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Monday, July 23, 2018

झूठ के बुरे दिन



ट्विटर रोज दस लाख फर्जी अकाउंट खत्‍म कर रहा है और कंपनी का शेयर गिर रहा है.

व्‍हाट्सऐप अब हर मैसेज पर प्रचार और विचार का फर्क (फॉरवर्ड फंक्‍शन) बताता है और इस्तेमाल में कमी का नुक्सान उठाने को तैयार है.

रोबोट और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मदद से फेसबुक रूस से भारत तक विवादित और झूठ से सराबोर सामग्री खत्‍म करने में लगी है. इससे कंपनी की कमाई में कमी होगी.

यह सब मुनाफों को दांव पर लगा रहे हैं ताकि झूठे होने का कलंक न लगे.

क्‍यों?

जवाब नीत्शे के पास है जो कहते थे''मैं इससे परेशान नहीं हूं कि तुमने मुझसे झूठ बोला. मेरी दिक्‍कत यह है कि अब मैं तुम पर भरोसा नहीं कर सकता.''

नीत्‍शे का कथन बाजार पर सौ फीसदी लागू होता है और सियासत पर एक फीसदी भी नहीं.

नीत्‍शे से लेकर आज तक सच-झूठ काजो निजी और सामूहिक मनोविज्ञान विकसित हुआ है उसके तहत झूठ ही सियासत की पहचान हैं. लेकिन झूठे बाजार पर कोई भरोसा नहीं करता. बाजार को तपे हुए खरे विश्‍वास पर चलना होता है.

फेसबुकव्‍हाट्सऐपट्विटर यानी सोशल नेटवर्कों की बधाई बजने से पहले पूरी दुनिया में लोग इस हकीकत से वाकिफ थे कि सियासत महाठगिनी है. वह विचारप्रचारव्‍यवहारभावना में लपेट कर झूठ ही भेजेगी लेकिन बाजार को हमेशा यह पता रहना चाहिए कि झूठ का कारोबार नहीं हो सकता है. लोगों को बार-बार ठगना नामुमकिन है.

कंपनियां अपने उत्‍पाद वापस लेती हैंमाफी मांगती हैंमुकदमे झेलती हैंसजा भोगती हैंयहां तक कि बाजार से भगा दी जाती हैं क्‍योंकि लोग झूठ में निवेश नहीं करते. उधरसियासत हमेशा ही बड़े और खतरनाक झूठ बोलती रही हैजिन्‍हें अनिवार्य बुराइयों की तरह बर्दाश्‍त किया जाता है.

झूठ हमेशा से था लेकिन अचानक तकनीक कंपनियां राशन-पानी लेकर झूठ से लडऩे क्‍यों निकल पड़ी हैंइसलिए क्‍योंकि राजनीति का चिरंतन झूठ एक नए बाजार पर विश्‍वास के लिए खतरा है.

सोशल नेटवर्क लोकतंत्र की सर्वश्रेष्‍ठ अभिव्‍यक्ति हैं. तकनीक की ताकत से लैस यह लोकशाही नब्‍बे के दशक में आर्थिक आजादी और ग्‍लोबल आवाजाही के साथ उभरी. दोतरफा संवाद बोलने की आजादी का चरम पर है जो इन नेटवर्कों के जरिए हासिल हो गई.

बेधड़क सवाल-जवाबइनकार-इकरारसमूह में सोचने की स्‍वाधीनताऔर सबसे जुडऩे का रास्‍ता यानी कि अभिव्‍यक्ति का बिंदास लोकतंत्र! यही तो है फेसबुकट्विटरव्‍हाट्सऐप का बिजनेस मॉडल. इसी के जरिए सोशल नेटवर्क और मैसेजिंग ऐप अरबों का कारोबार करने लगे.

सियासत के झूठ की घुसपैठ ने इस कारोबार पर विश्‍वास को हिला दिया है. अगर यह नेटवर्ककुटिल नेताओं से लोगों की आजादी नहीं बचा सके तो इनके पास आएगा कौन?

