Friday, November 8, 2019

डर के नक्कारखाने


 

डर के नक्कारखाने सबसे बड़ी सफलताओं को भी गहरी कायरता से भर देते हैं. भारत चुनिंदा देशों में है जिसने सबसे कम समय में सबसे तेजी से खुद को दुनिया से जोड़कर विदेशी निवेश और तकनीक, का सबसे ज्यादा फायदा उठाया है. लेकिन खौफ का असर कि दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था विदेश नीति के मामले में सबसे प्रशंसित सरकार के नेतृत्व में 16 एशियाई देशों के व्यापार समूह आरसीईपी (रीजनल कॉम्प्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप) को पीठ दिखाकर बाहर निकल आई.

दुनिया से जुड़कर भारत को क्या मिला, यह जानने के लिए नरेंद्र मोदी के नीति आयोग के मुखिया रहे अरविंद पानगड़िया से मिला जा सकता है जो यह लिखते (ताजा किताबफ्री ट्रेड ऐंड प्रॉस्पेरिटी) हैं कि मुक्त व्यापार और ग्लोबलाइजेशन के चलते दो दशक में भारत की ग्रोथ में 4.6 फीसद का इजाफा हुआ है. इसीचमत्कारसे भारत में गरीबी घटी है.

व्यापार वार्ताओं की जटिल सौदेबाजी एक पहलू है और देश को डराना दूसरा पहलू. सौदेबाजी में चूक पर चर्चा से पहले हमें यह समझना होगा कि बंद दरवाजों से किसे फायदा होने वाला है? डब्ल्यूटीओ, व्यापार समझौतों और विदेशी निवेश के उदारीकरण का तजुर्बा हमें बताता है कि संरक्षणवाद के जुलूसों के आगे किसान या छोटे कारोबारी होते हैं और पीछे होती हैं बड़े देशी उद्योगों की लामबंदी क्योंकि प्रतिस्पर्धा उनके एकाधिकार पर सबसे बड़ा खतरा है.

आरसीईपी से जुडे़ डर को तथ्यों के आईने में उतारना जरूरी हैः

·       डब्ल्यूटीओ से लेकर आरसीईपी तक उदारीकरण का विरोध किसानों के कंधे पर बैठकर हुआ है लेकिन 1995 से 2016 के बीच (डब्ल्यूटीओ, कृषि मंत्रालय, रिजर्व बैंक के आंकड़े) दुनिया के कृषि निर्यात में भारत का हिस्सा 0.49 फीसद (डब्ल्यूटीओ से पहले) से बढ़कर 2.2 फीसद हो गया

·       आसियान, दक्षिण कोरिया और जापान भारत के सबसे सफल एफटीए (आर्थिक समीक्षा 2015-16) हैं. इन समझौतों के बाद, इन देशों से व्यापार 50 फीसद बढ़ा. निर्यात में 25 फीसद से ज्यादा इजाफा हुआ. यह गैर एफटीए देशों के साथ निर्यात वृद्धि का दोगुना है

·       विश्व व्यापार में सामान के निर्यात के साथ पूंजी (निवेश) और तकनीक की आवाजाही भी शामिल है. पिछले दो दशक में इसका (विदेशी निवेश) सबसे ज्यादा फायदा भारत को हुआ है

·       आरसीईपी से डराने वाले लोग जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग के गिरते हिस्से की नजीर देते हैं. लेकिन ढाई दशक का तजुर्बा बताता है कि जहां विदेशी पूंजी या प्रतिस्पर्धा आई वहीं से निर्यात बढ़ा और मैन्युफैक्चरिंग (ऑटोमोबाइल, केमिकल्स, फार्मा, इलेक्ट्रॉनिक्स, इलेक्ट्रिक मशीनरी) आधुनिक हुई है. उदारीकण से उद्योग प्रतिस्पर्धात्मक हुए हैं कि उसे रोकने से. छोटे मझोले उद्योगों में कमजोरी नितांत स्वेदशी कारणों से है.

