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Friday, February 12, 2021

गुम राह की तलाश


डिजिटल करेंसी, सरकारी कंपनियों के निजीकरण और फसलों की सही कीमत के बीच क्या रिश्ता है? सरकार इन तीनों को ही टालना चाहती थी लेकिन वक्त ने इनको अपरिहार्य बना दिया. तीन साल से दायें-बायें कर रहा और प्रतिबंधों पर टिका निजाम अंतत: डि‍जिटल करेंसी के लिए कानून लाने पर मजबूर हो गया. ठीक इसी तरह बजट के घाटे ने यह हालत कर दी कि अब खुलकर कहना पड़ा कि सार्वजनिक कंपनियों के निजीकरण के अलावा कोई रास्ता नहीं है.

बदलता वक्त बेहद तेज आवाज में सरकार को बता रहा है कि भारत में फसलों का पारदर्शी और उचित मूल्य (प्राइस रियलाइजेशन) तय करने के सुधारों का वक्त आ गया है. आंदोलन कर रहे किसान दिल्ली का तख्त नहीं बस यही सुधार तो मांग रहे हैं. और सरकार फसल मूल्यों की पारदर्शी व्यवस्था के बगैर हवा में फसलों का बाजार खड़ा कर देना चाहती है. इसलिए शक सुलग उठे और किसानों का ध्वस्त भरोसा अब किसान महापंचायतों में उमड़ रहा है.

किसानों को अचानक सपना नहीं आया कि वह उठकर समर्थन मूल्य की गारंटी मांगने लगे और न ही वह ऐसा कुछ मांग रहे हैं जो सरकार के एजेंडे में नहीं था. सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के जिस वादे को बार बार दोहरा रही थी, फसलों की सही कीमत (केवल सीमित सरकारी खरीद नहीं) उसका अपरिहार्य हिस्सा रही है. इन बिलों से पहले तक तैयार हुए तीन आधि‍कारिक दस्तावेज बताते हैं कि किसानों की आय बढ़ाने के लक्ष्य के तहत फसल मूल्य सुधारों के एजेंडे पर काम चल रहा था, जिससे किसान भी अन‍भि‍ज्ञ नहीं थे.

फसल की वाजिब कीमत के अलावा कृषि‍ सुधार और हैं क्या? खेती की जमीन बढ़ नहीं सकती. फसलों का विविधीकरण, नई तकनीकों के इस्तेमाल करने, खेती में निजी निवेश बढ़ाने या फिर छोटे किसानों की आय बढ़ाने के सभी उपाय इस बात पर केंद्रित हैं कि उत्पादक (किसान) को अधि‍कांश उत्पादन (फसल) की सही कीमत कैसे मिले. खेती में तरक्की के सभी रास्ते इससे ही निकलते हैं.

नवंबर 2018 में नीति आयोग ने न्यू इंडिया @75 नाम का दस्तावेज बनाया था, जिसकी भूमिका स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लिखी थी. इसमें 2022 तक कृषि‍ लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) को खत्म कर एग्री प्राइसिंग ट्रिब्यूनल बनाने का लक्ष्य रखा गया. नीति आयोग से कहा गया था कि वह

एमएसपी के समानांतर मि‍निमम रिजर्व प्राइस (एमआरपी) की प्रक्रिया तय करे. इस एमआरपी पर मंडियों में फसल की नीलामी शुरू होनी चाहिए.

  तैयारी यह भी थी कि देश में सरप्लस उत्पादन, देश में कम लेकिन विदेश में ज्यादा और दोनों जगह कम उत्पादन वाली फसलों के लिए एमएसपी से अलग कीमत तय की जाए.

  मंडी कमीशन और फीस का ढांचा बदलने की भी राय थी ताकि किसानों को एमएसपी का प्रतिस्पर्धी मूल्य मिल सके.

अच्छे और खराब मानसून के दौरान अलग-अलग कीमतें तय करने पर भी बात हो रही थी.

