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Monday, January 9, 2017

नींव का निर्माण फिर


नोटबंदी ने सरकार की तीन सबसे महत्‍वाकांक्षी कोशिशों को सबसे ज्‍यादा नुकसान पहुंचाया है 


रोनाल्ड  रीगन कहते थे सरकारें समस्याओं का समाधान नहीं करतीं बल्कि उन पर सब्सिडी दे देती हैं. हैरत है कि नोटबंदी के 50 दिन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बड़े साहसी अभियान को महज सब्सिडी और स्कीमों पर उतार लाए. सरकार को यह एहसास हो चला है कि नियंत्रण चाहे जितने आदर्श उद्देश्यों की टकसाल से निकले हों लेकिन खुलीचलती और विकसित होती अर्थव्यवस्था में उनका इस्तेमाल विस्फोटक हो सकता है. इसलिए दिल्ली का निजाम अब नोटबंदी के दर्द को भुलाकर पुनर्निर्माण की तरफ देखना चाहता है.
इस जोखिम ने पिछले ढाई साल में सरकार की कई महत्वाकांक्षी कोशिशों के धुर्रे बिखेर दिए हैं. नोटबंदी के जरिए काले धन को निकालने की कवायद इनकम टैक्स के हाथों में सिमटने के बाद देश तीन चिंताजनक आर्थिक नतीजों से मुकाबिल है.
एकऔद्योगिक उत्पादन बुरी तरह खेत रहा है. सबसे ज्यादा नुक्सान छोटे-मझोले उद्योगों को हुआ हैजहां सबसे ज्यादा रोजगार थे.
दोलोगों का उपभोग खर्च घट गया है जो कि जीडीपी में 66 फीसदी का हिस्सेदार है.
तीननोटबंदी के दौरान बैंकों पर भरोसा डगमगाया है. पैसे निकालने और जमा करने की उलझनों व बाद में जांच-पड़ताल का डर इसकी बड़ी वजह है. बैंकों को डर है कि नकद निकासी की सीमा हटने के बाद बड़े पैमाने पर लोग पैसा निकाल सकते हैं.
पिछले ढाई साल में मोदी सरकार तीन आर्थिक मकसदों को साधने की कोशिश करती दिखी है. पहला है प्रोडक्शन यानी (औद्योगिक) उत्पादनदूसरा खपत यानी मांग और तीसरा इन्क्लूजन यानी वित्तीय तंत्र में बड़ी पैमाने पर लोगों पर भागीदारी. मेक इन इंडियास्टार्ट अप और जनधन स्कीमें इन्हीं मकसदों से निकलीं जिनका लक्ष्य निजी निवेशज्यादा उत्पादनग्रोथरोजगार और आय में वृद्धि है.
अफसोस!  नोटबंदी ने इन तीनों को ज्यादा नुक्सान पहुंचाया है.
मेक इन इंडिया
नोटबंदी के कारण भारत दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था से सबसे तेजी से धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था में बदल गया है. मेक इन इंडिया को मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में रोजगार लाने वाला निजी निवेश बढ़ाने के मकसद से शुरू किया गया था. भारत के जीडीपी में निवेश का हिस्सा लगभग 30 फीसदी है जिसमें अधिकांश निवेश निजी क्षेत्र का है. पिछले दो साल में तमाम कोशिशों के बावजूद मांग में कमी और कर्ज के बोझ के कारण उद्योगों ने नए निवेश का जोखिम नहीं लिया. नोटबंदी के बाद उत्पादन और मांग में भारी कमी को देखते हुए अगले कई महीनों के लिए निवेश का उत्साह लगभग खत्म हो जाने वाला है.
नोटबंदी ने छोटे उद्योगों को सबसे ज्यादा बदहाल किया है. अत्यंत छोटी उत्पादन व ट्रेडिंग इकाइयां 95 फीसदी रोजगार का आधार हैं. जीडीपी गणना के नए फॉर्मूले के मुताबिक छोटे उद्योग जीडीपी में 37 फीसदी का हिस्सा रखते हैं. निर्यात में इनका हिस्सा लगभग 45 फीसदी है. वैसे भी भारत के छोटे उद्योग अब केवल 6,000 छोटे उत्पादों तक सीमित हैं जो सामान्य तकनीक पर आधारित हैं. नोटबंदी के बाद बहुत-सी इकाइयां ठप हो गईंजिन्हें  पुनः संचालित करना मुश्किल है और इनके बिना मेक इन इंडिया की दोबारा सक्रियता व रोजगार की वापसी असंभव है.
स्टार्ट अप
नोटबंदी से खपत बुरी तरह टूट गई है जो 60 फीसदी आर्थिक ग्रोथ का आधार है और भारत में निवेश का सबसे बड़ा आकर्षण है. उपभोक्ता उत्पादवाहनपैक्ड  फूड की मांग में तेज गिरावट के आंकड़े इसका प्रमाण हैं. दरअसलपूरी स्टार्ट अप क्रांति इस उपभोग खपत पर निर्भर थी. ज्यादातर यूनीकार्न (एक अरब डॉलर से अधिक वैल्यूएशन वाले) स्टार्ट अप लोगों के शॉपिंग उपभोग पर आधारित हैं.
नोटबंदी से उपजी अनिश्चितता के कारण खर्च करने का उत्साह भी सीमित हो गया है. जब तक नकदी की आपूर्ति सामान्य नहीं होती और असमंजस खत्म नहीं होताउपभोग खर्च के लौटने की गुंजाइश कम है. यही वजह है कि रोजगार का सबसे ज्यादा नुक्सान स्टार्ट अप में हुआ है जहां पिछले दो साल में नौकरियां बनती दिख रही थीं.
जन धन
जन धन योजना नोटबंदी की अप्रत्याशित शिकार है. जद्दोजहद के बाद बैंकिंग की मुख्य धारा में आए सैकड़ों लोग अब आयकर और जांच एजेंसियों के निशाने पर हैं. बैंकिंग में इनका विश्वास दोबारा जमाना मुश्किल होगा. फाइनेंशियल इन्क्लूजन की उलझन सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती. भारत की बैंकिंग मूलतः डिपॉजिट केंद्रित है. नोटबंदी के बाद बैंकों में डिपॉजिट का अंबार है और कर्ज सस्ता करने के लिए बैंक जमा की दर घटा रहे हैं. बैंकों के सबसे बड़े ग्राहकों यानी जमाकर्ताओं को अपने रिटर्न की कुर्बानी देनी पड़ रही है जिससे बैंकों में डिपॉजिट का आकर्षण घटता जाएगा. यदि सरकार नोटबंदी का बुरा असर जल्दी खत्म करना चाहती है तो उसे
  • छोटे और मझोलेे उद्योगों  के लिए कर्ज से राहत और इंस्पेक्टर राज हटाने वाली समग्र नीति 
  • खपत बढ़ाने के लिए जीएसटी में टैक्स की दर बेहद कम रखनी होगी.
  • वित्तीय समावेशन के लिए बैंकों में डिपॉजिट को आकर्षक बनाए रखना होगा. 