झूठ से लड़ाई में सोशल नेटवर्क को शुरुआती तौर पर कारोबारी नुक्सान होगा. इन्हें न केवल तकनीकअल्‍गोरिद्म (कंप्‍यूटर का दिमाग) बदलनेझूठ तलाशने वाले रोबोट बनाने में भारी निवेश करना पड़ रहा है बल्कि विज्ञापन आकर्षित करने के तरीके भी बदलने होंगे. सोशल नेटवर्कों पर विज्ञापनप्रयोगकर्ताओं की रुचिव्‍यवहारराजनैतिक झुकावआदतों पर आधारित होते हैं. इससे झूठ के प्रसार को ताकत मिलती है. इसमें बदलाव से कंपनियों की कमाई घटेगी.

फिर भीकोई अचरज नहीं कि खुद पर विश्‍वास को बनाए रखने के लिए सोशल नेटवर्क राजनैतिक विज्ञापनों को सीमित या बंद कर दें. अथवा राजनैतिक विचारों के लिए नेटवर्क के इस्‍तेमाल पर पाबंदी लगा दी जाए

सियासत जिसे छू लेती है वह दागी हो जाता है. अभिव्‍यक्ति के इस नवोदित बाजार की साख पर बन आई है इसलिए यह अपनी पूरी शक्ति के सा‍थ अपने राजनैतिक इस्‍तेमाल के खिलाफ खड़ा हो रहा है.

तकनीक बुनियादी रूप से मूल्‍य निरपेक्ष (वैल्‍यू न्‍यूट्रल) है. लेकिन रसायन और परमाणु तकनीकों के इस्‍तेमाल के नियम तय किए गए ताकि कोई सिरफिरा नेता इन्‍हें लोगों पर इस्‍तेमाल न कर ले. सोशल नेटवर्किंग अगली ऐसी तकनीक होगी जिसका बाजार खुद इसके इस्‍तेमाल के नियम तय करेगा.

बाजार सियासत के झूठ को चुनौती देने वाला है!

राजनीति के लिए यह बुरी खबर है.

सियासत के लिए बुरी खबरें ही आजादी के लिए अच्‍छी होती हैं.



Tuesday, July 3, 2018

मंदी में आजादी


आर्थिक मंदी से क्या लोकतांत्रिक आजादियों पर खतरा मंडराने लगता है?

क्या ताकत बढ़ाने की दीवानी सरकारों को आर्थिक मुसीबतें रास आती हैं?

लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी के लिए मुक्त बाजार को सिकुड़ने से बचाना क्यों जरूरी है?

लोकशाही में आजादियों से जुड़े ये सबसे टटके और नुकीले सवाल हैं. बीते बीसेक बरस में लोकशाही का नया अर्थशास्त्र बना है जिसकी मदद से मुक्त बाजार ने आर्थिक स्वाधीनता को संवार करसरकारों को माई बाप होने से रोक दिया है.

खुली अर्थव्यवस्था के साथ सरकारों पर जनता की निर्भरता कम होती चली गईइसलिए नेता अब उन मौकों की तलाश में हैं जिनके सहारे आजादियों की सीमित किया जा सके.

क्या आर्थिक मंदी लोकतंत्र की दुश्मन है?

फ्रीडम हाउस (लोकतंत्रों की प्रामाणिकता को आंकने वाली सबसे प्रतिष्ठित संस्था) की रिपोर्ट "फ्रीडम इन द वर्ल्ड लोकशाही का ख्यात सूचकांक है. 2018 की रिपोर्ट के मुताबिकलोकतंत्र पिछले कई दशकों के सबसे गहरे संकट से मुकाबिल है. 2107 में 75 लोकतंत्रों (देशों) में राजनैतिक अधिकारप्रेस की आजादीअल्पसंख्यकों के हक और कानून का राज कमजोर हुए.

