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Tuesday, November 30, 2021

महाक्रांति की हार


मैक्सिको और इजिप्ट और भारत को केवल उनका इत‍िहास ही नहीं  बल्‍क‍ि वर्तमान भी जोड़ता है.. तीनों ही दुनिया की महान प्राचीन सभ्यताओं (सिंधु, मिस्‍त्र, एजटेक, माया) की  लीला भूम‍ि हैं  अलबत्‍ता उनकी ताजी समानता इतनी गर्वीली नहीं है.

अगर महंगी मोबाइल सेवा को बिसूर रहे हैं तो भारत और इन देशों की समानता को समझना बहुत जरुरी है. तीनों ही देश अब दुनिया में बेडौल बाजारों के सबसे नए नमूने हैं. मैक्‍स‍िको का कार्लोस स्‍लिम आविष्कारक नहीं था. कमाई का स्रोत सियासी रसूख और स्टॉक ब्रोकिंग थे. 1990 में निजीकरण में उसने टेलीमैक्स (मैक्सिको की सरकारी टेलीकॉम कंपनी) को खरीद लिया और सरकारी एकाधिकार निजी मोनोपली में बदल गया.

होस्नी मुबारक सरकार ने 1990 में इजिप्ट में सरकारी एकाधिकार खत्म किये तो सरकार के करीबी उद्योगों ने एकाधिकार बना लिये.

भारत में भी दूरसंचार सेवा बेडौल बाजार (इम्‍परफेक्ट मार्केट) का सबसे नया नमूना है. 

ब्रिटेन की अर्थशास्‍त्री जोआन रॉबिनसन (1930) ने इस बाजार के खतरे को समय से पहले देख लिया था.  जोआन ने बताया था कि मोनोपली और मोनोस्पोनी की घातक जोड़ी असंतुलित बाजारों की पहचान है. मोनोपली के तहत चुनिंदा कंपनियां बाजार में आपूर्ति पर नियंत्रण कर लेती हैं. ग्राहक उनके के बंधक हो जाते हैं जबकि मोनोस्पोनी में यही कंपनियां मांग पर एकाधिकार जमा लेती है और रोजगार के अवसरों सीमित कर देती हैं जिससे रोजगार व कमाई में कमी आती है.

भारत के दूरसंचार बाजार में मोनोपली या डुओपोली और मोनोस्पोनी  डुओस्पोनी दोनों ही खुलकर खेल रही हैं.

सस्ता नहीं अब 

प्रतिस्पर्धा सिमटते (कभी 12 कंपनियां) ही दुनिया में सबसे सस्ती मोबाइल सेवा का सूर्य डूबने लगा था. 2018 तक रिलायंस जिओ बाजार में बड़ा हिस्सा लेकर डुओपोली बना चुकी थी. उसे अब सस्ती दरों पर लुभाने की जरुरत नहीं थी.

यद‍ि आपको लगता है कि मोबाइल दरों में महंगाई अभी शुरु हुई तो अपने पुराने बिल निकाल कर फि‍र देखिये.  बीते तीन साल में टेलीफोन की दरें करीब 25 फीसदी बढ़ीं. हालांक‍ि सस्‍ते मोबाइल वाली क्रांति का अंतिम गढ़ इसी जुलाई में टूटा जब वोडाफोन-आइडिया के संकट के बाद बाजार पूरी तरह जिओ और एयरटेल के बीच बंट गया.

जुलाई में ही एयरटेल ने सभी 22 सर्किल में 49 रुपये का सबसे सस्ता शुरुआती प्री पेड प्लान बंद कर दिया था. वोडाफोन आइडिया 13-14 सर्किल में 2 जी सेवा की दरें पहले ही बढ़ा चुका है. जुलाई के अंत तक सभी कंपनियों (जिओ रु. 75) के न्यूनतम प्री पेड प्लान की कीमत  75 से 79 रुपये (28 दिन वैधता) हो गई  थी.

एयरटेल की तरफ से ताजी मोबाइल महंगाई सबसे सस्‍ता प्लान  20 रुपये और सबसे ऊंची दर वाला प्‍लान पर 501 रुपये  महंगा हुआ है.  यानी अब एयरटेल के सबसे सस्‍ते प्‍लान के लिए 79 रुपये की जगह 99 रुपये और सबसे महंगे प्‍लान के लिए 2498 रुपये की जगह अब 2999 रुपये चुकाने होंगे.

