लॉकडाउन में कुछ घंटे के लिए दूध ब्रेड की दुकान खोलने वाले नत्थू को इतना तो पता ही है कि अगर मांग नहीं होगी तो धंधा नहीं चलेगा. लाइन में लगे लोगों से सुनकर वह जान गया है कि तनख्वाहें कट रही हैं, नौकरियां जा रही हैं, सरकार की राहत का सच भी उसने ग्राहकों से सुन ही लिया है, वह समझ गया है कि दुकान में ज्यादा माल रखने का नहीं.
20 लाख करोड़ रुपए का पैकेज गढ़ती सरकार को पता है कि भारत को इस समय केवल मांग चाहिए, जो कोविड से पहले अधमरी थी और अब पूरी तरह ढह गई है. मांग उम्मीद का उत्पाद है. लोग भविष्य के प्रति आश्वस्त होंगे तो खरीद-खपत का पहिया घूम सकेगा. भारत ने अपने ताजा इतिहास में इतनी भयानक बेकारी या कमाई में ऐसी कमी कभी नहीं देखी. किसी भी सरकार के लिए यह वक्त तो रोजगार बचाने में पूरी ताकत झोंक देने का है लेकिन सबसे बड़ी मुसीबत सरकार की वरीयता पर ही नहीं है!
21 लाख करोड़ रुपए (अधिकांश बैंक कर्ज या गारंटी ) पर फिदा होने वालों को पता चले कि 20 क्या 40 लाख करोड़ रुपए का सरकारी पैकेज भी भारतीय अर्थव्यवस्था को स्टार्ट नहीं कर सकता. जिसकी विकास दर शून्य से नीचे जा रही है. 200 लाख करोड़ रुपए की अर्थव्यवस्था में करीब 120 लाख करोड़ रुपए (60 फीसद) का हिस्सा आम लोगों की खपत से आता है. सरकार तो 20 फीसद से भी कम की हिस्सेदार है.
होना क्या चाहिए था?
सरकार को बगैर देर किए संगठित क्षेत्र में रोजगार संरक्षण यानी वेतन सहायता कार्यक्रम (पे चेक प्रोटेक्शन) कार्यक्रम शुरू करने चाहिए.
वेतन संरक्षण! क्या मतलब?
अमेरिका व यूरोप के देश मंदी से इसलिए बेहतर लड़ पा रहे हैं कि क्योंकि वहां सरकारें कंपनियों को नौकरी बनाए रखने और वेतन न काटने के लिए सीधी मदद करती हैं. अमेरिका में छोटी कंपनियों के लिए 349 अरब डॉलर के कार्यक्रम के तहत सस्ती दर पर कर्ज दिया जाता है. कंपनियां निर्धारित सीमा के तहत कर्मचारियों के वेतन व रोजगार संरक्षित करती हैं. कर्ज पर उन्हें केवल ब्याज देना होता है.
जाइए जी, हम अमेरिका नहीं हैं
झारखंड की सरकार 2016 में कपड़ा उद्योग के लिए एक स्कीम लाई थी जिसमें तनख्वाहों का 40 फीसद खर्च सरकार उठाती थी. इसे खासा सफल पाया गया था.
तो क्या सरकार बजट से निजी कर्मचारियों को वेतन बांटेगी?
सस्ते बैंक कर्ज का इस्तेमाल यहां होना चाहिए. बॉन्ड, अन्य तरीकों से कंपिनयों को सस्ता कर्ज पहुंचाया जा सकता है. जिससे वे रोजगार बचाएं और वेतन न काटें. कंपनियों को टैक्स की रियायत (कॉर्पोरेट टैक्स में 1.75 लाख करोड़ रुपए की ताजा कटौती) या कर्ज भुगतान से छूट की बचत को वेतन में इस्तेमाल करने की शर्त से बांधने में क्या हर्ज है?
लेकिन फायदा तो केवल संगठित कामगार को मिलेगा?
संगठित क्षेत्र के एक रोजगार पर चार असंगठित कामगार निर्भर होते हैं. अगर संगठित क्षेत्र करीब 4.5 करोड़ (भविष्य निधि वाले) कर्मचारियों को नौकरी और वेतन की सुरक्षा मिले तो उनके खर्च से प्रमुख शहरों में असंगठित (घरेलू सहायक, चालक, खुदरा विक्रेता) बहुत से कामगारों की जीविका बचेगी. अन्य असंगठित कर्मचारियों को बजट से सीधी मदद दी जा सकती है. संगठित क्षेत्र में रोजगार व वेतन जारी रहने से मांग बनेगी जो रोजगारों का आधार है.
तो कंपनियां वेतन संरक्षण सहायता क्यों नहीं मांगतीं?
यही कुचक्र है. भारतीय कंपनियां हमेशा कर्ज माफी और टैक्स रियायत मांगती हैं. सरकार ने कोविड राहत पैकेज में यह दे भी दिया. रियायतें उनके मुनाफे का हिस्सा हो जाती हैं. कुछ मुनाफा राजनैतिक चंदा बनकर लौट जाता है.
भारत में ज्यादातर वेतन अच्छे नहीं हैं. अगली तनख्वाह न आए तो बिल चुकाना मुश्किल. कंपनियां अपने मुनाफे कामगारों से नहीं बांटतीं और पहले मौके पर रोजगार खत्म हो जाते हैं.
भारत में उद्योग केवल 68 फीसद क्षमता (2008 के बाद न्यूनतम) का इस्तेमाल कर रहे हैं. इस मंदी में कर्ज लेकर वह नया निवेश तो करने से रहे. कोविड के सहारे वे टैक्स बचा लेंगे, कर्ज का भुगतान टाल देंगे और रोजगार घटा देंगे.
इस वक्त जब सब कुछ केवल जीविका बचाने पर केंद्रित होना चाहिए था तब सरकार ने रोजगार गंवाने वालों को
आत्मनिर्भरता का ज्ञान दिया है.
1930 की महामंदी के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट को सलाह देने वाले अर्थविद् जॉन मेनार्ड केंज के सिद्धांत यूं ही आर्थिक नीतियों का प्राण नहीं बन गए. उन्होंने सिखाया कि रोजगार ही मांग की गारंटी है, लोग खर्च तभी करते हैं जब उन्हें पता हो कि अगले महीने पैसा आएगा. भारत में यह भरोसा टूट गया है.
लॉकडाउन खुलने के बाद भारत में हजारों लोग काम पर नहीं लौटेंगे. जो बचेंगे उनके वेतन बुरी तरह कट चुके होंगे. बीस लाख करोड़ का पैकेज इनकी कोई मदद नहीं करेगा.जब तक इनकी नौकरियां या कमाई नहीं लौटेगी, आत्मनिर्भरता छोडि़ए, अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा पहिया मंदी के कीचड़ में धंसा रहेगा.