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Monday, March 2, 2015

29 बजटों की ताकत


राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने सूझ-बूझ और आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया तो राज्यों में भ्रष्टाचार और सरकारी संसाधनों की लूट की विराट कथाएं बनते देर नहीं लगेगी।
बीते सप्ताह जब उद्योग और सियासत मोदी सरकार के पहले पूर्ण बजट के इंतजार में नाखून चबा रहे थे, तब देश में कई और बजट भी पेश हो रहे थे. भारत एक बजट का नहीं बल्कि 29 बजटों का देश है और राज्यों के इन 29 बजटों को बेहद गंभीरता से लेने का वक्त आ गया है. अगले एक साल में भारत के राज्य उस वित्तीय ताकत से लैस हो चुके होंगे, जो देश में आर्थिक नीतियों का ही नहीं बल्कि राजनीति का चेहरा भी बदल देगी. फ्रांसीसी लेखक विक्टर ह्यूगो कहते थे, उस विचार को कोई नहीं रोक सकता जिसका समय आ गया हो. राज्यों को आर्थिक फैसलों की आजादी और संसाधन देने का समय आ गया था इसलिए इसे रोका नहीं जा सका. इसे आप भारत का सबसे दूरगामी आर्थिक सुधार कह सकते हैं जो पिछले एक दशक की सियासी चिल्लपों के बीच चुपचाप आ जमा है. नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से पहले वित्त आयोग ने राज्यों के वित्तीय अधिकार बढ़ाने का सफर शुरू कर दिया था, मोदी ने योजना आयोग को खत्म करते हुए इसे मंजिल तक पहुंचा दिया. मोदी सरकार के पहले पूर्ण बजट के साथ भारत में संघवाद का एक नया खाका उभर रहा है, जिसमें शक्ति संपन्न केंद्र अब कमजोर होगा जबकि राज्य वित्तीय मामलों में नई ताकत बनेंगे और विकास का तकाजा अब केवल दिल्ली से नहीं बल्कि जयपुर, भोपाल, लखनऊ, चेन्नै, बेंगलुरू, कोलकाता से भी होगा, जिन्हें इस नई वित्तीय ताकत व आजादी को संभालने की क्षमताएं विकसित करनी हैं.
योजना आयोग को खत्म करते हुए नरेंद्र मोदी विकेंद्रीकृत आर्थिक नीति नियोजन का नया खाका भले ही स्पष्ट न कर पाए हों लेकिन उन्होंने आर्थिक संसाधनों के बंटवारे में केंद्र के दबदबे को जरूर खत्म कर दिया. बचा हुआ काम चौदहवें वित्त आयोग ने कर दिया है. बजट से पहले इसकी जो रिपोर्ट सरकार ने स्वीकार की है वह केंद्र व राज्यों के वित्तीय रिश्तों का नक्शा बदलने जा रही है. राज्यों को केंद्रीय करों में अब 42 फीसदी हिस्सा मिलेगा यानी पिछले फॉर्मूले से 10 फीसदी ज्यादा. केंद्र सरकार उन्हें शर्तों में लपेटे बिना फंड देगी और यही नहीं, केंद्र राज्य के संसाधनों के हिस्से बांटने का नया फॉर्मूला भी लागू होगा जो आधुनिक जरूरतों को देखकर बना है. केंद्रीय करों में मिलने वाला हिस्सा 2016 के बाद करीब 1.76 खरब रु. बढ़ जाएगा. कोयला खदानों के आवंटन से राज्यों  को एक लाख करोड़ रु. मिल रहे हैं. योजना आयोग से मिलने वाले अनुदान व फंड भी बढ़ेंगे और जीएसटी भी राज्यों की कमाई में इजाफा करेगा.
बात सिर्फ वित्तीय संसाधनों की सप्लाई की नहीं है. योजना आयोग की विदाई और वित्त आयोग की सिफारिशों की रोशनी में राज्यों को इन संसाधनों को खर्च करने की पर्याप्त आजादी भी मिल रही है, जो एक बड़ी चुनौती भी है. अधिकांश राज्यों का वित्तीय प्रबंधन बदहाल और प्रागैतिहासिक है. बजटों की प्रक्रिया कामचलाऊ है. कर्ज, नकदी और वित्तीय लेन-देन प्रबंधन की आधुनिक क्षमताएं नहीं हैं. टैक्स मशीनरी जंग खा रही है. राज्यों को योजना, नीति निर्माण और मॉनिटरिंग के उन सभी तरीकों की शायद ज्यादा जरूरत है जो उदार बाजार के बाद केंद्र सरकार के लिए बेमानी हो गए थे. राज्यों को अब पारदर्शी व आधुनिक वित्तीय ढांचा बनाना होगा, जो संसाधनों की इस आपूर्ति को संभाल सके. वित्त आयोग की सिफारिश, मोदी सरकार के पहले पूर्ण बजट और निवेश के माहौल को देखते हुए जो तस्वीर बन रही है, उसमें विकास का बड़ा खर्च राज्यों के माध्यम से होगा अर्थात् बड़े आर्थिक निर्माणों से लेकर सामाजिक ढांचा बनाने तक केंद्र की भूमिका सीमित हो जाएगी. राज्यों का प्रशासानिक ढांचा अक्षमताओं का पुराना रोगी है. निर्माण गतिविधियां कॉन्ट्रेक्टर राज के हवाले हैं. यदि राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने सूझ-बूझ और आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया तो राज्यों में भ्रष्टाचार और सरकारी संसाधनों की लूट की विराट कथाएं बनते देर नहीं लगेगी, क्योंकि राज्यों को वित्तीय ही नहीं बल्कि जमीन अधिग्रहण से लेकर रिटेल में विदेशी निवेश तक कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर कानूनी ताकत भी मिल रही है.
राजनैतिक उठा-पटक के बावजूद भारत में गवर्नेंस का एक नया ढांचा उभरने लगा है. इसमें एक तरफ राज्य सरकारें होंगी जो विकास की राजनीति में केंद्र की भूमिका सीमित करेंगी तो दूसरी तरफ होंगे स्वतंत्र नियामक यानी रेगुलेटर, जो दूरसंचार, बिजली, बीमा, पेंशन, पेट्रोलियम, बंदरगाह, एयरपोर्ट, कमॉडिटी, फार्मास्यूटिकल व पर्यावरण क्षेत्रों में केंद्रीय मंत्रालयों के अधिकार ले चुके हैं. रेलवे व सड़क नियामक कतार में हैं. सेबी, प्रतिस्पर्धा आयोग, राज्य बिजली नियामक आयोगों को शामिल करने के बाद यह नया शासक वर्ग राजनैतिक प्रभुओं से ज्यादा ताकतवर दिखता है. अगर राज्यों में पानी और सड़क परिवहन के लिए नियामक बनाने की सिफारिशें भी अमल में आर्इं तो अगले कुछ वर्षों में देश की आर्थिक किस्मत नेताओं से लैस मंत्रिमंडल नहीं बल्कि विशेषज्ञ नियामक लिखेंगे.