लोकतंत्र की आजादियों में लगातार गिरावट का यह 12वां साल है. "फ्रीडम इन द वर्ल्ड'' बताती है कि 12 साल में 112 देशों में लोकतंत्र दुर्बल हुआ. तानाशाही वाले देशों की तादाद 43 से बढ़कर 48 हो गई.

लोकतंत्रों के बुरे दिनों ने 2008 के बाद से जोर पकड़ा. ठीक इसी साल दुनिया में मंदी शुरू हुई थी जो अब तक जारी है. 1990 के बाद पूरी दुनिया में लोकतंत्रों की सूरत और सीरत बेहतर हुई थी. अचरज नहीं कि ठीक इसी समय दुनिया के कई देशों में आर्थिक उदारीकरण प्रारंभ हुआ था और ग्लोबल विकास को पंख लग गए थे.

यानी कि तेज आर्थिक विकास की छाया में स्वाधीनताएं खूब फली-फूलीं.

आर्थिक संकट से किसे फायदा?

आर्थिक उदारीकण और लोकतंत्र के रिश्ते दिलचस्प हैं. जहां भी बाजार मुक्त हुआ और उद्यमिता को आजादी मिलीवहां सरकारों को अपनी ताकत गंवानी पड़ीइसलिए मंदी जैसे ही बाजार को सिकोड़ती है और निजी उद्यमिता को सीमित करती हैसरकारों को ताकत बढ़ाने के मौके मिल जाते हैं. ताजा तजुर्बे बताते हैं कि जो देश मंदी से बुरी तरह घिरे रहे हैंवहां लोकतंत्र की ताकत घटी है.

सरकारें मंदी की मदद से दो तरह से ताकत बढ़ाती हैः

एकः मंदी के दौरान सरकार अपने खजाने से मुक्त बाजार में दखल देती है और सबसे बड़ी निवेशक बन जाती है. भारत में 1991 से पहले तक सरकार ही अर्थव्यवस्था की सूत्रधार थी.

दोः आर्थिक चुनौतियों के चलते बाजार में रोजगारों में कमी होती है और सरकारें लोगों की जिंदगी-जीविका में गहरा दखल देने लगती हैं.

तो क्या हर नेता को एक मंदी चाहिए जिससे वह दानवीर और ताकतवर हो सके?

लाचार बाजार तो अभिव्यक्ति बेजार!

विज्ञापनों की दुनिया से जुड़े एक पुराने मित्र किस्सा सुनाते थे कि 2001 से 2005 के दौरान अखबारों और टीवी के पास सस्ते सरकारी विज्ञापनों के लिए जगह नहीं होती थी. बाजार से मिल रहे विज्ञापन सरकारों के लिए जगह ही नहीं छोड़ते थे. मंदी की स्थिति में सरकार सबसे बड़ी विज्ञापक व प्रचारक हो जाती है और आजादी को सिकुडऩा पड़ता है.

"फ्रीडम इन द वर्ल्ड'' ने 2013 में बताया था कि ग्लोबल मंदी के बाद यूरोपीय देशों में प्रेस की स्वाधीनता कमजोर पड़ी. खासतौर पर यूरोपीय समुदाय के मुल्कों में प्रेस की आजादी के मामले में जिनका रिकॉर्ड बेजोड़ रहा है

प्रसंगवशकांग्रेस के आधिकारिक इतिहासकार प्रणब मुखर्जी ने लिखा है कि 1975 के आपातकाल की पृष्ठभूमि में 1973 के तेल संकट से उपजी महंगाईबेकारीहड़तालें और उसके विरोध में पूरे देश में फूट पड़े आंदोलन थेजिसने राजनैतिक माहौल बिगाड़ दिया. यानी कि इमर्जेंसी के पीछे मंदी और महंगाई थी!

वैसेअब अगर आजादियां पूरी तरह सरकार की पाबंद नहीं हैं तो सरकारें भी आजादियों का उतना बेशर्म अपहरण नहीं करतीं जैसा कि 1975 के भारतीय आपातकाल में हुआ.

