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Saturday, October 31, 2015

कूटनीतिक सफलता की उलटबांसी



ग्लोबल ट्रेड की मुख्यधारा से भारत का बाहर रहनामोदी के आक्रामक कूटनीतिक अभियानों की सफलता को संदिग्ध बनाता है. 

भारत में नई सरकार बनने के बाद, कूटनीति के पर्यवेक्षक इस बात को लेकर हमेशा से असमंजस में रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कूटनीतिक मुहिम में ग्लोबल ट्रेड की चर्चाएं क्यों नदारद हैं. यह मौन इसलिए चौंकाता था क्योंकि दिल्ली में नई सरकार आने तक ग्लोबल व्यापार कूटनीति में बड़े बदलावों की जमीन तैयार हो चुकी थी, जिसमें भारत को अपनी जगह बनानी थी. मोदी सरकार की चुप्पी, यदि रणनीतिक थी तो अब तक इसके नतीजे आ जाने चाहिए थे लेकिन अगर यह चूक थी तो यकीन मानिए, बड़ी चूक रही है. इस महीने की शुरुआत में प्रशांत महासागरीय क्षेत्र के 12 देशों ने अमेरिका की अगुआई में ट्रांस पैसिफिक पाटर्नरशिप (टीपीपी) पर दस्तखत कर दिए जो न केवल सबसे आधुनिक व विशाल व्यापार गुट है बल्कि इसके साथ ही ग्लोबल ट्रेड गवर्नेंस के नए दौर की शुरुआत हो रही है. भारत का टीपीपी का हिस्सा बनना तो दूर, यह इसकी परिधि पर हो रही चर्चाओं में भी नहीं है, जबकि भारत को ग्लोबल ट्रेड में नए बदलावों का अगुआ होना चाहिए था.
अफ्रीकी देशों की ताजा जुटान में डब्ल्यूटीओ को लेकर भारत की सक्रियता अचरज में डाल रही थी. अंतरराष्ट्रीय व्यापार ढांचा बनाने में डब्ल्यूटीओ की सीमित सफलता के बाद टीपीपी और आसियान, भारत व चीन की भागीदारी वाली रीजनल कॉम्प्रीहेंसिव इकोनॉमिक पाटर्नरशिप (आरसीईपी) पर चर्चा शुरू हुई है. भारत के कई अफ्रीकी मेहमान भी डब्ल्यूटीओ को पीछे छोड़कर, इन संधियों में अपनी जगह तलाश रहे हैं. आरसीईपी पर वार्ताएं जारी हैं जबकि टीपीपी पहली सहमति बन चुकी है. इस संधि को लेकर पांच साल की कवायद को ताजा इतिहास की सबसे गहन व्यापार वार्ता माना गया है. हालांकि टीपीपी को अमेरिकी कांग्रेस व सदस्य देशों की संसदों की मंजूरी अभी मिलनी है, फिर भी अपने वर्तमान स्वरूप में ही यह संधि खासी व्यापक है. टीपीपी में शामिल बारह देशों (ऑस्ट्रेलिया, ब्रुनेई, चिली, कनाडा, जापान, सिंगापुर, मलेशिया, मेक्सिको, न्यूजीलैंड, पेरु, अमेरिका, वियतनाम) के दायरे में दुनिया का 40 फीसदी जीडीपी और 26 फीसदी व्यापार आता है. चीन भी जल्द ही इसका हिस्सा बनेगा. दूसरी तरफ भारत जिस आरसीईपी में शामिल है, वह भी टीपीपी से प्रभावित होगी क्योंकि आरसीईपी के कई सदस्य टीपीपी का हिस्सा हैं.
