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Saturday, November 2, 2019

ऐसे कैसे चलेंगे बैंक?


 
जमा डूबने के डर से महाराष्ट्र के पीएमसी बैंक के एक जमाकर्ता की मौत की खबर जब सुर्खियों में थीउसी दौरान सरकारी लोन मेलों में 81,000 करोड़ रुके कर्ज बांटे गएबैंकों ने 1.72 लाख करोड़ रुके कर्ज बट्टे खाते (2018-19) में डाल दिएगैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के बाद दूरसंचारलघु उद्योगों और भवन निर्माण क्षेत्र में नए कर्ज संकट के सायरन बज उठेकई बैंकों ने जमा पर ब्याज दर घटा दीखासतौर पर बुजुर्गों की बचत पर ब्याज घट गया.  



भारत के बैंकों के पास अगर कोई चेहरा होता तो उसमें किसी आम भारतीय का ही अक्स दिखाई देतादुविधाग्रस्तआशंकितअनिश्चित और परेशान.
क्या भारतीय बैंकों का बुनियादी कारोबारी मॉडल लड़खड़ा रहा है?

·       भारतीय बैंकों का एक पैर पुराने दौर की डिपॅाजिट बैंकिंग में है जहां ज्यादा से ज्यादा जमा के लिए ऊंचे ब्याज का प्रोत्साहन देना होता है जबकि दूसरा पैर सस्ता कर्ज झोंककर अर्थव्यवस्था को चलाए रखने की मुहिम में हैभारतीय बैंक पूंजी के लिए सरकार पर नहीं बल्कि आम लोगों की बचत पर निर्भर है इसलिए बैंकों का जोखिम देश के करोड़ों जमाकर्ताओं का सबसे बड़ा जोखिम है.

·       यह सही है कि बैंक खाते में जमा कितना भी होबीमा केवल एक लाख रुका है लेकिन सरकारी बैंकों में प्रति खाता औसत जमा 53,000 रुहै जो बीमा की सीमा के भीतर हैनिजी व विदेशी बैंकों में यह औसत एक लाख रुसे दस लाख रुतक हैइसलिए ज्यादातर छोटी बचतें बीमा के तहत महफूज हैं.

·       भारतीय बैंकिंग की मुसीबत यह है कि लोग उसके पास पैसा रखने को तैयार नहीं हैंबैंकों में बचत बढ़ने की दर 2010 से गिरते हुए दस फीसद पर आ गई हैजो 2009-13 के दौरान 17 फीसद पर थीमियादी जमा यानी एफडी में तेज गिरावट दर्ज हुई है.

·       2006 और 2010 के विपरीत पहली बार बाजार में नकदी का प्रवाह यानी हाथों में नकदी बढ़ने के बाद भी जमा नहीं बढ़ी है.

·       इस साल जनवरी में बैंकों का कर्ज जमा अनुपात 47 साल के सबसे ऊंचे स्तर (78.6 फीसदपर पहुंच गयायह ऊंचाई बताती है कि जमा की तुलना में कर्ज देने की रफ्तार बहुत तेज है जो कि भारी जोखिम का संकेत है.

·       बैंकों का कर्ज सरकारमुट्ठीभर कंपनियों और कुछ खुदरा मध्यवर्गीय ग्राहकों को मिलता हैबैंकों का इस्तेमाल करने वाले 80 फीसद लोग बैंकों से कोई कर्ज नहीं लेतेबैंकों के मुनाफे से बचत करने वालों को कुछ नहीं मिलताकेवल ब्याज उनका सहारा है.

·       नए कर्जदार जोड़ने के लिए बैंकों को बार-बार ब्याज दर कम करना जरूरी है ताकि अर्थव्यवस्था में पूंजी का प्रवाह बढ़ सकेलेकिन कर्ज सस्ता करने के साथ जमा पर ब्याज दर कम होती हैरेपो रेट को कर्ज दर से जोड़ने के बाद बैंक डिपॉजिट पर रिटर्न और घट गया है.

