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Sunday, October 31, 2021

आरोग्‍य का बहीखाता

 



भारत सरकार हर साल प्रतिरक्षा पर कितना खर्च करती है जीडीपी के अनुपात में 2.1 फीसदी

और

स्वास्‍थ्य पर ? जीडीपी का केवल 1.1 फीसदी.

तुलना विचारोत्तेजक है.

अलबत्ता महामारी के बाद दुनिया के लोग एसे ही खौलते हुए हिसाब कर रहे हैं. यदि हमें कोराना महामारी के महाश्मशान याद हैं (होंगे ही) तो इतिहास की कांव-कांव छोड़कर हमें सबसे बड़ी उलझनों का मर्म समझना चाहिए.

कोविड ने कायदे से समझाया कि किसी देश की आर्थि‍क प्रगति (जीडीपी) का उस देश के लोगों की स्वास्थ्य से सीधा रिश्ता होता है. सरकारों ने हमें यह सोचने ही नहीं दिया कि लोगों की  सेहत या स्वास्‍थ्य सुविधायें विशुद्घ रुप से एक आर्थिक संसाधन हैं.



इतिहास से क्या सीखा?

पहले विश्व युद्ध, स्पेनिश फ्लू से लेकर दूसरी बड़ी लड़ाई तक दुनिया में औसत आयु करीब 42 साल थी. 20 वीं सदी में दवाओं की खोज हुई, एंटीबायोटिक्स आएपानी, आवासीय स्वच्छता और खान पान बेहतर हुए, जिससे जीवन की प्रत्याशा या औसत आयु 42 से बढ़ कर 75 वर्ष पहुंच गई.  

1900 से 2000 के बीच दुनिया की आबादी 1.6 अरब से 7.5 अरब हो गई. इसमें स्वस्थ लोगों की आबादी काफी बड़ी थी. इन्होंने श्रम बाजार का चेहरा बदल दियाउत्पादकता बढ़ी, नई मांग पैदा हुई और मानव संसाधन को नए अर्थ मिल गए. बीसवीं सदी में विकसित अर्थव्यवस्थाओं की विकास दर का एक तिहाई हिस्सा अच्छी सेहत से आया है.

अब किसी को शक नहीं है कि अच्छी स्वास्‍थ्य व्यवस्था आर्थि‍क प्रगति बढ़ाने में शि‍क्षा जि‍तना ही योगदान करती हैं. (सुचिता अरोरा 2001 कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी)

बीमारियां तरक्की और समृद्धि को खा जाती हैः मेकेंजी ने अपने एक ताजा अध्ययन में बताया कि 2017 के दौरान बीमारियों और चि‍कित्सा की कमी से करीब 1.7 करोड लोगों की असामयिक मौत हुई. इससे ग्लोबल जीडीपी को 12 खरब डॉलर का नुकसान हुआ जो विश्व के जीडीपी का 15 फीसदी है.

 सेहत की करेंसी

महामारी के बाद समृद्धि के नए पैमाने बन रहे हैं. जिस मुल्क का स्वास्थ्य ढांचा जितना चुस्त है उस पर उतने बड़े दांव लगाये जाएं. दुनिया में बुढ़ापा बढ़ रहा है यानी श्रमिकों संख्या घट रही है. एसे में मौजूदा श्रमिकों से बेहतर और दक्ष (तकनीकी) उत्पादकता की जरुरत है.

स्वास्थ्य सेवाओं को सड़क, बिजली, दूरसंचार की तर्ज पर विकसित करना होगा ताकि कार्यशील आयु बढ़ाई जा सके और 65 की आयु वाले लोग 55 साल वालों के बराबर उत्पादक हो सकें.

स्वास्थ्य में नई तकनीकें लाकर, बेहतर प्राथमि‍क उपचारसाफ पानी और समय पर इलाज देकर बडी आबादी की सेहत 40 फीसदी तक बेहतर की जा सकती है. स्वास्‍थ्य पर प्रति 100 डॉलर अतिरिक्त खर्च हों जीवन में प्रति वर्षएक स्वस्थ वर्ष बढाया जा सकता है. स्वास्थ्य सुविधायें संभाल कर, 2040 तक दुनिया के जीडीपी में 12 ट्रि‍ि‍लयन डॉलर जोडे जा सकते हैं जो ग्लोबल जीडीपी का 8 फीसदी होगा यानी कि करीब 0.4 फीसदी की सालाना बढ़ोत्तरी (मेकेंजी)

अनिवार्य है यह

भारत की नई गरीबी, बीमारी से निकल रही है. यूनिवर्सल हेल्थकेयर अब अनिवार्य है. यूरोप और अफ्रीका तक (इथि‍योपिया) मे सरकारें समग्र स्वास्थ्य सेवायें देने की तरफ बढ़ रही हैं. निजी और सरकारी सेवाओं को जोड़कर  बीमा और कैश ट्रांसफर जैसे प्रयोग किये जा रहे हैं

मार्च 2021 में संसद को बताया गया था कि स्वास्थ्य पर सरकार का प्रति व्यक्ति खर्च 1418 रुपये (अमेरिका 4 लाख और यूके  2.6 लाख रुपये) है. बकौल विश्व बैंक भारत में स्वास्थ्य पर कुल खर्च में सरकार का हिस्सा केवल 27 फीसदी है जबकि लोग अपनी जेब से करीब 72 फीसदी लागत उठाते हैं. ओईसीईडी और स्वयंसेवी संसथाओं के आकलन के अनुसार भारत में निजी यानी अपनी जेब से और सरकारी खर्च मिलाकर चि‍कित्सा इलाज पर कुल प्रति व्यक्ति खर्च जीडीपी का 3.6 फीसदी है.