इतिहास हर व्यक्ति के लिए अपनी तरह से जगह निर्धारित करता है. इतिहास नरेंद्र मोदी का मूल्याकंन कैसे करेगा अभी यह तय करना जल्दी है लेकिन उन्होंने जान-बूझकर या अनजाने ही इतिहास की एक बड़ी इबारत अपने नाम जरूर कर ली है. उनकी अगुआई में केंद्र और राज्य के रिश्तों का ढांचा बदल गया है. नरेंद्र मोदी भारत में ताकतवर केंद्र सरकार का नेतृत्व करने वाले शायद आखिरी प्रधानमंत्री होंगे. उनके रहते ही सत्ता की ताकत नए सुल्तानों यानी स्वतंत्र नियामकों के पास पहुंच जाएगी और विकास के खर्च की ताकत राज्यों के हाथ में सिमट जाएगी. यह किसी भी तरह से 91 या ’95 के सुधारों से कम नहीं है. इस बदलाव के बाद भारत की राजनीति का रासायनिक संतुलन भी सिरे से तब्दील हो सकता है.

Monday, January 19, 2015

भूमिहीन मेक इन इंडिया

जमीन की सहज सप्लाई में वरीयता किसे मिलनी चाहिएनिरंतर रोजगार देने वाले मैन्युफैक्चरर को या फिर दिहाड़ी रोजगार देने वाले ‘‘बॉब द बिल्डर’’ को?
दि आप मामूली यूएसबी ड्राइव बनाने की फैक्ट्री लगाना चाहते हैं, जो चीन से इस कदर आयात होती हैं कि सरकार के मेक इन इंडिया का ब्योरा भी पत्रकारों को चीन में बनी पेन ड्राइव में दिया गया था, तो जमीन हासिल करने के लिए आपको कांग्रेसी राज के उसी कानून से जूझना होगा, जो वित्त मंत्री अरुण जेटली के मुताबिक इक्कीसवीं सदी की जरूरतों के माफिक नहीं है. अलबत्ता अगर आप सरकार के साथ मिलकर एक्सप्रेस-वे, इंडस्ट्रियल पार्क अथवा लग्जरी होटल-हॉस्पिटल बनाना चाहते हैं तो नए अध्यादेश के मुताबिक, आपको किसानों की सहमति या परियोजना के जीविका पर असर को आंकने की शर्तों से माफी मिल जाएगी. यह उस बहस की बानगी है जो वाइब्रेंट गुजरात और बंगाल के भव्य आयोजनों के हाशिए से उठी है और निवेश के काल्पनिक आंकड़ों में दबने को तैयार नहीं है. इसे मैन्युफैक्चरिंग बनाम इन्फ्रास्ट्रक्चर की बहस समझने की गलती मत कीजिए, क्योंकि भारत को दोनों ही चाहिए. सवाल यह है कि जमीन की सहज सप्लाई में वरीयता किसे मिलनी चाहिए, निरंतर रोजगार देने वाले मैन्युफैक्चरर को या फिर दिहाड़ी रोजगार देने वाले ‘‘बॉब द बिल्डर’’ को? मेक इन इंडिया के तहत तकनीक, इनोवेशन लाने वाली मैन्युफैक्चरिंग को या टोल रोड बनाते हुए, कॉलोनियां काट देने वाले डेवलपर को?
जमीनें जटिल संसाधन हैं. एक के लिए यह विशुद्ध जीविका है तो दूसरे के लिए परियोजना का कच्चा माल है जबकि किसी तीसरे के लिए जमीनें मुनाफे का बुनियादी फॉर्मूला बन जाती हैं. जमीन अधिग्रहण के नए कानून और उसमें ताबड़तोड़ बदलावों ने इन तीनों हितों का संतुलन बिगाड़ दिया है. पुराने कानून (1894) के तहत मनमाने अधिग्रहण होते थे जिनमें किसानों को पर्याप्त