टीपीपी से भारत की शुरुआती दूरी तकनीकी थी. इसकी सदस्यता के लिए एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग (एपेक) का सदस्य होना जरूरी है. 1998 से 2009 के बीच एपेक में नए सदस्यों को शामिल करने पर पाबंदी थी. इसलिए टीपीपी का दरवाजा नहीं खुला लेकिन 2009 के बाद से भारत को सक्रिय होकर इस संधि का हिस्सा बनने की शुरुआत करनी चाहिए थी. खास तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ग्लोबल मिशन में एपेक व टीपीपी में प्रवेश सबसे ऊपर होना चाहिए था.
टीपीपी को विशेषज्ञ गोल्ड स्टैंडर्ड ट्रेड पैक्ट कह रहे हैं जो मुक्त व्यापार को डब्ल्यूटीओ व एफटीए की पुरानी व्यवस्थाओं से आगे ले जाता है. टीपीपी के तहत सदस्य देशों में 98 फीसदी सीमा शुल्क दरें यानी करीब 18,000 टैरिफ लाइन्स खत्म हो जाएंगी. सिर्फ सीमा शुल्क ही नहीं, टीपीपी सेवाओं के निर्यात, कृषि, बौद्धिक संपदा, विदेशी निवेश, पर्यावरण, श्रम, ई कॉमर्स, प्रतिस्पर्धा, फार्मा सहित तमाम उन पक्षों पर सहमति बना रही है, जहां डब्ल्यूटीओ अफसल हो गया था.
टीपीपी से भारत की दूरी के मद्देनजर अर्थव्यवस्था, व्यापार और ग्लोबल कूटनीति में उसके रसूख पर असर के आकलन शुरू हो गए हैं. इसके तहत बनने वाला मुक्त बाजार, ग्लोबल ट्रेड का संतुलन बदल देगा, क्योंकि इस संधि में चीन के संभावित प्रवेश के बाद विश्व व्यापार का बड़ा हिस्सा टीपीपी के नियंत्रण में होगा. पीटर्सन इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल इकोनॉमी के ताजे अध्ययन के मुताबिक, यदि भारत इससे बाहर रहा तो देश को करीब 50 अरब डॉलर के निर्यात का सालाना नुक्सान होगा. यह संधि सरकारों के बीच होने वाले कारोबार और विदेशी निवेश का रुख भी तय करेगी.
भारत के लिए टीपीपी का दूसरा असर और भी गंभीर है. गैट (डब्ल्यूटीओ का पूर्वज) के बाद टीपीपी पहली संधि है जिसे लेकर सरकारों व निजी क्षेत्र में इतनी अधिक उत्सुकता है. टीपीपी ने अभी आधा रास्ता ही तय किया है फिर भी इसकी वार्ताओं का ढांचा ग्लोबल व्यापार प्रशासन के नए पैमाने तय कर रहा है. इसमें शामिल देश नई तरह से अपनी व्यापार व सीमा शुल्क नीतियां बदलेंगे जिनमें भारत की मौजूदगी वाली आरसीईपी भी शामिल है. टीपीपी, बहुराष्ट्रीय व्यापार की नई ग्लोबल गवर्नेंस का आधार होगी और क्षेत्रीय मुक्त व्यापार संधियों के लिए मानक बन जाएगी.
टीपीपी को लेकर कूटनीतिक, औद्योगिक और राजनयिक हलकों में उत्सुकता है जबकि भारत में बेचैनी बढ़ती दिख रही है. यूरोपीय समुदाय के साथ मुक्त व्यापार संधि पर बातचीत रुकने और आसियान, भारत व चीन की आरसीईपी पर वार्ताओं के गति न पकडऩे के बीच अमेरिका की अगुआई में टीपीपी पर निर्णायक सहमति ने भारत को व्यापार कूटनीति में हाशिए पर खड़ा कर दिया है.

