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Thursday, August 3, 2017

गठबंधन हो गया, अब लड़ाई हो

      
नीतीश कुमार के दिल-बदल के साथ गठबंधनों की नई गोंद का आविष्कार हो गया है. सांप्रदायिकता के खिलाफ एकजुटता के दिन अब पूरे हुए. भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई,  नया सेकुलरवाद या गैर कांग्रेसवाद है इसके सहारे राजनैतिक दल नए गठजोड़ों को आजमा सकते हैं. लेकिन ध्यान रहे कि कहीं यह नया सेकुलरवाद न बन जाए. सेकुलरवादी गठजोड़ों की पर्त खुरचते ही नीचे से बजबजाता हुआ अवसरवाद और सत्‍ता की हमाम में डुबकियों में बंटवारे के फार्मूले निकल आते थे इसलिए सेकुलर गठबंधनों की सियासत बुरी तरह गंदला गई.

सेकुलरवादफिर भी अमूर्त था. उसकी सफलता या विफलता सैद्धांतिक थी. उसकी अलग अलग व्‍याख्‍याओं की छूट थी संयोग से भ्रष्‍टाचार ऐसी कोई सुविधा नहीं देता. भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई ठोस और व्यावहारिक है जिसके नतीजों को देखा और महसूस किया जा सकता है. यह भी ध्‍यान रखना जरुरी है भ्रष्‍टाचार से जंग छेड़ने वाले सभी लड़ाकों अतीत पर्याप्‍त तौर पर दागदार हैंइसलिए गठबंधनों के नए रसायन को सराहने से पहले पिछले तीन साल के तजुर्बोंतथ्यों व आंकड़ों पर एक नजर डाल लेनी चाहिए ताकि हमें भ्रष्टाचार पर जीत के प्रपंच से भरमाया न जा सके.
  •  क्रोनी कैपिटलिज्म का नया दौर दस्तक दे रहा है. बुनियादी ढांचेरक्षानिर्माण से लेकर खाद्य उत्पादों तक तमाम कंपनियां उभरने लगी हैंसत्ता से जिनकी निकटता कोई रहस्य नहीं है बैंकों को चूना लगाने वाले अक्‍सर उद्यमी मेक इन इंडिया का ज्ञान देते मिल जाते हैं. सत्ता के चहेते कारोबारियों की पहचानराज्यों में कुछ ज्या‍दा ही स्पष्ट है. द इकोनॉमिस्ट के क्रोनी कैपिटलिज्म इंडेक्स 2016 में भारत नौवें नंबर पर है.  
  •   सरकारी सेवाओं में भ्रष्टाचार और रिश्वतों की दरें दोगुनी हो गई है. इस साल मार्च में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के सर्वे में बताया गया था कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र के 16 देशों में भारत सबसे भ्रष्ट हैजहां सेवाओं में रिश्वत की दर 69 फीसदी है. सीएमएस इंडिया करप्शन स्टडी (अक्तूबर-नवंबर 2016) के मुताबिक, पुलिसटैक्सन्यायिक सेवा और निर्माण रिश्वतों के लिए कुख्यात हैं. डिजिटल तकनीकों के इस्‍तेमाल से काम करने की गति बढ़ी है लेकिन कंप्यूटरों के पीछे बैठे अफसरों के विशेषाधिकार भी बढ़ गए है इसलिए छोटी रिश्‍वतें लगातार बड़ी होती जा रही हैं
  •   नोटबंदी की विफलता में बैंकों का भ्रष्टाचार बड़ी वजह थाजिस पर सफाई से पर्दा डाल दिया गया.
  •  आर्थिकनीतिगत और तकनीकी कारणों से बाजार में प्रतिस्पर्धा सीमित हो रही है. जीएसटी चुनिंदा कंपनियों को बड़ा बाजार हासिल करने में मददगार बनेगा. टेलीकॉम क्षेत्र में तीन या चार कंपनियों के हाथ में पूरा बाजार पहुंचने वाला है.
  •   राजनैतिक मकसदों के अलावा पिछली सरकार के भ्रष्टाचार के मामलों की जांच या तो असफल होकर दम तोड़ चुकी है या फिर शुरू ही नहीं हुई. विदेश से काला धन लाने के वादों के विपरीत पनामा में भारतीयों के खातों के दस्‍तावेज आने के बावजूद एफआईआर तो दूर एक नोटिस भी नहीं दिया गया
  •  सतर्कता आयोगलोकपाललोकायुक्त जैसी संस्थाएं निष्क्रिय हैं और भ्रष्टाचार रोकने के नए कानूनों पर काम जहां का तहां रुक गया है  
सरकारी कामकाज में 'साफ-सफाई' के कुछ ताजा नमूने सीएजी की ताजा रिपोर्टों में भी मिले हैं यह रिपोर्ट पिछले तीन साल के कामकाज पर आधारित हैं
  •    बीमा कंपनियां फसल बीमा योजना का 32,000 करोड़ रुपए ले उड़ींयह धन किन लाभार्थियों को मिला उनकी पहचान मुश्किल है
  •    रेलवे के मातहत सेंट्रल ऑर्गेनाइजेशन फॉर रेलवे इलेक्ट्रिफिकेशन के ठेकों में गहरी अनियमितताएं पाई गई हैं.
  •   रेलवे में खाने की क्वालिटी इसलिए खराब है क्योंकि खानपान सेवा पर चुनिंदा ठेकेदारों का एकाधिकार है.
  •  और नौसेना व कोस्ट गार्ड में कुछ महत्वपूर्ण सौदों को सीएजी ने संदिग्ध पाया है.
सेकुलरवाद को समझने में झोल हो सकता है लेकिन व्यवस्था साफ-सुथरे होने की   पैमाइश मुश्किल नहीं है
  •  सरकारें जितनी फैलती जाएंगी भ्रष्टाचार उतना ही विकराल होगा. सनद रहे कि नई स्‍कीमें लगातार नई नौकरशाही का उत्‍पादन कर रही हैं
  •   भ्रष्टाचार गठजोड़ों और भाषण नहीं बल्कि ताकतवर नियामकों व कानूनों से घटेगा.
  •   अदालतें जितनी सक्रिय होंगी भ्रष्‍टचार से लड़ाई उतनी आसान हो जाएगी.
  •   बाजारों में प्रतिस्पर्धा बढ़ाते रहना जरूरी है ताकि अवसरों का केंद्रीकरण रोका जा सके. 
भ्रष्टाचार के खिलाफ राजनैतिक एकजुटता से बेहतर क्‍या हो सकता है लेकिन इस नए गठजोड़ के तले भ्रष्‍टाचार का घना और खतरनाक अंधेरा है. उच्चपदों पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार अब फैशन से बाहर है कोई निपट मूर्ख राजनेता ही खुद अपने नाम पर भ्रष्‍टाचार कर रहा होगा. चहेतों को अवसरों की आपूर्ति और उनका संरक्षण राजनीतिक भ्रष्‍टाचार के नए तरीके हैं इसलिए इस हमाम की खूंटियों पर सभी दलों के नेताओं के कपड़े टंगे पाए जाते हैं