इस महंगाई की बुन‍ियाद में दूरसंचार न‍ियामक का योगदान भी कम नहीं है. इसी स‍ितंबर टीआरएआई ने यह फरमान सुनाया था कि अब कंपन‍ियां एक जैसे ग्राहकों (यानी एक जैसे प्‍लान) को अलग अगल दरों पर सेवा नहीं दे सकेंगी. नंबर पोर्ट करने पर सस्‍ती सेवा देने की छूट भी खत्‍म हो गई थी. इसके बाद एक तरफा टेलीकॉम सेवा की एक तरफा महंगाई का रास्‍ता साफ हो गया था. जो अब शुरु हुई है.

एयर टेल  के ताजा फैसले से पहले ही यह तय हो चुका था क‍ि कंपनियों पर स्पेक्ट्रम देनदारी बढ़ने के कारण प्री पेड मोबाइल का न्यूनतम प्लान 100 रुपये/28 दिन तक पहुंच सकता है. (गोल्‍डमैन सैक्‍शे) अब एयर टेल क्‍या पूरे दूरसंचार उद्योग ने ही बता द‍िया है क‍ि इस कारोबार में  एवरेज रेवेन्यू पर यूजर (आरपू)   यानी हर ग्राहक से कमाई औसत (आरपो) 200 रुपये तो कम से कम होनी चाहिएआगे इसे 300 रुपये तक पहुंचना चाहिए ताकि कंपनियों को निवेश की गई पूंजी पर सही रिटर्न मिल सके. 

रोजगारों का अंधेरा

2007 के बाद भारत में सबसे ज्यादा रोजगार इसी एक सेवा ने दिये. जो तकनीक, नेटवर्किंग, हैंडसेट बिक्री से लेकर सेवा की मार्केटिंग तक फैले थे. अलबत्ता 2 जी लाइसेंस रद होने, कंपनियां बंद होने और हैंडसेट बाजार में उथल पुथल से डुओस्पोनी की शुरुआत हुई. 2018 मे अंत तक दूरसंचार कारोबार में करीब एक लाख नौकरियां जा चुकी थीं .कोविड के असर से करीब 70000 रोजगार और गए हैं. इस बाजार में करीब 20 लाख लोगों को काम रोजगार मिला है.( सीआईईएल एच आर 2018 और 2020 ).

दूरसंचार बाजार में रोजगार के अवसर सिमट गए हैं. वेतन टूट रहे हैं. नई तकनीकें रोजगार की संभावनायें और सीमित कर रही हैं

इसी उठापटक में 2 जी लाइसेंस रद होने के बाद प्रमुख सरकारी बैंकों के करीब 6000 करोड़ के बकाया कर्ज डूब गए. बैंकों के खातों में अभी 3 लाख करोड़ के कर्ज हैंभारत की सरकार अजीबोगरीब जंतु है. अभी कुछ महीने पहले तक यह दूरसंचार ‌कंपनियों से पिछली तारीख से लाइसेंस फीस की वसूली के लिए अदालत में लड़ रही थी. अब कंपनियों के चार साल तक इसे चुकाने से मोहलत दे दी गई है. पहले कंपनियों को महंगी कीमत पर स्पेक्ट्रम बेचा गया, अब उनसे वापस लिया जा रहा है. 

1999 से  लेकर  आज  तक  सरकारें  यह  तय  नहीं  कर   पाईं कि वे बाजार व सस्ती सेवा को फलने फूलने देना चाहती है या ‌फिर कंपनियों निचोड़ लेना चाहती है. पहले  मोटी  लाइसेंस  फीस  या  महंगा  स्पेक्ट्रम बेचने की जिद , फिर कंपनियों का डूबना और  फिर  माफी यानी (बेलआउट)  ... बीते 25 सालों में यह इतनी बार हुआ है कि इस क्रांति सभी फायदे खेत रहे. अब बाजार पर दो कंपनियों (एयर टेल-जिओ) का कब्जा इस कदर है कि तीसरी (वोडाफोन आइडिया) को जिलाये रखने के लिए उद्धार पैकेज आया है. जो केवल घिसट पाएगी, प्रतिस्पर्धा के के काबिल नहीं होगी.