आजादियों को मुक्त बाजार और तेज आर्थिक प्रगति चाहिए क्योंकि चतुर सरकारों ने लोकतंत्र के भीतर स्वाधीनता के अपहरण के सूक्ष्म तरीके विकसित कर लिये हैं. यकीनन मुक्त बाजार निरापद नहीं है लेकिन उसे संभलाने के लिए हमारे पास सरकार है. सरकारों की निरंकुशता को कौन संभालेगाइसके लिए तो उन्हें छोटा ही रखना जरूरी है.

Saturday, April 21, 2018

आईने से चिढ़



- पिछले महीने मध्य प्रदेश की विधानसभा के सदस्यों की एक बड़ी आजादी जाते-जाते बची. राज्य विधानसभा में सवाल पूछने के अधिकार सीमित किए जा रहे थे और माननीयों को पता भी नहीं था. प्रस्ताव चर्चा के लिए अधिसूचित हो गया. लोकतंत्र की फिक्र की पत्रकारों ने. सवाल उठे और अंतत: पालकी को लौटना पड़ा.

- एक और पालकी दिल्ली में लौटी. राजीव गांधी के मानहानि विधेयक की तर्ज पर सूचना प्रसारण मंत्रालय ने गलत खबरों को रोकने के बहाने खबरों की आजादी पर पंजे गड़ा दिए. विरोध हुआ और प्रधानमंत्री ने भूल सुधार किया.

- राजस्थान सरकार भी चाहती थी कि अफसरों और न्यायाधीशों पर खबर लिखने से पहले उससे पूछा जाए. लोकतंत्र की बुनियाद बदलने की यह कोशिश भी अंतत: खेत रही.

- और सबसे महत्वपूर्ण कि बहुमत के बावजूद विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव से डरी सरकार ने संसद का पूरा सत्र गवां दिया लेकिन विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव रखने के हक का इस्तेमाल नहीं करने दिया.

लोकतंत्र बुनियादी रूप से सरकार से प्रश्न, उसकी आलोचना, विरोध और निष्पक्ष चुनाव (जिसमें इनकार या स्वीकार छिपा है) पर टिका है. ऊपर की चारों घटनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि लोकतंत्र की छाया में पले-बढ़े लोग उन्हीं मूल्यों का गला दबाना चाहते हैं जो उन्हें सत्ता तक लाए हैं.

प्रश्न
मध्य प्रदेश सरकार के चुने हुए प्रतिनिधि अपनी आजादी को सूली पर चढ़ाने जा रहे थे. सरकार चाहती थी कि वे वीआइपी सुरक्षा (खास तौर से मुख्यमंत्री की सुरक्षा), सांप्रदायिक राजनीति आदि पर सवाल न पूछें.

क्यों?

अगर जनता के नुमाइंदे भी सवाल नहीं पूछेंगे, तो भला कौन पूछेगा?

अमेरिका के अध्यक्षीय लोकतंत्र में प्रश्नोत्तरकाल नहीं है. अमेरिकी कांग्रेस इसे शुरू करने पर चर्चा कर रही है ताकि सांसद सरकार से सीधे सवाल पूछ सकें. संसदीय लोकतंत्र इस मामले में ज्यादा आधुनिक है. इसमें सदन का पहला सत्र ही प्रश्नकाल होता है यानी दिन की शुरुआत सरकार को सवालों में कठघरे में खड़ा करने से होती है.

संविधान निर्माता चाहते थे कि सरकारें हर छोटे-बड़े सवालों का सामना करें. उनसे मौखिक ही नहीं, लिखित जवाब भी मांगे जाएं. सवालों पर कोई रोक न हो. संसद की एक (आश्वासन) समिति सवालों में सरकार के झूठ सच पर निगाह रखती है.

अभी तक  सरकारें प्रश्न से जुड़ी सूचनाएं अभी एकत्रित की जा रही हैं कहकर बच निकलती थीं लेकिन अब तो उन्हें  सवालों से ही डर लग रहा है. कोई गारंटी नहीं कि मध्य प्रदेश जैसी कोशिश फिर नहीं होगी.