·       सरकार सस्ता कर्ज झोंक अर्थव्यवस्था को चलाना चाहती हैवह अपने खर्च के लिए जमाकर्ताओं की बचत (बैंकों से कर्जपर निर्भर हैयहां तक कि बैंकों में नई पूंजी भी अब उनसे ही पैसा लेकर (बॉन्डडाली जाती है.

·       सरकारों ने बैंकों में जमा आम लोगों की पूंजी के सहारे छद्म बैंकिंग (एनबीएफसीका पूरा तंत्र खड़ा कर दियाजो अब बैठ गया हैखेती से लेकर उद्योग तक बैंकों के बकाया कर्ज बढ़ते या डूबते चले जा रहे हैंजमा घटने से बैंकों की पूंजी सिकुड़ रही हैयही वजह है कि सरकार ने बैंकों के विलय के जरिए पूंजी आधार बढ़ाने की कोशिश की है.

·       इस माहौल में बैंक के डिपॉजिट ग्राहकों की चिंता दोहरी हैउनकी बचत का रिटर्न भी गिर रहा है और वह कर्ज में लुटाई भी जा रही है इसलिए बैंक भरोसा और पूंजी दोनों ही खो रहे हैं.

बैंकिंग का मॉडल बदले बिना इस चक्रव्यूह से निकलना मुश्किल है.

¨    बैंकों को संसाधनों के गैर डिपॉजिट स्रोत बढ़ाने होंगेपिछली सदी तक अमेरिका में बैंकों के अधिकांश संसाधन डिपॉजिट से आते थेक्रमशः बैंकों ने फेडरल रिजर्व से कर्ज और बॉन्ड बाजार के जरिए संसाधन संग्रह बढ़ायाअब आधे संसाधन गैर डिपॉजिट हैंइससे संसाधनों की लागत भी कम हुई हैजमाकर्ताओं के लिए जोखिम घटे हैंभारत में बैंकों को पारदर्शी बनानेसरकार की हिस्सेदारी घटाने और उन्हें बॉन्ड बाजार में सक्रिय करने की जरूरत है ताकि वे बाजार से पूंजी लेकर कर्ज दें.

¨    बैंक ग्राहकों को बचत पर ऊंचे रिटर्न की जगह सुरक्षा यानी समग्र बीमा कवर की अपेक्षा करनी होगीअच्छे रिटर्न के लिए म्युचुअल फंड और शेयर बाजारों की तरफ जाना होगा.

¨    कर्ज आधारित निवेश की एक सीमा तय करनी होगी क्योंकि अब उद्योगों को अपनी पूंजी पर जोखिम लेना होगा न कि जमाकर्ताओं के पैसे पर.

सनद रहे कि बैंक में बचत पूरी अर्थव्यवस्था और वित्तीय तंत्र (सरकार का खर्चनिजी उद्योगों को कर्जएनबीएफसी का कर्जका आधार है लेकिन इसके बावजूद खतरा बैंकों में रखी आम लोगों की जमा पर हरगिज नहीं हैजोखिम यह है कि बैंक अब बचत पर ऊंचा रिटर्न और सस्ता कर्ज एक साथ नहीं दे सकते इसलिए बैंकों की मौजूदा आफत दरअसल भारतीय बैंकिंग के लिए अस्तित्व का संकट बन गई है.

Sunday, August 5, 2018

लुटे या पिटे?



आज मैं एनपीए की कहानी सुनाना चाहता हूं......
'' बैंकों की अंडरग्राउंड लूट 2008 से 2014 तक चलती रही. छह साल में अपने चहेते लोगों को खजाना लुटा दिया गया बैकों से. तरीका क्या था कागज देखना कुछ नहींटेलीफोन आयालोन दे दो. लोन चुकाने का समय आया तो नया लोन दे दो. जो गया सो गयाजमा करने के लिए नया लोन दे दो. यही कुचक्र चलता गया और भारत के बैंक एनपीए के जंजाल में फंस गए!
एनपीए बढऩे का एक और कारण! यूपीए सरकार की नीतियों के कारण कैपिटल गुड्स आयात बढ़ा जिसका फाइनेंस बैंक लोन के जरिए किया गया.
(प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब देते हुए)

यह पहला मौका नहीं था जब प्रधानमंत्री ने बैंक एनपीए को लूट कहा था. फरवरी में भी संसद में उन्होंने कहा था कि नेतासरकारबिचौलिए मिलकर कर्ज रिस्ट्रक्चर करते थे. देश लूटा जा रहा था.

