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Monday, November 25, 2013

चीन का चोला बदल

दुनिया का सबसे बड़ा अधिनायक मुल्‍क तीसरी क्रांति का बटन दबाकर व्‍यवस्‍था को रिफ्रेश कर रहा है।
देंग श्‍याओं पेंग ने कहा था आर्थिक सुधार चीन की दूसरी क्रांति हैं लेकिन यह बात चीन को सिर्फ 35 साल में ही समझ आ गई कि हर क्रांति की अपनी एक एक्‍सपायरी डेट भी होती है और घिसते घिसते सुधारों का मुलम्‍मा छूट जाता है। तभी तो शी चिनफिंग को सत्‍ता में बैठते यह अहसास हो गया कि चमकदार ग्रो‍थ के बावजूद एक व्‍यापक चोला बदल चीन की मजबूरी है। चीनी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के तीसरे प्‍लेनम से बीते सप्‍ताह, सुधारों का जो एजेंडा निकला है उसमें विदेशी निवेशकों को चमत्‍कृत करने वाला खुलापन या निजीकरण की नई आतिशबाजी नहीं है बल्कि चीन तो अपना आर्थिक राजनीतिक डीएनए बदलने जा रहा है। दिलचस्‍प्‍ा है कि जब दुनिया का सबसे ताकतवर लोकतंत्र अमेरिका अपने राजनीतिक वैर में फंस कर थम गया है और विश्‍व की सबसे बड़ी लोकशाही यानी भारत अपनी विभाजक व दकियानूसी सियासत में दीवाना है तब दुनिया का सबसे बड़ा अधिनायक मुल्‍क तीसरी क्रांति का बटन दबाकर व्‍यवसथा को रिफ्रेश कर रहा है।
चीन की ग्रोथ अब मेड इन चाइना की ग्‍लोबल धमक पर नहीं बल्कि देश की भीतरी तरक्‍की पर केंद्रित होंगी। दो दशक की सबसे कमजोर विकास दर के बावजूद चीन अपनी ग्रोथ के इंजन में सस्‍ते युआन व भारी निर्यात का ईंधन नहीं डालेगा। वह अब देशी मांग का ईंधन चाहता है और धीमी विकास दर से उसे कोई तकलीफ

Monday, March 11, 2013

वो और हम



 क्‍या हम दुनिया को यह बताना चाहते हैं कि एक उदार तानाशाही हमारे जैसे लोकतंत्र से ज्‍यादा बेहतर है?

म्‍मीद की रोशनी की तलाशती दुनिया ने महज एक सप्‍ताह के भीतर विश्‍व की दो उभरती ताकतों की दूरदर्शिता को नाप लिया। भारत व चीन अपने भविष्‍य को कैसे गढ़ेंगे और उनसे क्‍या उम्‍मीद रखी जानी चाहिए, इसका ब्‍लू प्रिंट सार्वजनिक हो गया है। भारत में बजट पेश होने तीन दिन बाद ही चीन की संसद में वहां की आर्थिक योजना पेश की गई। जो चीन के आर्थिक सुधारों के नए दौर का ऐलान थी। ग्‍लोबल बाजारों ने रिकार्ड तेजी के साथ एडि़यां बजाकर इसे सलाम भेजा। अमेरिकी बाजार व यूरोपीय बाजारों के लिए यह चार साल की सबसे बड़ी तेजी थी। दूसरी तरफ भारत के ठंडे व मेंटीनेंस बजट पर रेटिंग एजेंसियों ने  उबासी ली और उम्‍मीदों की दुकान फिलहाल बढ़ा दी
यथार्थ को समझना सबसे व्‍यावहारिक दूरदर्शिता है और ग्‍लोबल बाजार दोनों एशियाई दिग्‍गजों से इसी सूझ बूझ उम्‍मीद कर रहे थे। हू जिंताओं व वेन जियाबाओ ने ली शिनपिंग और ली केक्विंग को सत्‍ता सौंपते हुए जो आर्थिक योजना पेश की, वह चीन की ताजा चुनौतियों को स्‍वीकारते हुए समाधानों की सूझ सामने लाती है। जबकि इसके बरक्‍स भारत का डरा व बिखरा बजट केवल आंकड़ों की साज संभाल में लगा था। महंगाई, बड़ी आबादी, ग्रोथ, बराबरी, भूमि का अधिकार, खेती, नगरीकरण, ऊर्जा, अचल संपत्ति और व्‍यापक भ्रष्‍टाचार... चुनौतियों के मामले भारत व चीन स्‍वाभाविक

