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Saturday, November 2, 2019

ऐसे कैसे चलेंगे बैंक?


 
जमा डूबने के डर से महाराष्ट्र के पीएमसी बैंक के एक जमाकर्ता की मौत की खबर जब सुर्खियों में थीउसी दौरान सरकारी लोन मेलों में 81,000 करोड़ रुके कर्ज बांटे गएबैंकों ने 1.72 लाख करोड़ रुके कर्ज बट्टे खाते (2018-19) में डाल दिएगैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के बाद दूरसंचारलघु उद्योगों और भवन निर्माण क्षेत्र में नए कर्ज संकट के सायरन बज उठेकई बैंकों ने जमा पर ब्याज दर घटा दीखासतौर पर बुजुर्गों की बचत पर ब्याज घट गया.  



भारत के बैंकों के पास अगर कोई चेहरा होता तो उसमें किसी आम भारतीय का ही अक्स दिखाई देतादुविधाग्रस्तआशंकितअनिश्चित और परेशान.
क्या भारतीय बैंकों का बुनियादी कारोबारी मॉडल लड़खड़ा रहा है?

·       भारतीय बैंकों का एक पैर पुराने दौर की डिपॅाजिट बैंकिंग में है जहां ज्यादा से ज्यादा जमा के लिए ऊंचे ब्याज का प्रोत्साहन देना होता है जबकि दूसरा पैर सस्ता कर्ज झोंककर अर्थव्यवस्था को चलाए रखने की मुहिम में हैभारतीय बैंक पूंजी के लिए सरकार पर नहीं बल्कि आम लोगों की बचत पर निर्भर है इसलिए बैंकों का जोखिम देश के करोड़ों जमाकर्ताओं का सबसे बड़ा जोखिम है.

·       यह सही है कि बैंक खाते में जमा कितना भी होबीमा केवल एक लाख रुका है लेकिन सरकारी बैंकों में प्रति खाता औसत जमा 53,000 रुहै जो बीमा की सीमा के भीतर हैनिजी व विदेशी बैंकों में यह औसत एक लाख रुसे दस लाख रुतक हैइसलिए ज्यादातर छोटी बचतें बीमा के तहत महफूज हैं.

·       भारतीय बैंकिंग की मुसीबत यह है कि लोग उसके पास पैसा रखने को तैयार नहीं हैंबैंकों में बचत बढ़ने की दर 2010 से गिरते हुए दस फीसद पर आ गई हैजो 2009-13 के दौरान 17 फीसद पर थीमियादी जमा यानी एफडी में तेज गिरावट दर्ज हुई है.

·       2006 और 2010 के विपरीत पहली बार बाजार में नकदी का प्रवाह यानी हाथों में नकदी बढ़ने के बाद भी जमा नहीं बढ़ी है.

·       इस साल जनवरी में बैंकों का कर्ज जमा अनुपात 47 साल के सबसे ऊंचे स्तर (78.6 फीसदपर पहुंच गयायह ऊंचाई बताती है कि जमा की तुलना में कर्ज देने की रफ्तार बहुत तेज है जो कि भारी जोखिम का संकेत है.

·       बैंकों का कर्ज सरकारमुट्ठीभर कंपनियों और कुछ खुदरा मध्यवर्गीय ग्राहकों को मिलता हैबैंकों का इस्तेमाल करने वाले 80 फीसद लोग बैंकों से कोई कर्ज नहीं लेतेबैंकों के मुनाफे से बचत करने वालों को कुछ नहीं मिलताकेवल ब्याज उनका सहारा है.

·       नए कर्जदार जोड़ने के लिए बैंकों को बार-बार ब्याज दर कम करना जरूरी है ताकि अर्थव्यवस्था में पूंजी का प्रवाह बढ़ सकेलेकिन कर्ज सस्ता करने के साथ जमा पर ब्याज दर कम होती हैरेपो रेट को कर्ज दर से जोड़ने के बाद बैंक डिपॉजिट पर रिटर्न और घट गया है.

·       सरकार सस्ता कर्ज झोंक अर्थव्यवस्था को चलाना चाहती हैवह अपने खर्च के लिए जमाकर्ताओं की बचत (बैंकों से कर्जपर निर्भर हैयहां तक कि बैंकों में नई पूंजी भी अब उनसे ही पैसा लेकर (बॉन्डडाली जाती है.