प्रधानमंत्री की टिप्पणीबैंक कर्जों की वह कहानी हरगिज नहीं है जो पिछले चार साल में देश को बार-बार सुनाई गई है कि आर्थिक मंदी की वजह से कंपनियों की परियोजनाएं फंस गईंजिससे भारतीय बैंक आज 10 लाख करोड़ रु. के एनपीए में दबे हुए कराह रहे हैं.

क्या बैंकों के एनपीए संगठित लूट थेजो कंपनियों को कर्जों की रिस्ट्रक्चरिंग या लोन पर लोन देकर की गई थी?

क्या आयात के लिए भी कर्ज में घोटाला हुआ?

क्या बकाया बैंक कर्ज आपराधिक गतिविधि का नतीजा हैंआर्थिक उतार-चढ़ाव का नहीं?

अगर बैंकों के एनपीए यूपीए सरकार के चहेतों के संगठित भ्रष्टाचार की देन हैं तो फिर पिछले चार साल में इन्हें लेकर जो किया गया हैवह हमें दोहरे आश्चर्य से भर देता है.

2014 के बाद बैंकों के एनपीए पर सरकार कुछ इस तरह आगे बढ़ी:

·       फंसे हुए कर्जों की पहचान के तरीके और उन्हें एनपीए घोषित करने के पैमाने बदले गए. इनमें वे लोन भी थे जिन्हें 2008 के बाद रिस्ट्ररक्चर (विलंबित भुगतान) किया गया. 2008 के बाद बैंक कर्ज में सबसे बड़ा हिस्सा इन्हीं का है और प्रधानमंत्री ने इसी को बैंकों की लूट कहा है. यानी कि सरकार को पूरी जानकारी मिल गई कि यह कथित लूट किसने और कैसे की? 

· बैंकों को इन कर्जों के बदले अपनी पूंजी और मुनाफे से राशि निर्धारित (प्रॉविजनिंग) करनी पड़ीजिससे सभी बैंकों को 2017-18 में 85,370 करोड़ रु. का घाटा (इससे पिछले साल 473.72 करोड़ रु. का मुनाफा) हुआ. बैंकों के शेयर बुरी तरह पिटे.

·    कर्ज उगाही के लिए बैंकों ने दिवालिया कानून की शरण ली. इस प्रक्रिया में बैंकों को बकाया कर्जों का औसतन 60 फीसदी हिस्सा तक गंवाना होगा.

·   सरकार ने बैंकों को बजट से पूंजी दीयानी बैंकों की जो पूंजी यूपीए के चहेते उड़ा ले गए थेउसका एक बड़ा हिस्सा करदाताओं के पैसे से लौटाया गया.

यह सारी कार्रवाई तो कहीं से यह साबित नहीं करती कि बैंक एनपीएयूपीए के चहेतों की लूट थे!

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पिछले साल अगस्त में राज्यसभा में बैं‌किंग नियमन संशोधन विधेयक पर चर्चा के दौरान कहा था‘‘औद्योगिक और इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में सरकारी बैंक ज्यादा कर्ज देते हैं. वहीं निजी बैंक उपभोक्ता बैंकिंग पर ज्यादा फोकस करते हैं. मैं इसका राजनीतिकरण करना नहीं चाहताकब दिएक्यों दिएग्लोबल इकोनॉमी बढ़त पर थी. कंपनियों ने अपनी क्षमताएं बढ़ाई. बैंकों ने लोन दिया. बाद में जिंसों की कीमतें गिर गई और कंपनियां फंस गईं.’’ 

वित्‍त मंत्री का आकलन तो प्रधानमंत्री से बिल्‍कुल उलटा है!

प्रधानमंत्री ने जो कहा है और सरकार ने बैकों के डूबे हुए कर्जों का जैसे इलाज किया हैउसके बाद बैंकों के एनपीए का शोरबा जहरीला हो गया है. 