क्रांतियों का अवतरण सफलता की चिरंतन गारंटी नहीं होते. प्रतिस्पर्धा की हिफाजत की बड़े जतन से करनी होती है. समग्र आबादी को सस्ती संचार सुविधा के लिए बाजार में प्रतिस्पर्धा के नियम नए सिरे लिखे जाने की जरुरत है. भारतीय बाजार कम से कम पांच बड़ी टेलीकॉम कंपनियों को फलने फूलने का मौका दे सकता है.  सनद रहे क‍ि फिनटेक, ई कामर्स और मोबाइल इंटरनेट  बाजारों में एकाधिकार का रास्‍ता, मोबाइल बाजार से पर एकाधिकार की मोहल्‍ले से जाता है.

कोविड लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन शिक्षा में भारत की डिजिटल खाई का विद्रूप चेहरा दिखा दिया है. भारत में अभी करीब 60-65 फीसदी लोगों के पास इंटरनेट नहीं है. करीब एक अरब लोग  पास स्मार्ट फोन नहीं रखते.  इससे पहले सब तक मोबाइल व इंटरनेट पहुंचे लेक‍िन इस बीच भारत की सबसे बड़ी और महत्‍वाकांक्षी क्रां‍ति महंगाई के कतलखाने में पहुंच गई है. ‍

 

 

 


Tuesday, November 23, 2021

महंगाई का संस्‍कार

 

मेरे शहर के न‍िजी अस्‍पतालों में सरकार घुस गई है. ओपीडी का पर्चा 800 रुपये से 1100 रुपये का हो गया. पूछने पर टका सा जवाब मुंह पर आ ग‍िरता है क‍ि कोव‍िड से सुरक्षा के ल‍िए सैनेटाइजेशन का खर्च बढ़ गया है!  अस्‍पतालों  से कौन पूछे क‍ि सैनेटाइज करना तो उनका सामान्‍य कार्य दाय‍ित्‍व है इसका अलग से पैसा क्‍यों ?    हम सरकार से भी यह कहां  पूछ पाते हैं क‍ि वैक्‍सीन, दवा, सस्‍ता अनाज आद‍ि देना तो उनकी स्‍वाभाव‍िक ज‍िम्‍मेदारी है, इसके ल‍िए ही तो हम गठरी भर टैक्‍स चुकाते हैं, तमाम बजटीय तामझाम का बिल उठाते हैं तो फिर पेट्रोल डीजल पर टैक्‍स बढ़ाने का क्‍या तुक?

बेवजह महंगाई भारत की  कारोबारी असंगति‍यों का हिस्‍सा है  लेक‍िन अब सरकारें टैक्‍स नीतियों में नए पहलू जोड़ कर इसे न‍ियम में बदल रही हैं. महामारी की छाया में महंगाई का नया संस्‍कार, पूरी ज‍िद के साथ सरकारी नी‍ति‍यों के फलक पर उकेरा जा रहा है. बाजार आगे बढ़ इस संस्‍कार को स्‍वीकार रहा है.

चुनावी चोट के बाद पेट्रोल डीजल पर एक्‍साइज ड्यूटी में कटौती पर सरकार को धन्‍यवाद लेक‍िन हमें यह पूछना होगा क‍ि मुफ्त अनाज व वैक्‍सीन वाली दीनदयाल मुद्रा (1.45 लाख करोड़ रुपये खर्च)  के ल‍िए, क्‍या पेट्रोल डीजल महंगा करना जरुरी था?

भोले भारतीय बजट टैक्‍स का पेंचो खम नहीं समझते. वे पश्‍च‍िमी मुल्‍कों के नागर‍िकों की तरह अपनी सरकारों का हलक पकड़ कर उनसे टैक्‍स का ह‍िसाब नहीं मांगते इसलिए उन्‍हें यह महसूस करा द‍िया जाता है क‍ि लोगों को मुफ्त वैक्‍सीन व अनाज देने के ल‍िए आपको तेल की महंगाई के अंगारों पर चलना होगा.

बजट एक दूरगामी व्‍यवस्‍था हैं, वे सभी अप्रत्‍याशि‍त आपदाओं का इंतजाम बना कर चलते हैं.  आकस्‍म‍िक न‍िधियों ( कंटेंजेंसी फंड, आपदा राहत कोष)  में करीब 31000 करोड़ (बजट 2021) का जमा है जो उसी बजट से पैसा पाते हैं जो जिसमें हमारा टैक्‍स जाता है. आपदा राहत कोष के ल‍िए चुन‍िंदा उत्‍पादों पर लगने वाले एक्‍साइज व कस्‍टम ड्यूटी पर  एक नेशनल कैलामिटी कंटेंजेंसी ड्यूटी (एनसीसीडी) लगती है. जो उनकी कीमत में जुड़कर हमारे पास आती है.  प्रधानमंत्री राहत कोष  और पीएम केयर्स भी इन्‍हीं संकटों का इंतजाम हैं.

