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Thursday, March 10, 2022

वो सदी आ गई !

 


यह फरवरी 2022 का पहला हफ्ता था.  रुसी राष्‍ट्रपति ब्‍लादीम‍िर पुत‍िन
, बेलारुस के साथ सैन्‍य अभ्‍यास के बहाने यूक्रेन पर यलग़ार की तैयार‍ियां परख रहे थे. ठीक उसी वक्‍त सुदूर पूर्व के  दक्ष‍िण कोर‍िया में आरसीईपी (रीजनल कंप्रहेसिव कोऑपरेटिव पार्टन‍रशि‍प) प्रभावी हो गई, यानी की द‍ुन‍िया की दसवीं अर्थव्‍यवस्‍था विश्‍व के सबसे बड़े व्‍यापार समूह को लागू कर चुकी थी. 2022 की शुरुआत में महामारी का मारा यूरोप खून खच्‍चर और महंगाई के  डर से अधमरा हुआ जा रहा था तब   एश‍िया की नई तस्‍वीर फलक पर उभरने लगी थी.

कोरोना वायरस के नए संस्‍करण ऑम‍िक्रॉन के हल्‍ले के बावजूद, चीन की अगुआई वाली इस व्‍यापार संध‍ि का उद्घाटन इतना तेज तर्रार रहा कि  अमेरिकी राष्‍ट्रपत‍ि जो बाइडेन को कहना पड़ा कि वह भी एक नए व्‍यापार गठजोड़ की कोशि‍श शुरु कर रहे हैं. पिछले अमेरिकी मुखि‍या डोनल्‍ड ट्रंप ने  टीपीपी यानी ट्रांस पैस‍िफि‍क पार्टनरशि‍प के प्रयासों को कचरे के डब्‍बे में फेंक दिया था जो आरसीईपी के लिए चुनौती बन सकती थी.

याद रहे क‍ि इसी भारत इसी आरसीईपी  से बाहर निकल आया था . यह दोनों बड़ी अर्थव्‍यवस्‍थायें इस समझौते का हिस्‍सा नहीं हैं. चाहे न चाहे लेकि‍न चीन इस कारवां सबसे अगले रथ पर सवार हो गया है .

आरसईपी के आंकड़ों की रोशनी में एश‍िया एक नया परिभाषा के साथ उभर आया है आस‍ियान के दस देश (ब्रुनेई, कंबोड‍िया, इंडोनेश‍िया, थाईलैंड, लाओस, मलेश‍िया, म्‍यान्‍मार, फिलीपींस, सिंगापुर, वियतनाम) इसका हिस्‍सा हैं जबकि आस्‍ट्रेल‍िया, चीन, जापान, न्‍यूजीलैंड और दक्ष‍िण कोर‍िया इसके एफटीए पार्टनर हैं. यह चीन का पहला बहुतक्षीय व्‍यापार समझौता है.

दुनिया की करीब 30 फीसदी आबादी, 30 फीसदी जीडीपी और 28 फीसदी व्‍यापार इस समझौते के प्रभाव क्षेत्र में है.  विश्‍व व्‍यापार में हिस्‍सेदारी के पैमाने  इसके करीब पहुंचने वाले व्‍यापार समझौते में अमेरिका कनाडा मैक्‍स‍िको (28%) और यूरोपीय समुदाय (17.9%) हैं

आरसीईपी के 15 सदस्‍य देशों ने अंतर समूह व्‍यापार के लिए 90 फीसदी उत्‍पादों पर सीमा शुल्‍क शून्‍य कर दि‍या है..यानी  कोई कस्‍टम ड्यूटी नहीं. संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के व्‍यापार संगठन अंकटाड ने बताया है कि इस समझौते से 2030 तक आरसीईपी क्षेत्र में निर्यात में करीब 42 अरब डॉलर की बढ़ोत्‍तरी होगी. यह समझौता अगले आठ वर्ष में ग्‍लोबल अर्थव्‍यवस्‍था में 200 अरब डॉलर का सालाना योगदान करने लगेगा. क्‍या यूरोप यह सुन पा रहा है कि बकौल अंकटाड,  अपने आकार और व्‍यापार वैव‍िध्‍य के कारण आरसीईपी  दुन‍िया में व्‍यापार का नया केंद्र होने वाला है. 