यह दस्तावेज किसानों की आय दोगुनी करने वाली समिति की सिफारिशों (सिंतबर 2018) के बाद बना था जिसमें किसानों की समग्र उत्पादन लागत पर कम से कम 50 फीसदी मुनाफा देने की सिफारि‍श की गई थी. इससे पहले 2011 में नरेंद्र मोदी (तब मुख्यमंत्री) की अध्यक्षता वाली समिति एमएसपी को महंगाई से जोडऩे और बाजार में फसल की बिक्री एमएसपी पर आधारित करने के वैधानिक उपाय की राय दे चुकी थी.

ये तैयारियां से पहले सरकार यह स्वीकार कर चुकी थी 

अधि‍कांश फसल (सरकारी खरीद कुल उपज का केवल 13%) लागत से कम कीमत पर बिकती है. विभि‍न्न फसलों में खलिहान मूल्य (हार्वेस्ट प्राइस) बाजार के खुदरा मूल्य से 35 से 63 फीसदी तक कम हैंनीति आयोग

1980 के बाद से अब तक किसानों की आय कभी भी गैर खेतिहर श्रमिकों की आय के एक तिहाई से ज्यादा नहीं हो सकी. यानी 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने को उनकी कमाई सालाना 10.4 फीसदी की दर से बढ़ानी होगी.

इस हकीकत और तैयारी की रोशनी में नए कानूनों पर हैरत लाजिमी है जिनमें फसलों की वाजिब कीमत तय करने की योजना तो दूर समर्थन मूल्य शब्द का जिक्र भी नहीं था. यानी मंदी के बीच किसान अर्से से जिन सुधारों की बाट जोह रहे थे उनकी जगह उन्हें कुछ और दे दिया गया. नतीजा: आशंकाएं जन्मी और विरोध उबल पड़ा.

यहां न सरकार गुमराह है, न किसान. सरकारें आदतन आलसी होती हैं. किसी 'खास’ को फायदा देने के अलावा वे अक्सर संकट और सियासी नुक्सान पर ही जागती हैं. सो कभी कभी आंदोलन भी सुधार का रास्ता खोल देते हैं. फसल मूल्य सुधार जटिल हैं, इनसे तत्काल बड़े राजनैतिक नारे नहीं बनेंगे लेकिन इन सुधारों को अब शुरू करना ही होगा क्योंकि उस विचार को कोई भी ताकत रोक नहीं सकती जिसका समय आ गया है (विक्टर ह्यूगो).


Friday, December 11, 2020

धुआं-सा यहां से उठता है


एक गांव के लोग भरपूर पैदावार के बाद भी गरीब होते जा रहे थे. मांग थी नहीं, सो कीमत नहीं मिलती थी. निजाम ने कहा बाजार में नए कारोबारी आएंगे. लोग समझ नहीं पाए कि समस्या मांग की कमी है या या व्यापारियों की? भ्रम फैला, सब गड्मड् हो गया. हैरां थे अपने अक्स पे घर के तमाम लोग, शीशा चटख गया तो हुआ एक काम और.

कृषिबिलों की बहस यह है कि किसान बाजार में अपना नुक्सान बढ़ते जाने को लेकर आशंकित हैं. केंद्र सरकार समझा नहीं पा रही है कि निजी कंपनियों के आने या कॉन्ट्रेक्ट खेती से किसानों की आय कैसे बढ़ेगी?

उत्पादन और बाजार से रिश्ता ही असली है, बाकी सब मोह-माया है. इस मामले में भारतीय खेती 2012 से ज्यादा बुरे हाल में है. तब आ रही कंपनियां, कम से कम, सप्लाइ चेन, प्रोसेसिंग, कोल्ड चेन में निवेश कर एक विशाल रिटेल मार्केट बनाकर किसानों के लिए बाजार बनाने का वादा तो कर रहीं थीं लेकिन अब तो जिनबड़ोंके लिए तंबू ताना जा रहा है, पता नहीं वे आएंगे भी नहीं या नहीं.

समझना जरूरी है कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी फूड फैक्ट्री (सबसे बड़ा अनाज, फल-सब्जी-मछली उत्पादक, दूध उत्पादक, सबसे बड़ी मवेशी आबादी और 95.2 अरब अंडों का सालाना उत्पादन) गरीबी ही क्यों पैदा करती है.