बजट यह छूट भी देते हैं क‍ि आपदा के मारों पर टैक्‍स का चाबुक चलाने के बजाय बाजार से कर्ज बढ़ाकर राहत का इंतजाम कर ले. एसा हुआ भी. साल 20-21 में सरकार ने 13.71 लाख करोड़ रुपये का रिकार्ड कर्ज ल‍िया (7.1 लाख करोड़ 2019-20)  यह कर्ज हमारी बचत ही है जो बैंकों जर‍िये सरकार के पास पहुंचती है  फ‍िर भी हम पर टैक्‍स का नश्‍तर !

सनद रहे क‍ि व‍ित्‍त आयोग हर साल पांच साल में केंद्र व राज्‍य में आपदा राहत के ल‍िए संसाधनों के बंटवारे न‍ियम और संसाधनों का इंतजाम तय करता है. जिसमें अचानक टैक्‍स थोपना कहीं से शामि‍ल नहीं है. सेस लगाना तो हरगिज नहीं

सेस सबसे घट‍िया टैक्‍स माने जाते हैं जो टैक्‍सों के अलावा थोपे जाते हैं और भारत में वे ज‍िस काम के ल‍िए लगाये जाते हैं उसमें खर्च नहीं होते. वे उस फंड में भी नहीं जाते जो इस टैक्‍स के ल‍िए बने हैं. जैसे क‍ि सीएजी ने 2020 में अपनी रिपोर्ट में बताया क‍ि कच्‍चे तेल पर एक सेस से सरकार ने 2018 तक दस साल में 1.24 लाख करोड़ जुटाये लेक‍िन ऑयल इंडस्‍ट्रीज डेवलपमेंट बोर्ड को नहीं द‍िये गए. इस राशि‍ के इस्‍तेमाल मुफ्त अनाज व वैक्‍सीन का खर्च न‍िकल आता.

जीएसटी के जर‍िये कथि‍त टैक्‍स क्रांत‍ि के बावजूद 2018-19 तक सरकार का करीब 18 फीसदी राजस्‍व सेस व सरचार्ज से आने लगा था, जिन्‍हें टैक्‍स पारदर्शिता की दृष्‍टि‍ से संद‍िग्‍ध माना जाता है. इतने सेस और नाना प्रकार के कर्ज व टैक्‍स से मुफ्त वैक्‍सीन अनाज बांटने या अन्‍य कई खर्च चल सकते थे लेक‍िन बीते एक साल साल में केंद्र सरकार ने पेट्रोल डीजल पर एक्‍साइज ड्यूटी (ताजा कटौती से पहले) करीब 32-33 रुपये प्रति‍ लीटर के र‍िकार्ड स्‍तर पर पहुंचा दी.

 हमें यह नहीं बताया गया क‍ि इस नए टैक्‍स बोझ 3.44 लाख करोड़ रुपये कहां कैसे खर्च होंगे लेक‍िन यह महसूस करने के लिए बजट पढ़ने की जरुरत नहीं है क‍ि अब श‍िक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, पेयजल जैसी सेवायें ज‍िनके ल‍िए सरकार को टैक्‍स दे रहे हैं वह न‍िजी क्षेत्र से खरीद रहे हैं. अब सरकार हमसे न केवल सड़क बनाने के ल‍िए (रोड सेस) बल्‍क‍ि उस पर गाड़ी चलाने (वाहन पंजीकरण) के ल‍िए और उस पर चलने (टोल) के ल‍िए भी टैक्‍स लेती है.

सरकारें अब पुराने टैक्‍स का हि‍साब नहीं देतीं. वे खुद नए खर्च ईजाद करती हैं फिर उनके ल‍िए नए टैक्‍स थोपती हैं.

इसल‍िए अब यह न‍ियम सा हो जाएगा क‍ि पहले वोट के लिए राजनीत‍िक दल लोगों को बिन मांगे कुछ देंगे. बाद में सरकारें  उसका बोझ व अहसान लोगों पर ही थोप देंगी.  