आप इसे चीन की दबंगई कहें, अमेरिका की जिद या  भारत का  स्‍वनिर्मित भ्रम लेकिन आरसीईपी और एशि‍या की सदी का उदय एक साथ हो रहा है. वही सदी जिसका जिक्र हम दशकों से नेताओं भाषणों में सुनते आए हैं.  एश‍िया की वह सदी यकीनन अब आ पहुंची है  

यह है नया एश‍िया

एश‍िया की आर्थिक ताकत बढ़ने की गणना 2010 से शुरु हो गई थी, गरीबी पिछड़पेन और आय व‍िि‍वधता के बावजूद एश‍िया ने यूरोप और अमेरिका की जगह दुनिया की अर्थव्‍यवस्‍था में केंद्रीय स्‍थान लेना शुरु कर दिया था. महामारी के बाद जो आंकडे आए हैं, दुन‍िया की आर्थ‍िक धुरी बदलने की तरफ इशारा करते हैं.

कोविड के इस तूफान का सबसे मजबूती से सामना एश‍ियाई अर्थव्‍यवस्‍थाओं ने कि‍या. आईएमफ का आकलन बताता है कि महामारी के दौरान 2020 में दुनिया की अर्थव्‍यवस्‍थायें करीब 3.2 फीसदी सि‍कुड़ी लेक‍िन एशि‍या की ढलान  केवल 1.5 फीसदी थी. एश‍ियाई अर्थव्‍यवस्‍थाओं की वापसी भी तेज थी जुलाई में 2021 में आईएमएफ ने बताया क‍ि 2021 में  एश‍िया  7.5 फीसदी की दर से और 2022 में 6.4 फीसदी की दर से विकास कर करेगा जबकि‍ दुनिया की विकास दर 6 और 4.9 फीसदी रहेगी.

2020 में महामारी के दौरान दुनिया का व्‍यापार 5 फीसदी सिकुड़ गया लेक‍िन ग्‍लोबल व्‍यापार में एश‍िया का हिस्‍सा 60 फीसदी पर कायम रहा यानी नुकसान यूरोप अमेरिका को ज्‍यादा हुआ. 

2021 में आस‍ियान  चीन का सबसे बड़ा कारोबारी भागीदार बन गया है. इस भागीदारी की ताकत  2019 में मेकेंजी की एक रिपोर्ट से समझी जा सकती  है. एश‍िया का 60 फीसदी व्‍यापार  और 59 फीसदी विदेशी निवेश अंतरक्षेत्रीय  है. चीन से कंपन‍ियों के पलायन के दावों की गर्द अब बैठ चुकी है. 2021 में यूरोपीय  और अमेरिकी चैम्‍बर ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि 80-90 फीसदी कंपन‍ियां चीन छोड़ कर नहीं जाना चाहती. आरसीईपी ने इस पलायन का अध्‍याय बंद कर दिया है क्‍यों कि अध‍िकांश बाजार शुल्‍क मुक्‍त या डयूटी फ्री हो गए  हैं. इन कंपनियों  ज्‍यादातर उत्‍पादन अंतरक्षेत्रीय बाजार में बिकता  है

बात पुरानी है

एशिया की यह नई ताकत एक दशक पहले बनना शुरु हुई थी. मेकेंजी सह‍ित कई अलग अलग सर्वे  2018 में ही बता चुके थे  कि ग्‍लोबल टेक्‍नोलॉजी व्‍यापार के पैमानेां पर  एश‍िया  सबसे तेज दौड़ रहा है.  टेक्‍नोलॉजी राजस्‍व की अंतरराष्‍ट्रीय विकास दर में 52 फीसदी, स्‍टार्ट अफ फंड‍िंग में 43 फीसदी, शोध विकास फंड‍िंग में 51 फीसदी और पेटेंट में 87 फीसदी ह‍िस्‍सा अब एश‍िया का है.