यदि भ्रष्टाचार के खिलाफ गठबंधनों को सत्‍ता के अवसरवाद से बचाना है तो इसे सेकुलरवाद बनने से रोकना होगा. कौन कितना सेकुलर है यह वही लोग तय करते थे जिन्हें खुद उन पर कसा जाना था. ठीक इसी तरह कौन कितना साफ है यह तय करने की कोशिश भी वही लोग करेंगे जो जिन्‍हें खुद को साफ सुथरा साबित करना है सतर्क रहना होगा क्‍यों कि नए गठजोड़ भ्रष्टाचार को दूर करने के बजाय इसे ढकने के काम आ सकते हैं.  

भ्रष्‍टाचार से जंग में कामयाबी के पैमाने देश की जनता को तय करने होंगे. यदि इस लड़ाई की सफलता तय करने का काम भी नेताओं पर छोड़ दिया गया तो हमें बार-बार छला जाएगा.





Tuesday, November 17, 2015

जीत की हार


मोदी की राजनैतिक वापसी का रास्ता साहसी और सुधारक गवर्नेंस के उसी दरवाजे से निकलेगा जहां से मोदी ने केंद्रीय राजनीति के मंच पर कदम रखा था.
भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने 2014 के जनादेश की क्या सही व्याख्या की है या इसे इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि क्या उन्होंने कोई व्याख्या की भी है या नहीं? बिहार के जनादेश की रोशनी में यह सवाल अटपटा जरूर है लेकिन इसके जवाब में ही बिहार में बीजेपी की जबरदस्त हार का मर्म छिपा है, क्योंकि यदि खुद नरेंद्र मोदी ने 2014 के जनादेश को उसकी चेतना और संभावना में पूरी तरह नहीं समझा तो यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि बीजेपी दिल्ली के जनादेश का संदेश भी नहीं पढ़ पाई और बिहार के संदेश को समझने में भी गफलत ही होगी.
राजनैतिक दल और विश्लेषक चुनाव नतीजों के सबसे बड़े पारंपरिक ग्राहक होते हैं, क्योंकि उनके दैनिक संवादों और रणनीतियों की बुनियाद राजनैतिक संदेशों पर निर्भर होती है. बिहार के नतीजों को भी बीजेपी के कमजोर होने और नीतीश के गैर-बीजेपी राजनीति की धुरी बनने के तौर पर पढ़ा गया है. ठीक इसी तरह 2014 का जनादेश दक्षिणपंथी पार्टी के पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आने या प्रेसिडेंशियल चुनाव की तर्ज पर मोदी के प्रचार की सफलता के तौर पर देखा गया था. अलबत्ता 2014 में चुनावी राजनीति की मुख्यधारा में दो नए वर्ग जोश, उत्सुकता और उम्मीद के साथ सक्रिय हुए थे. एक थे ग्लोबल निवेशक और उद्यमी, जिनके लिए भारत एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है और जिन्हें सुधारों के बीस साल बाद भारत में आर्थिक बदलावों की अगली पीढ़ी का इंतजार है. दूसरे हैं, युवा और शिक्षित प्रौढ़ जिनके लिए राजनीति का मतलब दरअसल गवर्नेंस है. इन दो वर्गों के लिए मोदी सरकार का मतलब ठीक वैसा नहीं था जैसा कि इससे पहले होने वाले चुनावों में रहा है.
नरेंद्र मोदी के पक्ष में 2014 के जनादेश के तीन मतलब थे जो शायद इससे पहले कभी किसी भी जनादेश को लेकर इतने स्पष्ट नहीं रहे. सरकार के सोलह माह बीतने और दिल्ली व बिहार के नतीजों के बाद उन मायनों को समझना जरूरी हो गया है जिनके कारण 2014 के एक साल के भीतर ही दो बड़े चुनावों में बीजेपी को दो टूक इनकार झेलना पड़ा है.