पिछले चार साल में सरकार ने इसे कभी लूट माना ही नहीं और न ही आपराधिक कार्रवाई हुई. बैंकरप्टसी कानून सहित जो भी किया जा रहा है वह आर्थिक मुश्किल (वित्‍त मंत्रालय की सूझ के मुताबिक) का इलाज था. 

बैंकों और बजट को एनपीए का नुक्सान उठाना होगा लेकिन अगर यह लूट है तो यूपीए के चहेते कर्जदारों के खिलाफ कार्रवाई नजर नहीं आई? 

देश को यह बताने में क्या हर्ज है कि बैंकों का कितना एनपीए आर्थिक मंदी की देन हैकितना कर्ज यूपीए के चहेतों की उस लूट का हिस्सा है जिसका जिक्र प्रधानमंत्री बार-बार करते हैं.

बैंकों से लूटा गया पैसा आम लोगों की बचत है और बैंकों को मिलने वाली सरकारी पूंजी भी करदाताओं की है.

फिर किसे बचाया जा रहा है और क्यों?

ऐसा क्या है जिसकी परदादारी है?

Monday, March 5, 2018

अंधेरे में मत रहिए

आपका बैंक क्या आपको यह बताता है कि उसने आपकी बचत या जमा किस उठाईगीर कारोबारी को भेंट कर दी?

लेकिन कोई कंपनी या वही बैंक अपने शेयर धारकों या निवेशकों को हर छोटी-छोटी जानकारी क्यों देता हैस्टॉक एक्सचेंज से वह कोई सूचना क्यों नहीं छिपाता?

भारत में कारोबार के लिए धन जुटाने के तीन रास्ते हैं:
एक- उद्यमी की अपनी पूंजी,
दो- बैंक कर्ज
और तीन- जनता को हिस्सेदारी देना यानी शेयर बेचना.
देश में कंपनियां तो हजारों हैं. उनमें से कुछ ही स्टॉक मार्केट में सूचीबद्ध हैं तो बाकी बड़ी-बड़ी निजी कंपनियों को कारोबार के लिए धन कहां से मिलता है?
जाहिर है बैंक से! कर्ज के तौर पर!
तो बैंक जमाकर्ता कंपनी के कारोबार में अगर सीधे नहीं तो परोक्ष हिस्सेदार तो हुए न?
जब देश में हर काम बैंक के कर्ज से होना है और कर्ज के तौर पर दरअसल लाखों लोगों की बचत बांटी (या लुटाई) जा रही है तो बैंक जमाकर्ताओं को उतनी तवज्जो या सूचनाएं क्यों नहीं मिलनी चाहिए जो कंपनी के शेयर धारकों को मिलती हैं?

कोई फर्क नहीं पड़ता कि कंपनी का मालिक एक है या कईफर्क इससे पडऩा चाहिए कि उसके कारोबार की पूंजी कहां से आ रही है?

इन सवालों पर अब भारत में बैंकिंग की साख निर्भर हैक्यों?

आइएदो ताजे बैंक घोटालों या कर्ज डिफॉल्ट को करीब से देखते हैं.

देश को पीएनबी घोटाले का पता कैसे चला

बैंक को दिसंबर में ही अनुमान हो गया था कि नीरव मोदी और मेहुल चौकसी कर्ज नहीं चुकाने वाले हैं. जनवरी में दोनों देश से निकल लिए. एफआइआर जनवरी के अंत में हुई लेकिन भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की नींद 14 फरवरी के बाद टूटी जब बैंक ने स्टॉक एक्सचेंज को बताया कि उसे एक घोटाले में 11,000 करोड़ रु. का चूना लग गया है. शेयर गिरेकोहराम मचा और फिर शुरू हुआ स्यापा.

फिर भी ले-देकर पंद्रह दिन के भीतर पूरा घोटाला सामने आ ही गया. 

अब दूसरा घोटाला देखिए.