सरकारें नियंत्रण बढ़ाना चाहती हैं जबकि सभ्यता का इतिहास बताता है कि दुनिया में कोई बड़ी उपलब्धि नौकरशाही के जरिए नहीं आई. मिल्टन फ्रीडमैन कहते थे कि आइंस्टीन ने किसी ब्यूरोक्रेट के कहने से थ्योरी नहीं बनाई थी और न ही किसी सरकारी बाबू ने हेनरी फोर्ड को ऑटोमोबाइल क्रांति के लिए कहा था.
नोटबंदी ने सरकार का आकार बढ़ा दिया है और आर्थिक आजादियों को सीमित कर दिया है जबकि विकासआय व रोजगार बढ़ाने का रास्ता छोटी सरकार और बड़े कारोबार से ही निकलेगासरकार जितनी जल्दी यह हकीकत स्वीकार कर लेउसी में अर्थव्यवस्था की भलाई है. 

Saturday, December 31, 2016

कल क्या होगा?

नीति शून्यता (पॉलिसी पैरालिसिस) जवाब नीति रोमांच (पॉलिसी एडवेंचरिज्म)  हरगिज नहीं हो सकता

नोटबंदी के बाद राम सजीवन हर तीसरे दिन बैंक की लाइन में लग जाते हैं, कभी एफडी तुड़ाने तो कभी पैसा निकालने के लिए. फरवरी में बिटिया की शादी कैसे होगी? फ्रैंकफर्ट से भारत के बाजार में निवेश कर रहे एंड्रयू भी नोटबंदी के बाद से लगातार शेयर बाजार में बिकवाली कर रहे हैं.

सजीवन को सरकार पर पूरा भरोसा है और एंड्रयू को भारत से जुड़ी उम्मीदों पर. लेकिन दोनों अपनी पूरी समझ झोंक देने के बाद भी आने वाले वक्त को लेकर गहरे असमंजस में हैं.

सजीवन और एंड्रयू की साझी मुसीबत का शीर्षक है कल क्या होगा?

सजीवन आए दिन बदल रहे फैसलों से खौफजदा हैं. एंड्रयू को लगता है कि सरकार ने मंदी को न्योता दे दिया है, पता नहीं कल कौन-सा टैक्स थोप दे या नोटिस भेज दे इसलिए नुक्सान बचाते हुए चलना बेहतर.

सजीवन मन की बात कह नहीं पाते, बुदबुदा कर रह जाते हैं जबकि एंड्रयू तराशी हुई अंग्रेजी में रूपक गढ़ देते हैं, ''म ऐसी बस में सवार हैं जिसमें उम्मीदों के गीत बज रहे हैं. मौसम खराब नहीं है. बस का चालक भरोसेमंद है लेकिन वह इस कदर रास्ते बदल रहा है कि उसकी ड्राइविंग से कलेजा मुंह को आ जाता है. पता ही नहीं जाना कहां है?"

नोटबंदी से पस्त सजीवन कपाल पर हाथ मार कर चुप रह जाते हैं. लेकिन एंड्रयू, डिमॉनेटाइजेशन को भारत का ब्लैक स्वान इवेंट कह रहे हैं. सनद रहे कि नोटबंदी के बाद विदेशी निवेशकों ने नवंबर महीने में 19,982 करोड़ रु. के शेयर बेचे हैं. यह 2008 में लीमन ब्रदर्स बैंक तबाही के बाद भारतीय बाजार में सबसे बड़ी बिकवाली है.


