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Thursday, August 26, 2021

बाज़ी, बिसात और बेबसी

 


 

महामारी और महामंदी के बीच शेयर बाजार की शानदार घुड़दौड़ और आइपीओ की भव्य सफलताएं हमें क्या बताती हैं? यही कि सरकार ऐसा टट्टू है जो तेज शोर करता है लेकिन बहुत धीमे चलता है. अक्सर अड़ जाता है या फिर हमेशा गलत जगह मुड़ जाता है.

सूत है कपास और ही ग्राहक लेकिन सरकारी संपत्तियों को किराये पर देने या अस्थायी निजीकरण से चार साल में 6 लाख करोड़ रुपए जुटाने के कार्यक्रम पर रीझने और खीझने का ढाई दशक पुराना तमाशा लौट आया है. हकीकत यह है कि निजी कंपनियां आइपीओ से 2021 में (27 जुलाई, 2021 तक) 42,000 करोड़ रुपए उगाह ले गईं और सरकार अपनी एक कंपनी का पब्लिक इश्यू भी नहीं ला सकी. 

सरकारी कंपनियों की सेल बीते बरस ही बैठ गई थी. 2.1 लाख करोड़ रुपए के लक्ष्य के बदले केवल 30-40,000 करोड़ रुपए मिले थे. इसलिए 2021 की सेल में बहुत अनबिका माल (एलआइसी, बीपीसीएल, एयर इंडिया) शामिल था. फिर भी नाकामी को नकार कर 2022 के बजट में 1.75 लाख करोड़ रुपए के लक्ष्य की हुंकार भरी गई, जिसमें 2021 की विफलता छिप गई थी. नहीं तो कोविड के बीचोबीच निजी कंपनियां आइपीओ (18) के जरिए करीब 26,000 करोड़ रुपए जुटा ले गई थीं.

सरकारी उपक्रम विनिवेश का अपशकुन (दस साल में केवल दो बार लक्ष्य हासिल) कायम है.

 

कोल इंडिया का एकाधिकार खत्म कर निजी कंपनियों को पहली बार कोयला खदानों की पेशकश की गई. अलबत्ता 70 फीसद खदानों के बोलियां नहीं आईं

निजी ट्रेन चलाने के लिए 30,000 करोड़ रुपए के निजीकरण की योजना के तहत केवल तीन मार्ग पर बोली आने के बाद टेंडर रद्द कर दिया गया है

 70,000 करोड़ रुपए के घाटे पर बैठी एयर इंडिया के लिए मंदी और एविएशन में संकट के बीच इस साल भी ग्राहक मिलना मुश्किल दिख रहा है. हवाई अड्डों को किराये पर देने की योजना भी फंस गई है

सरकारी तेल कंपनी बीपीसीएल को पूरी तरह विदेशी निवेशक को बेचने की तैयारी है मगर कोई ग्राहक नहीं है. इसे दो सरकारी कंपनियों इंडियन ऑयल और ओएनजीसी को बेचने की नौबत सकती है 

जीवन बीमा निगम का आइपीओफिर पिछड़ गया है. अब दो किस्तों में जारी करने की बात हो रही है

बैंकों के निजीकरण पर गहरा असमंजस है. बैड बैंक बनने का इंतजार है

सरकार को खुद भी पता नहीं है कि 6 लाख करोड़ रुपए जुटाने के लिए सड़कों, बिजली घरों, बंदरगाहों, हवाई अड्डों, होटलों, स्टेडियम, रेलवे लाइनों को किराये पर कौन लेगा? कैसे वह इतना कमा सकेगा कि अपनी लागत लगाने के बाद सरकार का खजाना भर सके और क्या बाजार इनकी मिल्कियत लेने से कम पर तैयार होगा?

सरकारी कंपनियों के कामकाज में सुधार और विनिवेश विफलता का चिंरतन स्मारक है. नाकामी के तरीके भी वही पुराने हैं. राजनीति इस कदर उबाऊ हो चुकी है कि इस तमाशे का पाखंड और पर्दा भी नहीं बदलता. निजीकरण की कांग्रेसी कोशिशों पर भाजपाई स्वदेशी चीखते थे, जब भाजपा (वाजपेयी सरकार) ने बेचा तब वाम-कांग्रेस ने हाहाकार मचाया.

कांग्रेस के सुधार पुरुषों यानी राव-मनमोहन की जोड़ी इस कदर दकियानूस थी कि नरसिंह राव ने वाजपेयी सरकार के निजीकरण अभियान पर खीझ कर कहा था कि सरकारी उपक्रमों को बेचने का मतलब सब्जी का बिल चुकाने के लिए घर को बेचने जैसा है. उनका यह लंबा भाषणनुमा आलेख जयराम रमेश की किताब टु ब्रिंक ऐंड बैकइंडियाज 1991 स्टोरी  में संकलित है.

इधर निजीकरण का परचम उठाए मौजूदा सरकार में केवल नए मंत्रालय या विभाग बने बल्कि सरकारी कंपनियों की संख्या 2014 में 234 से बढ़कर अब 257 हो गई. जो सरकार अब बैंकों का निजीकरण कर रही है उसी ने घाटे वाले डाक विभाग को सरकारी पेमेंट बैंक में बदलने का फैसला (2016) किया था.

सरकारों को जब सुधारवादी क्रांतिकारी दिखना होता तब वे सरकारी कंपनियों के निजीकरण की तरफ मुड़ती हैं. इस पर जितनी राजनीति हुई है उतना निजीकरण कभी नहीं क्योंकि नेता-नौकरशाहों का तंत्र अपनी ताकत गंवाना नहीं चाहता.

बेचना बेहद मुश्किल काम है. खासतौर पर मंदी के बाजार में. यदि सरकार ने पिछली नाकामी से सीखा होता तो ढोल पीटने के बजाए पारदर्शी तैयारी होती. विनिवेश को स्पष्ट जन कल्याण रोजगार लक्ष्यों से जोड़ा जाता और आईपीओ वाली कंपनियों से सबक लेकर बाजार की तेजी का फायदा उठाया जाता.

दरअसल, एक मजबूत लोकप्रिय सरकार भी तैयारी के साथ सरकारी कंपनियों की दशा बदलने का अनिवार्य सुधार नहीं कर सकी. निजीकरण का नया टट्टू घुटनों के बल बैठ रहा है. लाखों करोड़ रुपए के लक्ष्यों वाले अभियान की सफलता संदिग्ध है. शेयर बाजार की तेजी टिकाऊ नहीं रहने वाली. अब या तो सरकारी कंपनियां ही सरकारी कंपनियों को खरीदेंगी. या फिर हमेशा की तरह कुछ आतिशबाजी के बाद मेला उखड़ जाएगा.