रोटोमैक को दिए गए कर्ज का डिफॉल्ट (या धोखाधड़ी) 2015 में हो गई थी. सात महीने पहले डेट रिकवरी ट्रिब्यूनल का आदेश भी आ गया लेकिन सीबीआइ को कार्रवाई करने के लिए दो साल तक मोदी के घोटाले का इंतजार करना पड़ा. सिंभावली शुगर्स लि. में बैंक कर्ज की लूट शुरू हुई 2013 में और एफआइआर हुई 2018 में. 

हम पारदर्शिता के दो ध्रुवों के बीच खड़े हैं.  

पीएनबी का घोटाला पंद्रह दिन के भीतर इसलिए खुल गया क्योंकि सेबी के नियमों के तहत कोई सूचीबद्ध कंपनी (जैसे कि पंजाब नेशनल बैंक) जरूरी जानकारी जनता यानी (शेयर बाजार) से छिपा नहीं सकती. 

लेकिन रोटोमैक का घोटाला इसलिए दो साल तक छिपा रहा कि वह एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है. उसे अपनी सूचना छिपाने और बैंकों को उसकी कारगुजारी गोपनीय रखने की छूट है.

भारत में कारोबारी पारदर्शिता का हाल अजीबोगरीब है. स्टॉक मार्केट में सूचीबद्ध कंपनी विस्तृत पारदर्शिता नियमों से बंधी होती है लेकिन एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी (कितनी भी बड़ी हो) कंपनी रजिस्ट्रार के पास एक सालाना रिटर्न भर कर नक्की हो जाती है. हमें यह पता नहीं चलतावह क्या और कैसे कर रही है?

बैंक कर्ज पर आधारित कारोबारों की तादाद बढऩे से यह अपारदर्शिता महंगी पडऩे लगी है. देश में दस-दस हजार करोड़ रु. के कारोबार वाली निजी कंपनियां हैं जो बैंकों से भारी कर्ज (रोटोमैक या मोदी की फायरस्टार) लेती हैं लेकिन लोगों को कर्ज डूबने के बाद ही पता चलता है कि उनके भीतर क्या हो रहा था.

इलाज क्या है

- बैंक कर्ज पर चलने वाले कारोबारों के लिए पारदर्शिता के नए नियम तय किए जाएं. जमाकर्ताओं को पता रहे कि उनका बैंक किसे और कहां कर्ज दे रहा है.
- कंपनियों के लिए पारदर्शिता नियम इस तथ्य पर आधारित होने चाहिए कि उनके निवेश का स्रोत क्या है
75 करोड़ रु. से ऊपर की कंपनियों को शेयर बाजार में सूचीबद्ध कराया जाए ताकि उनका कामकाज सबकी निगाह में रहे.


बैंकिंग और वाणिज्यिक कर्ज में पारदर्शिता लाने के लिए घोटालों के तमाचे चाहिए तो यकीन मानिए हमारे गाल लाल हो चुके हैं. घोटालों (हर्षद मेहता और केतन पारेख) से सबक लेकर 2001 के बादसेबी ने जनता से पूंजी जुटानेबेचने और शेयर ट्रेडिंग के नियमों को बला का सख्त और पारदर्शी कर दिया. कर्ज लेने वाली कंपनियों और बैंकों के साथ इसी तरह का कुछ करना होगा. बैंक में पैसा रखने वालों की तादाद शेयर बाजार में निवेश करने वालों से बहुत बड़ी है. कर्ज की लूट के चलते अगर उनका भरोसा डिगा तो अर्थव्यवस्था की चूलें हिल जाएंगी.

Sunday, December 17, 2017

ताकि बना रहे भरोसा


डर में जीने का शौक न हो तो सरकार की इस बात पर भरोसा करने में कोई हर्ज नहीं है कि बैंकों में जमाकर्ताओं का पैसा नहीं डूबेगा. लोगों को बैंकों की जितनी जरूरत है सरकार को भी लोगों की बचत की उतनी ही जरूरत है. यह बचत ही बैंकों के जरिए सरकार को कर्ज के तौर पर मिलती हैजिससे उसका खर्च चलता है.

