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Saturday, January 23, 2021

बात निकलेगी तो.....


 

बी‌ती सदियों में दुनिया की प्रेरणा रहा अमेरिका 21वीं सदी में नसीहतों का अनोखी पाठशाला बन गया है. बीते दशक में उसने दुनिया को वित्तीय सबक दिए थे तो इस बार वह लोकतंत्र और गवर्नेंस के सबक की सबसे कीमती किताब बन गया है.

गवर्नेंस और लोकतांत्रिक संस्थाओं पर बात करते हुए भले ही हमें उबासी आती हो लेकिन असफल राजव्यवस्था (फेल्ड स्टेट) और अफरातफरी के बीच थोड़ा वक्त गुजारते ही सरकारी संस्थाओं से उम्मीद और भरोसे का मतलब समझ में आ जाता है. कोविड की महामारी और अमेरिकी चुनाव नतीजों ने पूरी दुनिया की संस्थाओं से अपेक्षा और उन पर विश्वास के नए अर्थ दिए हैं.

बाइडन के शपथ ग्रहण पर हमें अमेरिका के दो चेहरे नजर आए. एक तरफ महामारी के सामने बिखर जाने वाला दुनिया का सबसे समृद्ध और ताकतवर मुल्क और दूसरी तरफ ऐसा देश जिसकी संस्थाओं ने सिरफिरे राष्ट्रपति की सभी कुटिल कोशि‍शों के बावजूद लोकतंत्र को बिखरने बचा लिया.

तकनीक संपन्न अमेरिका का कोरोना के सामने बिखर जाना आश्चर्यजनक था जबकि जर्मनी, फिनलैंड, आइसलैंड, डेनमार्क, नॉर्वे, न्यूजीलैंड, ताइवान (सभी में महिला नेतृत्व) ने महामारी का सामना बेहतर तरीके से किया. लैटिन अमेरिका में ब्राजील और मेक्सि‍को का बुरा हाल हुआ लेकिन उरुग्वे व कोस्टारिका जैसे देश संभले रहे.

वर्ल्ड गवर्नेंस इंडिकेटर (विश्व बैंक) बताता है कि पारदर्शिता और सरकारी व्यवस्था के उत्तरदायि‍त्व के पैमानों पर, बीते दशकों में अमेरिका की रैंकिंग (29वें और भ्रष्टाचार में 25वीं) लगातार गिरी है, जबकि जर्मनी और नॉर्डिक देश बेहतर रैंकिंग हासिल करते रहे.

अमेरिका में सरकारी संस्थाओं का क्षरण तो तेज रहा लेकिन ट्रंप के भरसक विध्वंस के बावजूद अमेरिका की लोकतांत्रिक संस्थाएं टिकी रहीं और संक्रमण को संभाल लेंगे गईं.

वायरस के सामने कुछ देश मजबूत और आधुनिक नए प्रयोगों से लैस नजर आए और कुछ पूरी तरह बिखरते हुए. जैसे कि कनाडा ने महामारी के दौरान अपने अस्सी साल पुराने स्कि‍ल डेवलपमेंट कार्यक्रम (1940) को पूरी तरह बदल दिया. इटली ने करीब पांच लाख परिवारों को चाइल्डकेयर की सुविधा उपलब्ध कराई. डेनमार्क ने नौकरियां गंवाने की कगार पर खड़े 90 फीसद लोगों को वेतन दिया. ब्रिटेन निजी कर्मचारियों के 80 फीसद औसत वेतन सरकारी मदद से संरक्षि‍त किए.

इनके विपरीत भारत को दुनिया का सबसे लंबा लॉकडाउन लगाकर 1952 के बाद सबसे बुरी आर्थि‍क चोट इसलिए आमंत्रि‍त करनी पड़ी क्योंकि हमारी व्यवस्थाएं महामारी में टिकने या खुद को तेजी से बदलने की क्षमता नहीं रखती थीं. भारत में सरकार ने प्लेग काल (1897) के महामारी कानून के सहारे ताकत तो समेट ली लेकिन तरीके नहीं बदले इसलिए मंदी के मारों को नीतिगत और आर्थि‍क मदद प्रभावी नहीं हो सकी.

कोवि‍ड ने बताया कि जिन देशों में लोकतांत्रिक संस्थाओं का ढांचा मजबूत व पारदर्शी था, संस्थाओं व समुदाय के बीच गहरा तालमेल था, सरकारें सच का सामना कर रही थीं, वहां कोविड से लडऩे में सफलता मिली और मुश्कि‍लों से निबटने के नए तरीके ईजाद हुए. सरकारी कर्ज और घाटे सभी जगह बढ़े लेकिन कुछ सरकारों ने संसाधनों को सेहत और जीविका बचाने पर केंद्रित किया और नतीजे हासिल किए.