पहलाः केंद्रीय राजनीति के फलक से लगभग अनुपस्थित रहे नरेंद्र मोदी इस चुनाव में नेता नहीं बल्कि सीईओ की तरह सामने आए थे. चुनाव के दौरान मोदी मिथकीय हो चले थे. लोग उन्हें दो टूक और बेबाक राजनेता मान रहे थे, जिसे दिल्ली छाप राजनीति की टकसाल में नहीं गढ़ा गया है और जिसे किसी तरह की बेसिर-पैर बातों से नफरत है. अलबत्ता मोदी के सत्ता में आने के कुछ ही माह के भीतर यह दिखने लगा कि उनके साध्वी, योगी, साक्षी कुछ भी बोल सकते हैं, कितनी भी घृणा उगल सकते हैं. नरेंद्र मोदी की बेबाक, गंभीर और ताकतवर नेता होने की छवि को सबसे ज्यादा नुक्सान इन बयानबहादुरों ने पहुंचाया और इनके बयानों के बदले मोदी के मौन ने उन्हें  या तो कमजोर नेता साबित किया या फिर साजिश कथाओं को मजबूत किया.
दूसराः बाजार, रोजगार और निवेश के लिए मोदी मुक्त बाजार के मसीहा बनकर उभरे जो उस गुजरात की जमीन से उठा है जहां निजी उद्यमिता की दंत कथाएं हैं. उनसे बड़े निजीकरण, ग्लोबल मुक्त बाजार का नेतृत्व, क्रांतिकारी सुधारों की अपेक्षा थी, क्योंकि भारत के पिछले दो दशक के रोजगार और ग्रोथ निजी निवेश से निकले हैं, सरकारी स्कीमबाजी से नहीं. मोदी सरकार ने पिछले सोलह माह में कांग्रेस की तरह स्कीमों की झड़ी लगा दी, नई सरकारी कंपनियां पैदा कीं और मुक्त बाजार की सभी कोशिशों को चलता कर दिया. मोदी का यह चेहरा एक आर्थिक उदारवादी की उम्मीदों के लिए बिल्कुल नया है.
तीसराः मोदी की जीत भ्रष्टाचार, पुरानी तर्ज की गवर्नेंस और हर तरह की अपारदर्शिता की हार थी. इसलिए ये अपेक्षाएं जायज थीं कि मोदी सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता बहाल करेंगे. वे जटिल सरकारी भ्रष्टाचार और कंपनी-नेता गठजोड़ों के खिलाफ ठीक उसी तरह का अभियान शुरू करेंगे जैसा चीन में शी जिनपिंग कर रहे हैं. चुनाव सुधार, राजनैतिक दलों में पारदर्शिता, विजिलेंस, लोकपाल जैसी तमाम उम्मीदें मोदी की जीत के साथ अंखुआ गईं थीं, क्योंकि मोदी दिल्ली की सियासत के पुराने खिलाड़ी नहीं थे. सोलह माह बाद ये अपेक्षाएं चोटिल पड़ी हैं और सियासत व सरकार हस्बेमामूल उसी ढर्रे पर है.
यदि आप दिल्ली व बिहार में बीजेपी की बदहाली को करीब से देखें तो आपको इन तीन कारणों की छाप मिल जाएगी. इन नतीजों में महज, क्षेत्रीय पार्टियों का स्वीकार नहीं बल्कि उक्वमीदों के शिखर पर बैठी मोदी सरकार का इनकार भी इसलिए छिपा है, क्योंकि मोदी ने खुद 2014 के जनादेश को नहीं समझा. जनता उन्हें एक ठोस सुधारक के तौर पर चुनकर लाई थी न कि ऐसे नेता के तौर पर जो राष्ट्रीय गवर्नेंस में बदलाव की अपेक्षाओं को स्थागित करते हुए राज्यों के चुनाव लडऩे निकल पड़े और राज्यों के जनादेशों के लिए अपनी साख को दांव पर लगा दे.
दरअसल, सत्ता में आने के बाद मोदी ने अलग तरह के राजनैतिक गवर्नेंस गढऩे की कोशिश की है जो 2014 की उम्मीदों के खिलाफ है. विकेंद्रित गवर्नेंस की अपेक्षाओं के बदले मोदी ने ऐसी गवर्नेंस बनाई जो मंत्रियों तक को स्वाधीनता नहीं देती. यह केंद्रीकरण सत्ता से संगठन तक आया और चुनावी राजनीति में ज्यादा मुखर हो गया, जब मोदी और अमित शाह अपनी ही पार्टी में उन राजनैतिक आकांक्षाओं को रौंदने लगे जो बीजेपी की बड़ी जीत के बाद राज्यों में अंखुआ रही थीं. चुनाव के नतीजे बताते हैं कि इन आकांक्षाओं की आह बीजेपी को ले डूबी है.

