु. का लाभांश देती हैं. टैक्स और लाभांश को टाल कर कीमतें कम की जा सकती हैं.

•   सरकारी तेल कंपनियों में लगी पूंजी करदाताओं की है. अगर पब्लिक सेक्टर पब्लिक का है तो उसे इस मौके पर काम आना चाहिए.

भारत में पेट्रो उत्पाद हमेशा से महंगे हैंअंतरराष्ट्रीय बाजार में तेजी के साथ बस वे ज्यादा महंगे हो जाते हैं. पेट्रो (डीजलपेट्रोलसीएनजीएटीएफ) ईंधन भारत में सबसे ज्यादा निचोड़े जाने वाले उत्पाद हैं. यूं ही नहीं केंद्र सरकार का आधा एक्साइज राजस्व पेट्रो उत्पादों से आता है. कुल इनडाइरेक्ट टैक्स में इनका हिस्सा 40 फीसदी है. राज्यों के राजस्व में इनका हिस्सा 50 फीसदी तक है. राज्यों के खजाने ज्यादा बदहाल हैं इसलिए वहां पेट्रो उत्पादों पर टैक्स और ज्यादा है.

अगर तेल पर लगने वाले सभी तरह के टैक्स को शामिल किया जाए तो दरअसल पांच प्रमुख तेल कंपनियां केंद्र व राज्य सरकारों के लगभग आधे राजस्व की जिम्मेदार हैं और हम सुनते हैं कि सरकारों ने राजकोषीय सुधार किए हैं.

भारत में सरकारों के खजाने वस्तुत: पेट्रो उत्पादों से चलते हैं. सरकारों की तकरीबन आधी कमाई उन पेट्रो उत्पादों से होती है जिनका महंगाई और कारोबारी लागत से सीधा रिश्ता है. सुई से लेकर जहाज तक उत्पा‍दन और बिक्री आधे राजस्व में सिमट जाती है.

2004 में जीएसटी की संकल्पना इस बुनियाद पर टिकी थी कि सरकारें टैक्स कम करेंगी और अपना खर्च भी. सरकारों को घाटे नियंत्रित करने थे और टैक्स कम होने से खपत बढ़ाकर राजस्व बढ़ाना था. कांग्रेस और तब की राज्य  सरकारें (भाजपा सहित) पेट्रोल-डीजल को जीएसटी में शामिल करने पर सहमत नहीं थीं और वही हालात आज भी हैं क्योंकि सरकारें अपने राजस्व के सबसे बड़े स्रोत पर मनमाना टैक्स‍ लगाना चाहती हैं. जीएसटी में टैक्सों को लागत का हिस्सा मानकर उनकी वापसी (इनपुट टैक्स क्रेडिट) होती है. अगर पेट्रो उत्पाद इस व्यवस्था के तहत आए तो फिर एक तरफ टैक्स घटाना होगा और दूसरी ओर रिफंड भी देने होंगे क्योंकि ईंधन तो हर कारोबारी लागत में शामिल है.

भूल जाइए पेट्रोल-डीजल और बिजली निकट भविष्य में भी जीएसटी में शामिल हो पाएंगे क्योंकि भारत की ऊर्जा ईंधन टैक्सेशन नीति क्रूरनिर्मम और तर्कहीन है. ध्यान रखिए कि हमारा तेल निकालने के लिए वेनेजुएला जिम्मेदार नहीं है. अगर सरकारों ने खर्च नहीं घटाया तो तेल और महंगाई हमें हमेशा निचोड़ती रहेगी.



Monday, April 1, 2013

सर पर टंगा टाइम बम




विदेशी मुद्रा सुरक्षा ही हमारी सबसे कमजोर नस है जो बुरी तरह घायल है। इक्‍यानवे में हम इसी घाट डूबे थे।

भारत अगर डॉलर छाप सकता या आयात का भुगतान रुपये में हो जाता तो सियासत आर्थिक चुनौतियों को किसी भाव नहीं गिनती। शुक्र है कि हम गंजों को ऐसे नाखून नहीं मिले। लेकिन अब तो राजनीति नशा उतरना चाहिए क्‍यों कि भारत विदेशी मुद्रा संकट से बस कुछ कदम दूर है और इस आफत को रुपये छापकर या आंकडों के खेल से रोका नहीं जा सकता। देश के पास महज साढे छह महीने के आयात के लायक विदेशी मुद्रा बची है। विदेशी मुद्रा की आवक व निकासी का फर्क बताने वाले चालू खाते का घाटा फट पड़ने को है। डॉलर के मुकाबले रुपया तीखी ढलान पर टिका है, जहां नीचे गिरावट की गर्त है। दरअसल, भारत अब विदेशी मुद्रा संकट के टाइम बम पर बैठ गया है और उत्‍तर कोरिया में चमकती मिसाइलों से लेकर दरकते यूरोजोन और खाड़ी की चुनौतियों जैसे तमाम पलीते आसपास ही जल रहे हैं।