Monday, January 9, 2012

रहस्यों की मुद्रा

मंदी और कुदरत के मारे जापान में ऐसा क्‍या है जो उसकी मुद्रा (येन) पहलवान हुई जा रही है ! चीन ने तो कमजोर युआन के सहारे ही दुनिया फतह की थी, वह अपनी इस ताकत को क्‍यों गंवाने जा रहा है ? और भारत‍ में इतना बुरा क्‍या हो गया कि रुपये के घुटने जरा भी ताकत नहीं जुटा पा रहे हैं ? विदेशी मुद्रा बाजार के लिए 2012 की शुरुआत बला की रहस्‍यमय है। ऊपर से देखने में ऐसा लगता हे कि  अमेरिका यूरोप और उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं में गिरावट का एक कोरस चल रहा है मगर भीतर कुछ दूसरी ही खिचड़ी पक रही है। एशिया तो मुद्राओं की अनोखी मुद्राओं का थियेटर बन गया है। संकटों की मारी सरकारें अप्रत्‍याशित तेजी से नीतियां बदल रही हैं इसलिए निवेशक भी व्‍यापक आर्थिक संकेतकों छोड़कर अलग-अलग बाजारों में सूक्ष्‍म बदलावों को पकड रहे हैं। कई ढपलियों और रागों वाला ताजा वित्‍तीय परिदृश्‍य अब दिलचस्‍प ढंग से पेचीदा हो चला है।
येन का रहस्‍य
जापानी येन की मजबूती विदेशी मुद्रा बाजार का सबसे ताजा रहस्‍य है। दिसंबर के अंत में येन डॉलर के मुकाबले बीस साल के सबसे ऊंचे स्‍तर पर पहुंच गया है। जापान लंबी अर्से से गहरी मंदी (डिफ्लेशन) में है। सुनामी और भूकंप ने देश की अर्थव्‍यव्‍स्‍था को तोड दिया है। देशी कर्ज जीडीपी का 200 फीसदी है। यानी कि देश की मुद्रा को मजबूत नहीं बनाने वाला कुछ भी नहीं है। मगर जापान के केंद्रीय बैंक को पिछले साल तीन बार बाजार में दखल देकर मजबूती रोकनी पड़ी। दरअसल अस्थिर विश्‍व बाजारों के बीच जापान में निवेशकों को एक अनोखी सुरक्षा मिल गई हे।  अमेरिकी व यूरोपीय बाजारों में निवेश पर रिटर्न घट रहा है तो जापान के सरकारी बांडों पर अमेरिका के मुकाबले करीब तीन फीसदी ज्‍यादा रिटर्न है। मुद्रास्‍फीति अच्‍छे रिटर्न की दुश्‍मन है, जो कि जापान में शून्‍य पर है। इसलि‍ए जापान के बांडों में निवेश हो रहा है। यही निवेश येन की मजबूती की वजह है। मंदी और भारी कर्ज से अर्थव्‍यव‍स्‍था पर निवेशकों का ऐसा दुलार