उम्मीद है कि बीजेपी और मोदी 2014 की तरह बिहार के जनादेश को पढऩे की गलती नहीं करेंगे जो केंद्रीकृत राजनैतिक गवर्नेंस के खिलाफ है जबकि यह उन सुधारों के हक में है जिनकी उम्मीद 2014 में संजोई गई थी. दिल्ली व बिहार हार कर मोदी बड़ी राजनैतिक पूंजी गंवा चुके हैं. अब उन्हें गवर्नेंस और आर्थिक पूंजी पर ध्यान देना होगा. उनकी राजनैतिक वापसी का रास्ता साहसी और सुधारक गवर्नेंस के उसी दरवाजे से निकलेगा जहां से मोदी ने केंद्रीय राजनीति के मंच पर कदम रखा था.

Monday, October 26, 2015

यह हार है बड़ी





देश के सबसे बड़े राजनैतिक दल और उसकी सरकार ने न केवल चुनावों को ठीक करने का बड़ा मौका गंवा दिया बल्कि चुनावों को दूषित करने वाले तरीकों को नए तरह से प्रामाणिक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. 


ह निष्कर्ष निकालने में कोई हर्ज नहीं है कि अगले साल बंगाल के चुनाव में आपराधिक छवि वाले प्रत्याशियों के बीच होड़ होने वाली है. चुनावी वादे अब लैपटॉप, साइकिल से होते हुए स्कूटी, पेट्रोल, मकान, जमीन देने तक पहुंच चुके हैं, अगले वर्ष के विधानसभा चुनावों में इसकी नई सीमाएं नजर आ सकती हैं. अगले साल तक चुनावों में काला धन बहाने के नए तरीके नजर आएंगे और वंशवाद की राजनीति का नया परचम लहराने लगेगा जो उत्तर प्रदेश की पंचायतों के चुनावों तक आ गया है. इन नतीजों पर पहुंचना इसलिए आसान है कयों कि बिहार के चुनाव में देश के सबसे बड़े राजनैतिक दल और उसकी सरकार ने न केवल चुनावों को ठीक करने का बड़ा मौका गंवा दिया बल्कि चुनावों को दूषित करने वाले तरीकों को नए तरह से प्रामाणिक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. 
नरेंद्र मोदी और बीजेपी से अपेक्षा तो यह थी कि सत्ता में आने के बाद यह पार्टी ऐलानिया तौर पर चुनाव सुधार शुरू करेगी, क्योंकि विपक्ष में रहकर न केवल बीजेपी ने भारतीय लोकतंत्र में चुनावों की गंदगी को समझा है बल्कि इसे साफ करने की आवाजों में सुर भी मिलाया है. आदर्श तौर पर यह काम महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के चुनावों से शुरू हो जाना चाहिए था लेकिन अगर ये चुनाव जल्दी हुए तो बिहार से इसकी शुरुआत हो ही जानी चाहिए थी.
एक आम भारतीय मतदाता चुनावों में यही तो चाहता है कि उसे अपराधियों को अपना प्रतिनिधि चुनने पर मजबूर न किया जाए. याद कीजिए पिछले साल मई में मोदी की इलाहाबाद परेड ग्राउंड की जनसभा जिसमें उन्होंने कहा था कि ''सत्ता में आते ही राजनीति से अपराधीकरण खत्म करने की मुहिम शुरू होगी. सरकार सभी प्रत्याशियों के हलफनामे सुप्रीम कोर्ट के सामने रखकर मामलों की सुनवाई करने और फैसले सुनाने के लिए कहेगी. जो अपराधी पाए जाएंगे, उनकी सदस्यता जाएगी और उपचुनाव के जरिए सीटे भरी जाएंगी. यही काम विधानसभा में होगा." मोदी ने जोश में यह भी कहा था कि यदि दोषी होंगे तो वह खुद भी मुकदमे का सामना करेंगे लेकिन अगली संसद साफ-सुथरी होगी. पता नहीं, वह कौन-सी बहुमत की कमी है जिसने मोदी को यह प्रक्रिया शुरू करने से रोक रखा है. अलबत्ता देश को यह जरूर मालूम है कि बिहार के चुनाव के पहले चरण में आपराधिक छवि वाले सर्वाधिक लोग बीजेपी का टिकट लेकर चुनाव मैदान में हैं और बीजेपी में अपराधियों को टिकट बेचने का खुलासा करने के बाद पार्टी के सांसद आर.