ब्लैक स्वान इवेंट यानी पूरी तरह अप्रत्याशित घटना. 2008 में बैंकों के डूबने और ग्लोबल मंदी के बाद निकोलस नसीम तालेब ने वित्तीय बाजारों को इस सिद्धांत से परिचित कराया था. क्वांट ट्रेडर (गणितीय आकलनों के आधार पर ट्रेडिंग) तालेब को अब दुनिया वित्तीय दार्शनिक के तौर पर जानती है. ब्लैक स्वान इवेंट की तीन खासियतें हैः

एकऐसी घटना जिसकी हम कल्पना भी नहीं करते. इतिहास हमें इसका कोई सूत्र नहीं देता.
दोघटना का असर बहुत व्यापक और गहरा होता है.
तीनघटना के बाद ऐसी व्याख्याएं होती हैं जिनसे सिद्ध हो सके कि यह तो होना ही था

ब्लैक स्वान के सभी लक्षण नोटबंदी में दिख जाते हैं.

इसलिए अनिश्चितता 2016 की सबसे बड़ी न्यूजमेकर है.

और

नोटबंदी व ग्लोबल बदलावों के लिहाज से 2017, राजनैतिक-आर्थिक गवर्नेंस के लिए सबसे असमंजस भरा साल होने वाला है.

ब्लैक स्वान थ्योरी के मुताबिक, आधुनिक दुनिया में एक घटना, दूसरी घटना को तैयार करती है. जैसे लोग कोई फिल्म सिर्फ इसलिए देखते हैं क्योंकि अन्य लोगों ने इसे देखा है. इससे अप्रत्याशित घटनाओं की शृंखला बनती है. नोटबंदी के बाद उम्मीद थी कि भ्रष्टाचार खत्म होगा लेकिन यह नए सिरे से फट पड़ेगा, बेकारी-मंदी आ जाएगी यह नहीं सोचा था.

नोटबंदी न केवल खुद में अप्रत्याशित थी बल्कि यह कई अप्रत्याशित सवाल भी छोड़कर जा रही है, जिन्हें सुलझाने में इतिहास हमारी कोई मदद नहीं करता क्योंकि ब्लैक स्वान घटनाओं के आर्थिक नतीजे आंके जा सकते हैं, सामाजिक परिणाम नहीं.
  • नोटबंदी के बाद नई करेंसी की जमाखोरी का क्या होगाक्या नकदी रखने की सीमा तय होगीडिजिटल पेमेंट सिस्टम अभी पूरी तरह तैयार नहीं है. क्या नकदी का संकट बना रहेगाकाम धंधा कैसे चलेगा?
  • नई करेंसी का सर्कुलेशन शुरू हुए बिना नए नोटों की आपूर्ति का मीजान कैसे लगेगानकद निकासी पर पाबंदियां कब तक जारी रहेंगी ?
  • नकदी निकालने की छूट मिलने के बाद लोग बैंकों की तरफ दौड़ पडे तो ?
  • कैश मिलने के बाद लोग खपत करेंगे या बचतयदि बचत करेंगे तो सोना या जमीन-मकान खरीद पाएंगे या नहीं.
और सबसे बड़ा सवाल

इस सारी उठापटक के बाद क्या अगले साल नई नौकरियां मिलेंगी? कमाई के मौके बढेंग़े? या फिर 2016 जैसी ही स्थिति रहेगी?

भारत को ब्लैक स्वान घटनाओं का तजुर्बा नहीं है. अमेरिका में 2001 का डॉट कॉम संकट और जिम्बाब्वे की हाइपरइन्क्रलेशन (2008) इस सदी की कुछ ऐसी घटनाएं थीं. शेष विश्व की तुलना में भारतीय आर्थिक तंत्र में निरंतरता और संभाव्यता रही है. विदेशी मुद्रा संकट के अलावा ताजा इतिहास में भारत ने बड़े बैंकिंग, मुद्रा संकट या वित्तीय आपातकाल को नहीं देखा. 

आजादी के बाद आए आर्थिक संकटों की वजह प्राकृतिक आपदाएं (सूखा) या ग्लोबल चुनौतियां (तेल की कीमतें, पूर्वी एशिया मुद्रा संकट या लीमन संकट) रही हैं, जिनके नतीजे अंदाजना अपेक्षाकृत आसान था और जिन्हें भारत ने अपनी देसी खपत व भीतरी ताकत के चलते झेल लिया. नोटबंदी हर तरह से अप्रत्याशित थी इसलिए नतीजों को लेकर कोई मुतमइन नहीं है और असुरक्षा से घिरा हुआ है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सक्रिय राजनेता हैं. वह जल्द से जल्द से कुछ बड़ा कर गुजरना चाहते हैं. हमें मानना चाहिए कि वह सिर्फ चुनाव की राजनीति नहीं कर रहे हैं. पिछले एक साल में उन्होंने स्कीमों और प्रयोगों की झड़ी लगा दी है लेकिन इनके बीच ठोस मंजिलों को लेकर अनिश्चितता बढ़ती गई है. 