Monday, November 8, 2010

असमंजस की मुद्रा

अर्थार्थ
साख बचे तो (आर्थिक) सेहत जाए? ताज मिले तो ताकत जाए? एक रहे तो भी कमजोर और बिखर गए तो संकट घोर?? बिल्कुल ठीक समझे आप, हम पहेलियां ही बुझा रहे हैं, जो दुनिया की तीन सबसे बड़ी मुद्राओं अर्थात अमेरिकी डॉलर, चीन का युआन और यूरो (क्रमश:) से जुड़ी हैं। दरअसल करेंसी यानी मुद्राओं की पूरी दुनिया ही पेचीदा उलटबांसियों से मुठभेड़ कर रही है। व्यापार के मैदान में अपनी मुद्रा को कमजोर करने की जंग यानी करेंसी वार का बिगुल बजते ही एक लंबी ऊहापोह बाजार को घेर को बैठ गई है। कोई नहीं जानता कि दुनिया की रिजर्व करेंसी का ताज अमेरिकी डॉलर के पास कब तक रहेगा? युआन को कमजोर रखने की चीनी नीति पर कमजोर डॉलर कितना भारी पड़ेगा? क्या माओ के उत्तराधिकारियों की नई पीढ़ी युआन को दुनिया की रिजर्व करेंसी बनाने का दांव चलेगी? यूरो का जोखिम कितना लंबा खिंचेगा। क्या दुनिया में अब कई रिजर्व करेंसी होंगी? दुनिया के कुछ हिस्से आठवें दशक के लैटिन अमेरिका की तरह दर्जनों विनिमय दरों का अजायबघर बन जाएंगे? ... सवालों की झड़ी लगी है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार असमंजस में नाखून चबा रहा है।
दुविधा का नाम डॉलर
विश्व के करीब 60 फीसदी विदेशी मुद्रा भंडारों में भरा ताकतवर अमेरिकी डॉलर ऊहापोह की सबसे बड़ी गठरी है। अमेरिकी नीतियों ने डॉलर को हमेशा ताकत की दवा दी ताकि अमेरिकी उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति महंगाई से महफूज रहे। मजबूत डॉलर, सस्ते आयात व नियंत्रित मुद्रास्फीति अमेरिका के मौद्रिक प्रबंधन की बुनियाद है। सस्ते उत्पादन और अवमूल्यित मुद्रा के महारथी चीन ने इसी नीति का फायदा लेकर अमेरिकी बाजार को अपने उत्पादों से पाटकर अमेरिका को जबर्दस्त व्यापार घाटे का तोहफा दिया है। सस्ते आयात को रोकने के लिए विश्व व्यापार में डॉलर को प्रतिस्पर्धात्मक रखना अमेरिकी नीति का दूसरा पहलू है। अलबत्ता 1980-90 में जापान ने इसे सर के बल खड़ा किया था और अब चीन इसे दोहरा रहा है। इस अतीत को पीठ पर लादे विश्व की यह सबसे मजबूत रिजर्व करेंसी अब तक की सबसे जटिल चुनौतियों से मुकाबिल है। जीडीपी के अनुपात में 62 फीसदी विदेशी कर्ज (अमेरिकी बांडों में विदेशी निवेश) अमेरिका के भविष्य पर