शायद इससे हमारे नुमाइंदों पर कोई फर्क नहीं पड़ता! उनके लिए लोकतंत्र का मतलब बदल चुका है.

विपक्ष
संसद में पहला अविश्वास प्रस्ताव 1963 में नेहरू के खिलाफ आया था. अब तक कुल 26 बार अविश्वास प्रस्ताव आए हैं जिनमें 25 असफल रहे. सिर्फ एक प्रस्ताव ऐसा था जिस पर मतदान से पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने इस्तीफा दे दिया था.

इसके बावजूद संसद की परंपरा है, सभापति अविश्वास प्रस्ताव को किसी दूसरे कामकाज पर वरीयता देते हैं. यह सिद्ध करना संसद का दायित्व है कि देश को सरकार पर भरोसा है. सरकारें भी इस प्रस्ताव पर मतदान में देरी नहीं करतीं क्योंकि इसके गिरने से उन्हें ताकत मिलती है.

अचरज है कि इस बार बहुमत वाली सरकार जिसे कोई खतरा नहीं था, वह अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने से डर गई. उसने एक नई परंपरा शुरू कर दी. अब अगली सरकारें अविश्वास प्रस्ताव को रोकने के लिए खुद ही संसद नहीं चलने देंगी. दिलचस्प है कि विधायकों को सवाल पूछने से रोकने वाले मध्य प्रदेश सरकार के प्रस्ताव में यह प्रावधान भी था कि सत्ता पक्ष के विधायक विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ विश्वास प्रस्ताव ला सकते हैं.

हम विपक्ष या विरोध के बिना लोकतंत्र की कल्पना भी नहीं कर सकते. यह समझना जरूरी है कि जिन्होंने तेजतर्रार विपक्ष के तमगे जुटाए थे, वे ही अब हर विरोध में षड्यंत्र देखते हैं और सरकार पर उठे हर सवाल को पाप मानते हैं.

सत्तारूढ़ राजनैतिक दलों के नेतृत्व को खुशफहमी की बीमारी सबसे पहले घेरती है. उन्हें वही बताया या सुनाया जाता है जो वे सुनना चाहते हैं. यह बीमारी उन्हें अधिनायक में बदलने लगती है. सवाल, आलोचनाएं, विरोध और निगहबानी वे आईने हैं जिनमें हर सरकार को अपना अक्स बार-बार देखना चाहिए, इन्‍हें तोडऩे वाले तुझे ख्याल रहे, अक्स तेरा भी बंट जाएगा कई हिस्सों में.


Sunday, August 20, 2017

ऑक्सीजन की कमी



ऑक्सीजन चाहिए 
तो सवालों को रोपते-उगाते रहिए.
लोकतंत्र को ऑक्सीजन इसी हरियाली से मिलती है. सवाल जितने लहलहाएंगे, गहरे, घने और छतनार होते जाएंगे, लोकतंत्र का प्राण उतना ही शक्तिशाली हो जाएगा.


देखिए न, ऑक्सीजन (सवालों) की कमी ने गोरखपुर में बच्चों का दम घोंट दिया. पूर्वी उत्तर प्रदेश में इन्सेफलाइटिस को रोकने को लेकर योगी आदित्यनाथ की गंभीरता संसद के रिकॉर्ड में दर्ज है लेकिन जो काम वे अपने पूरे संसदीय जीवन के दौरान लगातार करते रहे, उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद वह काम धीमा पड़ा और बंद हो गया.

यह काम था सरकार और उसकी व्यवस्था पर सवाल उठाने का. उत्तर प्रदेश के पूरब में मच्छरों से उपजी महामारी हर साल आती है. योगी आदित्यनाथ निरंतर इससे निबटने की तैयारियों पर सवाल उठाकर दिल्ली को जगाते थे. उन्हें इन सवालों की ताकत अखबारों और लोगों की प्रतिक्रियाओं से मिलती थी. इससे गफलतों पर निगाहें रहती थीं, चिकित्सा तंत्र को रह-रहकर झिंझोड़ा जाता था और व्यवस्था को इस हद तक सोने नहीं दिया जाता था कि मरीजों को ऑक्सीजन देना ही भूल जाए.