·       सरकारों ने बैंकों में जमा आम लोगों की पूंजी के सहारे छद्म बैंकिंग (एनबीएफसीका पूरा तंत्र खड़ा कर दियाजो अब बैठ गया हैखेती से लेकर उद्योग तक बैंकों के बकाया कर्ज बढ़ते या डूबते चले जा रहे हैंजमा घटने से बैंकों की पूंजी सिकुड़ रही हैयही वजह है कि सरकार ने बैंकों के विलय के जरिए पूंजी आधार बढ़ाने की कोशिश की है.

·       इस माहौल में बैंक के डिपॉजिट ग्राहकों की चिंता दोहरी हैउनकी बचत का रिटर्न भी गिर रहा है और वह कर्ज में लुटाई भी जा रही है इसलिए बैंक भरोसा और पूंजी दोनों ही खो रहे हैं.

बैंकिंग का मॉडल बदले बिना इस चक्रव्यूह से निकलना मुश्किल है.

¨    बैंकों को संसाधनों के गैर डिपॉजिट स्रोत बढ़ाने होंगेपिछली सदी तक अमेरिका में बैंकों के अधिकांश संसाधन डिपॉजिट से आते थेक्रमशः बैंकों ने फेडरल रिजर्व से कर्ज और बॉन्ड बाजार के जरिए संसाधन संग्रह बढ़ायाअब आधे संसाधन गैर डिपॉजिट हैंइससे संसाधनों की लागत भी कम हुई हैजमाकर्ताओं के लिए जोखिम घटे हैंभारत में बैंकों को पारदर्शी बनानेसरकार की हिस्सेदारी घटाने और उन्हें बॉन्ड बाजार में सक्रिय करने की जरूरत है ताकि वे बाजार से पूंजी लेकर कर्ज दें.

¨    बैंक ग्राहकों को बचत पर ऊंचे रिटर्न की जगह सुरक्षा यानी समग्र बीमा कवर की अपेक्षा करनी होगीअच्छे रिटर्न के लिए म्युचुअल फंड और शेयर बाजारों की तरफ जाना होगा.

¨    कर्ज आधारित निवेश की एक सीमा तय करनी होगी क्योंकि अब उद्योगों को अपनी पूंजी पर जोखिम लेना होगा न कि जमाकर्ताओं के पैसे पर.

सनद रहे कि बैंक में बचत पूरी अर्थव्यवस्था और वित्तीय तंत्र (सरकार का खर्चनिजी उद्योगों को कर्जएनबीएफसी का कर्जका आधार है लेकिन इसके बावजूद खतरा बैंकों में रखी आम लोगों की जमा पर हरगिज नहीं हैजोखिम यह है कि बैंक अब बचत पर ऊंचा रिटर्न और सस्ता कर्ज एक साथ नहीं दे सकते इसलिए बैंकों की मौजूदा आफत दरअसल भारतीय बैंकिंग के लिए अस्तित्व का संकट बन गई है.

Sunday, August 5, 2018

लुटे या पिटे?



आज मैं एनपीए की कहानी सुनाना चाहता हूं......
'' बैंकों की अंडरग्राउंड लूट 2008 से 2014 तक चलती रही. छह साल में अपने चहेते लोगों को खजाना लुटा दिया गया बैकों से. तरीका क्या था कागज देखना कुछ नहींटेलीफोन आयालोन दे दो. लोन चुकाने का समय आया तो नया लोन दे दो. जो गया सो गयाजमा करने के लिए नया लोन दे दो. यही कुचक्र चलता गया और भारत के बैंक एनपीए के जंजाल में फंस गए!
एनपीए बढऩे का एक और कारण! यूपीए सरकार की नीतियों के कारण कैपिटल गुड्स आयात बढ़ा जिसका फाइनेंस बैंक लोन के जरिए किया गया.
(प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब देते हुए)

यह पहला मौका नहीं था जब प्रधानमंत्री ने बैंक एनपीए को लूट कहा था. फरवरी में भी संसद में उन्होंने कहा था कि नेतासरकारबिचौलिए मिलकर कर्ज रिस्ट्रक्चर करते थे. देश लूटा जा रहा था.