Monday, August 23, 2010

दो नंबर का दम

अर्थार्थ
भी-कभी बड़े बदलाव के लिए ज्यादा वक्त की दरकार नहीं होती। कई बार दूरगामी परिवर्तन ढोल-ताशा बजाए बगैर चुपचाप संजीदगी के साथ दबे पांव आ जाते हैं और हम जान भी नहीं पाते। जैसे कि विश्व में आर्थिक ताकत के हिसाब-किताब को ही लीजिए। पूरी दुनिया पता नहीं कहां-कहां उलझी थी, इस बीच बीते सप्ताह जापान को पछाड़कर चीन दुनिया की (अमेरिका के बाद) दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो गया। ..तकरीबन साढ़े चार करोड़ निर्धन लोगों वाली एक विकासशील अर्थव्यवस्था और दुनिया में दूसरे नंबर पर। हर पैमाने पर अभूतपूर्व है यह करिश्मा। चीन ने केवल एक तिहाई सदी में ही सब कुछ उलट-पलट दिया। आखिर ऐसी कामयाबी पर कौन है जो रश्क न करेगा। मगर हकीकत यह है कि चीन बल्लियों उछल नहीं रहा है, बल्कि वह नंबर दो के चक्कर को लेकर कुछ ऊहापोह में दिखता है। चीन के विकास में कुछ गहरे भीतरी अंतरविरोध हैं, जो शायद इस चमक के बाद खुलकर उभर आए हैं। इसलिए सरकार अपने इस ताज को कोई भाव ही नहीं दे रही है। सरकार के अखबारों को चीन का तीसरी दुनिया वाला चेहरा ही सुहाता है। अलबत्ता बाहरी विश्व को कोई असमंजस नहीं है। पूरी दुनिया को मालूम है कि चीन अद्भुत रूप से व्यावहारिक है, गरीब व पिछड़ा बना रहना उसके लिए कूटनीतिक व आर्थिक तौर पर ज्यादा माफिक है।
चमत्कारी रफ्तार
1968 में जब जापान ने तत्कालीन पश्चिम जर्मनी को पछाड़कर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की जगह ली थी तो दुनिया चौंक गई थी। अलबत्ता इसके बाद यह मान लिया गया था कि अमेरिका व जापान ने पहली व दूसरी सीटें रिजर्व करा ली हैं। गरीब और आबादी से भरा चीन तब किसी के राडार पर नहीं था। साढ़े तीन से चार दशकों में सारी गणनाएं सर के बल खड़ी हो गई। सुधारों के पहले एक दशक में तो दुनिया यह जान ही नहीं पाई कि चीन में क्या हो रहा है। अगले एक दशक में लोगों ने चीन को समझना शुरू किया और बाद के तीसरे दशक में दुनिया दांतो तले उंगली दबाकर इसकी रफ्तार में खो गई। चीन शून्य से शिखर पर आ गया। बीते सप्ताह जब जापान की सरकार ने यह बताया कि साल की दूसरी तिमाही में जापान का जीडीपी 1.29 ट्रिलियन डॉलर रहा है, जबकि चीन का 1.36 ट्रिलियन तो दुनिया के सामने हर तरह से यह साबित हो गया कि अब अमेरिका के बाद चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत है। दुनिया के विशेषज्ञ किसी देश की अर्थव्यवस्था का आकार उसकी क्रय शक्ति (पर्चेजिंग पॉवर) पर आंकते हैं और चीन इस पैमाने पर जापान को एक दशक पहले ही पछाड़ चुका है। अलबत्ता दुनिया आर्थिक उत्पादन के डॉलर में मूल्यांकन को ज्यादा भरोसेमंद मानती है। इसलिए जापान के आर्थिक उत्पादन के आंकड़ों बाद लगी मुहर ज्यादा प्रामाणिक है। अब यह तय है कि साल खत्म होते-होते चीन का उत्पादन जापान से काफी आगे निकल जाएगा। अब अगर कोई महामंदी न आ धमके या बड़ी आफत न आए तो चीन अगले एक दशक से भी कम वक्त में अमेरिका को पछाड़ सबसे आगे खड़ा होगा।
असमंजस बेशुमार