भारत में बैंक बीमार हुए हैं लेकिन डूबे कभी नहीं. कोई सरकार बैंकों के डूबने का जोखिम नहीं ले सकती लेकिन (एफआरडीआइ—फाइनेंशियल रिजोल्यूशन ऐंड डिपॉजिट इंश्योरेंस) बिल 2017 का प्रावधान 52 का खौफ तारी हैजो कहता है कि बैंक या वित्तीय कंपनियां अगर संकट में हो तो वह अपनी देनदारियों यानी लायबेलिटी का इस्तेमाल (बेल इन) कर सकती हैं. जमाकर्ताओं (डिपॉजिटर्स) का पैसा इसमें शामिल है हालांकि जिसे डिपॉजिट को इंश्योरेंस के तहत रखा गया है वह इस प्रक्रिया से बाहर रहेगा. मौजूदा नियमों के तहत बैंक डिपॉजिट चाहे जितना भी हो उस पर अधिकतम बीमा एक लाख रुपए ही है.

इस प्रावधान की भाषा खराब हैसंदर्भ भी उलझे हैंइसके लागू होने की कोई संभावना नहीं है. सरकार सफाई दे रही है लेकिन डर है तो है.

खौफ की बुनियादी वजह यह है कि चुनिंदा लोगों की आर्थिक अनियमितताओं के लिए सामूहिक दंड देने के प्रयोग कुछ ज्यादा ही होने लगे हैं. पिछले साल नोटबंदी में कुछ लोगों के काले धन के कारण पूरे देश को सजा दे दी गई. बड़े कर्जदारों पर बकाया बैंकों की समस्या है लेकिन समाधान की कोशिशें आम लोगों को डरा रहीं हैं.

भारतीय बैंकिंग की मुसीबत अनोखी है. 

- चुनिंदा बड़े कर्जदार इसका संकट हैं. कुछ कारोबारी गलतियों के मारे हैंकुछ ने जान-बूझकर बैंकों को चूना लगाया है और कुछ को मंदी ले डूबी है. बैंकों के 86 फीसदी फंसे हुए कर्ज (जीएनपीए-8.29 लाख करोड़ रु.) बड़े कर्जदारों के नाम हैं.

- लेकिन खौफ में जमाकर्ता हैं जो छोटी बचतों (150 लाख करोड़ रु.) से देश की वित्तीय रीढ़ बनाते हैं.

- बैंकों को उबारने के लिए दो ही विकल्प हैं: एक या तो करदाताओं का पैसा लगाकर बैंकों को उबारा (बजट से बैंकों को पूंजी देना यानी बेल आउट) जाए या जमाकर्ताओं वालों की बचत से नुक्सान भरा जाए. 'बेल-इन' प्रावधान सुझाता है कि बैंकों को बजट यानी टैक्स के पैसे से उबारना गलत है. बैंकों से कारोबार (निवेश या जमा) करने वालों को यह बोझ उठाना चाहिए यानी कि छुरी किसी तरह से गिरे कटेंगे आम लोग ही.

बैंकिंग की दुविधा का इलाज 'बेल इन''बेल आउट' या 'हेयर कट' (बैंकों के पूंजी व मुनाफे में कमी) नहीं है. फिलहाल बैंकिंग परिदृश्य को तीन बड़े ढांचागत सुधार चाहिए.

- उदारीकरण को 25 साल बीत चुके हैं. परियेाजनाओं के वित्त पोषण का ढांचा बदलना चाहिए. बड़ी परियोजनाओं के लिए बैंक कर्जों पर निर्भरता कम करना जरूरी है. कंपनियों को अपनी साख पर बाजार पूंजी व कर्ज उठाना चाहिए. बैंकों के लिए छोटे उपभोक्ता कर्ज बेहतर हैंजिनकी वसूली को लेकर समस्या नहीं है. इक्विटी संस्कृति कंपनियों को पारदर्शी बनाएगी. आम लोगों को बचत व निवेश के नए मौके हासिल होंगे और जोखिम भरे बैंक कर्ज कम होंगे.