के. सिंह ने हाइकमान की डांट खाई है. चुनावों की निगहबानी करने वाली संस्था एडीआर का आंकड़ा बताता है कि पहले चरण के चुनाव में बीजेपी के 27 प्रत्याशियों में 14 पर आपराधिक मामले हैं. हमें मालूम है कि बीजेपी भी अब मुलायम, मायावती या लालू की तरह आपराधिक मामलों के राजनीति प्रेरित होने का तर्क देगी लेकिन अपेक्षा तो यही थी कि वह साफ -सुथरे प्रत्याशियों की परंपरा शुरू करने के साथ इस तर्क को गलत साबित करेगी.
लैपटॉप, साइकिलें, बेरोजगारी भत्ता आदि बांटने के चुनावी वादों पर भारत में बहस लोकसभा चुनाव से पहले ही शुरू हो गई थी और बीजेपी इस बहस का सक्रिय हिस्सा थी. जुलाई, 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को चुनावी वादों को लेकर दिशानिर्देश तय करने का आदेश देते हुए कहा था कि चुनाव से पहले घोषित की जाने वाली खैरात साफ-सुथरे चुनावों की जड़ें खोद देती है. बीजेपी को सत्ता में आने के बाद इस सुधार की अगुआई करनी थी, लेकिन बिहार के चुनाव में पार्टी ने स्कूटर, मकान, पेट्रोल और जमीन देने के वादे करते हुए इस बड़ी उक्वमीद को दफन कर दिया है कि भारत के चुनाव इस 'रिश्वतखोरी'  से कभी मुक्त हो सकेंगे. दिलचस्प है कि चुनावों में लोकलुभावन घोषणाओं पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश तमिलनाडु में टीवी, मिक्सर-ग्राइंडर बांटने जैसे चुनावी वादों पर आया था. अगले साल तमिलनाडु में फिर चुनाव होने हैं इस बार वहां लोकलुभावन घोषणाओं का नया तेवर नजर आ सकता है.
इस अगस्त में जब बिहार चुनाव की तैयारियां पूरे शबाब पर थीं तब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर राजनैतिक दलों को सूचना कानून के दायरे में लाने का विरोध किया. यह एक ऐसा सुधार था जो चुनावों में खर्च को सीमित करने और पार्टियों का हिसाब साफ-सुथरा करने की राह खोल सकता था. यहां से आगे बढ़ते हुए चुनावी चंदों में पारदर्शिता और काले धन के इस्तेमाल पर रोक के कदम उठाए जा सकते थे. बीजेपी सत्ता में आने से पहले इसके पक्ष में थी लेकिन बिहार की तरफ  बढ़ते हुए उसने खुद को उन दलों की जमात में खड़ा कर दिया जो भारतीय चुनावों को काले धन का दलदल बनाए रखना चाहते हैं. बिहार में जगह-जगह नकदी पकड़ी गई है और चुनाव आयेाग मान रहा है कि 25 फीसदी सीटें काले धन के इस्तेमाल के हिसाब से संवेदनशील हैं. अब जबकि राजनैतिक शुचिता पर बौद्धिक नसीहतें देने वाली पार्टी ही इस कालिख की पैरोकार है तो अचरज नहीं कि काले धन की नदी पंचायत से लेकर संसद तक बेरोक बहेगी.
राजनैतिक सुधारों को लेकर बीजेपी की कलाबाजी इसलिए निराश करती है कि सुधार तो दूर, पार्टी ने राजनीति के धतकर्मों को नई परिभाषाएं व प्रामाणिकता देना शुरू कर दिया है. मसलन इंडिया टुडे के पिछले अंक में अमित शाह ने देश को परिवारवाद की भाजपाई परिभाषा से परिचित कराया. 
यदि हम इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते कि चुनावों में हार जीत ही सब कुछ होती है तो हमें यह मानना पड़ेगा कि बिहार के चुनाव के जरिए सभी दलों ने राजनैतिक सुधारों की उम्मीद को सामूहिक श्रद्धांजलि दी है. बिहार चुनाव का नतीजा कुछ भी हो लेकिन भारतीय लोकतंत्र खुद को ठीक करने का एक बड़ा मौका चूक गया है.