आगे होने पर चीन बाग-बाग नहीं, बल्कि संजीदा है। ड्रैगन के सरकारी अखबार इस रिपोर्ट कार्ड को बहुत तवज्जो न देने की सलाह बांट रहे हैं। दरअसल चीन एक खास किस्म की उधेड़बुन में है। तेज विकास दर की चमक में चीन के अंतरविरोध भी उभर आए हैं। दुनिया अब चीन के भीतर विकास ही नहीं और भी कुछ देख रही है। हाल में जब चीन की एक बड़ी सूचना तकनीक कंपनी में वेतन न बढ़ने पर श्रमिक असंतोष बढ़ा तो पूरी दुनिया पीछे पड़ गई। 1.3 अरब लोगों वाले चीन की विसंगतियां महाकाय हैं। सरकार ने ज्यादातर संसाधन देश को औद्योगिक ताकत बनाने में झोंक दिए, जिसके कारण एक डॉलर प्रतिदिन से भी कम कमाने वाले 15 करोड़ लोगों की हालत पर नजर ही नहीं गई। 58 फीसदी आबादी गांवों में है और मानव विकास सूचकांक में चीन बहुत से छोटों से पीछे है। सिर्फ यही नहीं जापान की तर्ज पर चीन ने पर्यावरण गंवाया है और ये सभी क्षेत्र चीन में भारी निवेश मांग रहे हैं, जबकि राज्य सरकारों पर भारी कर्ज है। चतुर कामरेडों को मालूम है कि अगर दुनिया ने विकसित दर्जे में गिनना शुरू कर दिया तो यह सब कुछ ज्यादा समय तक ढंका नहीं जा सकता, इसलिए चीन विकासशील ही रहना मांगता है। अब दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का तमगा लगाए चीन को यह महसूस हो रहा है कि वह पूरी दुनिया के लिए सस्ता सप्लायर भर बनकर रह गया है। यह दर्जा भी उसने काफी कुछ गंवाकर पाया है।
दुनिया बेकरार
चाइना डेली ने सलाह दी है कि चीन को इन आंकड़ों पर इतराने के बजाय अपना प्रैक्टिकल काम करते रहना चाहिए। यकीनन चीन अपना प्रैक्टिकल काम कर रहा है और दुनिया इसे देख व जान रही है और बेचैन है। चीन का यह नया शिखर विश्व में आर्थिक संतुलन बदलने की पहली इबारत है। वित्तीय बाजार के लिए चीन बहुत बड़ी ताकत है। दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था यानी अमेरिका के सरकारी बांडों में चीन सबसे बडा निवेशक है यानी अमेरिका ने अपने ताजा खातों में सबसे ज्यादा कर्ज चीन से ले रखा है। यूरो जोन में चीन की तूती बोलती है और अफ्रीका में उसका पैसा अभूतपूर्व कमाल दिखा रहा है। इसलिए कोई भी चीन के विकासशील होने के मुगालते में नहीं है। चीन यूं तो जिद्दी है, मगर चतुर भी। अगर बात फायदे की हो तो उसे अपनी मुद्रा अवमूल्यन करने का दबाव स्वीकारने में दिक्कत नहीं है। सबसे बड़ी बात यह कि चीन कूटनीतिक ताकत में अपने पूर्ववर्ती नंबर दो जापान से बहुत अलग है। दुनिया के मंचों पर चीन का जलवा दिखता है और इसके बूते वह यूरोप से लेकर अफ्रीका तक तरह-तरह से पैर फैला रहा है। चीन ने सैन्य ताकत भी मजबूत की है और दुनिया में प्राकृतिक संसाधनों की होड़ में लंबे हाथ मारे हैं। दुनिया की नंबर दो अर्थव्यवस्था बनने के बाद ड्रैगन का आत्मविश्वास और बढ़ गया है।
ब्रिटेन के करीब 2500 से ज्यादा छात्र मंदरिन (चीन की भाषा) सीख रहे हैं। पिछले कुछ वर्षो में दुनिया में हुए कोयला, तेल, गैस व यूरेनियम के अधिकांश बड़े सौदे चीन की कंपनियों ने किए हैं और चीन की मुद्रा युआन भविष्य में नई ताकत बन सकती है यानी कि यह मानना गलत नहीं है कि दुनिया का पहिया अब चीन के इशारे पर घूम रहा है। मगर पहिए पर खुद चीन भी सवार है। पिछले तीन दशक में चीन ने उत्पादन का विशाल तंत्र खड़ा कर लिया है और दुनिया में हर पांच लोगों में एक चीन का आदमी शामिल है। अर्थात इतनी बड़ी आबादी व इस उत्पादन तंत्र के लिए दुनिया की चक्की का लगातार तेजी से चलते रहना जरूरी है, क्योंकि अगर विश्व की अर्थव्यवस्था को झटके लगे तो चीन का पहिया भी पटरी से उतर जाएगा और मेला उखड़ जाएगा। नंबर दो बनने के बाद चीन दुनिया पर शायद कुछ ज्यादा ही निर्भर हो गया है।
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Wednesday, April 21, 2010