Monday, June 4, 2012

संकट के सूत्रधार


क थी अर्थव्‍यवस्‍था। बाशिंदे थे मेहनतीग्रोथ की कृपा हो गई। मगर आर्थिक ग्रोथ ठहरी कई मुंह वाली देवी। ऊर्जाईंधन उसकी सबसे बडी खुराक। वह मांगती गईलोग ईंधन देते गए। देश में न मिला तो बाहर से मंगाने लगे। ईंधन महंगा होने लगा मगर किसको फिक्र थी। फिर इस देवी ने पहली डकार ली। तब पता चला कि ग्रोथ का पेट भरने में महंगाई आ जमी है। ईंधन के लिए मुल्‍क पूरी तरह विदेश का मोहताज हो गया है। आयात का ढांचा बिगड़ गया है इसलिए देश मुद्रा ढह गई है। और अंतत: जब तक देश संभलता ग्रोथ पलट कर खुद को ही खाने लगी। यह डरावनी कथा भारत की ही है। एक दशक की न्‍यूनतम  ग्रोथजिद्दी महंगाईसबसे कमजोर रुपये और घटते विदेशी मुद्रा भंडार के कारण हम पर  अब संकट की बिजली कड़कने लगी है। भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था के लिए अपनी बुनियादी गलतियों को गिनने का वक्‍त आ गया है। बिजली भयानक कमी और ऊर्जा नीति की असफलता ताजा संकट की सबसे बड़ी सूत्रधार है।   
डरावनी निर्भरता   
भारत का आयात एक हॉरर स्‍टोरी है। पिछले एक साल में देश का तेल आयात करीब 46 फीसदी बढ़ा और कोयले का 80 फीसदी। यह दोनों जिंस आयात की टोकरी में सबसे बडा हिससा घेर रहे हैं। दरअसल प्राकृ‍तिक संसाधनों को संजोनेबांटने और तलाशने में घोर अराजकता ने हमें कहीं का नही छोड़ा है। कोयले की कहानी डराती है। भारत की 90 फीसदी बिजली कोयले से बनती है और इस पूरे उजाले व ऊर्जा की जान भीमकाय सरकारी कंपनी कोल इंडिया हाथ में है जो इस धराधाम की सबसे बड़ी कोयला कंपनी है। पिछले दो साल में जब बिजली की मांग बढ़ी तो कोयला उत्‍पादन  घट गया। ऐसा नहीं कि देश में कोयला कम है। करीब 246 अरब टन का अनुमा‍नित भंडार है जिसइसके बाद कोल इंडिया की तानाशाही और कोयला ढोने वाली रेलवे का चरमराता नेटवर्क.. बिजली कंपनियां कोयला आयात न करें तो क्‍या करें। इसलिए कोयला भारत का तीसरा सबसे बड़ा आयात है। अगले पांच साल में कोयले की कमी 40 करोड़ टन होगीयानी और ज्यादा आयात होगा। पेट्रो उत्‍पादों का हाल और भी बुरा है। भारत अपनी 80 फीसदी से ज्‍यादा पेट्रो मांग के लिए आयात पर निर्भर है।  देश में घरेलू कच्‍चा तेल उत्‍पादन पिछले दो साल में एक-दो फीसद से जयादा नहीं बढ़ा। तेल खोज के लिए निजी कंपनियों का बुलाने की पहली कोशिश (नई तेल खोज नीति 1990) कुछ सफल रही लेकिन बाद में सब चौपट। कंपनियों के उत्‍पादन में हिस्‍सेदारी की पूरी नीति सरकार के गले फंस गई है। तेल क्षेत्र लेने वाली निजी कंपनिया उत्‍पादन घटाकर सरकार को ब्‍लैकमेल करती हैं। सरकार असमंजस मे हैं कि निजी कंपनियों के साथ  उत्‍पादन भागीदारी की प्रणाली अपनाई जाए या रॉयल्‍टी टैक्‍स की। अलबत्‍ता ग्रोथ की खुराक को इस असमंजस से फर्क नहीं पड़ताइसलिए पिछले दो साल में कीमतें बढ़ने के बाद भी पेट्रो उतपादों की मांग नहीं घटी। तेल आयात बल्लियों उछल रहा है।