2014 में मोदी को चुनने वाले लोग नए तरह की गवर्नेंस चाहते थे जो रोजगार, बेहतर कमाई और नीतिगत निरंतरता की तरफ ले जाती हो. प्रयोग तो कई हुए हैं लेकिन पिछले ढाई साल में रोजगार और कमाई नहीं बढ़ी है. पिछली सरकार अगर नीति शून्यता (पॉलिसी पैरालिसिस) का चरम थी तो मोदी सरकार नीति रोमांच (पॉलिसी एडवेंचरिज्म) की महारथी है.

ब्लैक स्वान वाले तालेब कहते हैं विचार आते-जाते हैं, कहानियां ही टिकाऊ हैं लेकिन एक कहानी को हटाने के लिए दूसरी कहानी चाहिए. नोटबंदी की कहानी बला की रोमांचक है, लेकिन अब इससे बड़ी कोई कहानी ही इसकी जगह ले सकती है जिस पर उम्मीद को टिकाया जा सके. 

क्या 2017 में अनिश्चितता और असमंजस से हमारा पीछा छूट पाएगा?

Monday, December 26, 2016

न होती नोटबंदी तो ..

डिमॉनेटाइजेशन में क्‍या ऐसा है  जो हमें इसकी मंशा पर नहीं बल्कि इसे नतीजों को लेकर बहुत अााश्‍वस्‍त नहीं करता 

रकारी नीतियों का मूल्यांकन मंशा से नहीं बल्कि ठोस नतीजों पर होता है. इसलिए जब नीतियां उलझती हैं तो राजनेता अमूर्त उम्मीदों की लंबी रस्सी थमा देते हैं. नोटबंदी को लेकर उम्मीदों का दौर खत्म हो रहा हैअब बारी पहले आधिकारिक नतीजों की हैजिनकी तरफ बढ़ता चार बड़े सवालों से मुकाबिल है।

एकः कितना काला धन नकदी में थानोटबंदी से पहले तक आयकर छापों में औसतन पांच फीसदी अघोषित धन नकद (काले धन पर श्वेत पत्र 2012) के तौर पर मिला है. रिजर्व बैंक के पास लगभग उतनी नकदी पहुंच गई है जितनी बाजार में थी. कालिख वालों को बच निकलने का एक और मौका क्यों मिल रहा है?

दोः काले धन के खिलाफ निर्णायक लड़ाई जरूरी है लेकिन क्या नोटबंदी से इस पर लगाम लगी हैलगता है कि काला धन नए गुलाबी नोटों में बदल गया है. बैंक भ्रष्ट साबित हुए हैं और अब इंस्पेक्टर राज आने वाला है.

तीनः रोजगार को गहरी चोट पहुंची है फायदे होंगे भी कि नहीं ? पता नहीं कष्ट कितना लंबा होगा? पैसा निकालने से पाबंदियां कब हटेंगी?

चारः अगर इनकम टैक्स के छापे ही काला धन का इलाज थे तो पूरे देश को सजा देने की क्या जरूरत थी?

इन सवालों की रोशनी में नोटबंदी को लेकर चार तरह के निष्कर्ष हमारे सामने हैः

पहलाः नोटबंदी असफल हो चुकी है क्योंकि पूरे अभियान में दर्जनों छेद थे.
दूसराः नोटबंदी इतनी कामयाब नहीं हुई कि त्याग व बलिदान बेकार जाते महसूस न होते.
तीनः इसकी सफलता इसके बाद उठाए जाने वाले कदमों से तय होगी.
चारः काले धन के खिलाफ ऐसा कुछ क्या हो सकता था कि इस दर्द से गुजरना ही न पड़ता.

दरअसलनोटबंदी के पूरे अभियान को गौर से देखने पर कुछ तथ्य सामने आते हैंजिनकी नामौजूदगी में पूरी कवायद पटरी से उतर गई. अगर कुछ फैसले पहले ही हो गए होते तो क्‍या पता कि नोटबंदी का दर्द देने की जरूरत ही नहीं पड़ती. दिलचस्प यह भी है कि नोटबंदी को निर्णायक नतीजे तक पहुंचाने के लिए इन्हीं फैसलों को लागू किये बिना बात नहीं बनेगी।  

क्या नोटबंदी का दर्द टल सकता था और कैसे?

1. कितना नकद लेन-देन और कितनी नकदीनोटबंदी शुरू होते ही इनकम टैक्स अफसरों को पता चल गया था कि ज्यादातर काला धन कॉर्पोरेटसरकारी खजानेबिजनेसराजनैतिक दलवित्तीय कंपनियोंबैंक और धार्मिक संस्थाओं व ट्रस्ट का हिस्सा बनकर सफेद होने जा रहा है. नकदी रखने की कोई सीमा नहीं है. इनकम टैक्स नियमों के तहत व्यक्तिगत करदाताओं को नकद जमा (सोने की खरीद भी) को बताने की शर्त नहीं है जब तक कि आयकर विभाग अघोषित संपत्ति की जांच न करे. कारोबारी नकदी (कैश इन हैंड) को लेकर तो नियम ही नहीं है.

काले धन पर एसआइटी ने आयकर कानून में संशोधन के जरिए नकद लेन-देन के लिए तीन लाख रुपए और कारोबार में 15 लाख रुपए तक नकद की सीमा तय करने की सलाह दी थीजिसे लागू किए बिना बात नहीं बनेगी.  