च‍िरंतन भारी टैक्‍स के बीच चुनावी सबक के बाद पेट्रोल डीजल पर एक्‍साइज ड्यूटी में कमी लगभग वैसी ही  है जैसा क‍ि मंदी, लॉकडाउन, बेकारी के बीच कैब कंपनी ओला का पहला मुनाफा दर्ज करना. महामारी के बहाने कहां कहां क‍िसने क‍ितनी बेस‍िर पैर महंगाई हम पर थोपी है इसे या तो हम अपने टूटते बजट से समझ सकते हैं या फिर महामारी के बावजूद कंपन‍ियों के फूलते मुनाफे से.

लेक‍िन बाजार की क्‍या खता ! ऊंची कारोबारी लागतों के कारण भारतीय बाजार  स्‍वाभा‍व‍िक तौर पर महंगाईपरस्‍त  है. वहां मुनाफे तो कीमत बढ़ाकर ही आते हैं. सरकार अर्थव्‍यवस्‍था की महाजन (महाजनो येन गत: स पन्‍थ:) है. वह ज‍िस राह चलती है बाजार उसी को राजपथ मानता है. महंगाई असंतुल‍ित बाजार की डॉन है. मांग व कमाई के बिना आने वाली महंगाई खर्च और बचत दोनों में गरीब बनाती है.

 

महंगाई को थामना सरकारों की ज‍िम्‍मेदारी है. उन्‍हें  बाजार को संतुल‍ित करने के ल‍िए चुना जाता है. अब जब क‍ि सरकारें बेवजह टैक्‍स बढ़ाकर नीतिजन्‍य महंगाई को पैदा करने का श्रेय ले रही हैं तो हमारे मोहल्‍ले के अस्‍पताल या ट्रक वाले गुप्‍ता जी या मॉल के रेस्‍टोरेंट वाले तो आगे क्रीज से आगे बढ़कर क्‍यों न खेलें? अब तो उन्‍हें हमारी जिंदगी महंगी करने की वैक्‍सीन लगा दी गई है .

Saturday, October 23, 2021

भविष्य का भविष्य

 


सॉफ्टवेयर इंजीनियर वरुण विदेश में नौकरी के प्रस्ताव को फिर हासिल करने में लगा है जो उसने दो साल पहले नकार दिया था. परमानेंट वीजा के नए विज्ञापन उसे अपने लिए बनाए गए लगते हैं.

सुविधाओं की कमी होती तो वरुण के माता-पिता राजस्थान के एक कस्बे में बसा बसाया संसार छोड़कर वरुण के पास रहने आते. नौकरी जमते और मकान जुगाड़ते ही वरुण ने बुजुर्ग मां-बाप को कस्बाई अस्पतालों के बुरे हाल का वास्ता दिया और नोएडा ले आया. उसके चचेरे भाई भी अपने रिटायर्ड माता-पिता के साथ गाजियाबाद में बसे थे जहां से अस्पताल दूर थे, बच्चों के स्कूल की दिक्कत.

इस साल अप्रैल में कोविड के कहर के वक्त वरुण का परिवार किसी भी कीमत पर पिता के लिए अस्पताल नहीं तलाश सका. उन्होंने लंगरों में ऑक्सीजन की भीख मांगी लेकिन परिवार के दो बुजुर्ग साथ छोड़ गए.

वरुण के माता-पिता अब संपत्तिबेचकर बेटी के पास विदेश में बसने को तैयार हैं.

वरुण उन 23 करोड़ लोगों में नहीं है जो महामारी लॉकडाउन के कारण गरीबी की रेखा से नीचे खिसक (सर्वे अजीम प्रेम जी यूनिवर्सिटी) गए. अब जिनके लिए निम्न मध्यम वर्ग होना भी बहुत मुश्कि है. यह बात तो उन 13-14 करोड़ मध्यवर्गीय परिवारों की है जो सोच ही नहीं सकते थे कि दिल्ली, लखनऊ, नोएडा, गांधीनगर के शानदार अस्पतालों में किसी रोज ऑक्सीजन होने से उनके परिजन दम तोड़ देंगे.

यही मध्य वर्ग 25 साल में भारत की प्रत्येक चमत्कारी कथा का शुभंकर रहा है. यही वर्ग गांवों से संपत्तिखींच कर शहर लाया और नए नगर (80 फीसद मध्य वर्ग नगरीय) बसा दिए. उनके खर्च (60 फीसद जीडीपी खपत पर निर्भर) से अर्थव्यवस्था झूम उठी. शहरों में चिकित्सा, मनोरंजन और परिवहन, संचार का नया ढांचा बन गया. इसी वर्ग ने ऑटोमोबाइल, सूचना तकनीक, बैंकिंग, रिटेल, हाउसिंग, फार्मा जैसे उद्योगों को नए भारत की पहचान बना दिया.