चीन है तो चैन कहां रे?

यह अखाड़ा कुछ फर्क किस्म का है। यहां कमजोर भी जीतते हैं, वह भी सीना ठोंक कर। यह लड़ाई बाजार की है जिसमें कमजोर होना एक बड़ा रणनीतिक दांव है। देखते नहीं कि महाकाय, बाजारबली चीन ने अपनी मुद्रा युआन (आरएमबी) की कमजोरी के सहारे चचा सैम के मुल्क सहित दुनिया के बाजार पर इस तरह कब्जा कर लिया कि अब नौबत अमेरिका व चीन के बीच ट्रेड वार की है। अमेरिका चीन को आधिकारिक रूप से धोखेबाज यानी (करेंसी मैन्युपुलेटर) घोषित करते-करते रुक गया है। चीनी युआन का तूफान इतना विनाशक है कि उसने अमेरिकी बाजार से रोजगार खींचकर अमेरिका के खातों में भारी व्यापार घाटा भर दिया है। पाल क्रुगमैन जैसे अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि दुनिया के बाजार में छाया 'मेड इन चाइना' चीन की मौद्रिक धोखेबाजी का उत्पाद है। सस्ते युआन के सहारे चीन दुनिया के अन्य व्यापारियों को बाजार से दूर खदेड़ रहा है। अमेरिकी संसद में चीन के इस मौद्रिक खेल के खिलाफ कानून लाने की तैयारी चल रही है। अमेरिका के वित्त मंत्री गेटनर, हू जिंताओ को समझाने की कोशिश में हैं। क्योंकि करेंसी मैन्युपुलेटर के खिताब से नवाजे जाने के बाद चीन के लिए मुश्किलें बढ़ जाएंगी। वैसे बाजार को महक लग रही है कि शायद चीन अपनी इस मारक कमजोरी को कुछ हद तक दूर करने पर मान भी सकता है।
बाजारबली की मारक दुर्बलता
चीन को यह बात दशकों पहले समझ में आ गई थी कि कूटनीति और समरनीति की दुनिया भले ही ताकत की हो, लेकिन बाजार की दुनिया में कमजोर रहकर ही दबदबा कायम होता है। यानी कि निर्यात करना है और दुनिया के बाजारों को अपने माल से पाट कर अमीर बनना है तो अपनी मुद्रा का अवमूल्यन ही अमूल्य मंत्र है। 1978 में अपने आर्थिक सुधारों की शुरुआत से ही चीन ने निर्यात का मैदान मारने के लिए मुद्रा अवमूल्यन के प्रयोग शुरू कर दिए थे। आठवें दशक में चीन का निर्यात बुरी तरह कमजोर था। सस्ती मुद्रा का विटामिन मिलने के बाद यह चढ़ने और बढ़ने लगा। इसे देख कर अंतत: 1994 में एक व्यापक बदलाव के तरह चीन ने डालर व युआन की विनिमय दर को स्थिर कर दिया, जो कि इस समय 6.82 युआन प्रति डालर पर है। चीन का युआन, डालर व यूरो की तरह मुक्त बाजार की मुद्रा नहीं है। इसकी कीमत चीन के व्यापार की स्थिति या मांग-आपूर्ति पर ऊपर नीचे नहीं होती, बल्कि चीन सरकार इसका मूल्य तय करती है, जिसके पीछे एक जटिल पैमाना है। चीन की सरकार बाजार में डालरों की आपूर्ति को बढ़ने नहीं देती। चीनी निर्यातक जो डालर चीन में लाते हैं उन्हें चीन का केंद्रीय बैंक खरीद लेता है, जिससे युआन डालर के मुकाबले कम कीमत पर बना रहता है। अमेरिका