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Saturday, September 28, 2019

मंदी की जड़


·       भारत में सबसे ज्यादा निजी निवेश उस वक्त आया जब कॉर्पोरेट इनकम टैक्स की दर 39 से 34 फीसद के बीच (2000 से 2010) थीसनद रहे कि कंपनियां मांग देखकर निवेश करती हैंटैक्स तो वे उपभोक्ताओं के साथ बांट देती हैं

·       पिछले चार साल में खपत को विश्व रिकॉर्ड बनाना चाहिए था क्योंकि महंगाई रिकॉर्ड न्यूनतम स्तर पर है

·       ऊंचा टैक्सअगरलोगों को खरीद से रोकता है तो फिर जीएसटी के तहत टैक्स में कटौती के बाद मांग कुलांचे भरनी चाहिए थी

·       जनवरी 2016 में वेतन आयोग, 2018-19 में लोगों के हाथ में तीन लाख करोड़ रुपए (डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफरबीते बरस से 60 फीसद ज्यादादिए और नकद किसान सहायता व मनरेगामगर मांग नहीं बढ़ी 

·       कर्ज पर ब्याज की दर पिछले एक साल से घटते हुए अब पांच साल के न्यूनतम स्तर पर है

·       2014-19 के बीच केंद्र का खर्च 17 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर करीब 24 लाख करोड़ रुपए हो गयावित्त आयोग की सिफारिशों के तहत राज्यों को ज्यादा संसाधन मिले

·       बकौल प्रधानमंत्रीपिछले पांच साल में रिकॉर्ड विदेशी निवेश हुआ हैशेयर बाजारों में ‌बड़े पैमाने पर विदेशी पूंजी आई है

... लेकिन 2017 में भारत की अर्थव्यवस्था जो 8.2 फीसद से दौड़ रही थी अब पांच फीसद पर है.

ताजा मंदी कठिन पहेली बन रही हैपिछले छह-सात वर्ष में आपूर्ति के स्तर पर वह सब कुछ हुआ है जिसके कारण खपत को लगातार बढ़ते रहना चाहिए थालेकिन 140 करोड़ उपभोक्ताओं के बाजार की बुनियाद यानी  मांग टूट गई है.

कार-मकान को उच्च मध्य वर्ग की मांग मानकर परे रख दें तो भी साबुन-तेल-मंजन की खपत में 15 साल की (क्रेडिट सुइस रिपोर्टसबसे गहरी मंदीक्यों?

उत्पादों की बिक्रीटैक्सजीडीपी और आम  लोगों की कमाई के आंकड़ों का पूरा परिवार गवाह है कि यह मंदी विशाल ग्रामीणकस्बाई अर्थव्यवस्था में आय और रोजगार में अभूतपूर्व गिरावट से निकली है.

2019 में कृषि‍ जीडीपी 15 साल के न्यूनतम स्तर पर (3 फीसदपर आ गयानोटबंदी ने गांवों को तोड़ दिया. 2016 के बाद से फसलों के वाजिब दाम नहीं मिलेमहंगाई के आंकड़ों में उपज की कीमतें दस साल के निचले स्तर पर हैंअनाजों की उपज कृषि‍ जीडीपी में केवल 18 फीसद की‍ हिस्सेदार हैंइसलिए समर्थन मूल्य बढ़ने का असर सीमित रहा.

2016 के बाद से ग्रामीण आय (14 करोड़ खेतिहर श्रमिककेवल दो फीसद बढ़ी जबकि शेष अर्थव्यवस्था में 12 फीसदनतीजतन गांवों में आय बढ़ने की दर दस साल के सबसे निचले स्तर पर है.