प्रधानमंत्री की टिप्पणीबैंक कर्जों की वह कहानी हरगिज नहीं है जो पिछले चार साल में देश को बार-बार सुनाई गई है कि आर्थिक मंदी की वजह से कंपनियों की परियोजनाएं फंस गईंजिससे भारतीय बैंक आज 10 लाख करोड़ रु. के एनपीए में दबे हुए कराह रहे हैं.

क्या बैंकों के एनपीए संगठित लूट थेजो कंपनियों को कर्जों की रिस्ट्रक्चरिंग या लोन पर लोन देकर की गई थी?

क्या आयात के लिए भी कर्ज में घोटाला हुआ?

क्या बकाया बैंक कर्ज आपराधिक गतिविधि का नतीजा हैंआर्थिक उतार-चढ़ाव का नहीं?

अगर बैंकों के एनपीए यूपीए सरकार के चहेतों के संगठित भ्रष्टाचार की देन हैं तो फिर पिछले चार साल में इन्हें लेकर जो किया गया हैवह हमें दोहरे आश्चर्य से भर देता है.

2014 के बाद बैंकों के एनपीए पर सरकार कुछ इस तरह आगे बढ़ी:

·       फंसे हुए कर्जों की पहचान के तरीके और उन्हें एनपीए घोषित करने के पैमाने बदले गए. इनमें वे लोन भी थे जिन्हें 2008 के बाद रिस्ट्ररक्चर (विलंबित भुगतान) किया गया. 2008 के बाद बैंक कर्ज में सबसे बड़ा हिस्सा इन्हीं का है और प्रधानमंत्री ने इसी को बैंकों की लूट कहा है. यानी कि सरकार को पूरी जानकारी मिल गई कि यह कथित लूट किसने और कैसे की? 

· बैंकों को इन कर्जों के बदले अपनी पूंजी और मुनाफे से राशि निर्धारित (प्रॉविजनिंग) करनी पड़ीजिससे सभी बैंकों को 2017-18 में 85,370 करोड़ रु. का घाटा (इससे पिछले साल 473.72 करोड़ रु. का मुनाफा) हुआ. बैंकों के शेयर बुरी तरह पिटे.

·    कर्ज उगाही के लिए बैंकों ने दिवालिया कानून की शरण ली. इस प्रक्रिया में बैंकों को बकाया कर्जों का औसतन 60 फीसदी हिस्सा तक गंवाना होगा.

·   सरकार ने बैंकों को बजट से पूंजी दीयानी बैंकों की जो पूंजी यूपीए के चहेते उड़ा ले गए थेउसका एक बड़ा हिस्सा करदाताओं के पैसे से लौटाया गया.

यह सारी कार्रवाई तो कहीं से यह साबित नहीं करती कि बैंक एनपीएयूपीए के चहेतों की लूट थे!

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पिछले साल अगस्त में राज्यसभा में बैं‌किंग नियमन संशोधन विधेयक पर चर्चा के दौरान कहा था‘‘औद्योगिक और इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में सरकारी बैंक ज्यादा कर्ज देते हैं. वहीं निजी बैंक उपभोक्ता बैंकिंग पर ज्यादा फोकस करते हैं. मैं इसका राजनीतिकरण करना नहीं चाहताकब दिएक्यों दिएग्लोबल इकोनॉमी बढ़त पर थी. कंपनियों ने अपनी क्षमताएं बढ़ाई. बैंकों ने लोन दिया. बाद में जिंसों की कीमतें गिर गई और कंपनियां फंस गईं.’’ 

वित्‍त मंत्री का आकलन तो प्रधानमंत्री से बिल्‍कुल उलटा है!

प्रधानमंत्री ने जो कहा है और सरकार ने बैकों के डूबे हुए कर्जों का जैसे इलाज किया हैउसके बाद बैंकों के एनपीए का शोरबा जहरीला हो गया है. 


पिछले चार साल में सरकार ने इसे कभी लूट माना ही नहीं और न ही आपराधिक कार्रवाई हुई. बैंकरप्टसी कानून सहित जो भी किया जा रहा है वह आर्थिक मुश्किल (वित्‍त मंत्रालय की सूझ के मुताबिक) का इलाज था. 

बैंकों और बजट को एनपीए का नुक्सान उठाना होगा लेकिन अगर यह लूट है तो यूपीए के चहेते कर्जदारों के खिलाफ कार्रवाई नजर नहीं आई? 