वोट की गरज से सरकारें समर्थन मूल्य के जरिए खूब उगाने का लालच देती है और फिर कुल उपज का केवल 13 फीसद हिस्सा खरीदकर बाजार बिगाड़ देती हैं. बची हुई उपज समर्थन मूल्य से काफी कम कीमत पर बिकती है. 2014 के बाद खेती चिरंतन मंदी में है, आय घट रही है. गांवों में मुसीबत है, यह सरकार भी मानती है.

80 फीसद किसान एक एकड़ से कम जोत वाले हैं, समर्थन मूल्य तो दूर वे क्या खाएं और क्या बेचें, इसी में निबट जाते हैं. गांवों में 60 फीसद आय गैर खेती कामों से आती है.

खाद्य बाजार निन्यावे के फेर में है. न निवेश है, न किसानों को सही कीमत और न ही उपभोक्ताओं को अच्छे उत्पाद.

उपज की अंतरराज्यीय बिक्री पर कोई पाबंदी नहीं है. पहाड़ के फल, केरल का नारियल और उत्तर प्रदेश का आलू पूरे देश में मिलता है. समस्या दरअसल सही कीमत की है, जिसके लिए देश के भीतर प्रसंस्कृत खाद्य की मांग बढ़ानी होगी या फिर निर्यात. दोनों ही मामलों में सरकारों ने बाजार के पैरों पर पूरी कलाकारी से कुल्हाड़ी मारी है. 

1991 के बाद फूड प्रोसेंसिग की संभावनाएं सुनते-सुनते कान पक गए लेकिन भारत में कुल उपज का केवल 10 फीसद (प्रतिस्पर्धा देशों में 40-50) हिस्सा प्रोसेस होता है. इसमें भी अधिकांश प्राइमरी प्रोसेसिंग है, जैसे, धान से चावल, आलू, मछली और मीट को ठंडा रखना आदि. कीमत और कमाई बढ़ाने वाली प्रोसेसिंग नगण्य है.

135 करोड़ की आबादी में खाद्य प्रसंस्करण यह हाल इसलिए है क्योंकि एकटैक्स व लागतों के कारण प्रोसेस्ड फूड महंगा है, और पहुंच से बाहर है. दोखाने की आदतें फर्क हैं. 

कुल औद्योगिक इकाइयों में 15 फीसद खाद्य उत्पाद (इंडस्ट्री सर्वे 2016-17, सीआइआइ फूड प्रो रिपोर्ट 2019) बनाती हैं और उनमें भी 93 फीसद छोटे उद्योग हैं. 45 में केवल एक मेगा फूड पार्क शुरू हो पाया है. प्रोसेसिंग से कीमत और कमाई बढ़ती है, मांग नहीं हो तो कंपनियां आगे नहीं आतीं.

कमाई बढ़ाने का दूसरा विकल्प विदेश का बाजार यानी निर्यात है. लेकिन उत्पादन का महज 7 फीसद हिस्सा निर्यात होता है, उसमें भी ज्यादातर पड़ोस के बाजारों को. दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी कृषिअर्थव्यवस्था निर्यात के मामले में 13वें नंबर पर (बेल्जियम से भी पीछे) है. 2009 से 2014 तक करीब 27 फीसद सालाना की दर से बढ़ने के बाद कृषिनिर्यात सालाना 12 फीसद की गति से गिर रहा है क्योंकि सरकार को व्यापार उदारीकरण से डर लगता है.

कृषिका विश्व व्यापार तगड़ी सौदेबाजी मांगता है. दुनिया में बेचने के लिए व्यापार समझौते चाहिए. अगर कोई हमारा घी खरीदेगा तो हमें उसका दूध खरीदना होगा.

भारत के पास या तो अमेरिका बनने का विकल्प है, जहां बड़ा घरेलू फूड उत्पाद बाजार है या फिर वियतनाम बनने का, जिसने 1990 के बाद चुनिंदा फसलों में वैल्यू चेन तैयार की. दस साल में 15 मुक्त व्यापार समझौतों किए और जीडीपी में खेती का हिस्सा चार गुना (10 से 36 अरब डॉलर) कर दिया.