ब्‍लूमबर्ग इन्‍नोवेशन इंडेक्‍स 2021  के तहत कोरिया दुनिया के 60 सबसे इन्‍नोवेटिव देशों की सूची में पहले स्‍थान पर है. अमेरिका शीर्ष दस से बाहर हो गया है. यही वजह है कि   महामारी के बाद न्‍यू इकोनॉमी में एश‍िया के दांव बड़े हो रहे हैं. शोध और विज्ञान का पुराना गुरु जापान जाग रहा है. मार्च 2022 तक जापान में एक विशाल यून‍िवर्स‍िटी इनडाउमेंट फंड काम करने लगेगा  जो करीब 90 अरब डॉलर की शोध पर‍ियोजनाओं को वित्‍तीय मदद देगा. चीन में अब शोध व विकास की क्षमतायें विश्‍व स्‍तर पर पहुंचने के आकलन लगातार आ रहे हैं.

अलबत्‍ता एश‍िया की सदी का सबसे कीमती  आंकड़ा यहां है. अगले एक दशक दुनिया की आधी खपत मांग एश‍िया के उपभोक्‍ताओं से आएगी. मेंकेंजी सहित कई संस्‍थाओं के अध्‍ययन बताते हैं क‍ि यह उपभोक्‍ता बाजार कंपनियों के लिए करीब 10 अरब डॉलर का अवसर है.  क्‍यों क‍ि 2030 तक एश‍िया की करीब 70 फीसदी आबादी उपभोक्‍ता समूह का हिस्‍सा होगी यानी कि वे 11 डॉलर ( 900 रुपये) प्रति द‍िन खर्च कर रहे होंगे. सन 2000 यह प्रतिशित 15 पर था. अगले एक दशक में 80 फीसदी मांग मध्‍यम व उच्‍च आय वर्ग की खपत से निकलेगी. 2030 तक करी 40 फीसदी मांग ड‍िजटिल नैटिव तैयार करेंगे.

दुनिया की कंपनियां इस बदलाव को करीब से पढ़ती रही हैं . कोवडि  से पहले एक दशक में प्रति दो डॉलर के नए विश्‍व निवेश में एक डॉलर एश‍िया में गया था और प्रत्‍येक तीन डॉलर में से एक चीन में लगाया गया. 2020 में दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में  एशि‍या से आए राजस्‍व का हि‍स्‍सा करीब 43 फीसदी था अलबत्‍ता इस मुकाल पर  एश‍िया का सबसे बड़ी कमजोरी भी उभर आती है

सबसे बड़ी दरार  

एश‍िया की कंपन‍ियों के मुनाफे पश्‍च‍ित की कंपनी से  कम हैं. 2005 से 2017 के बीच दुन‍िया में कारपोरेट घाटों में एश‍िया की कंपनियों का हिस्‍सा सबसे बड़ा था. यही हाल संकट में फंसी कंपनियों के सूचकांकों का है एश‍िया की करीब 24 फीसदी कंपन‍ियां ग्‍लोबल कंपन‍ियों के इकनॉमिक प्रॉफि‍ट सूचकांक में सबसे नीचे हैं. शीर्ष में केवल 14 फीसदी कंपन‍ियां एश‍िया से आती हैं. एश‍िया के पास एप्‍पल, जीएम, बॉश, गूगल, यूनीलीवर, नेस्‍ले, फाइजर जैसे चैम्‍पियन नहीं हैं.

शायद यही वजह थी  एश‍िया के मुल्‍कों की कंपन‍ियों ने सरकारों की ह‍िम्मत बढ़ाई और वे आरसीईपी के जहाज पर सवार  हो गए.  अगली सदी अगर एश‍िया की है तो कंपन‍ियों को इसकी अगुआई करनी है. मुक्‍त  व्‍यापार की विटामिन से लागत घटेगी, बाजार बढ़ेगा और शायद अगले एक दशक में एश‍िया में पास भी ग्‍लोबल चैम्‍प‍ियन होंगे.