Sunday, October 11, 2015

बदलते संवादों का जोखिम


मोदी समझना होगा कि अगर विमर्श बदलें तो लोगों की राय और सियासत बदलने में वक्त नहीं लगता.
यूपीए सरकार की बड़ी विफलता शायद यह नहीं थी कि उसने फैसले नहीं किए. फैसले तो हुए ही थे तभी तो मोदी सरकार यूपीए मॉडल से आगे नहीं बढ़ पा रही है. मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी नाकामी यह थी कि वे नकारात्मक संवादों की सुनामी को थाम नहीं सके, जिसने अंततः सरकार को चकनाचूर कर दिया. नरेंद्र मोदी सरकार भी इसी घाट पर फिसल रही है. मोदी को सबसे ज्यादा चिंता इस बात की करनी चाहिए कि उनकी सरकार अपनी भोर में ही उन विभाजक और सांप्रदायिक संवादों पर चर्चा से घिर गई है, जिनसे वाजपेयी सरकार अपनी प्रौढ़ावस्था में रू-ब-रू हुई थी और अंततः लोकप्रियता गंवा बैठी.
भारत में नई सरकार से जुड़ी विमर्श बदलने की आहट न्यूयॉर्क, सैनफ्रांसिस्को और बोस्टन के फाइनेंशियल डिस्ट्रिक्ट तक सुनी जा सकती है, जहां भारत में सुधार की संभावनाओं पर करोड़ों डॉलर लगा चुके निवेशक बैठते हैं. कठोर सुधारों की अनुपस्थिति से खीझे इन निवेशकों को उन्माद भरे आयोजन और ज्यादा डरा रहे हैं. कोलंबिया यूनिवर्सिटी में भाषण के लिए न्यूयॉर्क पहुंचे (6 अक्तूबर, 2015) वित्त मंत्री अरुण जेटली दादरी की घटना पर यूं ही परेशान नहीं दिखे, उन्हें निवेशकों की इस झुंझलाहट का बाकायदा एहसास हुआ है.
सरकार को लेकर दो-दो नकारात्मक संवाद एक साथ जड़ पकडऩे लगे हैं. उग्र हिंदुत्व का वेताल बीजेपी की पीठ पर हमेशा से सवार रहा है जो सुशासन के निर्गुण, निराकार आह्वानों को पीछे धकेल कर आगे आने लगा है, जबकि दूसरी तरफ सरकार में कुछ ठोस न हो पाने या जमीन पर बदलाव नजर न आने के आकलन मुखर हो रहे हैं जो सुधार शून्यता के एहसास को गाढ़ा करते हैं.
सरकार के संवादों को सकारात्मक बनाए रखने में विफलता का क्षोभ मोदी के भाषणों में झलकता है. अमेरिका जाने से पहले अपनी जनसभाओं में मोदी विकास के थमने के लिए कांग्रेस को कोस रहे थे जबकि अमेरिका में उनके भाषण, 16 माह की गवर्नेंस की बजाए भावनात्मक व राष्ट्रवादी मुद्दों पर केंद्रित रहे जो उत्साह बनाए रखने की कोशिशों का हिस्सा थे. मोदी के इन प्रयासों के बावजूद सरकार का विराट प्रचार तंत्र उम्मीद भरी बहसों को थाम पाने में चूक रहा है. प्रतिबंधों की दीवानी राज्य सरकारें, विकास और सुधार की चर्चा को ध्वस्त कर रही हैं जबकि काम में सुस्ती को लेकर नौकरशाही पर ठीकरा फोड़ते केंद्रीय मंत्री (नितिन गडकरी) सरकार की विवशता की नजीर बन रहे हैं.
संवादों का मिजाज बदलने की दो वजहें साफ दिखती हैं. पहली यह कि मोदी का चुनाव अभियान शानदार तैयारियों की मिसाल भले ही रहा लेकिन बीजेपी गवर्नेंस के लिए तैयार नहीं थी. भूमि अधिग्रहण, जीएसटी, वन रैंक, वन पेंशन और विदेश में काले धन जैसे मुद्दों पर फजीहत साबित करती है कि चुनावों से पहले कोई तैयारी नहीं की गई और सत्ता में आने के बाद भी जटिल फैसलों पर संवाद या क्रमशः प्रगति साबित करने का कोई तंत्र विकसित नहीं हुआ. 
दूसरी वजह शायद यह है कि मोदी अपनी गवर्नेंस को बताने के लिए प्रभावी प्रतीक चुनने में चूक गए हैं. पिछले 16 माह में सरकार ने कम से कम दो दर्जन नई पहल (मिशन, स्कीम, आदि) की हैं लेकिन इनमें से कोई भी प्रयोग महसूस करने लायक बदलाव नहीं दे सका. सरकार की सभी पहल प्रतीकात्मक और राज्यस्तरीय हैं जिनके पीछे ठोस कार्यान्वयन का ढांचा नहीं है और राज्यों से समन्वय नदारद है.
वाजपेयी का कार्यकाल कई मामलों में मोदी के लिए नसीहत और नजीर बन सकता है. वाजपेयी भी तीन अल्पजीवी सरकारों के बाद उम्मीदों के उफान पर बैठ कर सत्ता में आए थे और उग्र हिंदुत्व का खतरा उनकी सरकार को भी था. वाजपेयी ने विमर्श को विकास पर केंद्रित रखने और उग्र हिंदुत्व से दूरी बनाने के लिए गवर्नेंस के लक्ष्यों का रोड मैप पहले ही तय कर दिया था जिनके सहारे, 2001 में शिला पूजन और राम मंदिर आंदोलन का बिगुल बजने तक सरकार कई सुधारात्मक कदम उठा चुकी थी. मोदी की मुसीबत यह है कि वे न तो सुधारों और गवर्नेंस की ठोस मंजिलें तय कर पाए हैं जिनके आसपास दूरगामी उम्मीद की चर्चाएं हो सकें और न ही उन्होंने वाजपेयी की तरह बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं और निर्माणों को चुना जो गवर्नेंस के जोरदार आगाज का परचम उठा सकें. मोदी ने अपेक्षाओं को पंख लगा दिए हैं, एक-तरफा संवादों की नीति चुनी है और स्कीमों के कछुओं पर सवारी की है, इसलिए कुछ न बदलने का शोर तेज होने लगा है.
24 दिसंबर, 2014 को इसी स्तंभ में हमने लिखा था कि मोदी को उग्र हिंदुत्व की लपट से बचने के लिए अपनी गवर्नेंस के व्यावहारिक लक्ष्य तय करने होंगे, नहीं तो उनके परिवार के योगी, साक्षी और साध्वी उन्हें अगले कुछ महीनों में ही 2002 का वाजपेयी बना देंगे. मोदी का ताजा असमंजस 2001 के वाजपेयी जैसा है, तमाम सुधारों के बावजूद वाजपेयी उग्र हिंदुत्व के आग्रहों की चपेट से बच नहीं सके. 2001 में अयोध्या को लेकर सरकार व विहिप के बीच मोर्चा खुला था. 2002 की शुरुआत होने तक, शिला पूजन को लेकर टकराव, तनाव बढ़ा, गोधरा में ट्रेन जली, गुजरात के दंगे हुए और माहौल विषाक्त हो गया. वाजपेयी ने 2002 और '03 में आर्थिक सुधारों की भरसक कोशिश की. 2003 के अंत में तीन विधानसभाएं भी जीतीं लेकिन देश को सबसे अच्छी गवर्नेंस व सबसे तेज ग्रोथ देने वाली सरकार 2004 में वापस नहीं लौटी. 2002 के सांप्रदायिक तनाव से उभरा विमर्श वाजपेयी सरकार की बेजोड़ परफॉर्मेंस को निगल गया था.