देश को यह बताने में क्या हर्ज है कि बैंकों का कितना एनपीए आर्थिक मंदी की देन हैकितना कर्ज यूपीए के चहेतों की उस लूट का हिस्सा है जिसका जिक्र प्रधानमंत्री बार-बार करते हैं.

बैंकों से लूटा गया पैसा आम लोगों की बचत है और बैंकों को मिलने वाली सरकारी पूंजी भी करदाताओं की है.

फिर किसे बचाया जा रहा है और क्यों?

ऐसा क्या है जिसकी परदादारी है?

Tuesday, June 7, 2016

अब की बार बैंक बीमार


बैंकों की हालत दो साल में देश बदलने के दावों की चुगली खाती है.

भारतीय बैंकों के कुल फंसे हुए कर्ज अब 13 लाख करोड़ रुपए से ऊपर हैं जो न्यूजीलैंड, केन्या, ओमान, उरुग्वे जैसे देशों के जीडीपी से भी ज्यादा है. सुनते थे कि चीन की बैंकिंग बुरे हाल में है लेकिन बैंकों के कर्ज संकट के पैमाने पर एशिया की अन्य अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत के बैंकों की हालत सबसे ज्यादा खराब है. प्रमुख सरकारी बैंकों के वित्तीय नतीजे बताते हैं कि 25 में से 15 सरकारी बैंकों का मुनाफा डूब गया है. बैंकिंग उद्योग का ताजा घाटा अब 23,000 करोड़ रुपए से ऊपर है, जबकि बैंक पिछले साल इसी दौरान मुनाफे में थे.

मोदी सरकार अपनी सालगिरह के उत्सव और गुलाबी आंकड़ों की चाहे जो धूमधाम करे लेकिन यकीन मानिए, बैंकिंग के संकट ने इस जश्न में खलल डाल दिया है. भारतीय बैंकों की हालत अब देसी निवेशकों की ही नहीं बल्कि ग्लोबल चिंता का सबब है और इसे सुधारने में नाकामी पिछले दो साल में मोदी सरकार की सबसे बड़ी विफलता है. कमजोर होते और दरकते बैंक ब्याज दरों में कमी की राह रोक रहे हैं. बैंकों पर टिकी मोदी सरकार की कई बड़ी स्कीमें भी इस संकट के कारण जहां की तहां खड़ी हैं.

वित्त मंत्रालय, बैंकिंग क्षेत्र और शेयर बाजार को टटोलने पर भारतीय बैंकिंग में लगातार बढ़ रहे संकट के कई अनकहे किस्से सुनने को मिलते हैं, जो ताजा आंकड़ों से पुष्ट होते हैं. बैंकों की ताजा वित्तीय सूरतेहाल (2015-16 की आखिरी तिमाही) के मुताबिक, केवल पिछले एक साल में ही बैंकों का फंसा हुआ कर्ज यानी बैड लोन (एनपीए) 3.09 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर 5.08 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गया. अकेले मार्च की तिमाही में ही बैंकों का एनपीए 1.5 लाख करोड़ रुपए बढ़ा है. सरकारी बैंकों का एनपीए अब शेयर बाजार में उनके मूल्य से 1.5 गुना है. यानी अगर किसी ने ऐसे बैंक में निवेश किया है तो वह प्रत्येक 100 रुपए के निवेश पर 150 रुपए का एनपीए ढो रहा है.

बैंकों के इलाज के लिए सरकार नहीं बल्कि रिजर्व बैंक ने कोशिश की है. एनपीए को लेकर सरकार की तरफ से ठोस रणनीति की नामौजूदगी में रिजर्व बैंक ने पिछले साल से बैंकों की बैलेंस शीट साफ करने का अभियान शुरू किया, जिसके तहत बैंकों को फंसे हुए कर्जों के बदले अपनी कुछ राशि अलग से सुरक्षित (प्रॉविजनिंग) रखनी होती है. इस फैसले से एनपीए घटना शुरू हुआ है लेकिन  इसका तात्कालिक नतीजा यह है कि 25 में से 15 प्रमुख सरकारी बैंक घाटे के भंवर में घिर गए हैं. मार्च की तिमाही के दौरान भारी घाटा दर्ज करने वाले बैंकों में पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, बैंक ऑफ इंडिया जैसे बड़े बैंक शामिल हैं. देश के सबसे बड़े बैंक, स्टेट बैंक का मुनाफा भी बुरी तरह टूटा है. यह सफाई अभियान कुछ और समय तक चलने की उम्मीद है यानी बैंकों को फंसे हुए कर्जों के बदले और मुनाफा गंवाना होगा. लिहाजा, अगले छह माह तक बैंकों की हालत सुधरने वाली नहीं है.