का आरोप है कि चीन अपने यहां उपभोग को रोकता और बचत को बढ़ावा देता है, जिससे चीन के बाजारों में अमेरिकी माल की मांग नहीं होती, लेकिन अमेरिकी बाजार में सब कुछ मेड इन चाइना नजर आता है। अमेरिका का यह निष्कर्ष उसके व्यापार के आंकड़ों में दिखता है। पिछले साल चीन के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा 227 अरब डालर था, जो अभूतपूर्व है। चीन ने अमेरिका को 296 अरब डालर का निर्यात किया, जबकि अमेरिका से चीन को केवल 70 अरब डालर का निर्यात हो सका। चीन का विदेशी मुद्रा भंडार भी इसका सबूत है कि जो पिछले एक दशक में पूरी दुनिया में जबर्दस्त निर्यात के सहारे 2,500 अरब डालर बढ़ चुका है और चीन के सकल घरेलू उत्पादन का 50 फीसदी है। दुनिया के सबसे बडे़ बाजार अमेरिका से साथ व्यापार संतुलन पक्ष में, इतना विशाल विदेशी मुद्रा भंडार और दुनिया एक तरफ मगर युआन की दर एक तरफ वाली नीति। छोटे निर्यात प्रतिस्पर्धी युआन की आंधी में कहां टिकेंगे? ....चीन ने दुर्बल मुद्रा से दुनिया के बाजारों को रौंद डाला है।
महाबली की बेजोड़ विवशता
महाबली इस समय ड्रैगन के जादू में बुरी तरह उलझ गया है। चीन इस महाबली को कर्ज से भी मार रहा और व्यापार से भी। अमेरिका के अर्थशास्त्री क्रुगमैन का हिसाब कहता है कि चीन के मौद्रिक खेल के कारण हाल के कुछ वषरे में अमेरिका करीब 14 लाख नौकरियां गंवा चुका है। उनके मुताबिक चीन अगर युआन को लेकर ईमानदारी दिखाता तो दुनिया की विकास दर पिछले पांच छह सालों में औसतन डेढ़ फीसदी ज्यादा होती। चीन ने सस्तंी मुद्रा से अन्य देशों की विकास दर निगल ली। अमेरिकी सीनेटर शुमर व कुछ अन्य सांसद चीन को मौद्रिक धोखेबाज घोषित करने और व्यापार प्रतिबंधों का विधेयक ला रहे हैं। अमेरिका के वित्त विभाग को बीते सप्ताह अपनी रिपोर्ट जारी करनी थी जिसमें चीन को मौद्रिक धोखेबाज का दर्जा मिलने वाला था, लेकिन अंतिम मौके पर रिपोर्ट टल गई। .. टल इसलिए गई क्योंकि महाबली बुरी तरह विवश है। चीनी युआन की कमजोर ताकत बढ़ाने में अमेरिका की बड़ी भूमिका है। चीन जो डालर एकत्र कर रहा है, उनका निवेश वह अमेरिका के बांडों व ट्रेजरी बिलों में करता है। यह निवेश इस समय 789 अरब डालर है, जो कि अमेरिकी सरकार के बांडों का 33 फीसदी है। दरअसल अमेरिका के लोगों ने बचत की आदत छोड़ दी है। सरकार कर्ज पर चलती है जो कि बांडों में चीन के निवेश के जरिए आता है। अगर चीन निवेश न करे तो अमेरिका में ब्याज दरें आसमान छूने लगेंगी। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मौद्रिक प्रवाह का पहिया इस समय चीन से घूमता है। अमेरिका के वित्तीय ढांचे में चीन के इस निवेश के अपने खतरे हैं, सो अलग लेकिन अगर मौद्रिक धोखेबाजी की डिग्री मिलने के बाद चीन ने निवेश रोक दिया तो चचा सैम के लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी। लेकिन अगर अमेरिका युआन की कमजोरी को चलने देता है तो अमेरिका के उद्योग ध्वस्त हो जाएंगे। ... अमेरिका के लिए कुएं और खाई के बीच एक को चुनना है।