- बैंकों को संसाधनों के गैर डिपॉजिट स्रोत बढ़ाने होंगे. पिछली सदी तक अमेरिका में बैंकों के अधिकांश संसाधन डिपॉजिट से आते थे. क्रमशः बैंकों ने फेडरल रिजर्व से कर्ज और पूंजी व बॉन्ड बाजार के जरिए संसाधन संग्रह बढ़ाना प्रारंभ किया. अब आधे संसाधन गैर डिपॉजिट हैं. इससे बैंक संसाधनों की लागत भी कम हुई हैजमाकर्ताओं के लिए जोखिम घटे हैं.
जमाकर्ताओं को बेहतर बीमा सुरक्षा मिलनी चाहिए जिसकी लागत उनसे ली जा सकती है.

- बैंकों पर सरकार के नजरिए में अंतरविरोध लोगों को डरा रहा है. पहले बैंक में सोना रखकर (गोल्ड मॉनेटाइजेशन) नकद लेने के लिए कहा गयाफिर नोटबंदी हो गई. गरीबों को बैंक से जोड़ने की कोशिशें (जन धन) इसका सबसे बड़ा शिकार हुई हैं. 

- बैंक का एक अर्थ विश्वास भी होता है जो यूं ही नहीं है. किसी अर्थव्यवस्था में बैंक लोगों के भरोसे का पहला व आखिरी आधार हैं. हर देश की बैंकिंग का मिजाज अलग है. भारत में बैंकों पर पहला हक करोड़ों जमाकर्ताओं का हैजिनमें अधिकांश कभी कर्ज नहीं लेते. कर्ज लेने वाले बैंकिंग का जरूरी हिस्सा हैं लेकिन छोटा-सा हैं.




अगर सरकार चाहती है कि अधिक से अधिक लोग बैंकों से जुड़ें या जुड़े रहें तो उसे ऐसा कुछ नहीं करना होगा जो भारत में बैंकों की बुनियाद यानी जमाकर्ताओं को आशंकित करता हो. बैंकिंग के साथ एक सीमा से ज्यादा जोखिम विस्फोटक हो सकता है.

Sunday, November 5, 2017

नोटबंदी का तिलिस्मी खाता


चलिएकाला धन तलाशने में सरकार की मदद करते हैं. 

नोटबंदी को गुजरे एक साल गुजर गया. कोई बड़ी फतह हाथ नहीं लगी. ले-देकर गरीब कल्याण योजना में आए 5,000 करोड़ रुपए ही हैं जिन्हें अधिकृत तौर पर नोटबंदी का हासिल काला धन माना जा सकता है. शेष सब कुछ जांच युग में है या दावों पर सवार है.

तो कहां मिलेगा काला धन?

बगल में छोरागांव में ढिंढोरा.

काले धन के कुछ बड़े रहस्य सरकार की जन धन योजना के पास हो सकते हैं  गरीबों को बैंकिंग से जोडऩे के लिए जिसे शुरू किया गया था.

नोटबंदी के बाद सरकार जन धन पर सन्नाटा खींच गई है लेकिन आंकड़े तो उपलब्ध हैं. 

रिजर्व बैंक ने नोटबंदी के असर पर रिपोर्ट इसी मार्च में जारी की थी. वित्त मंत्री ने 3 फरवरी को संसद में एक सवाल के जवाब में कुछ जानकारी दी थीसरकारी आंकड़ों पर आधारित दूसरे अध्ययन भी उपलब्ध हैं.

इनके आधार पर देखिए कि नोटबंदी के दौरान जन धन क्या हुआ था?

·       नोटबंदी से पहले अप्रैल से जुलाई के बीच लगभग 73,000 खाते प्रति दिन खोले जा रहे थे लेकिन नोटबंदी के दौरान प्रति दिन दो लाख खाते खुले. नोट बदलने की सभी सीमाएं खत्म होने के बाद (मार्च से जुलाई से 2017) के बीच जन धन खाते खुलने का औसत दैनिक घटकर 92,000 पर आ गया.

·       नोटबंदी के ठीक बाद 23.30 करोड़ नए जन धन खाते खोले गए. इनमें से 80 फीसदी सरकारी बैंकों में खुले. लगभग 54 फीसदी शहरों में खुले और शेष गांवों की शाखाओं में. 