सबको सरकारी खर्च पर स्वास्थ्य (यूनिवर्सल हेल्थकेयर) के लिए दवाओं का खर्च मिलाकर प्रति व्यक्ति‍ 1700-2000 रुपये खर्च करने होंगे. (शंकर पिरिंजा व अन्य 2012 ). स्वास्‍थ्य पर जीडीपी का 4 से 5 फीसदी तक खर्च करना होगा , जो 2021 में केवल 1.26 फीसदी है.

भारत के भविष्य की राह सेहत सुविधाओं की मंजिलों से ही तय होगी. मेकेंजी का हिसाब है कि भारत में स्वास्‍थ्य पर प्रति एक डॉलर के अतिरिक्त निवेश पर 4 डॉलर का आर्थि‍क रिटर्न संभव है. स्वास्थ्य सेवायें बेहतर करने से हर व्यक्ति के जीवन में हर साल औसतन करीब 24 स्वस्थ दिन बढ़ाये जा सकते हैं और 2040 तक जीडीपी में करीब 598 अरब डॉलर जोड़े जा सकते हैं जो भारत के कोविड पूर्व जीडीपी का करीब 6 फीसदी होगा.

1930 की महामंदी के बाद दुनिया के जान गई थी कि उसे अपनी समस्याओं के हल तलाशने होंगे. हमारे पास भी अब कोई विकल्प नहीं है. हमें सरकारों को अहसास कराते रहना होगा भव‍िष्‍य की समृद्ध‍ि के ल‍िए आरोग्‍य लक्ष्‍मी का आवाहन-आराधन अन‍िवार्य है, उसके चरण पड़ने से ही कल्‍याण होगा.

 

Friday, April 30, 2021

हम थे जिनके सहारे

 

कोविड के दौरान अस्पताल, ऑक्सीजन, दवा तलाशते और गिड़गिड़ाते हुए भारतीयों को महसूस हुआ होगा-क्या डिजिटल इंडिया वाले ऐसा पोर्टल या ऐप नहीं बना सकते थे जो -कॉमर्स या टैक्सी सर्विस की तरह हमारी भौगोलिक स्थि (जीपीएस) के आधार पर यह बता देता कि कोविड जांच केंद्र, अस्पताल और बिस्तर, ऑक्सीजन, फार्मेसी, क्लिनिक आसपास कहां मिल सकते हैं और कब क्या मिलेगा?

कोविड के बाद दुनिया में कहीं भी रातोरात हजारों अस्पताल नहीं बन गए. अनेक देशों ने तकनीकों के योजनाबद्ध प्रयोग डाटा प्रबंधन से मौजूदा स्वास्थ्य ढांचा ठीक कर असंख्य जिंदगियां बचाई हैं.

भारत की भयानक असफलता पर तर्क देखि 100 करोड़ लोगों को अस्पताल कैसे दे सकते हैं? 100 करोड़ लोग मांग भी कहां रहे हैं. देश में सक्रिय मामले (135 करोड़ पर 30 लाख, 28 अप्रैल 2021 तक) एक फीसद से कम हैं. उनमें भी क्सीजन और गंभीर इलाज वाली दवाओं के जरूरतमंद 10 फीसद हैं. इनके लिए 29 राज्यों में 'सिस्टमयानी अस्पताल, ऑक्सीजन और दवाओं की कमी कभी नहीं थी.

फिर भी, उभरतेसुपरपॉवरऔर विश्व की फार्मेसी में मौतों की लाइन इसलिए लग गई क्योंकि हम डिजिटली अभागे भी साबि हुए हैं. प्रचार ऐप बनाने में मशगूल डिजिटल इंडिया कोविड प्रबंधन में नई तकनीकों का उतना इस्तेमाल भी नहीं कर सका जितना कोलंबिया, मैसेडोनिया, कुवैत, सऊदी अरब, पाकिस्तान जैसे देशों ने कर लिया. संकट के बाद आम लोगों ने ट्विटर सूचनाओं के डैशबोर्ड बनाकर जिस तरह मदद की, उसी के जरिए दसियों देशों में स्वाथ्य सेवाओं का डिजिटल पुर्नजन्म हो गया.