मुआवजा भी नहीं मिलता था. पिछली सरकार ने विपह्न की सहमति से नए कानून में 21वीं सदी का मुआवजा तो सुनिश्चित कर दिया लेकिन नया कानून किसानों की सियासत पर केंद्रित था इसलिए विकास के लिए जमीन की सप्लाई थम गई. बीजेपी ने अध्यादेशी बदलावों से कानून को जिस तरह उदार किया है उससे फायदे चुनिंदा निवेशकों की ओर मुखातिब हो रहे हैं, जिससे जटिलताओं की जमीन और कडिय़ल हो जाएगी. 
खेती के अलावा, जमीन के उत्पादक इस्तेमाल के दो मॉडल हैं. एक बुनियादी ढांचा परियोजनाएं है जहां जमीन ही कारोबार व मुनाफे का बुनियादी आधार है. दूसरा ग्राहक मैन्युफैक्चरिंग है जहां निवेशकों के लिए भूमि, परियोजना की लागत का हिस्सा है, क्योंकि फैक्ट्री का मुनाफा तकनीक और प्रतिस्पर्धा पर निर्भर है. सड़क, बिजली, आवास, एयरपोर्ट की बुनियादी भूमिका और जरूरत पर कोई विवाद नहीं हो सकता लेकिन स्वीकार करना होगा कि सरकारी नीतियां इन्फ्रास्ट्रक्चर ग्रंथि की शिकार भी हैं. आर्थिक विकास की अधिकांश बहसें बुनियादी ढांचे की कमी से शुरू होती हैं. रियायतों, कर्ज सुविधाओं और परियोजनाओं में सरकार की सीधी भागीदारी (पीपीपी-सरकारी गारंटी जैसा है) का दुलार भी महज एक दर्जन उद्योग या सेवाओं को मिलता है. सरकार की वरीयता बैंकों की भी वरीयता है इसलिए, इन्फ्रास्ट्रक्चर और पीपीपी परियोजनाओं में भारी कर्ज फंसा है.
संशोधित भूमि अधिग्रहण कानून से जमीन की सप्लाई में आसानी होगी लेकिन सिर्फ इन्फ्रास्ट्रक्चर उद्योगों के लिए. इन उद्योगों में चार गुना कीमत देकर खरीदी गई जमीन से भी मुनाफा कमाना संभव है क्योंकि मकान, एयरपोर्ट और एक्सप्रेस-वे इत्यादि बनाने में जमीन के कारोबारी इस्तेमाल की अनंत संभावनाएं हैं. अलबत्ता मैन्युफैक्चरिंग उद्योग के लिए सस्ती जमीन तो दूर, उन्हें वह सभी शर्तें माननी होंगी, जिनसे इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपर को मुक्ति मिल गई है. इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए सुविधाएं और रियायतें पहले से हैं, मैन्युफैक्चरिंग को लेकर उत्साह, मोदी के मेक इन इंडिया अभियान के बाद बढ़ा है. मैन्युफैक्चरिंग स्थायी और प्रशिक्षित रोजगार लाती है जबकि कंस्ट्रक्शन उद्योग दैनिक और अकुशल श्रमिक खपाता है. निवेशक यह समझ रहे थे कि सरकार स्थायी नौकरियों को लेकर गंभीर है इसलिए मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा मिलेगा. ध्यान रखना जरूरी है कि मैन्युफैक्चरिंग के दायरे में सैकड़ों उद्योग आते हैं जबकि जिन उद्योगों के लिए कानून उदार हुआ है, वहां मुट्ठी भर बड़ी कंपनियां ही हैं. इसलिए बदलावों का फायदा चुनिंदा उद्योगों और कंपनियों के हक में जाने के आरोप बढ़ते जाएंगे.