यह बिंदास मध्य वर्ग, जो डिजिटल इंडिया वाले नए भारत को गर्व से कंधे पर लेकर चलता था उसकी नाउम्मीदी दोहरी है. वेतनभोगियों की तादाद जुलाई 2019 के 8.6 करोड़ से घटकर, जुलाई 2021 में 7.6 करोड़ रह गई (सीएमआइई). करीब 3.2 करोड़ लोग मध्य वर्ग से बाहर (प्यू रिसर्च 2020) हो गए.

मध्य वर्गीय परिवारों का संकट बहुआयामी है. बहुतों का रोजगार गया है या कमाई घट गई है. बीते एक साल में जीडीपी के अनुपात में परिवारों का कर्ज 35 से 37 फीसद हो गया. खुदरा (कार, मकान, शिक्षा) कर्ज लेने वालों ने, कर्ज का भुगतान टालने का विकल्प का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया. भारतीय परिवारों पर कर्ज का बोझ सालाना खर्च योग्य आय 44 फीसद (2011 तक 30 फीसद) हो गया है.

कोविड के बाद आई महंगाई ने खर्च और बचत दोनों मामलों में गरीब किया है. जिंदगी की लागत बढ़ रही है और वेतन बचत पर रिटर्न कम हो रहा है. सनद रहे कि यही वर्ग अपने खर्च के जरि कई निर्धन परिवारों को जीविका देता था.

विदेश में बसने या परमानेंट वीजा दिलाने के विज्ञापन यूं ही नहीं बढ़ गए. नौकरी और पढ़ाई के लिए विदेशी विकल्पों की तलाश तेज हो रही है. ‌परदेसी रिश्तेदारों से सलाह ली जा रही है. परमानेंट वीजा जैसे विकल्पों के लिए बचतें और संपत्ति टटोली जा रही है.

सनद रहे कि टैक्स कानूनों की वजह से 2019 तक करीब 7000-8000 सुपर रिच हर साल भारत छोड़ (मोर्गन स्टेनले रिपोर्ट) रहे थे, अब बारी उच्च मध्य वर्ग की है?

अलबत्ता भारतीय मध्य वर्ग का एक बहुत बड़ा हिस्सा किसी भी तरह विदेश नहीं बस सकेगा. वह जाएगा कहां? जिस बेहतर जिंदगी के लिए वह शहर आया, वहां हाल और बुरा हो गया.

भारतीय मध्यवर्ग की जिंदगी में सरकार कोई गुणात्मक बढ़ोतरी नहीं करती. वह शिक्षा और सेहत के लिए सरकार को टैक्स देता है और यह सेवाएं निजी क्षेत्र से खरीदता है. उसे रोजगार निजी क्षेत्र से मिलते हैं और रिश्वतें सरकार वसूलती है. इस मध्य वर्ग के टैक्स और बचत पर पलने वाले वीआइपी, कमाई तो छोडि़ए महंगाई तक को लेकर संवेदनशील नहीं हैं.

महामारियों और युद्धों के बाद एक पूरी पीढ़ी अपने आर्थि व्यवहार बदलती है, मध्य वर्ग की मांग टूटने का असर बाजार पर दिख रहा है. इस वर्ग का मोहभंग लोकतंत्र के लिए खतरनाक है. अरस्तू कहते थे, मध्य वर्ग सबसे मूल्यवान है. यह निर्धन और अमीरों के बीच खड़ा होता है. निर्धनों को सत्ता खरीद लेती है और समृद्ध वर्ग सत्ता को खरीद लेते हैं. सरकारों को काबू में रखने के लिए मध्य वर्ग का बड़ा होते जाना जरूरी है क्योंकि शासक तो बस यही चाहते हैं कि मुट्ठी भर अमीरों की मदद से करोड़ों गरीबों पर राज किया जा सके.

भारत की सरकारों को हर हाल में ऐसा सब कुछ करना होगा, जिससे मध्य वर्ग का आकार बढ़े क्योंकि मौजूदा प्रजनन दर पर एक बड़े हिस्से में 2030 से बुढ़ापा शुरू हो जाएगा. क्या भारत की बड़ी आबादी बूढ़े होने से पहले मध्य वर्गीय हो सकेगी?

उलटी गिनती शुरू होती है अब.