संयुक्त राष्ट्र वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और मैकेंजी के अध्ययन बताते हैं कि सूचनाओं के प्रसारण, सेवाओं-संसाधनों की मॉनीटरिंग उपलब्धता, संक्रमण पर अंकुश, -हेल्थ मरीजों की मॉनीटरिंग में डिजिटल तकनीकों के प्रयोग ने महामारी से लड़ने का तरीका ही बदल दिया.

जर्मनी ने अचूक डाटा बेस प्रबंधन से अस्पतालों, बिस्तरों, ऑक्सीजन और दवा आपूर्ति की मॉनीटरिंग की. ब्रिटेन ने अपने पुराने नेशनल हेल्थ सिस्टम का कायाकल्प करते हुए इन्फ्लुएंजा नेट जैसे प्रयोगों से सामान्य जुकाम वालों के साथ पुराने बीमारों पर भी नजर रखी.

दक्षि कोरिया ने कोवि के बाद दो पखवाड़े में संपर्क रहित ड्राइव थ्रू टेस्टिंग शुरू कर दी, सिंगापुर सहित पूर्वी एशिया और यूरोप ने गूगल के नेटवर्क के सहारे कांटेक्ट्र ट्रेसिंग के अचूक मॉडल बनाए. कई देशों ने अपनी दवा दुकानों को जोड़कर जांच और साधनों की आपूर्ति सुचारू कर ली.

भारत का हेल्थ पोर्टल बीमारों के आंकड़ों से आगे नहीं निकल सका लेकिन फ्रांस जैसे बड़े देश ही नहीं, बुल्गारिया, युगांडा, क्यूबा, अफगानिस्तान, स्लोवाकिया, मलेशिया, किर्गिस्तान, कुवैत, इथियोपिया, ग्रीस जैसे अनेक देशों ने तकनीक का बेजोड़ इस्तेमाल किया. जबकि भारत में तो ऑक्सीजन और दवा की आपूर्ति की मॉनीटरिंग का तंत्र भी नहीं बन सका.

हमें चौंकना चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र ने डिजिटल गवर्नेंस के सफल प्रयोगों में पाकिस्तान को शामिल किया है, जिसके नेशनल इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी बोर्ड ने सभी जरूरतों को एक ऐप से जोड़ने के साथ देश में भर फैले कोवि सहायता संसाधनों (अस्तपाल, दवा) आदि की भौगोलिक मैपिंग कर ली. यहां तक कि दवा की कालाबाजारी रोकने का तंत्र भी जोड़ा गया.

अमेरिका में 80 टेलीहेल्थ सेवाओं को आपात मंजूरी मिली तो शंघाई ने 11 ऑनलाइन अस्पताल खड़े कर दिए जबकि भारत में दवा और ऑक्सीजन खरीदने के लिए सीएमओ की चिट्ठी जरूरी बना दी गई. पूरी दुनिया में ऑनलाइन फार्मेसी पलक झपकते दवा पहुंचा रही हैं लेकिन भारत में लोग इंजेक्शन के लिए लाइन में लगे हैं.

भारत का आरोग्य सेतु सुर्खियां बनाकर विलीन हो गया. इसमें सूचनाओं की सुरक्षा बेहद कमजोर थी लेकिन प्रामाणि अध्ययन मानते हैं कि ज्यादातर देशों में कोविड के वक्त जो डिजिटल सेवाएं बनाई गईं उनमें निजता और गोपनीयता को पूरी तरह सुरक्षि किया गया था. भारत में जब थोथी आत्मप्रशंसा के महोत्सव चल रहे थे, तब कोवि आते ही कई देशों में प्रमुख तकनीकी कंपनियां और सरकारी नियामक, सूचना प्रबंधन, सेवा डिलिवरी और मॉनीटरिंग की नई प्रणालियां लागू कर रहे थे. इस तैयारी ने कोविड से उनकी लड़ाई तरीका ही बदल दिया.

दवा, ऑक्सीजन के लिए गिड़गिड़ाना और दयावानों से मदद की गुहार करना हरगिज जनभागीदारी नहीं है. जान बचाने की ये आखिरी कोशिशें, गर्व के नहीं शर्म के लायक हैं. महामारी ने बताया है कि हमारी तकनीकी तरक्की पूरी तरह पाखंड है. भारत का सिस्टम असफल नहीं हुआ, क्षमताएं नहीं चुकी हैं. सिस्टम तो जड़ है, जीवंत तो इसे चलाने वाले होते हैं लेकिन उन्होंने उपलब्ध तकनीकों का इस्तेमाल राजनैतिक प्रचार के लिए किया, व्यवस्था बनाने के लिए नहीं. और बढ़ते संक्रमण के बावजूद जीत का ऐलान कर दिया. 

गुस्से और दुख के संदेशों से भड़कने वाला भारतीय निजाम यह सोच ही नहीं पाता कि जिन आंकड़ों को छिपाया जा रहा है, उन्हीं के जरिए तो संसाधन और संक्रमण के प्रबंधन मॉनीटरिंग का अचूक तंत्र बना कर महामारी के मारों को दर-दर भटक कर मरने से बचाया जा सकता था.