बीजेपी की मुश्किल यह है कि पिछले भूमि अधिग्रहण कानून में कई बदलाव सुमित्रा महाजन, वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष, के नेतृत्व वाली संसदीय समिति की सिफारिश से हुए थे. सर्वदलीय बैठकों से लेकर संसद तक बीजेपी ने बेहद सक्रियता के साथ जिस नए भूमि अधिग्रहण कानून की पैरवी की, नए संशोधन उसके विपरीत हैं. कांग्रेस सरकार ने नए कानून पर सर्वदलीय सहमति बनाई थी, बीजेपी ने तो इन संवेदनशील बदलावों से पहले सियासी तापमान परखने की जरूरत भी नहीं समझी. दरअसल, मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण कानून को तर्कसंगत बनाने का मौका चूक गई है. मैन्युफैक्चरिंग सहित अन्य उद्योगों को इसमें शामिल कर कानून को व्यावहारिक बनाया जा सकता था ताकि रोजगारपरक निवेश को प्रोत्साहन मिलता. वैसे भी इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए जमीन का  व्यापक और एकमुश्त अधिग्रहण चाहिए जिनमें समय लगता है. मैन्युफैक्चरिंग के लिए जमीन की आपूर्ति बढ़ाकर रोजगार सृजन के सहारे विरोध के मौके कम किए जा सकते थे. कांग्रेस ने नया कानून बनाते हुए और बीजेपी ने इसे बदलते हुए इस तथ्य की अनदेखी की है कि जमीन का अधिकतम उत्पादक इस्तेमाल बेहद जरूरी है. कांग्रेस का भूमि अधिग्रहण कानून, विकास की जरूरतों के माफिक नहीं था लेकिन बीजेपी के बदलावों के बाद यह न तो मेक इन इंडिया के माफिक रहा है और न किसानों के. भूमि अधिग्रहण कानून 21वीं सदी का तो है मगर न किसान इसके साथ हैं और न बहुसंख्यक उद्योग. अब आने वाले महीनों में जमीनें विकास और रोजगार नहीं, सिर्फ राजनीति की फसल पैदा करेंगी.