2. कौन खरीद रहा है सोना और जमीनसोने-जेवरात की बड़े पैमाने पर खरीद बगैर पैन नंबर या पहचान के होती है. इस कारोबार में ग्राहक की पहचान (केवाइसी) निर्धारित करना जरूरी है. नोटबंदी के बाद बड़े पैमाने पर सोने की खरीद हुई. ठीक इसी तरह अगर बेनामी संपत्ति को रोकने का कानून और पहचान रजिस्टर करने का नियम लागू होता तो नोटबंदी के दौरान खासकर कृषि भूमि में बड़े निवेश न होते.
नोटबंदी के बाद सबसे बड़ी उम्मीद मकान-जमीन सस्ते होने की है. सर्किल रेट (सरकारी दर) और बाजार मूल्य के बीच अंतर यहां काले धन की वजह है. सर्किल रेट घटाकर इसे रोका जा सकता है जो नोटबंदी के पहले होना चाहिए था. यह काम बाद में भी हो सकेगाइस पर शक है क्योंकि राज्य सरकारें मुश्किल से तैयार होंगी. नतीजतन नई नकदी वापस जमीन की खरीद में लग जाएगी.

3. दर्जनों कंपनियां-दसियों खातेकाले धन की धुलाई के कानूनी तरीकेगैर-कानूनी तरीकों से कई गुना ज्यादा हैं. नोटबंदी से पहले बैंकों- कंपनियों में अकाउंटिंग रिफॉर्म (फोरेंसिक अकाउंटिंग) होने चाहिए थे ताकि दर्जनों कंपनियां और विदेश में ट्रस्ट बनाकर या राउंड ट्रिपिंगमल्टीपल अकाउंटघाटा दिखानेखर्च दिखानेकैपिटल बढ़ाकर नकदी की धुलाई न हो पाती. जीएसटी लागू करने के बाद अगर नोटबंदी आती तो शायद कामयाबी ज्यादा होती.

4. सियासत की कालिख राजनैतिक दलों के लिए इनकम टैक्स कानून (धारा 13 ए) के तहत छूट व गोपनीयता बरकरार रखकर सरकार ने पूरे अभियान की साख को पलीता लगा लिया. राजनैतिक दलों के लिए 20,000 रुपए से कम की राशि को सार्वजनिक न करने की छूट है. ज्यादातर काला चंदा इसी छेद से आता है. 2005 से 2013 के बीच बीजेपी और कांग्रेस सहित पांच प्रमुख दलों के कुल 5,000 करोड़ रुपए के चंदे का 73 फीसदी हिस्सा अज्ञात स्रोतों से आया. सरकार अगर काले धन वालों को राहत देने के लिए नोटबंदी के बीच में ही कानून बदल सकती थी तो सियासत के लिए कानून क्यों नहीं बदला जा सकता?


सरकारों की मंशा कभी खराब नहीं होती. युद्ध भी शांति के इरादे के साथ लड़े जाते हैं. सरकारी नीतियों की सफलता उनके नतीजों से तय होती है. नोटबंदी के दो माह पूरे होने के बाद 30 दिसंबर को प्रधानमंत्री मोदी (यदि) देश से बात करेंगे तो उनके आह्वान पर ''पस्या" कर चुके लोग अब नोटबंदी के पीछे की मंशा नहीं बल्कि नतीजों पर जवाब की अपेक्षा करेंगे. 



सरकार में सबको मालूम है कि नकदीकॉर्पोरेट अकाउंटिंगअचल संपत्ति और राजनैतिक चंदे के नियम बदल कर ही नतीजे सामने आ सकते हैं. प्रधानमंत्री को अब यह साबित करना होगा कि नोटबंदी से उन ''खा" लोगों की जिंदगी पर क्या असर पड़ा जिन्हें सजा देने के लिए आम लोगों को गहरी यंत्रणा से गुजरना पड़ रहा है.

Monday, November 14, 2016

काले धन की नसबंदी

बड़े नोट बंद करने का फैसला फिलहाल मुश्किलों से भरा है, लेकिन इसी कोलाहल में पुननिर्माण के संकेत भी हैं.

कुछ फैसलों का फैसला समय पर छोड़ देना चाहिए 2016 में एक औसत पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी मानेगा कि छोटा परिवार सुखी होता है लेकिन 70 के दशक के शुरुआती वर्षों में जब इंदिरा और संजय गांधी नसबंदी थोप रहे थेतब तस्वीर शायद नोट बंद होने की अफरातफरी जैसी ही रही होगी. इतिहास ने इंदिरा-संजय को खलनायक दर्ज किया लेकिन परिवार नियोजन जरूरी माना गया. काला धन रोकने के लिए अर्थव्यवस्था को कुछ समय के लिए विकलांग बना देने के फैसले पर अंतिम निर्णय तो समय को देना है लेकिन फिलहाल यह फैसला बिखराव और अराजकता से भरपूर हैहालांकि इसी कोलाहल में पुनर्निर्माण के संकेत भी मिल जाते हैं.