अतिरिक्त उपज और मुक्त अंतरराष्ट्रीय व्यापार के दम सुमेरियाई सभ्यता (मेसोपटामिया 7000 ईपू) ने एक विराट खाद्य अर्थव्यवस्था तैयार की थी. महाकाव्य गिल्गामेश बताता है कि महानगर उरुक (मौजूदा बगदाद से 250 किमी दक्षिण) इसका केंद्र था.

भारतीय किसान, अकूत खनिज संपदा पर बसे निपट निर्धन अफ्रीकियों जैसे हो गए हैं, जहां शस्य लक्ष्मी या भरपूर पैदावार गरीबी बढ़ा रही है. बाजार पर उत्पादक का भरोसा उसके श्रम के उचित मूल्य से ही बनता है, इसके बिना हो रहे फैसले सरकार की नीयत पर संदेह बढ़ा रहे हैं. यह सियासत जिस बाजार के नाम पर हो रही है वह तो भारतीय खेती के पास है ही नहीं, नतीजतन किसान, दान के चक्कर में कटोरा गंवाने से डर रहे हैं.

 


Friday, September 18, 2020

पांव के नीचे जमीन नहीं

 

प्रधान की भैंस तालाब के गहरे पानी में फंस गई. सलाहकारों ने गांव के सबसे दुबले और कमजोर व्यक्तिको आगे करते हुए कहा कि इसमें जादू की ताकत है, यह चुटकियों में भैंस खींच लाएगा. दुर्बल मजदूर को तालाब के किनारे ले जाकर भैंस की रस्सी पकड़ा दी गई. सलाहकार नारे लगाने लगे और देखते-देखते बेचारा मजदूर भैंस के साथ तालाब में समा गया.

इस घटना को देखकर आया एक यात्री अगले गांव में जब यह किस्सा सुना रहा था तब कोई एक बड़ा नेता टीवी पर देश को यह बता रहा था कि जीडीपी के -24 फीसद टूटने पर सवाल उठाने वाले नकारात्मक हैं. लॉकडाउन के बीच भी खेती की ग्रोथ नहीं दिखती?  नए कानूनों की गाड़ी लेकर निजी कंपनियां खेतों तक पहुंच रही हैं. मंदी बस यूं गई, समझो.

मंडियों में निजी क्षेत्र के दखल के कानूनों में नए बदलावों पर भ्रम हो सकता है लेकिन इस पर कोई शक नहीं कि दिल्ली का निजाम खेती की हकीकत से गाफिल है. उसे अभी भी लगता है कि उपज की मार्केटिंग में निजी क्षेत्र को उतार कर किसानों की कमाई बढ़ाई जा सकती है जबकि खेती की दरारें बहुत चौड़ी और गहरी हो चुकी हैं.

जहां समर्थन मूल्य बढ़ाने के बावजूद 2019 में किसानों को तिमाही वजीफा देना पड़ा था, उस खेती को महामंदी से उबारने की ताकत से लैस बताया जा रहा है. पहली तिमाही में 3.4 फीसद की कृषिविकास दर चमत्कारिक नहीं है. खेती के कुल उत्पादन मूल्य (जीवीए) में बढ़ोतरी बीते बरस से खासी कम (8.6 से 5.7 फीसद) है. यानी उपज का मूल्य न बढ़ने से, पैदावार बढ़ाकर किसान और ज्यादा गरीब हो गए.

खेती में आय पिछले चार-पांच वर्षों से स्थिर है, बल्कि महंगाई के अनुपात में कम ही हो गई है. 81.5 फीसद ग्रामीण परिवारों के पास एक एकड़ से कम जमीन है. जोत का औसत आकार अब घटकर केवल 1.08 एकड़ पर आ चुका है. नतीजतन, भारत में किसान की औसत मासिक कमाई (प्रधानमंत्री के वजीफे सहित) 6,000 रुपए से ज्यादा नहीं हो पाती. यह 200 रुपए रोज की दिहाड़ी है जो कि न्यूनतम मजदूरी दर से भी कम है. क्या हैरत कि 2018 में 11,000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की.