महंगे कर्ज को लेकर रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन को कठघरे में खड़ा करने वालों से बैंकों की बैलेंस शीट पर एक नजर डालने की उम्मीद जरूर की जानी चाहिए. मई में कर्ज की मांग घटकर दस फीसदी से भी नीचे आ गई जो सबूत है कि बैंकों को नया कारोबार नहीं मिल रहा है. बैंकों में जमा की ग्रोथ रेट पांच दशक के न्यूनतम स्तर पर है. एनपीए के कारण बैंकिंग उद्योग का पूंजी आधार सिकुड़ गया है. दरअसल, ऊंची ब्याज दरों की वजह रिजर्व बैंक की महंगाई नियंत्रण नीति नहीं है, बैंकों की बदहाली ही ब्याज दरों में कमी को रोक रही है.

बैंकों की हालत दो साल में देश बदलने के दावों की चुगली खाती है. सरकार सूझ और साहस के साथ इस संकट से मुकाबिल नहीं हो सकी. पिछले साल अगस्त में आया बैंकिंग सुधार कार्यक्रम इंद्रधनुष बैंक कर्जों और घाटे की आंधी में उड़ गया. यह कार्यक्रम बैंकों के संकट को गहराई से समझने में नाकाम रहा. बैंकों के फंसे कर्जों को उनकी बैलेंस शीट से बाहर करने की जुगत चाहिए, लेकिन उसके लिए सरकार हिम्मत नहीं जुटा सकी. बैंकों का पूंजी आधार इतनी तेजी से गिरा है कि बजट से बैंकों में पैसा डालने (कैपिटलाइजेशन) से भी बात बनने की उम्मीद नहीं है.

यह समझ से परे था कि जब सरकारी बैंक पिछले कई दशकों की सबसे बुरी वित्तीय हालत में हैं तो सरकार ने अपने प्रमुख लोकलुभावन मिशन बैंकों पर लाद दिए. बैंकिंग का ऐसा इस्तेमाल सत्तर-अस्सी के दशक में होता था जब लोन मेले लगाए जाते थे. पिछले दो साल में शुरू हुई लगभग आधा दर्जन योजनाएं बड़े सरकारी बैंकों पर केंद्रित हैं. मुद्रा बैंक, स्टार्ट-अप इंडिया, सोने के बदले कर्ज तो सीधे कर्ज बांटने से जुड़ी हैं जबकि जन धन, बीमा योजनाएं और डायरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर सेवाओं में बैंकिंग नेटवर्क का इस्तेमाल होगा जिसकी अपनी लागत है. आज अगर मोदी सरकार की कई स्कीमों के जमीनी असर नहीं दिख रहे हैं तो उसकी वजह यह है कि बैंकों की वित्तीय हालत इन्हें लागू करने लायक है ही नहीं.

आइएमएफ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि एशिया की अन्य अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत के सरकारी बैंकों की हालत ज्यादा खराब है. 3 मई को जारी रिपोर्ट के मुताबिक, एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत में कुल (ग्रॉस) लोन में नॉन-परफॉर्मिंग एसेट का हिस्सा अन्य एशियन देशों की तुलना में सबसे ज्यादा है. कुल बैंक कर्ज के अनुपात में 6 फीसदी एनपीए के साथ भारत अब मलेशिया, इंडोनिशया और जापान ही नहीं, चीन से भी आगे है.


अच्छे मॉनसून से विकास दर में तेजी की संभावना है. इसे सस्ते कर्जों और मजबूत बैंकिंग का सहारा चाहिए, लोकलुभावन स्कीमों का नहीं. सरकार को दो साल के जश्न से बाहर निकलकर ठोस बैंकिंग सुधार करने होंगे, जिनसे वह अभी तक बचती रही है. बैंकिंग संकट अगर और गहराया तो यह ग्रोथ की उम्मीदों पर तो भारी पड़ेगा ही, साथ ही भारत के वित्तीय तंत्र की साख को भी ले डूबेगा, जो फिलहाल दुनिया के कई बड़े मुल्कों से बेहतर है.