यकीनन, लोकतंत्र में फैसलों में अपनी एक गति है, लेकिन सरकार से जुड़े संवादों में सकारात्मकता अनिवार्य है. ताजा नकारात्मक संवाद, मोहभंग की तरफ बढ़ें इससे पहले मोदी को उग्र हिंदुत्व को खारिज करना होगा और अपेक्षाओं को तर्कसंगत करते हुए उम्मीदों को जगाने वाली ठोस चर्चा की तरफ लौटना होगा. भारत में इस समय शायद ही कोई दूसरा नेता ऐसा होगा जो मोदी से बेहतर इस बात को समझ सकता हो कि अगर विमर्श बदलें तो लोगों की राय और सियासत बदलने में वक्त नहीं लगता.

Monday, August 31, 2015

वाह पैकेज, आह सुधार



पैकेज पॉलिटिक्स के नवीनीकरण के साथ मोदी ने केंद्र और राज्य के वित्तीय संबंधों को बदलने वाले अपने ही मॉडल को सर के बल खड़ा कर दिया है. 

ह अप्रत्याशित ही था कि लाल किले की प्राचीर से अपने 86 मिनट के मैराथन भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार भी उस सबसे बड़े सुधार का जिक्र नहीं किया, जिसका ऐलान उन्होंने पिछले साल यहीं से किया था. योजना आयोग की विदाई लाल किले से ही घोषित हुई थी, जो मोदी सरकार का इकलौता क्रांतिकारी सुधार ही नहीं था बल्कि एक साहसी प्रधानमंत्री की दूरदर्शिता का प्रमाण भी था. अलबत्ता, लाल किले से संबोधन में योजना आयेाग और नीति आयोग का जिक्र न होने का रहस्य चार दिन बाद आरा की चुनावी रैली में खुला जब प्रधानमंत्री ने बिहार के लिए सवा लाख करोड़ रु. के पैकेज के साथ उस बेहद कीमती सुधार को रोक दिया, जो योजना आयोग की समाप्ति के साथ खुद उन्होंने शुरू किया था.
बिहार पैकेज पर असमंजस इसलिए नहीं है कि भारत के जीडीपी (2014-15) के एक फीसदी के बराबर का यह पैकेज कहां से आएगा या इसे कैसे बांटा जाएगा, बल्कि इसलिए कि पैकेज पॉलिटिक्स के नवीनीकरण ने केंद्र और राज्य के वित्तीय संबंधों को बदलने वाले मोदी के मॉडल को सिर के बल खड़ा कर दिया है. राजनैतिक गणित के आधार पर राज्यों को सौगात और खैरात बांटने का दंभ ही कांग्रेसी संघवाद की बुनियाद था. राज्यों को केंद्र से हस्तांतरणों में सियासी फार्मूले के इस्तेमाल पर पर्याप्त शोध उपलब्ध है जो बताता है कि 1972 से 1995 तक उन राज्यों को केंद्र से ज्यादा मदद मिली जो राजनैतिक तौर पर केंद्र सरकार के करीब थे या चुनावी संभावनाओं से भरे थे. 1995 के बाद राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों के अभ्युदय के साथ केंद्रीय संसाधनों के हस्तांतरण में पारदिर्शता के आग्रह मुखर होने लगे.
यह गैर-कांग्रेसी राज्यों के विरोध का नतीजा था कि वित्त आयोगों ने धीरे-धीरे केंद्र से राज्यों को विवेकाधीन हस्तांतरणों के सभी रास्ते बंद कर दिए. 14वें वित्त आयोग ने तो केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी बांटने के लिए सामान्य और विशेष श्रेणी के राज्यों का दर्जा भी खत्म करते हुए, वित्तीय तौर पर नुक्सान में रहने वाले राज्यों के लिए राजस्व अनुदान का फॉर्मूला सुझाया है. वित्त आयोग ने केंद्र से राज्यों को हस्तांतरण बढ़ाने में शर्तों और सुविधाओं की भूमिका को सीमित कर दिया है.