Monday, October 29, 2012

अमेरिका की संकट मशीन


मेरिका भीतर से बेचैन और डरा हुआ है। इसलिए नहीं कि उसकी सियासत  उसे कौन सा रहनुमा देगी बल्कि इसलिए कि अमेरिका की वित्‍तीय संकट मशीन पूरी रफ्तार से काम रही है और राजनीति के पास इसे रोकने की कोई जुगत नहीं है।  दुनिया की महाशक्ति एक अभूतपूर्व वित्‍तीय संकट से कुछ कदम दूर है। अमेरिका में कर्ज और घाटे से जुड़ी मुसीबतों का टाइम बम दिसंबर मे फटने वाला है और अमेरिका के पांव में सबका पांव है सो टाइम बम की टिक टिक वित्‍तीय दुनिया के लिए मुसीबत के ढोल से कम नही है। घाटे को कम करने के राजनीतिक कोशिशों की अं‍तिम समय सीमा दिसंबर में ख्‍त्‍म हो रही है। एक जनवरी 2013 को अमेरिका का आटोमेटिक संवैधानिक सिस्‍टम सरकारी खर्च में कमी भारी कमी व टैक्‍स में जोरदार बढ़ोत्‍तरी का बटन दबा देगा। इस संकट से बचना अमेरिकी सियासत की असली अग्नि परीक्षा है। यह सिथति अमेरिका को सुनिश्‍चत मंदी और विश्‍व को नए तरह की मुसीबत में झोंक देगी।
फिस्‍कल क्लिफ
अमेरिका एक बडे संकट की कगार पर टंगा है। वित्‍तीय दुनिया इस स्थि‍ति को फिस्‍कल क्लिफ के नाम से बुला रही है। अमेरिका की सरकारों ने पिछले वर्षों में जो तरह तरह की कर रियायतें दी थीं उनके कारण घाटा बुरी तरह बढ़ा है। इन रियायतों को वापस लेने का वक्‍त आ गया है। अमेरिकी बजटीय कानून घाटा कम करने लिए सरकार के राजस्‍व में बढोत्‍तरी और खर्च में कमी की सीमायें तय करता है, जैसा कि भारत के राजकोषीय उत्‍तरदायित्‍व कानून में प्रावधान किया गया है। इस कानून के मुताबिक अमेरिकी सरकार को 2013 के लिए प्रस्‍तावित  घाटे को आधा कम करना है। जो सरकार के कुल राजसव में चार से पांच फीसदी की बढ़त और खर्च में एक फीसदी कमी के जरिये हो सकेगा। मतलब यह कि अमेरिका को 665 अरब डॉलर की