90 फीसद किसान खेती के बाहर अतिरिक्त दैनिक कमाई पर निर्भर हैं. ग्रामीण आय में खेती का हिस्सा केवल 39 फीसद है जबकि 60 फीसद आय गैर कृषिकामों से आती है. खेती से आय एक गैर कृषिकामगार की कमाई की एक-तिहाई (नीति आयोग 2017) है. जो शहरी दिहाड़ी से हुई बचत गांव भेजकर गरीबी रोक रहे थे लॉकडाउन के बाद वे खुद गांव वापस पहुंच गए हैं.

सरकार बार-बार खेती की हकीकत समझने में चूक रही है. याद है न समर्थन मूल्य पर 50 फीसद मुनाफे का वादा और उसके बाद बगलें झांकना या 2014 में भूमि अधिग्रहण कानून की शर्मिंदगी भरी वापसी. अब आए हैं तीन नए कानून, जो उपज के बाजार का उदारीकरण करते हैं और व्यापारियों के लिए नई संभावनाएं खोलते हैं.

फसलों से उत्पाद बनाने की नीतियां कागजों पर हैं. सरकार के दखल से उपजों का बाजार बुरी तरह बिगड़ चुका है. किसान ज्यादा उगाकर गरीब हो रहा है. जब सरकार ही उसे सही कीमत नहीं दे पाती तो निजी कारोबारी क्या घाटा उठाकर किसान कल्याण करेंगे.

कृषिमें अब दरअसल यह होने वाला हैः

खरीफ में अनाजों का बुवाई बढ़ना अच्छी खबर नहीं है. लॉकडाउन में नकदी फसलों में नुक्सान के कारण किसान फिर अनाज उगाने लगे हैं, जहां उन्हें कभी फायदे का सौदा नहीं मिलता.

घटती मांग के बीच अनाज की भरमार होने वाली है. खेती भी मंदी की तरफ मुखातिब है, स्थानीय महंगाई से किसान को कुछ नहीं मिलता बल्कि उपभोक्ता इस बोझ को उठाता है.

करीब 50 करोड़ लोग या 55 फीसद ग्रामीणों के पास जमीन का एक टुकड़ा तक नहीं है. देश में 90 लाख मजदूर मौसमी प्रवासी (जनगणना 2011) हैं, जो खेती का काम बंद होने के बाद शहर में दिहाड़ी करते हैं. लॉकडाउन के बाद ये सब निपट निर्धनता की कगार पर पहुंच गए हैं.

जरूरत से ज्यादा मजदूर, मांग से ज्यादा पैदावार और शहरों से आने वाले धन के स्रोत बंद होने से ग्रामीण आय में कमी तय है.

बीते 67 सालों में जीडीपी की वृद्धि दर 3 से 7.29 फीसद पर पहुंच गई लेकिन खेती की विकास दर 2 से 3 फीसद के बीच झूल रही है. इस साल भी कोई कीर्तिमान बनने वाला नहीं है. जीडीपी में केवल 17 फीसद हिस्से वाली खेती इस विराट मंदी से क्या उबारेगी. यह मंदी तो 43 फीसद रोजगारों को संभालने वाली इस आर्थिक गतिविधिको नई गरीबी की फैक्ट्री में बदलने वाली है.

सरकार को दो काम तो तत्काल करने होंगे. एकअसंख्य स्कीमों को बंद कर यूनिवर्सल बेसिक इनकम की शुरुआत और दूसरा न्यूनतम मजदूरी दर को महंगाई से जोड़ना.

सनद रहे कि गांवों के पास मंदी का इलाज होने या ग्रामीण अर्थव्यवस्था की ताकत बताने वाले सिर्फ भरमा रहे हैं. गांवों की हकीकत दर्दनाक है. शहर जब तक मंदी की गर्त से निकल कर तरक्की की सीढ़ी नहीं चढ़ेंगे गांव उठकर खड़े नहीं होंगे.