फिलहाल भारत किसी वित्तीय आपदा या बैंकों की तबाही से प्रभावित देश (हाल में ग्रीस) की तरह नजर आने लगा हैजहां बैंक व एटीएम बंद हैंलंबी कतारे हैं और लोग सीमित मात्रा में नकद लेने और खर्च करने को मजबूर हैं. ऐसे मुल्क में जहां बहुत बड़ी अर्थव्यवस्था नकदी पर चलती हो, 50 फीसदी वयस्क लोगों का बैंकों से कोई लेना-देना न हो और बड़े नोट नकद विनिमय में 80 फीसदी का हिस्सा रखते हों वहां सबसे ज्यादा इस्तेमाल वाले नोटों को कुछ समय के लिए अचानक बंद करना विध्वंस ही होगा न! खास तौर पर तब जबकि रिजर्व बैंक की नोट मुद्रण क्षमताएं सीमित और आयातित साधनों पर निर्भर हैं.

वैसे इस अफरातफरी का कुल किस्सा यह है कि सरकार को नए डिजाइन के नोट जारी करने थे. नकली नोट रोकने की कोशिशों पर अंतरराष्ट्रीय सहमतियों के तहत रिजर्व बैंक ने सुरक्षित डिजाइन (ब्लीड लाइंसनंबर छापने का नया तरीका) की मंजूरी लेकर तकनीक जुटाने का काम पिछले साल के अंत तक पूरा कर लिया था. नए नोटों को रिजर्व बैंक के नए गवर्नर (राजन के बाद) के हस्ताक्षर के साथ नवंबर 2016 में जारी किया जाना था. इसमें 2,000 रु. का नया नोट भी था. इसी क्रम में नकली नोटों में पाकिस्तानी हाथ होने की पुष्टि के बाद सरकार ने करेंसी को सुरक्षित बनाने की तकनीक व साजो-सामान को लेकर आयात पर निर्भरता तीन साल में 50 फीसदी घटाने का निर्णय भी किया था. 

नए डिजाइन के नोट जारी करने के लिए पुरानी करेंसी को बंद (डिमॉनेटाइज) नहीं किया जाताबस नए नोट क्रमश: सिस्टम में उतार दिए जाते हैं. लेकिन सरकार ने नोट बंद कर दिएजिसके कई नतीजों का अंदाज उसे खुद भी नहीं था.

मुसीबतों का हिसाब-किताब
1. बड़े नोट बंद होने से कुल नकदी (16 लाख करोड़ रु.) में लगभग 14 लाख करोड़ रु. कम हो गए यानी कि एक झटके में अधिकांश मांग को रोककर सरकार ने तात्कालिक मंदी को न्योता दे दिया. करेंसी की आपूर्ति सामान्य होने में लंबा वक्त लगता हैइसलिए मंदी व बेकारी से उबरने में और ज्यादा वक्त लगेगा.

2. कोई भी देश सामान्य स्थिति में अपनी करेंसी (लीगल टेंडर) के इस्तेमाल पर शर्तें नहीं लगातामसलनदवा खरीद सकते हैं पर रोटी नहीं. यह करेंसी संचालन के सिद्धांत के खिलाफ है. ऐसा तभी होता है जब देश की साख डूब रही हो. इसलिए विदेशी मुद्रा बाजार में रुपया कमजोर हुआ है.

3. करेंसी का प्रबंधन और निर्णय रिजर्व बैंक करता हैइस फैसले से रिजर्व बैंक की स्वायत्तता बाधित हुई है.

इस फैसले के तरीके और तैयारियों को बेशक बिसूरिए लेकिन काले धन की ताकत को कमतर मत आंकिए. देखा नहीं कि घोषणा के बाद लोगों को बमुश्किल दो घंटे मिले थे लेकिन उसी दौरान सोने की दुकानों पर कतारें लग गईं. नोट बंद होने के बावजूद हवाला बाजार में अभूतपूर्व ऊंची कीमतों पर सोने और डॉलर के सौदे होते रहेजिन्हें रोकने के लिए आयकर विभाग को छापेमारी करनी पड़ी.

काले धन को रोकने की ताजा कोशिशों का रिकॉर्ड बहुत सफल नहीं रहा है. बैंकोंप्रॉपर्टी व ज्यूलरी पर नकद लेन-देन में पैन नंबर की अनिवार्यता से बैंकों में जमा कम हो गया और बाजार में नकदी बढ़ गई. काला धन घोषणा माफी स्कीमें बहुत उत्साही नतीजे लेकर नहीं आईं. अंतत: सरकार ने अप्रत्याशित विकल्प का इस्तेमाल कियाजिससे करीब तीन लाख करोड़ रु. की काली नकदी खत्म होने का अनुमान है. इसके साथ ही नए नोट लेने के लिए नकदी लेकर बैंक जा रहे लोगों पर आयकर विभाग की निगरानी हमेशा रहेगी.

बहरहालएटीएम पर धक्के खाने और पैसे होते हुए उधार पर सब्जी लेने के दर्द के बावजूद इस फैसले से उठी गर्द के पार देखने की कोशिश भी करनी चाहिएजहां पुनर्निर्माण की उम्मीद दिखती है.