सरकार बदलने के बाद न तो जापानी बुखार के मच्छर मरे, न पूर्वी उत्तर प्रदेश में गंदगी कम हुई और न ही अस्पताल सुधरे लेकिन इन्सेफलाइटिस से जुड़े सवालों की ऑक्सीजन कम हो गई. नतीजाः 60 बच्चे हांफ कर मर गए. हैरानी इस बात पर थी कि बच्चों की मौत के बाद अपनी पहली प्रेस वार्ता में, मुख्यमंत्री उन्हीं सवालों पर खफा थे जिन्हें लेकर वे हर साल दिल्ली जाते थे.

नमूने और भी हैं. रेलवे को ही लें. पिछली भूलों से सीखकर व्यवस्था को बेहतर करना एक नियमित प्रक्रिया है. पिछले तीन साल से रेलवे में कुछ सेवाएं सुधरीं लेकिन साथ ही कई पहलुओं पर अंधेरा बढ़ गया जिन पर सवालों की रोशनी पडऩी चाहिए थी लेकिन प्रश्नों को लेकर बहुत सहजता नहीं दिखी. फिर आई रेलवे में कैटरिंग, सफाई, विद्युतीकरण की बदहाली पर सीएजी की ताजा रिपोर्ट, जिसने पूरे गुलाबी प्रचार अभियान को उलट दिया. 

नोटबंदी के दौरान जब लोग इसके असर और क्रियान्यवयन पर सवाल उठा रहे थे, तब उन सवालों से नाराज होने वाले बहुतेरे थे. अब आठ माह बाद इस कवायद के रिपोर्ट कार्ड में जब केवल बचत निकालने के लिए बैंकों की कतार में मरने वालों के नाम नजर आ रहे हैं तो उन सवालों को याद किया जा रहा है.

सवालों की कोई राजनैतिक पार्टी नहीं होती. प्रश्न पूछना फैशन नहीं है. व्यवस्था पर सवाल किसी भी गवर्नेंस की बुनियादी जरूरत है. भाजपा की पिछली सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री इसे दिलचस्प ढंग से आजमाते थे. यदि उनका विभाग खबरों से बाहर हो जाए तो वे पत्रकारों से पूछते थे, क्या हमारे यहां सब अमन-चैन है? वे कहते थे कि मैं अंतर्यामी तो हूं नहीं जो अपने हर दफ्तर और कर्मचारी को देख सकूं. सवाल और आलोचनाएं ही मेरी राजनैतिक ताकत हैं जिनके जरिए मैं व्यवस्था को ठीक कर सकता हूं.

आदित्यनाथ योगी हो सकते हैं लेकिन वे अंतर्यामी हरगिज नहीं हैं. वे गोरखपुर में बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज जाकर भी यह नहीं जान पाए कि वहां पिछले कई हफ्तों से ऑक्सीजन की कमी है. प्राण वायु की सप्लाई के लिए चिट्ठियां फाइलों में टहल रही हैं और बच्चों की मौत बढ़ती जा रही हैं, जबकि इस क्षेत्र के सांसद के तौर पर उनके पास यह सारी जानकारियां रहतीं थीं और इन्हीं पर सवाल उठाकर वे केंद्र और प्रदेश सरकार को जगाते थे.

गोरखपुर की घटना से पूरा देश सदमे में है.भाजपा और सरकार भी कम असहज नहीं हैं. नेता और अधिकारी अब यह कहते मिलने लगे हैं कि जिन्हें फैसला लेना है, उनके पास सही सूचनाएं नहीं पहुंच रही हैं. सवालों से परहेज और आलोचनाओं से डर पूरी व्यवस्था को अनजाने खतरों की तरफ ढकेल देता है. 