ग्लोबल ट्रेड की मुख्यधारा से भारत का बाहर रहना, मोदी के आक्रामक कूटनीतिक अभियानों की सफलता को संदिग्ध बनाता है. खास तौर पर तब जबकि अंतरराष्ट्रीय व्यापार से गुजरात के पुरातन संबंधों के कारण, मोदी के नेतृत्व में भारत की विश्व व्यापार रणनीतियों और मुक्त बाजार में नए प्रयोगों की उम्मीद थी. मोदी अपने कूटनीतिक अभियानों का नया चरण शुरू कर रहे हैं और दूसरी तरफ  नवंबर में मनीला में एपेक के आर्थिक नेताओं की जुटान की तैयारी हो रही है. मोदी को अब व्यापार कूटनीति को अपने ग्लोबल अभियानों का आधार बनाना होगा, और एपेक के जरिए टीपीपी में भारत का प्रवेश सुनिश्चित करना होगा, क्योंकि भारत की कूटनीतिक सफलता मोदी की विदेशी रैलियों से नहीं बल्कि ग्लोबल व्यापार कूटनीति की मुख्यधारा में भारत की वापसी से मापी जाएगी. इस वापसी के बिना भारत में विदेशी निवेश की वापसी नहीं होगी. 

Monday, December 26, 2011

ग्यारह का गुबार

मय हमेशा न्‍याय ही नहीं करता। वह कुछ देशों, जगहों, तारीखों और वर्षों के खाते में इतना इतिहास रख देता है कि आने वाली पीढि़यां सिर्फ हिसाब लगाती रह जाती हैं। विधवंसों-विपत्तियों, विरोधों-बगावतों, संकटों-समस्‍याओं और अप्रतयाशित व अपूर्व परिवर्तनों से लंदे फंदे 2011 को पिछले सौ सालों का सबसे घटनाबहुल वर्ष मानने की बहस शुरु हो गई है। ग्‍यारह की घटनायें इतनी धमाकेदार थीं कि इनके घटकर निबट जाने से कुछ खत्‍म नहीं हुआ बल्कि असली कहानी तो इन घटनाओं के असर से बनेगी। अर्थात ग्‍यारह का गुबार इसकी घटनाओं से ज्‍यादा बड़ा होगा
....यह रहे उस गुबार के कुछ नमूने, घटनायें तो हमें अच्‍छी तरह याद हैं।  
1.अमेरिका का शोध
अमेरिका की वित्‍तीय साख घटने से अगर विज्ञान की प्रगति की रफ्तार थमने लगे तो समझिये कि बात कितनी दूर तक गई है। अमेरिका में खर्च कटौती की मुहिम नए शोध के कदम रोकने वाली है। नई दवाओं, कंप्‍यूटरों, तकनीकों, आविष्‍कारों और प्रणालियों के जरिये अमेरिकी शोध ने पिछली एक सदी की ग्रोथ का नेतृत्‍व किया था। उस शोध के लिए अब अमेरिका का हाथ तंग है।  बेसिक रिसर्च से लेकर रक्षा, नासा, दवा, चिकित्‍सा, ऊर्जा सभी में अनुसंधान पर खर्च घट रहा है। यकीनन अमेरिका अपने भविष्‍य को खा रहा (एक सीनेटर की टिप्‍पणी) है। क्‍यों कि अमेरिका का एक तिहाई शोध सरकारी खर्च पर निर्भर है। हमें अब पता चलेगा कि 1.5 ट्रिलियन डॉलर का अमेरिकी घाटा क्‍या क्‍या कर सकता है। वह तो अंतरिक्ष दूरबीन की नई पीढ़ी (जेम्‍स बेब टेलीस्‍कोप- हबल दूरबीन का अगला चरण) का जन्‍म भी रोक सकता है।
2.यूरोप का वेलफेयर स्‍टेट
इटली की लेबर मिनिस्‍टर एल्‍सा फोरनेरो, रिटायरमेंट की आयु बढ़ाने की घोषणा करते हुए रो पड़ीं। यूरोप पर विपत्ति उस वक्‍त आई, जब यहां एक बड़ी आबादी अब जीवन की सांझ ( बुजुर्गों की बड़ी संख्‍या ) में  है। पेंशन, मुफ्त इलाज, सामाजिक सुरक्षा, तरह तरह के भत्‍तों पर जीडीपी का 33 फीसदी तक खर्च करने वाला यूरोप उदार और फिक्रमंद सरकारों का आदर्श था मगर