केंद्र और राज्यों के वित्तीय रिश्तों में सियासी दखल को पूरी तरह खत्म करने के लिए योजना आयोग का विदा होना जरूरी था, जो केंद्रीय स्कीमों के जरिए संसाधनों के राजनैतिक हस्तांतरण को पोस रहा था. यही वजह थी कि पिछले साल लाल किले की प्राचीर से जब मोदी ने इस संस्था को विदा किया तो इसे राज्यों के लिए आर्थिक आजादी की शुरुआत माना गया. योजना आयोग के जाने और वित्त आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद राज्य सरकारें उस कांग्रेसी संघवाद से मुक्त हो गई थीं, जिसके तहत उन्हें केंद्र के साथ सियासी रिश्तों के तापमान या चुनावी सियासत के मुताबिक केंद्रीय मदद मिलती थी. लेकिन अफसोस! बिहार पैकेज के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सबसे बड़े वित्तीय सुधार की साख खतरे में डाल दी है.
बिहार पैकेज का ऐलान मोदी की टीम इंडिया यानी देश के राज्यों की उलझन बढ़ाने वाला है, जो योजना आयोग की अनुपस्थिति से उपजे शून्य को लेकर पहले से ही ऊहापोह में हैं. योजना आयोग की विदाई ने केंद्र व राज्य के बीच संसाधनों के बंटवारे और प्रशासनिक समन्वय को लेकर व्यावहारिक चुनौतियां खड़ी कर दी हैं, जिसे भरने के लिए नीति आयोग के पास न तो पर्याप्त अधिकार हैं और न ही क्षमताएं. योजना आयोग केवल केंद्र व राज्यों के बीच संसाधन ही नहीं बांटता था बल्कि केंद्र के विभिन्न विभागों व राज्य सरकारों के बीच समन्वय का आधार था. केंद्रीय मंत्रालय व राज्य सरकारें योजना आयोग को संसाधनों की जरूरतों का ब्योरा भेजती थीं, जिसके आधार पर केंद्रीय योजना को बजट से मिली सहायता बांटी जाती है. योजना आयोग बंद होने के साथ यह प्रक्रिया भी खत्म हो गई.
राज्य सरकारों को विभिन्न स्कीमों व कार्यक्रमों के तहत केंद्रीय संसाधन मिलते हैं. योजना आयोग की अनुपस्थिति के बाद अब 14वें वित्त आयोग की राय के मुताबिक इन केंद्रीय स्कीमों में संसाधनों के बंटवारे का नया फॉर्मूला तय होना है, जिसके लिए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता में गठित समिति की सिफारिशों का इंतजार हो रहा है. इस असमंजस के कारण आवंटनों की गति सुस्त है, जिससे राज्यों की ही नहीं, बल्कि केंद्र की योजनाओं के क्रियान्वयन पर भी असर पड़ रहा है. यही नहीं, योजना आयोग केंद्रीय व राज्य की स्कीमों की मॉनिटरिंग भी करता था, जिसके आधार पर आवंटनों को तर्कसंगत किया जाता था. व्यवस्था का विकल्प भी अब तक अधर में है.
योजना आयोग खत्म होने के बाद अनौपचारिक चर्चाओं में मुख्यमंत्री यह बताते थे कि योजना आयोग की नामौजूदगी से केंद्र व राज्यों के बीच समन्वय का शून्य बन गया है. अलबत्ता राज्यों के मुखिया यह जिक्र करना नहीं भूलते थे कि मोदी सरकार के नेतृत्व में केंद्र व राज्यों के बीच वित्तीय रिश्तों की नई इबारत बन रही है, जो राज्यों की आर्थिक आजादी को सुनिश्चित करती है. इसलिए समन्वय की समस्याओं का समाधान निकल आएगा. लेकिन बिहार पैकेज के बाद अब मोदी के संघवाद पर राज्यों का भरोसा डगमगाएगा.
यह देखना अचरज भरा है कि राज्यों को आर्थिक आजादी की और केंद्रीय नियंत्रण से मुक्त करने की अलख जगाते मोदी, इंदिरा-राजीव दौर के पैकेजों की सियासत वापस ले आए हैं, जिसके तहत केंद्र सरकारें राजनैतिक गणित के आधार पर राज्यों को संसाधन बांटती थीं. राजनैतिक कलाबाजियां और यू टर्न ठीक हैं लेकिन कुछ सुधार ऐसे होते हैं जिन पर टिकना पड़ेगा. मोदी के अच्छे दिनों का बड़ा दारोमदार टीम इंडिया यानी राज्यों पर है, जिन्हें मोदी के सहकारी संघवाद से बड़ी आशाएं हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि बिहार पैकेज अपवाद होगा. मोदी पैकेज पॉलिटिक्स में फंसकर अपने सबसे कीमती सुधार को बेकार नहीं होने देंगे.