कुर्सी को तो वही सुनाया जाएगा जो वह सुनना चाहती है. सरकारें हमेशा अपना प्रचार करती हैं और लोकतंत्र की अन्य संस्थाएं हमेशा उस पर सवाल उठाती हैं. यही सवाल नेताओं को जड़ों से कटने से बचाकर, उनके राजनैतिक जोखिम को कम करते हैं. 

भारत का संविधान लिखने वाली सभा ने अध्यक्षीय लोकतंत्र की तुलना में संसदीय लोकतंत्र को शायद इस वजह से भी चुना था, क्योंकि यह सत्ता के सबसे बड़े हाकिम से भी सवाल पूछने की छूट देता है. लोकतंत्र के वेस्टमिंस्टर मॉडल में संसद में प्रश्न काल की परंपरा है जिसमें प्रधानमंत्री भी मंत्री के रूप में सवालों के प्रति जवाबदेह है. अध्यक्षीय लोकतंत्र में इस तरह की परंपरा नहीं है.

सवालों को उगने से मत रोकिए, नहीं तो पता नहीं कितनों का दम घुट जाएगा. सयानों ने भी हमें सिखाया था कि कोई प्रश्न मूर्खतापूर्ण नहीं होता, क्योंकि मूर्ख कभी सवाल नहीं पूछते.


Tuesday, July 25, 2017

विपक्ष ने क्या सीखा ?

  
विपक्षी दल उन अपेक्षाओं को क्‍यों नहीं  संभाल पाए जो ताकतवर सरकार के सामने मौजूद प्रतिपक्ष के साथ अपने आप जुड़ जाती हैं

भाजपा हर कदम का विरोध क्यों करती हैआमतौर पर सवाल का पहला जवाब हमेशा ठहाके के साथ देने वाले अटल बिहारी वाजपेयी गंभीर हो गए...एक लंबा मौन...फिरः ''लोकतंत्र में प्रतिपक्ष केवल संवैधानिक मजबूरी नहीं हैवह तो लोकतंत्र के अस्तित्व की अनिवार्यता है.'' फिर ठहाका लगाते हुए बोले कि नकारात्मक होना आसान कहां हैएक तो चुनावी हार की नसीहतें और फिर सरकार को सवालों में घेरते हुए लोकतंत्र को जीवंत रखना! ...प्रतिपक्ष होने के लिए अभूतपूर्व साहस चाहिए.

लोकतंत्र में प्रतिपक्ष का तकाजा कठिन है. चुनावी हार और नकारात्मकता की तोहमत के बावजूद सरकार पर सवाल उठाते रहना उसका दायित्व है. जो सरकार जितनी ताकतवर है उससे जुड़ी उम्मीदें और उससे पूछे जाने वाले सवाल उतने ही बड़ेगहरे और ताकतवर होने चाहिए.

मोदी सरकार को तीन साल बीत चुके हैं. लगभग सभी संवैधानिक पदों और प्रमुख राज्यों में भाजपा सत्ता में है. अब विपक्ष से पूछा जाना चाहिए कि उसने क्या सीखाक्या वह उन अपेक्षाओं को संभाल पाया जो किसी ताकतवर सरकार के सामने मौजूद विपक्ष के साथ अपने आप जुड़ जाती हैं

नए विपक्ष का आविष्कार

2014 के जनादेश ने तय कर दिया कि देश में विपक्ष होने का मतलब अब बदल गया हैक्योंकि सत्ता पक्ष को चुनने के पैमाने बदल गए हैं. आजादी के बाद पहली बार ऐसा दिखा कि अध्यक्षीय लोकतंत्र की तर्ज पर पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक सभी जटिल क्षेत्रीय पहचानें और राजनैतिक अस्मिताएं किसी एक नेता में घनीभूत हो गईं.
नए सत्ता पक्ष के सामने नया विपक्ष भी तो जरूरी था! 2014 के बाद क्षेत्रीय दलों की ताकत घटती जा रही है. बहुदलीय ढपली और परिवारों की सियासत से ऊबे लोग ऐसा विपक्ष उभरता देखना चाहते हैं जो संसदीय लोकतंत्र के बदले हुए मॉडल में फिट होकर सत्ता के पक्ष के मुहावरों को चुनौती दे सके. तीन साल बीत गएविपक्ष ने नया विपक्ष बनने की कोशिश तक नहीं की.