·      नोटबंदी के वक्त (9 नवंबर 2016) को इन खातों में कुल 456 अरब रुपए जमा थे जो 7 दिसंबर 2016 को 746 अरब रुपए पर पहुंच गए.

·       नोटबंदी के 53 दिनों में जन धन खातों में 42,187 करोड़ रुपए जमा हुए. इनमें से 18,616 करोड़ रुपए तो 9 नवंबर से 16 नवंबर के बीच शुरुआती आठ दिनों में ही इन खातों में जमा हो गए. ये आंकड़ा नोटबंदी से पहले के 53 दिनों के मुकाबले 1850 फीसदी ज्यादा है.

·      नोटबंदी के पहले जन धन खातों में औसतन 43 करोड़ रुपए का दैनिक जमा होता था. नोटबंदी शुरू हो होते ही पहले हक्रते में प्रति दिन 2,327 करोड़ रुपए जमा होने लगे. नोटबंदी खत्म होते ही एवरेज डेली ट्रांजैक्शन में 95 फीसदी की कमी दर्ज की गई.

·       नोटबंदी के दौरान जन धन की ताकत दिखाने वालों में गुजरात सबसे आगे रहा. 9 नवंबर 2016 से 25 जनवरी 2017 तक राज्य के जन धन खातों के डिपॉजिट में 94 फीसदी का इजाफा हुआ. इसी अवधि में कर्नाटक में जन धन डिपॉजिट 81 फीसदीमध्य प्रदेश व महाराष्ट्र में 60 फीसदीझारखंड और राजस्थान में 55 फीसदीबिहार में 54 फीसदीहरियाणा में 50 फीसदीउत्तर प्रदेश में 45 फीसदी और दिल्ली में 44 फीसदी बढ़े.

·      जन धन खातों में नोटबंदी के पहले हक्रते में डिपॉजिट में 40 फीसदी की ग्रोथ देखकर 15 नवंबर 2016 को वित्त मंत्रालय ने एक बार में 50 हजार रुपए से ज्यादा राशि जन धन में जमा करने पर रोक लगा दी.

·       नोटबंदी के दौरान जन धन खातों का औसत बैलेंस 180 फीसदी तक बढ़ गया थाजो मार्च में घटकर नोटबंदी के पहले वाले स्तर पर आ गया.

·       गरीबों के जीरो बैलेंस खातों का व्यवहार गहरे सवाल खड़े करता है. नोटबंदी के दौरान इन खातों की संख्या में अप्रत्याशित बढ़ोतरी का रहस्य क्या है?  

वित्त मंत्री ने फरवरी में संसद को बताया था कि विभिन्न खाताधारकों (जन धन सहित) को आयकर विभाग ने 5,100 नोटिस भेजे हैंइसके बाद नोटबंदी जन धन इस्तेमाल की जांच कहां खो गई?

नोटबंदी के दौरान अनियमितता को लेकर बैंकों की शुरू हुई जांच भी बीच में क्यों छूट गई?

हम इतनी जल्दी इस निष्कर्ष‍ पर नहीं पहुंचना चाहते कि जन धन खातों का इस्तेमाल मनी लॉन्ड्रिंग में हुआ लेकिन नोटबंदी के दौरान बैंकों के भीतर बहुत कुछ ऐसा हुआ है जो रहस्यमय है और नोटबंदी की विफलता की वजह हो सकता है.

आम लोगों को बैंकिंग से जोडऩे के सबसे बड़े अभियान की बदकिस्मती यह है कि वह सरकार के नीति रोमांच का शिकार हो कर दागी हो गया. बैंकिंग पर आम लोगों के भरोसे को गहरी चोट लगी है.

लोकतंत्र में जनता अजातशत्रु होती है. यह सरकारों की विफलताओं को भी पचा लेती है. नीतियों को पारदर्शी होना चाहिए. पहली बरसी पर क्या सरकारनोटबंदी के दौरान बैंकिंग संचालनों और जन धन की जांच के नतीजे देश से बांटना चाहेगी?


गलतियों से सीखने का नियम केवल मानवों के लिए ही आरक्षित नहीं हैसर्वशक्तिमान सरकारें भी नसीहत लें तो क्या हर्ज है?