फिर भी हम आरसीईपी के कूचे से बाहर इसलिए निकले क्योंकि

एक, एकाधिकारवादी उद्योग, हमेशा विदेशी प्रतिस्पर्धा का विरोध करते हैं. इसको लेकर वही उद्योग (तांबा, एल्युमिनियम, डेयरी) डरे थे जो या तो आधुनिक नहीं हैं या जहां कुछ कंपनियों का एकाधिकार है. भारत की इस पीठ दिखाऊ कूटनीति का फायदा उन्हें होने वाला है.

जैसे कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक है लेकिन एक बड़ी आबादी कुपोषण की शि‍कार है. . भारत में दूध की खपत (2012 से 16 के बीच) सालाना केवल 1.6 फीसदी की रफ्तार से बढ़ी.  दूध की महंगाई रिकार्ड तोड़ती है. कोआपरेटिव संस्थाओं का एकाधि‍कार में संचालित भारत का डेयरी उद्योग पिछड़ा है. यदि दूध की कीमतें कम होती हैं तो हर्ज क्या ? सनद रहे कि उपभोक्ताओं के लिए दूध की बढ़ी कीमत का फायदा किसानों को नहीं मिलता. उन्हें दूध फेंक कर आंदोलन करना पड़ता है.

दो, व्यापार वार्ताएं गहरी कूटनीतिक सौदेबाजी मांगती हैं. दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अपनी पूरी ताकत के साथ इसमें उतरी ही नहीं. मोदी सरकार की विदेश व्यापार नीति शुरू से संरक्षणवाद (अरविंद सुब्रह्मण्यम और पानगड़िया के चर्चित बयान) की जकड़ में है.  आरसीईपी पर सरकार के भीतर गहरे अंतरविरोध थे.

बीते दिसंबर के अंत में सरकार ने संसद को (वाणिज्य मंत्रालय की विज्ञप्ति- 1 जनवरी, 2019) आरसीईपी की खूबियां गिनाते हुए बताया था कि इससे देश के छोटे और मंझोले कारोबारियों को फायदा होगा. लेकिन बाद में घरेलू लामबंदी काम कर गई. वाजपेयी सरकार ने डब्ल्यूटीओ वार्ताओं के दौरान देशी उद्योगों और स्वदेशी की दकियानूसी जुगलबंदी को साहस और सूझबूझ के साथ आईना दिखाया था. यकीनन, आरसीईपी डब्ल्यूटीओ से कठिन सौदेबाजी नहीं थी जिसके तहत भारत ने पूरी दुनिया के लिए अपना बाजार खोला है.

आरसीईपी में शामिल हर अर्थव्यवस्था को चीन से उतना ही डर लग रहा है जितना कि डब्ल्यूटीओ में यूरोप और अमेरिका से विकासशील देशों को था. भारत छोटी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं का नेतृत्व कर चीन का प्रभुत्व रोक सकता था लेकिन पिछले छह साल के कथित विश्व विजयी कूटनीतिक अभियानों के बाद हमने पड़ोस का फलता-फूलता बाजार चीन के हवाले कर दिया.

नए व्यापार समझौते अपने पूर्वजों से सबक लेते हैं. आरसीईपी में कमजोरी यूरोपीय समुदाय कनाडा से एफटीए वार्ताओं में भारत के पक्ष को कमजोर करेगी.

चीन जब अपनी घरेलू अर्थव्यवस्था को संभाल रहा है तो भारत के लिए उड़ान भरने का मौका है. बड़ा निर्यातक बने बिना दुनिया का कोई भी देश लंबे समय तक 8 फीसद की विकास दर हासिल नहीं कर सका. सतत ग्लोबलाइजेशन के बिना 9 फीसद की विकास दर असंभव है. और इसके बिना पांच ट्रिलियन डॉलर का ख्वाब भूल जाना चाहिए.

व्यापार समझौतों से निकलने के नुक्सान ठोस होते हैं और फायदे अमूर्त. मुक्त व्यापार से फायदों का पूरा इतिहास हमारे सामने है संरक्षणवाद से नुक्सानों की गिनती शुरू होती है अब....

1 comment:

Ramesh Dubey said...
This comment has been removed by the author.