जीडीपी की नई शृंखला (ग्रॉस वैल्यू एडिशनके मुताबिक,  2012-17 के बीच खेती में बढ़ी हुई आय का केवल 15.7 फीसद हिस्सा श्रम करने वालों को मिला जबकि 84 फीसद उनके पास गया जिनकी पूंजी खेती में लगी थीइस दौरान हुई पैदावार का जितना मूल्य बढ़ा उसका केवल 2.87 फीसद हिस्सा मजदूरी बढ़ाने पर खर्च हुआइंडिया रेटिंग्स मानती है कि इस दौरान गरीबी बढ़ी है.

2012-18 के बीच भारत में कम से कम 2.9 करोड़ रोजगार बनने चाहिए थेजो खेतीरोजगार गहन उद्योगों (भवन निर्माणकपड़ाचमड़ाव्यापारसामुदायिक सेवाएंसे आने थेइस बीच नोटबंदी और जीएसटी ने छोटी-मझोली (कुल 585 लाख प्रतिष्ठान—95.5 फीसद में पांच से कम कामगारछठी आर्थिक जनगणना 2014) असंगठित अर्थव्यवस्था को तोड़ दियाजो भारत में लगभग 85 फीसद रोजगार देता हैगांवों को शहरों से जाने वाले संसाधन भी रुक गएजबकि शहरों से बेकार लोग गांव वापस पहुंचने लगे

कर्ज में फंसनेप्रतिस्पर्धा सिकुड़ने और नियमों में बदलाव (ईकॉमर्सके कारण बड़ी कंपनियों के बंद होने से नगरीय मध्य वर्ग भी बेकारी में फंस गयायही वजह थी कि 2017-18 में बेकारी की दर 6.1 फीसद यानी 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर (एनएएसओपर पहुंच गई जबकि जीडीपी 7.5 फीसद की ऊंचाई पर था.

भारत का श्रम बाजार अविकसित हैवेतन-मजदूरी कम हैजीडीपी (जीवीएके ताजा आंकड़ों के मुताबिकअर्थव्यवस्था में जितनी आय बनती है उसका केवल एक-तिहाई वेतन और मजदूरी में जाता हैग्रामीण और अर्धनगरीय उपभोक्ता बढ़ती मांग का आधार हैंउनकी अपेक्षाओं पर बैठकर कंपनियां नए उत्पाद लाती हैंकमाई घटने के बाद नकद बचतें टूटीं क्योंकि जमीन का बाजार पहले से मंदी में थाजहां ज्यादातर बचत लगी है.

यह मंदी नीचे से उठकर ऊपर तक यानी (कार-मकान की बिक्री और सरकार के टैक्स में गिरावटतक पहुंची हैकॉर्पोरेट टैक्स में कटौती के बाद अब कंपनियों के मुनाफे तो बढ़ेंगे लेकिन रोजगारमांग या खपत नहींघाटे की मारी सरकार अब खर्च भी नहीं कर पाएगी.

अगर सरकारें अपनी पूरी ताकत आय बढ़ाने वाले कार्यक्रमों में नहीं झोकतीं तो बड़ी आबादी को निम्न आय वर्ग में खिसक जाने का खतरा है यानी कम आय और कम मांग का दुष्चक्रजो हमें लंबे समय तक औसत और कमजोर विकास दर के साथ जीने पर मजबूर कर  सकता है.

Sunday, February 3, 2019

मर्ज और दवा



चुनाव से 60 दिन पहले सरकारें बजट पेश नहीं करतींहिसाब देती हैं. अंतरिम बजट (तीन महीने के खर्च) की घोषणाओं की फाइलें जब तक बनेंगीतब तक तो चुनावी मैदान में धूल के गुबार उठने लगेंगे. 

मौजूदा सरकार के आखिरी महीनों में अर्थव्यवस्था के दो चेहरे हैं: एक में गुलाबी सात-आठ फीसदी की विकास दर दिखती है और दूसरी में खुली आंखों महसूस होती45 साल में सबसे ज्यादा बेकारी और बैंकों की बढ़ती मुसीबत.

तो क्या बजटों ने पैर की बीमारी के लिए बालों का इलाज किया है या कि अर्थव्यवस्था की बुनियादी बीमारियां ही बिसारने के लिए कुछ नए डमरू बजा दिएरोजगार के आंकड़ों को लेकर सरकार में मार मची है.