Monday, February 1, 2010

मुक्त बाजार का मर्सिया

अमेरिका और इक्वाडोर में क्या समानता है? करीब एक तिहाई गरीब आबादी वाला नन्हा सा दक्षिण अमेरिकी मुल्क इक्वाडोर और अमीरों का सरताज अमेरिका, दोनों ही दुनिया को यह बता रहे हैं कि दुर्बलता और कठोरता एक दूसरे के विलोम नहीं बल्कि पूरक हैं। मंदी से कमजोर हुए दोनों देश उदारता छोड़कर अपने बाजारों के दरवाजे बंद कर रहे हैं। इक्वाडोर जैसों का डरना चलता है, मगर जब मुक्त बाजार के गुरुकुल का महाआचार्य दुनिया को बाजार बंद करने के फायदे बताने लगे तो अचरज लाजिमी है। जरा देखिये तो, बस एक झटका लगा और उदारता की कसमें टूट गई। पूरी दुनिया अचानक कछुआ कॉलोनी नजर आने लगी है। मंदी से डरे मुल्क संरंक्षणवाद के कठोर खोल में सिमट रहे हैं। पिछले एक साल के दौरान अमेरिका, यूरोप और एशिया व लैटिन अमेरिका के प्रमुख देशों ने 150 से अधिक ऐसे उपाय किये हैं जो गैरों के माल व सेवाओं को अपने बाजार में आने से रोकते हैं। बीस सालों तक तक उदार बाजारों का महासागर देखने वाली दुनिया यह पोखर प्रवृत्ति देखकर हैरत में है। डब्लूटीओ पैरोकारों को काठ मार गया है। खोल में छिपते कछुए मुक्त बाजार का मर्सिया (शोक गीत) पढ़ रहे हैं।
बराक (हूवर) ओबामा
बात केवल आउटसोर्सिग के खिलाफ ओबामा के ताजे संसदीय संबोधन की ही नहीं है। अमेरिका के वर्तमान मुखिया में लोगों को पूर्व राष्ट्रपति जेम्स हूवर का अक्स काफी समय से नजर आ रहा है। राष्ट्रपति बनने के बाद पिछले साल फरवरी में ओबामा ने अमेरिका को मंदी से उबारने के लिए जिस रिकवरी एंड रिइन्वेस्टमेंट एक्ट को मंजूरी दी थी उसमें सिर्फ अमेरिका माल को खरीदने की शर्त रखने वाला कुख्यात प्रावधान (बाइ अमेरिकन) भी था। यह कानून अमेरिका में तीस के दशक के बदनाम स्मूट हाउले एक्ट की याद दिलाता है। इतिहास गवाह है कि 1930 के दशक की महामंदी के बाद अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जेम्स हूवर ने इसी एक्ट के जरिये आयात शुल्क बढ़ाकर अपने बाजार बंद कर दिये और दुनिया में व्यापारिक संरंक्षणवाद की बाढ़ आ गई थी। जिसे महामंदी के बाद का ट्रेडवार या व्यापार युद्ध कहा गया। इस दौर में प्रत्येक देश अपने बाजार में दूसरे का प्रवेश रोक रहा था। नतीजतन 1929 से 1934 के बीच दुनिया का व्यापार दो तिहाई घट गया। .. वैसे यह तबाही नई विश्व व्यापार व्यवस्था की शुरुआत भी थी। यहीं से दुनिया में बहुपक्षीय वित्तीय संस्थायें बनाने की शुरुआत हुई। ब्रेटन वुड्स के मुद्रा समझौते हुए और दुनिया को विश्व बैंक व अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) मिले जिन्हें ब्रेटन वुड्स की जुड़वां संतानें कहा जाता है। इसी मौके पर गैट यानी ग्लोबल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड टैरिफ की बुनियाद पड़ी थी, जो आज के डब्लूटीओ का पूर्वज है। एक बार फिर मंदी आते ही इतिहास जी उठा है। पिछले साल नवंबर में जब ओबामा ने चीन से टायरों के आयात 35 फीसदी का शुल्क थोप दिया तो यह साफ हो गया कि हूवर की आत्मा ह्वाइट हाउस में भटक रही है। चीन ने अमेरिकी चिकन और आटो पुर्जो पर शुल्क बढ़ाकर जवाब दे दिया। ओबामा प्रशासन ने पिछले कई माह में ऐसा बहुत कुछ किया है जो कि मुक्त बाजार के अमेरिकी शास्त्र के खिलाफ है। गुजरे हफ्ते अपनी संसद को संबोधित करते ओबामा बता रहे थे कि पुरानी आदतें आसानी से नहीं जातीं।
कच्छप साधना शिविर