आपसी रिश्‍ते तय और अपने लोगों के भव‍िष्‍य को सुरक्ष‍ित के करने के मामलों में यूरोप के सनकी और दंभ भरे नेताओं की तुलना में में एश‍िया के छोटे देशों ने ज्‍यादा समझदारी दि‍खाई है यही वजह है कि आरसीईपी के तहत  चीन जापान व कोरिया एक साथ आए हैं यह इन तीनों प्रत‍िस्‍पि‍र्ध‍ियों का यह पहला कूटनीतिक, व्‍यापार‍िक गठजोड़ है. यूरोप जब जंग के मैदान से लौटेगा तब उसे मंदी के अंधेरे को दूर करने के लिए बाजार की  एश‍िया से रोशनी मांगनी  पड़ेगी.

भारतीय राजनीति दक‍ियानूसी बहसों का नशा किये हुए है जबकि  इस नई उड़ान की पायलट की सीट चीन ने संभाल ली है. भारत के नेताओं को पता चले क‍ि, वह एश‍िया की जिस सदी के नेतृत्‍व का गाल बजाते रहते हैं. वह सदी  शुरु होती है अब ...  

Saturday, October 9, 2021

सबके बिन सब अधूरे

 


अमेरिका और यूरोप में उत्सवी सामान (थैंक्सगिविंग-क्रिसमस) की कमी पड़ने वाली है. चीन में कोयला कम है, बत्ती गुल है, कारखाने बंद हैं. यूरोप में गैस की कीमतें उबल रही हैं. ब्रिटेन में कामगारों की किल्लत है. रूस में मीट नहीं मिल रहा. यूरोप की कार इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनियों के पास पुर्जे नहीं हैं.

दुनिया में तो मंदी है, मांग का कोई विस्फोट नहीं हुआ है फिर यह क्या माजरा है?

कहते हैं, अगर अमेरिकी राज्य न्यू मेक्सिको में कोई तितली अपने पंख फड़फड़ाए तो चीन में तूफान सकता है. यानी दुनिया इतनी पेचीदा है कि छोटी-सी घटना से बड़ी उथल-पुथल (बटरफ्लाइ इफेक्ट या केऑस थ्योरी) हो सकती है.

हवा पानी के बाद अगर कोई चीज हमें चला रही है तो वह सप्लाइ चेन है जो करीबी दुकान से लेकर भीतरी चीन, या दक्षिण अमेरिका के सुदूर इलाकों तक फैली हो सकती है. सामान, सेवाओं, श्रमिकों, ईंधन, खनिज आदि की ग्लोबल आपूर्ति का यह पर्तदार और जटिल तंत्र इस कदर बहुदेशीय और बहुआयामी है कि वर्ल्ड इज फ्लैट वाले थॉमस फ्रीडमैन कहते रहे हैं कि अब दुनिया में युद्ध नहीं होंगे क्योंकि एक ही सप्लाइ चेन में शामिल दो देश एक-दूसरे से जंग नहीं कर सकते. इसे डेल (कंप्यूटर) थ्योरी ऑफ कन्फलिक्ट प्रिवेंशन कहते हैं.

दुनिया में लगभग सभी जरूरी चीजों की उत्पादन क्षमताएं पर्याप्त हैं फिर भी कारोबारी धमनियों में उतनी सप्लाइ नहीं है लंबी बाजार बंदी के बाद जितनी जरूरत थी.

विश्व की पांच बड़ी अर्थव्यवस्थाएंअमेरिका, चीन, जर्मनी, यूके, रूस और ऑस्ट्रेलिया लड़खड़ा गई हैं. यही पांच देश दुनिया की सप्लाइ चेन में बड़े ग्राहक भी हैं और आपूर्तिकर्ता भी. इनके संकट पूरी तरह न्यू मेक्सिको की तितली जैसे हैं यानी स्थानीय. लेकिन सामूहिक असर पूरी दुनिया की मुसीबत बन गया है. किल्लत अब लाखों सामान की है लेकिन वह चार बड़ी आपूर्तियां टूटने का नतीजा है, जो ग्लोबल सप्लाइ चेन की बुनियाद हैं.

ऊर्जा या ईंधन में चौतरफा आग लगी है. कोविड से पहले 2020 और ’21 की भीषण सर्दियों में यूरोप ने अपने ऊर्जा भंडारों का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल कर लिया. उत्पादन बढ़ता इससे पहले कोविड गया. एक साल में यूरोप में नेचुरल गैस 300 फीसद महंगी (स्पॉट प्राइस) हो गई. बिजली करीब 250 फीसद महंगी हुई हालांकि उपभोक्ता बिल नहीं बढ़े. भंडार क्षमताएं बीते बरस से 19 फीसद कम हैं.