2014 में विशुद्ध आर्थिक गवर्नेंस या बजट के नजरिये सेसरकार को दो सबसे बड़ी चुनौतियों का हल निकालना था. बाकी अपने आप सुधरना था क्योंकि अर्थव्यवस्था का 88 फीसदी हिस्सा गैर सरकारी खर्च और निवेश पर चलता है.

ये कहां आ गए हम

सरकारों को आर्थिक बीमारियां पकडऩे के लिए वैद्य जैसा होना चाहिए. बात फरवरी 2015 की है जब पहली बार थोक कीमतों के सूचकांक ने रिकॉर्ड गिरावट दर्ज की थी. भारत में आम तौर पर कीमतें नहीं घटतीं. कीमतों में बढ़ोतरी से हलकान रहने वाली अर्थव्यवस्था के लिए यह मांग घटने यानी डिफ्लेशन (लागत से कम कीमत) का पहला संकेत था.



यह मौका था जब मोदी सरकार अपना पहला पूर्ण बजट पेश कर रही थी और ठीक पहले उसने जीडीपी की गणना का फॉर्मूला बदल कर यह ऐलान कर दिया था कि सरकार बदलते ही आठ माह में अर्थव्यवस्था चमक गई है. डिक्रलेशन की मुसीबत से इत्तेफाक रखने वाले दुआएं करने लगे कि यह गिरावट केवल तत्कालीन सस्ते कच्चे तेल की वजह से होनी चाहिए...भारत को कमजोर मांग का रोग न लगे.

अलबत्ता हर माह खपतनिवेश और मांग घटती गई. और बजट कुछ और गाते बजाते रहे. फि र सरकार ने मांग और खपत पर नोटबंदी का बम फोड़ दिया और घटिया जीएसटी ने घेर लिया

2017 के दिसंबर में साल के दूसरे आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार ने खुद को मंदी और कीमतों में लागत से ज्यादा कमी के लिए चेताया भी था लेकिन बजटों के कान पर जूं नहीं रेंगी.

चुनाव से पहले दालचीनीफलसब्जीअंडे महीनों से मंदी में हैं. समर्थन मूल्य बढऩे के बावजूद रबी की बुआई पिछले साल के मुकाबले घटी है.

महंगाई कम होने के बावजूद निजी खपतबचतपर्सनल लोनमकानों की मांगकहीं भी उत्साह नहीं है. निजी निवेश 14 साल के न्यूनतम स्तर पर है. लेकिन सरकार माथे पर बंदूक टिकाकर यह स्वीकार करा रही है कि पिछले पांच साल में देश की विकास दर रिकॉर्ड रही है. 

दरार पर दरार

दूसरी बड़ी चुनौती थे बैंकजो बकाया कर्ज में दबे थे और मंदी की मारी कंपनियां कर्ज चुकाने में असमर्थ थीं. पहले बीमार बैंकों पर थोपी गई जनधनफिर निकला इंद्रधनुष (बैंक सुधार स्कीम) जो जल्द ही गुम हो गया. फिर बना एक बैंकिंग बोर्ड जो बीच में ही दम तोड़ गया. बैंकरप्टसी कानून के तहत आई ज्यादातर कंपनियां या तो बंद हुईं या फिर बैंकों ने खासी पूंजी गंवाई. अलबत्ता बैंकों का एनपीए (बकाया कर्ज) बढ़ता रहा.

चुनाव के करीब सरकार ने रंग बदला. बैंकों को एनपीए के इलाज में ढील के लिए रिजर्व बैंक पर दबाव बनाया और गवर्नर को जाना पड़ा. फिर छोटी कंपनियों को कर्ज पुनर्गठन करने की छूट मिल गई.