यह रही पुनर्निर्माण की सूची

1. बैंकों के लिए पहले आफतफिर राहत है. फैसला लागू होने के बाद बैंक संचालन शुरू होने के पहले दो दिन में अकेले स्टेट बैंक में ही 55,000 करोड़ रु. जमा हुएजबकि पूरी एक तिमाही में स्टेट बैंक का कुल जमा 76,000 करोड़ रु. होता है.

2. बकाया कर्जों से कराहते बैंकों के पास डिपॉजिट लौटेंगे और पूंजी की कमी पूरी करेंगे. सरकार की चिंता घटेगी और ब्याज दरें कम होने की उम्मीदें बंधेंगी.

3. प्रॉपर्टीनकदी और काले धन का गढ़ है. वहां कीमतें औसतन 30 फीसदी टूट सकती हैं. सस्ता कर्ज और सस्ती प्रॉपर्टी वास्तविक ग्राहकों को मकानों के करीब लाकर मांग का पहिया फिर से घुमा सकते हैं.

लेकिन ध्यान रखिएवित्तीय मामलों में ध्वंस तेज और निर्माण धीमा होता हैइसलिए राजनैतिक-आर्थिक कीमत चुकानी होगी.

फिर भी अगर तकलीफ है तो मोदी सरकार से यह सवाल पूछकर अपनी खीझ मिटाइए:

¢ नकद राजनैतिक चंदे पर पूर्ण पाबंदी कब तक लगेगी?
¢बड़े नोट आने के बाद नकदी लेन-देन की सीमा तय करने में देरी तो नहीं होगी?
¢सोने की खरीद-जमाखोरी को कैसे रोकेंगे?
¢खेती की कमाई के जरिए काले धन की धुलाई रोकने की क्या योजना है?


विपक्ष को अपनी ऊर्जा उत्तर प्रदेश व पंजाब के चुनावों का लिए बचानी चाहिएक्योंकि अगर यहां बीजेपी भारी धन बल और भव्य प्रचार के साथ उतरी तो फिर मान लीजिएगा भारत के राजनेता आम लोगों की कीमत पर किसी भी तरह की सियासत कर सकते हैं.

काले धन की नसबंदी

बड़े नोट बंद करने का फैसला फिलहाल मुश्किलों से भरा है, लेकिन इसी कोलाहल में पुननिर्माण के संकेत भी हैं.

कुछ फैसलों का फैसला समय पर छोड़ देना चाहिए 2016 में एक औसत पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी मानेगा कि छोटा परिवार सुखी होता है लेकिन 70 के दशक के शुरुआती वर्षों में जब इंदिरा और संजय गांधी नसबंदी थोप रहे थे, तब तस्वीर शायद नोट बंद होने की अफरातफरी जैसी ही रही होगी. इतिहास ने इंदिरा-संजय को खलनायक दर्ज किया लेकिन परिवार नियोजन जरूरी माना गया. काला धन रोकने के लिए अर्थव्यवस्था को कुछ समय के लिए विकलांग बना देने के फैसले पर अंतिम निर्णय तो समय को देना है लेकिन फिलहाल यह फैसला बिखराव और अराजकता से भरपूर है, हालांकि इसी कोलाहल में पुनर्निर्माण के संकेत भी मिल जाते हैं.

फिलहाल भारत किसी वित्तीय आपदा या बैंकों की तबाही से प्रभावित देश (हाल में ग्रीस) की तरह नजर आने लगा है, जहां बैंक व एटीएम बंद हैं, लंबी कतारे हैं और लोग सीमित मात्रा में नकद लेने और खर्च करने को मजबूर हैं. ऐसे मुल्क में जहां बहुत बड़ी अर्थव्यवस्था नकदी पर चलती हो, 50 फीसदी वयस्क लोगों का बैंकों से कोई लेना-देना न हो और बड़े नोट नकद विनिमय में 80 फीसदी का हिस्सा रखते हों वहां सबसे ज्यादा इस्तेमाल वाले नोटों को कुछ समय के लिए अचानक बंद करना विध्वंस ही होगा न! खास तौर पर तब जबकि रिजर्व बैंक की नोट मुद्रण क्षमताएं सीमित और आयातित साधनों पर निर्भर हैं.

वैसे इस अफरातफरी का कुल किस्सा यह है कि सरकार को नए डिजाइन के नोट जारी करने थे. नकली नोट रोकने की कोशिशों पर अंतरराष्ट्रीय सहमतियों के तहत रिजर्व बैंक ने सुरक्षित डिजाइन (ब्लीड लाइंस, नंबर छापने का नया तरीका) की मंजूरी लेकर तकनीक जुटाने का काम पिछले साल के अंत तक पूरा कर लिया था. नए नोटों को रिजर्व बैंक के नए गवर्नर (राजन के बाद) के हस्ताक्षर के साथ नवंबर 2016 में जारी किया जाना था. इसमें 2,000 रु. का नया नोट भी था. इसी क्रम में नकली नोटों में पाकिस्तानी हाथ होने की पुष्टि के बाद सरकार ने करेंसी को सुरक्षित बनाने की तकनीक व साजो-सामान को लेकर आयात पर निर्भरता तीन साल में 50 फीसदी घटाने का निर्णय भी किया था. 