चीन दुनिया में सबसे ज्यादा कोयला इस्तेमाल करता है. सरकार ने ऑस्ट्रेलिया से आयात रोक दिया था. चीन में कोयला महंगा है लेकिन सरकार बिजली सस्ती रखती है. नुक्सान बढ़ने से कोयले का खनन कम हुआ. बिजली की कटौती से कारखाने रुके तो अमेरिका-यूरोप भारत में जरूरी आपूर्ति टूटने लगी.

इधर, पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन, ओपेक कच्चे तेल का उत्पादन बढ़ाने के लिए इंतजार करना चाहता है इसलिए पूरा ऊर्जा बाजार ही महंगाई से तपने लगा है.

महामारी वाली मंदी से उबर रहे विश्व को यह अंदाज नहीं था कि अब तक की सबसे जटिल शिपिंग किल्लत उनका इंतजार कर रही है. बीते एक साल में कई बंदरगाहों पर जहाज फंस गए. इस बीच कंटेनर बनाने वाली कंपनियों (तीनों चीन की) ने उत्पादन घटा दिया. अब मांग है तो कंटेनर और जहाज नहीं. नतीजतन, किराए चार साल की ऊंचाई पर हैं. यह संकट दूर होते एक साल बीत जाएगा. लेकिन तब अमेरिका में क्रिसमस गिफ्ट, रूस में खाने का सामान, ऑस्ट्रेलिया को स्टील की कमी रहेगी. भारतीय निर्यातक महंगे भाड़े से सांसत में हैं.

मध्य और पूर्वी यूरोप के मुल्कों में कामगारों की कमी हो गई है. अमेरिका और यूरोप में बेरोजगारी सहायता स्कीमें बंद होने वाली हैं. कई जगह लोग वर्क फ्रॉम होम से वापस नहीं आना चाहते. कमी है तो मजदूरी महंगी हो रही है जो कंपनियों की लागत बढ़ा रही है. ब्रिटेन में पेट्रोल, खाद्य और दूसरी जरूरी सेवाओं के लिए कामगारों की कमी हो गई है. ब्रेग्जिट के बाद प्रवासियों को आने से रोकना अब महंगा पड़ रहा है.

कहते हैं कि अगर ट्रंप की अगुआई में चीन-अमेरिका व्यापार युद्ध के दौरान सेमीकंडक्टर या चिप ग्राहकों ने दोगुनी खरीद के ऑर्डर दिए होते तो आज यह नौबत नहीं आती. चिप नया क्रूड आयल है. कोविड के कारण कारों का उत्पादन प्रभावित हुआ तो चीन ताइवान की कंपनियों ने स्मार्ट फोन, कंप्यूटर वाले चिप का उत्पादन बढ़ा दिया. ऑटोमोबाइल की मांग लौटी तो उत्पादन क्रम में फिर बदलाव हुआ. अब सभी के लिए चिप की किल्लत है.

ईंधन, परिवहन, चिप और श्रमिक के बिना आधुनिक मैन्युफैक्चरिंग मुश्किल है. इनकी कमी स्टैगफ्लेशन को न्योता दे रही है. यानी महंगाई और आर्थिक सुस्ती एक साथ. दुनिया के देशों को सबसे पहले सप्लाइ चेन यानी आपूर्ति की धमनियों को दुरुस्त करना होगा. सस्ता कर्ज मंदी से उबरने का शर्तिया इलाज रहा है लेकिन महंगाई के सामने यह दवा बेकार है. कर्ज महंगे होने लगे हैं. 

नेपोलियन बज़ा फरमाते थे: नौसिखुए कमांडर जंग में टैक्टिक्स (रणनीति) की बात करते हैं जबकि पेशेवर लड़ाके लॉजिस्टिक्स (साधनों) की. सनद रहे कि जंग अब महामारी और मंदी के साथ महंगाई से भी है.