बैंकों का एनपीए 2014 में 2.24 लाख करोड़ रु. थे जो अब 9.5 लाख करोड़ रु. पर पहुंच गए हैं. जुलाई-सितंबर2018-19 में  सरकारी बैंकों का घाटा 14,716 करोड़ रु. के रिकॉर्ड स्तर पर था.  

बकाया कर्ज की बीमारी अब गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों तक फैल गई है. रिजर्व बैंक ने दिसंबर2018 में अपनी फाइनेंशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट में बताया कि वित्तीय तंत्र (बैंकों व बॉन्ड बाजार) से करीब 7.46 लाख करोड़ रु. के कर्ज के साथ ये कंपनियां वित्तीय तंत्र की सबसे बड़ी कर्जदार हैं और अब कंपनियों का पूंजी-कर्ज अनुपात खतरनाक स्तर तक गिर गया है.

इन दो चुनौतियों पर ताजा आंकड़ों की रोशनी में पिछले पांच बजटों का बहीखाता पढ़ जाइए. आपको महसूस होगा कि चुनावी सियासत ने संसदीय लोकतंत्र की सबसे गंभीर आर्थिक नीति यानी बजट को ऐसी सियासी शोशेबाजी में बदल दिया है जिसका जमीनी आर्थिक चुनौतियों से कोई रिश्ता ही नहीं है.

Monday, May 6, 2013

महंगाई का ग्लोबल बाजार


 इन्‍फेलशन बनाम  डिफ्लेशन की बहस हमेशा, दोनों की गुणवत्‍ता व संतुलन पर ही खत्‍म होती है जो अब ग्‍लोबल स्‍तर पर बिगड़ गया है। 


बीते सप्‍ताह जब सोना औंधे मुंह गिर रहा था और भारत में इसके मुरीदों की बांछें खिल रही थीं तब विकसित देशों में निवेशक ठंडा पसीना छोड़ रहे थे। सोने के साथ, अन्‍य धातुयें व कच्‍चा तेल जैसे ढहा उसे देखकर यूरोप अब डिफ्लेशन के खौफ से बेजार हो रहा है। मुद्रास्‍फीति के विपरीत डिफ्लेशन यानी अपस्‍फीति मांग, कीमतों में बढोत्‍तरी व मुनाफे खा जाती है। यूरोप में इसकी आहट के बाद अब दुनिया सस्‍ते व महंगे बाजारों में बंट गई हैं। यूरोप, अमेरिका व जापान जरा सी महंगाई बढ़ने के लिए तरस रहे हैं ताकि मांग बढे। मांग तो भारत व चीन भी चाहिए लेकिन वह महंगाई में कमी के लिए बेताब हैं, ताकि लोग खर्च करने की जगह बना सकें। यूरोप, अमेरिका व जापान के केंद्रीय बैंकों ने डिफ्लेशन थामने के लिए बाजार में पूंजी का पाइप खोल दिया है तो महंगाई से डरे भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी मुट्ठी खोलने से मना कर दिया है। ग्‍लोबल बाजारों के इस ब्रांड न्‍यू परिदृश्‍य में एक तरफ सस्‍ती पूंजी मूसलाधार बरस रही है, तो दूसरी तरफ कम लागत वाली पूंजी का जबर्दस्‍त सूखा है। यह एक नया असंतुलन है जो संभावनाओं व समस्‍याओं का अगला चरण हो सकता है।
यह बहस पुरानी है कि कीमतों का बढ़ना बुरा है या कम होना। वैसे इन्‍फेलशन बनाम  डिफ्लेशन की बहस हमेशा, दोनों की गुणवत्‍ता व संतुलन पर ही खत्‍म होती है जो अब ग्‍लोबल स्‍तर पर बिगड़ गया है। उत्‍पादन, प्रतिस्‍पर्धा या तकनीक बढ़ने से कीमतों कम होना अच्‍छा है। ठीक इसी तरह मांग व खपत बढने से कीमतों में कुछ बढोत्‍तरी आर्थिक सेहत के लिए