इतिहास कहता है कि बड़े बदलाव बड़ी राजनैतिक अफरातफरी से निकलते हैं. रूस में जार युग के पतन के बाद (इटली-जर्मनी तक) ने बदलावों का एक दौर चला जो विश्व युद्ध के बाद लोकतंत्रों की वापसी और विश्व सहमति की स्थापना के बाद ही खत्म हुआ. महमारियां भी कम बड़े बदलाव नहीं लातीं. टायफायड न फैला होता स्पार्टा को एथेंस पर जीत (30 बीसी) न मिलती. रोमन लड़कर नहीं मरे. उनका पतन प्लेग (तीसरी सदी) से हुआ था. छोटी चेचक माया और इंका सभ्यताओं को निगल गई और 14वीं सदी के प्लेग ने यूरोप की सामंती प्रणाली को ध्वस्त कर औद्योगीकरण की राह खोली.

फिर क्या अचरज कि बाइडन की जीत से दुनिया में लोकतांत्रिक संस्थाओं की मजबूती के नए राजनैतिक अभि‍यान की शुरुआत हो और महामारी के सबक विश्व में सरकारों के कामकाज के तरीके बदल दें.

सत्तर वर्षीय गणतंत्र वाले भारतीय अगर अमेरिका की उथल-पुथल और महामारी से कुछ सीखना चाहें तो उन्हें क्या करना होगा? उन्हें पलट कर यह देखना होगा जब भारत अपने इतिहास की सबसे बड़ी आपदा से जूझ रहा था तब उसके गणतंत्र की संस्थाएं क्या कर रही थीं? सड़कों पर भटकते मजदूरों को देखकर संसद-विधानसभाओं में सरकार से कितने सवाल किए गए? सबसे बड़ी अदालत किसे न्याय दे रही थी? क्या नियामक यह जांच रहे थे कि राहतों का काम पारदर्शी ढंग से हो रहा है?

बीते एक साल ने हमें सि‍खाया है कि ताकतवर नेतृत्व, अकूत संसाधन, भीमकाय व्यवस्थाएं कुछ नहीं हैं. जिन देशों की संस्थाएं मजबूत व पारदर्शी थीं उन्होंने लोगों की जिंदगी और लोकतंत्र दोनों की रक्षा की है. यह वक्त है जब हम अपनी संवैधानिक संस्थाओं जैसे संसद, विधानसभाओं, अदालतों, नियामकों, विकेंद्रीकरण के बारे में सोचें क्योंकि इनकी परीक्षा का मौका कभी भी आ सकता है.

Thursday, November 12, 2020

जागत नींद न कीजै

 


कभी-कभी जीत से कुछ भी साबित नहीं होता और शायद हार से भी नहीं. फैसला करने वाले भी खुद यह नहीं समझ पाते कि बिहार जैसे जनादेश से वे हासिल क्या करना चाहते थे? जातीय समीकरणों के पुराने तराजू हमें यह नहीं बता पाते कि नए जनादेश और ज्यादा विभाजित क्यों कर देते हैं?

मसलन, किसी को यह उम्मीद नहीं है कि जो बाइडन की जीत से अमेरिका में सब कुछ सामान्य हो जाएगा या नई सरकार के नेतृत्व में बिहार नए सिरे से एकजुट हो जाएगा क्योंकि राजनैतिक विभाजन लोगों के मनोविज्ञान के भीतर पैठ कर लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए खतरा बन रहे हैं.

चतुर नेताओं ने लोगों के दिमाग में व्यवहार और विश्वास के बीच एक स्थायी युद्ध छेड़ दिया है. लोग अक्सर ऐसे फैसलों का समर्थन करने लगे हैं जो व्यावहारिक तौर पर उनके लिए नुक्सानदेह हैं. मिसाल के तौर पर उत्तर भारत में हवा दमघोंटू है, इसमें पटाखे चलाने से और ज्यादा बुरा हाल होगा, फिर भी पटाखों पर प्रतिबंध का विरोध सिर्फ इसलिए है क्योंकि लोगों को लगता कि यह पाबंदी एक समुदाय विशेष को प्रभावित करती है.

निष्पक्ष चिंतक इस बात से परेशान हैं कि सरकारों और लोकतांत्रिक संस्थाओं को इस विभाजक माहौल में ईमानदार व भरोसमंद कैसे रखा जाए? सरकारें एक किस्म की सेवा हैं, जिनकी गुणवत्ता और जवाबदेही सुनिश्चत होना अनिवार्य है. मिशिगन यूनिवर्सिटी ने 1960 के बाद अपने तरह के पहले अध्ययन में यह पाया कि लोग तीन वजहों से सरकारों पर भरोसा करते हैं एकसरकार ने अपनी जिम्मेदारी कैसे निभाई? दोसंकट में सरकार कितनी संवेदनशील साबित हुई है? तीनवह अपने वादों और नतीजों में कितनी ईमानदार है?