जब उदार बाजार के उस्ताद की आदत नहीं बदली तो फिर दुनिया की कैसे बदल जाएगी। बीते एक साल में दुनिया में मानो बाजारों के दरवाजे बंद करने और संरंक्षणवाद के खोल में घुसने करने की मुहिम सी चल पड़ी है। आयात शुल्क, डंपिंग रोधी शुल्क , गैर तटकर प्रतिबंध, स्वदेशी के इस्तेमाल की सरकारी मुहिम और, निर्यात सब्सिडी। बीते एक साल में हर दांव खेला गया है अर्थात मुक्त बाजार के परिंदे अचानक संरंक्षणवाद के सरीसृप बन गए हैं। उदाहरण हाजिर हैं। अर्जेटीना ने कपडे़, टायर सहित एक 1000 सामानों पर आयात लाइसेंसिंग थोप दी है। ब्राजील ने तमाम उत्पादों पर एंटी डंपिग शुल्क लगा दिये हैं। चीन आयरिश मांस सहित कई आयातों पर पाबंदी लगा चुका है तो यूरोपीय समुदाय थोक में आयात शुल्क बढ़ा रहा है। इंडोनेशिया ने गैर तटकर बाधायें खड़ी की तो जापान ने आटा, खाद्य उत्पाद आदि के आयात पर प्रतिबंध लगा रहा हैं। इस फेहरिस्त, मलेशिया, न्यूजीलैंड और हम भी यानी भारत भी हैं। पिछले एक साल में दुनिया के देशों ने 172 संरंक्षणवादी उपाय किये जिनमें 121 सीधे तौर विदेशी वाणिज्यिक हितों की सीमित करने के थे जबकि अन्य शुल्क दरें बढ़ाने आदि से संबंधित थे। अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, स्पेन, फ्रांस और पोलैंड जैसे बड़े मुल्कों में प्रत्येक ने पिछले बारह माह में संरंक्षणवादी उपायों से अपने कम से कम सौ व्यापार भागीदार देशों का नुकसान किया है।
दूर तक जाने वाली बात
इस बाजार में हर ग्राहक विक्रेता है और हर विक्रेता ग्राहक। खुले बाजार में दुनिया की आदतें इतनी बदल चुकी हैं कि इस नए कछुआ कानून में तो कुछ परिंदों के लिए दाना पानी ही खत्म हो जाएगा। दुनिया के बहुत देशों का आधा जीडीपी निर्यात से आता है। इसलिए अब तैयार हो जाइये एक नई होड़ के लिए। निर्यातक मुल्क आयातों को महंगा करने के कदमों का जवाब अपनी मुद्राओं के अवमूल्यन से देंगे ताकि वह बाजार में टिके रह सकें। जिन्हें मुद्रायें अवमूल्यन करने का विकल्प नहीं मिलेगा वह सब्सिडी झोंककर निर्यातों को सस्ता करेंगे। यूरोपीय समुदाय ने हाल में अपने कई निर्यातों पर सब्सिडी बढ़ाकर इसका रास्ता खोल दिया है। इन पैंतरों से बाजारों में बराबरी का पूरा विधान ही बदल सकता है। दुनिया मंदी के बाद की महंगाई से डरी है। सस्ते आयात मुद्रास्फीति की सबसे बड़ी काट होते हैं लेकिन दुनिया के देश तो कच्छप मुद्राओं में आकर बाजार सिकोड़ रहे हैं, इसलिए महंगाई मजबूत हो सकती है।
दुनिया का व्यापारिक माहौल बदलने में काफी वक्त लगा है। पिछले तीन दशक विश्व व्यापार के लिए अभूतपूर्व दशक रहे हैं। 1991 के बाद से तो दुनिया के बाजार में अद्भुत बदलाव हुए। नब्बे की शुरुआत में दुनिया के केवल एक तिहाई उत्पादन का व्यापार होता था लेकिन आज लगभग 65 फीसदी अंतरराष्ट्रीय उत्पादन व्यापार का हिस्सा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विस्तार, एशियाई प्रभुत्व, उदार अधिग्रहण, बहुत देशीय उत्पादन, आयात शुल्कों में समानता और पूरी दुनिया में जबर्दस्त खपत यह सब कुछ पिछले दो दशकों की ही उपलब्धि है। उदार बाजार की यह लहर ओबामा के मुल्क से उठी थी और जब भारत व चीन की महाद्वीपीय आकार वाली अर्थव्यवस्थायें खुलीं तो मुक्त बाजार का जुलूस झूम उठा। लेकिन उदार व्यापार की यही दुनिया हैरत के साथ अपने महागुरु का एक नया ही चेहरा देख रही है ?..सबकी निगाहों में सवाल है कि अरे कठोर!! आप तो ऐसे न थे?
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अन्‍यर्थ के लिए
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