दुनिया में दोहरा असमंजस
पांच छह साल पहले मुद्राओं की कीमतों को मोटे पर अंदाजने के लिए एक बिग मैक थ्योरी चलती थी, जिसमें दुनिया के प्रमुख शहरों में बर्गर की तुलनात्मक कीमत को डालर में नापा जाता था। तब भी युआन सबसे अवमूल्यित और स्विस फ्रैंक अधिमूल्यित मुद्रा थी। लेकिन अब बात बर्गर के हिसाब जितनी आसान नहीं है, बल्कि ज्यादा पेचीदा है। चीन के लिए दस फीसदी व्यापार बढ़ने का मतलब है कि अमेरिका के रोजगारों में दस फीसदी की कमी, लेकिन अगर चीन अपने युआन या आरएमबी को 25 फीसदी महंगा करता है तो उसे अपनी 2.15 फीसदी जीडीपी वृद्घि दर गंवानी होगी। दुनिया को उबारने में चीन का बड़ा हाथ है, इसलिए यह गिरावट उन देशों को भारी पड़ेगी जो मंदी से परेशान हैं और चीन उनका बड़ा बाजार है। इन देशों में आस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड प्रमुख होंगे। इस सबके बाद भी दुनिया में यह मानने वाले बहुत नहीं है कि ताकतवर युआन महाबली की समस्याएं हल कर देगा। अमेरिका में बचत शून्य है और निर्यात ध्वस्त। जिसे ठीक करने में युआन की कीमत की मामूली भूमिका होगी। अलबत्ता इतना जरूर है कि भारत, ताईवान, कोरिया, मलेशिया जैसों को बाजारबली चीन की प्रतिस्पर्धा से कुछ राहत मिल जाएगी।
दुनिया का सबसे सफल युद्ध वह है, जिसमें शत्रु को बिना लड़े पराजित कर दिया जाता है। ..यही तो कहा था ढाई हजार साल पहले चीन के प्रख्यात रणनीतिकार सुन त्जू ने। चीन ने दुनिया के बाजार को बड़ी सफाई के साथ बिना लड़े जीत कर सुन त्जू को सही साबित कर दिया। पूरी दुनिया युआन की खींचतान का नतीजा जानने को बेचैन है। नतीजा वक्त बताएगा, लेकिन दिख यह ही रहा है कि बाजार में खेल के नियम फिलहाल बीजिंग से तय होंगे। चीन अपनी शर्तो पर ही युआन के तूफान पर लगाम लगाएगा, क्योंकि भारी कर्ज और ध्वस्त वित्तीय तंत्र के कारण दुनिया के महाबलियों की तिजोरियां तली तक खाली हैं, जबकि चीन अपनी कमजोर मुद्रा के साथ इस समय महाशक्तिशाली है। दुनिया का ताजा आर्थिक विकास मेड इन चाइना है, जबकि दुनिया का ताजा आर्थिक विनाश मेड इन अमेरिका और यूरोप।.. जाहिर है कि दुनिया मूर्ख नहीं है अर्थात वह विकास को ही चुनेगी, यानी चीन की ही शर्ते सुनेगी।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच, सातोरी)