Friday, November 8, 2019

डर के नक्कारखाने


 

डर के नक्कारखाने सबसे बड़ी सफलताओं को भी गहरी कायरता से भर देते हैं. भारत चुनिंदा देशों में है जिसने सबसे कम समय में सबसे तेजी से खुद को दुनिया से जोड़कर विदेशी निवेश और तकनीक, का सबसे ज्यादा फायदा उठाया है. लेकिन खौफ का असर कि दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था विदेश नीति के मामले में सबसे प्रशंसित सरकार के नेतृत्व में 16 एशियाई देशों के व्यापार समूह आरसीईपी (रीजनल कॉम्प्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप) को पीठ दिखाकर बाहर निकल आई.

दुनिया से जुड़कर भारत को क्या मिला, यह जानने के लिए नरेंद्र मोदी के नीति आयोग के मुखिया रहे अरविंद पानगड़िया से मिला जा सकता है जो यह लिखते (ताजा किताबफ्री ट्रेड ऐंड प्रॉस्पेरिटी) हैं कि मुक्त व्यापार और ग्लोबलाइजेशन के चलते दो दशक में भारत की ग्रोथ में 4.6 फीसद का इजाफा हुआ है. इसीचमत्कारसे भारत में गरीबी घटी है.

व्यापार वार्ताओं की जटिल सौदेबाजी एक पहलू है और देश को डराना दूसरा पहलू. सौदेबाजी में चूक पर चर्चा से पहले हमें यह समझना होगा कि बंद दरवाजों से किसे फायदा होने वाला है? डब्ल्यूटीओ, व्यापार समझौतों और विदेशी निवेश के उदारीकरण का तजुर्बा हमें बताता है कि संरक्षणवाद के जुलूसों के आगे किसान या छोटे कारोबारी होते हैं और पीछे होती हैं बड़े देशी उद्योगों की लामबंदी क्योंकि प्रतिस्पर्धा उनके एकाधिकार पर सबसे बड़ा खतरा है.

आरसीईपी से जुडे़ डर को तथ्यों के आईने में उतारना जरूरी हैः

·       डब्ल्यूटीओ से लेकर आरसीईपी तक उदारीकरण का विरोध किसानों के कंधे पर बैठकर हुआ है लेकिन 1995 से 2016 के बीच (डब्ल्यूटीओ, कृषि मंत्रालय, रिजर्व बैंक के आंकड़े) दुनिया के कृषि निर्यात में भारत का हिस्सा 0.49 फीसद (डब्ल्यूटीओ से पहले) से बढ़कर 2.2 फीसद हो गया

·       आसियान, दक्षिण कोरिया और जापान भारत के सबसे सफल एफटीए (आर्थिक समीक्षा 2015-16) हैं. इन समझौतों के बाद, इन देशों से व्यापार 50 फीसद बढ़ा. निर्यात में 25 फीसद से ज्यादा इजाफा हुआ. यह गैर एफटीए देशों के साथ निर्यात वृद्धि का दोगुना है

·       विश्व व्यापार में सामान के निर्यात के साथ पूंजी (निवेश) और तकनीक की आवाजाही भी शामिल है. पिछले दो दशक में इसका (विदेशी निवेश) सबसे ज्यादा फायदा भारत को हुआ है

·       आरसीईपी से डराने वाले लोग जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग के गिरते हिस्से की नजीर देते हैं. लेकिन ढाई दशक का तजुर्बा बताता है कि जहां विदेशी पूंजी या प्रतिस्पर्धा आई वहीं से निर्यात बढ़ा और मैन्युफैक्चरिंग (ऑटोमोबाइल, केमिकल्स, फार्मा, इलेक्ट्रॉनिक्स, इलेक्ट्रिक मशीनरी) आधुनिक हुई है. उदारीकण से उद्योग प्रतिस्पर्धात्मक हुए हैं कि उसे रोकने से. छोटे मझोले उद्योगों में कमजोरी नितांत स्वेदशी कारणों से है.