नए डिजाइन के नोट जारी करने के लिए पुरानी करेंसी को बंद (डिमॉनेटाइज) नहीं किया जाता, बस नए नोट क्रमश: सिस्टम में उतार दिए जाते हैं. लेकिन सरकार ने नोट बंद कर दिए, जिसके कई नतीजों का अंदाज उसे खुद भी नहीं था.

मुसीबतों का हिसाब-किताब
1. बड़े नोट बंद होने से कुल नकदी (16 लाख करोड़ रु.) में लगभग 14 लाख करोड़ रु. कम हो गए यानी कि एक झटके में अधिकांश मांग को रोककर सरकार ने तात्कालिक मंदी को न्योता दे दिया. करेंसी की आपूर्ति सामान्य होने में लंबा वक्त लगता है, इसलिए मंदी व बेकारी से उबरने में और ज्यादा वक्त लगेगा.

2. कोई भी देश सामान्य स्थिति में अपनी करेंसी (लीगल टेंडर) के इस्तेमाल पर शर्तें नहीं लगाता, मसलन, दवा खरीद सकते हैं पर रोटी नहीं. यह करेंसी संचालन के सिद्धांत के खिलाफ है. ऐसा तभी होता है जब देश की साख डूब रही हो. इसलिए विदेशी मुद्रा बाजार में रुपया कमजोर हुआ है.

3. करेंसी का प्रबंधन और निर्णय रिजर्व बैंक करता है, इस फैसले से रिजर्व बैंक की स्वायत्तता बाधित हुई है.

इस फैसले के तरीके और तैयारियों को बेशक बिसूरिए लेकिन काले धन की ताकत को कमतर मत आंकिए. देखा नहीं कि घोषणा के बाद लोगों को बमुश्किल दो घंटे मिले थे लेकिन उसी दौरान सोने की दुकानों पर कतारें लग गईं. नोट बंद होने के बावजूद हवाला बाजार में अभूतपूर्व ऊंची कीमतों पर सोने और डॉलर के सौदे होते रहे, जिन्हें रोकने के लिए आयकर विभाग को छापेमारी करनी पड़ी.

काले धन को रोकने की ताजा कोशिशों का रिकॉर्ड बहुत सफल नहीं रहा है. बैंकों, प्रॉपर्टी व ज्यूलरी पर नकद लेन-देन में पैन नंबर की अनिवार्यता से बैंकों में जमा कम हो गया और बाजार में नकदी बढ़ गई. काला धन घोषणा माफी स्कीमें बहुत उत्साही नतीजे लेकर नहीं आईं. अंतत: सरकार ने अप्रत्याशित विकल्प का इस्तेमाल किया, जिससे करीब तीन लाख करोड़ रु. की काली नकदी खत्म होने का अनुमान है. इसके साथ ही नए नोट लेने के लिए नकदी लेकर बैंक जा रहे लोगों पर आयकर विभाग की निगरानी हमेशा रहेगी.

बहरहाल, एटीएम पर धक्के खाने और पैसे होते हुए उधार पर सब्जी लेने के दर्द के बावजूद इस फैसले से उठी गर्द के पार देखने की कोशिश भी करनी चाहिए, जहां पुनर्निर्माण की उम्मीद दिखती है.

यह रही पुनर्निर्माण की सूची

1. बैंकों के लिए पहले आफत, फिर राहत है. फैसला लागू होने के बाद बैंक संचालन शुरू होने के पहले दो दिन में अकेले स्टेट बैंक में ही 55,000 करोड़ रु. जमा हुए, जबकि पूरी एक तिमाही में स्टेट बैंक का कुल जमा 76,000 करोड़ रु. होता है.

2. बकाया कर्जों से कराहते बैंकों के पास डिपॉजिट लौटेंगे और पूंजी की कमी पूरी करेंगे. सरकार की चिंता घटेगी और ब्याज दरें कम होने की उम्मीदें बंधेंगी.

3. प्रॉपर्टी, नकदी और काले धन का गढ़ है. वहां कीमतें औसतन 30 फीसदी टूट सकती हैं. सस्ता कर्ज और सस्ती प्रॉपर्टी वास्तविक ग्राहकों को मकानों के करीब लाकर मांग का पहिया फिर से घुमा सकते हैं.

लेकिन ध्यान रखिए, वित्तीय मामलों में ध्वंस तेज और निर्माण धीमा होता है, इसलिए राजनैतिक-आर्थिक कीमत चुकानी होगी.

फिर भी अगर तकलीफ है तो मोदी सरकार से यह सवाल पूछकर अपनी खीझ मिटाइए:

¢ नकद राजनैतिक चंदे पर पूर्ण पाबंदी कब तक लगेगी?
¢बड़े नोट आने के बाद नकदी लेन-देन की सीमा तय करने में देरी तो नहीं होगी?
¢सोने की खरीद-जमाखोरी को कैसे रोकेंगे?
¢खेती की कमाई के जरिए काले धन की धुलाई रोकने की क्या योजना है?


विपक्ष को अपनी ऊर्जा उत्तर प्रदेश व पंजाब के चुनावों का लिए बचानी चाहिए, क्योंकि अगर यहां बीजेपी भारी धन बल और भव्य प्रचार के साथ उतरी तो फिर मान लीजिएगा भारत के राजनेता आम लोगों की कीमत पर किसी भी तरह की सियासत कर सकते हैं.