सवाल उठाने की ताकत

जीवंत लोकतंत्र पिलपिले प्रतिपक्ष पर कैसे भरोसा करेनोटबंदी इतनी ही 
खराब थी तो विपक्ष को भाजपा बनकर खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की तरह इसे रोक देना चाहिए था. जीएसटी विपक्ष की रीढ़विहीनता का थिएटर है. विपक्षी दलों की राज्य सरकारों ने इसे बनाया भी और अब विरोध भी हो रहा है.
प्रतिपक्ष की भूमिका इसलिए कठिन हैक्योंकि उसे विरोध करते दिखना नहीं होता बल्कि संकल्प के साथ विरोध करना होता है. विपक्ष को मोदी युग के पहले की भाजपा से सीखना था कि सरकारी नीतियों की खामियों के खिलाफ जनमत कैसे बनाया जाता है.
संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष ओखली के भीतर और चोट के बाहर नहीं रह सकता. लेकिन नरेंद्र मोदी को जो विपक्ष मिला हैवह रीढ़विहीन और लिजलिजा है.

स्वीकार और त्याग
विपक्ष ने भले ही सुनकर अनसुना किया हो लेकिन अधिकांश समझदार लोगों ने यह जान लिया था कि 2014 का जनादेश अल्पसंख्यकवाद की राजनीति को रोकने की नसीहत के साथ आया है. बहुसंख्यकवाद की राजनीति अच्छी है या बुरीइस पर फैसले के लिए अगले चुनाव का इंतजार करना पड़ेगा लेकिन 2014 और उसके बाद के अधिकांश जनादेश अल्पसंख्यकों (धार्मिक और जातीय) को केंद्र में रखने की राजनीति के प्रति इनकार से भरे थे.

क्या विपक्ष अल्पसंख्यकवाद की राजनीति को स्थगित नहीं कर सकताभाजपा नसीहत बन सकती थी जिसने सत्ता में आने के बाद अपने पारंपरिक जनाधार यानी अगड़े व शहरी वर्गों को वरीयता पर पीछे खिसका दिया. अलबत्ता हार पर हार के बावजूद विपक्ष अल्पसंख्यक और गठजोड़ वाली सियासत के अप्रासंगिक फॉर्मूले से चिपका है.

सक्रिय प्रतिपक्ष ही कुछ देशों को कुछ दूसरे देशों से अलग करता है. यही भारत को चीनरूससिंगापुर से अलग करता है. ब्रिटेनजहां विपक्ष की श्रद्धांजलि लिखी जा रही थी वहां ताजा चुनावों में लेबर पार्टी की वापसी ब्रेग्जिट के भावनात्मक उभार को हकीकत की जमीन पर उतार लाई है. वहां लोकतंत्र एक बार फिर जीवंत हो उठा है.

चुनाव एक दिन का महोत्सव हैंलोकतंत्र की परीक्षा रोज होती है. अच्छी सरकारें नियामत हैं पर ताकतवर विपक्ष हजार नियामत है. भाजपा जैसा प्रभावी, प्रखर और निर्णायक प्रतिपक्ष देश को कभी नहीं मिला. आज जब भाजपा सत्ता में है तो क्या मौजूदा दल भाजपा को उसके जैसा प्रतिपक्ष दे सकते हैंध्यान रखिएभारतीय लोकतंत्र के अगले कुछ वर्ष सरकार की सफलता से नहीं बल्कि विपक्ष की सफलता से आंके जाएंगे.