फिर भी हम आरसीईपी के कूचे से बाहर इसलिए निकले क्योंकि

एक, एकाधिकारवादी उद्योग, हमेशा विदेशी प्रतिस्पर्धा का विरोध करते हैं. इसको लेकर वही उद्योग (तांबा, एल्युमिनियम, डेयरी) डरे थे जो या तो आधुनिक नहीं हैं या जहां कुछ कंपनियों का एकाधिकार है. भारत की इस पीठ दिखाऊ कूटनीति का फायदा उन्हें होने वाला है.

जैसे कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक है लेकिन एक बड़ी आबादी कुपोषण की शि‍कार है. . भारत में दूध की खपत (2012 से 16 के बीच) सालाना केवल 1.6 फीसदी की रफ्तार से बढ़ी.  दूध की महंगाई रिकार्ड तोड़ती है. कोआपरेटिव संस्थाओं का एकाधि‍कार में संचालित भारत का डेयरी उद्योग पिछड़ा है. यदि दूध की कीमतें कम होती हैं तो हर्ज क्या ? सनद रहे कि उपभोक्ताओं के लिए दूध की बढ़ी कीमत का फायदा किसानों को नहीं मिलता. उन्हें दूध फेंक कर आंदोलन करना पड़ता है.

दो, व्यापार वार्ताएं गहरी कूटनीतिक सौदेबाजी मांगती हैं. दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अपनी पूरी ताकत के साथ इसमें उतरी ही नहीं. मोदी सरकार की विदेश व्यापार नीति शुरू से संरक्षणवाद (अरविंद सुब्रह्मण्यम और पानगड़िया के चर्चित बयान) की जकड़ में है.  आरसीईपी पर सरकार के भीतर गहरे अंतरविरोध थे.

बीते दिसंबर के अंत में सरकार ने संसद को (वाणिज्य मंत्रालय की विज्ञप्ति- 1 जनवरी, 2019) आरसीईपी की खूबियां गिनाते हुए बताया था कि इससे देश के छोटे और मंझोले कारोबारियों को फायदा होगा. लेकिन बाद में घरेलू लामबंदी काम कर गई. वाजपेयी सरकार ने डब्ल्यूटीओ वार्ताओं के दौरान देशी उद्योगों और स्वदेशी की दकियानूसी जुगलबंदी को साहस और सूझबूझ के साथ आईना दिखाया था. यकीनन, आरसीईपी डब्ल्यूटीओ से कठिन सौदेबाजी नहीं थी जिसके तहत भारत ने पूरी दुनिया के लिए अपना बाजार खोला है.

आरसीईपी में शामिल हर अर्थव्यवस्था को चीन से उतना ही डर लग रहा है जितना कि डब्ल्यूटीओ में यूरोप और अमेरिका से विकासशील देशों को था. भारत छोटी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं का नेतृत्व कर चीन का प्रभुत्व रोक सकता था लेकिन पिछले छह साल के कथित विश्व विजयी कूटनीतिक अभियानों के बाद हमने पड़ोस का फलता-फूलता बाजार चीन के हवाले कर दिया.

नए व्यापार समझौते अपने पूर्वजों से सबक लेते हैं. आरसीईपी में कमजोरी यूरोपीय समुदाय कनाडा से एफटीए वार्ताओं में भारत के पक्ष को कमजोर करेगी.

चीन जब अपनी घरेलू अर्थव्यवस्था को संभाल रहा है तो भारत के लिए उड़ान भरने का मौका है. बड़ा निर्यातक बने बिना दुनिया का कोई भी देश लंबे समय तक 8 फीसद की विकास दर हासिल नहीं कर सका. सतत ग्लोबलाइजेशन के बिना 9 फीसद की विकास दर असंभव है. और इसके बिना पांच ट्रिलियन डॉलर का ख्वाब भूल जाना चाहिए.

व्यापार समझौतों से निकलने के नुक्सान ठोस होते हैं और फायदे अमूर्त. मुक्त व्यापार से फायदों का पूरा इतिहास हमारे सामने है संरक्षणवाद से नुक्सानों की गिनती शुरू होती है अब....