ताजा अध्ययन बताते हैं कि व्यवहार और विश्वास के बीच विभाजन के कारण लोग सरकारों का सही मूल्यांकन नहीं कर पा रहे हैं. जैसे ब्रेग्जिट या नोटबंदी से होने वाले नुक्सान को लोग समझ नहीं सके. उनके राजनैतिक विश्वास इतने प्रभावी थे कि उन्होंने व्यावहारिक अनुभवों को नकार दिया. 

कारनेगी एंडाउमेंट ऑफ ग्लोबल पीस ने (रिपोर्ट 2019) कई प्रमुख देशों (पोलैंड, तुर्की, ब्राजील, भारत, अमेरिका) में लोकतंत्र की संस्थाओं और समाज पर राजनैतिक ध्रुवीकरण के असर को समझने की कोशिश की है. इन देशों में राजनैतिक विभाजन ने न्यायपालिका, मीडिया, वित्तीय तंत्र, सरकारी विभागों और स्वयंसेवी संस्थाओं तक को बांट दिया है. गरीबों को राहत के बंटवारे भी राजनैतिक आग्रह से प्रभावित हैं. संस्थाएं इस हद तक टूट रही हैं कि इन देशों में अब सियासी दल चुनाव में हार को भी स्वीकार नहीं करते, जैसा कि अमेरिका में हुआ है.

तुर्की का समाज इतना विभाजित है कि दस में आठ लोग उन परिवारों में अपने बच्चे का विवाह या उनके साथ कारोबार नहीं करना चाहते जो उस पार्टी को वोट देते हैं जिसे वे पसंद नहीं करते. भारत में भी ये दिन दूर नहीं हैं.

इस तरह विभाजित मनोदशा में मिथकीय वैज्ञानिक फाउस्ट की झलक मिलती है. जर्मन महाकवि गेटे के महाकाव्य का केंद्रीय चरित्र मानवीय दुविधा का सबसे प्रभावी मिथक है. फाउस्ट ने अपनी आत्मा लूसिफर (शैतान) के हवाले कर दी थी. इस समझौते (फाउस्टियन पैक्ट) ने फाउस्ट के सामान्य विवेक को खत्म कर उसे स्थायी अंतरविरोध से भर दिया, जिससे वह सही फैसले नहीं कर पाता. 

सत्ता का साथ मिलने पर राजनैतिक विभाजन बहुत तेजी से फैलता है क्योंकि इसमें लाभों का एक सूक्ष्म लेन-देन शामिल होता है. राजनैतिक विभाजन को भरना बहुत मुश्किल है फिर भी बहुत बड़े नुक्सान को रोकने के लिए उपाय शुरू हो गए हैं. केन्या ने 2010 में नए संविधान के जरिए निचली सरकारों की ताकत बढ़ाई ताकि केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के लिए विभाजन की राजनीति पर रोक लगाई जा सके.

अमेरिका के राज्य मेन ने 2016 में नई वोटिंग प्रणाली के जरिए नकारात्मक प्रचार रोकने और मध्यमार्गी प्रत्याशी चुनने का विकल्प दिया है. इक्वाडोर के राष्ट्रपति लेनिन मॉरेनो ने अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपति के विभाजक राजनैतिक फैसलों को वापस लेकर लोकतंत्र की मरम्मत करने कोशिश की है.

जीएसटी और कृषिकानूनों पर केंद्र और राज्य के बीच सीधा व संवैधानिक टकराव सबूत है कि भारत में यह विभाजन बुरी तरह गहरा चुका है. बिहार चुनाव के बाद यह आग और भड़कने वाली है. भारत को जिस वक्त मंदी से निजात और रोजगार के लिए असंख्य फैसलों पर व्यापक राजनैतिक सर्वानुमति की दरकार है तब यह राजनैतिक टकराव लोकतंत्र की संस्थाओं में पैठकर न्याय, समानता, पारदर्शिता, संवेदनशीलता जैसे बुनियादी दायित्वों को प्रभावित करने वाला है. इसके चलते सरकारों से मोहभंग को ताकत मिलेगी.

उपाय क्या है? आग लगाने वालों से इसे बुझाने की उम्मीद निरर्थक है. हमें खुद को बदलना होगा. प्लेटो कहते थे, अगर हम अपनी सरकार के कामकाज से बेफिक्र हैं तो नासमझ हमेशा हम पर शासन करते रहेंगे.

 

Friday, March 8, 2019

सवाल हैं तो सुरक्षा है


अगर 1999 या 2000 आज (2019) जैसा होता तो हम कभी यह नहीं जान पाते कि करगिल के युद्ध में सरकार या सेना ने क्या गलती की थी? उस युद्ध में जितनी बहादुरी सेना ने दिखाई थी उतनी ही वीरता से सामने आया था भारत का लोकतंत्र, सवाल जिसके प्राण हैं.

करगिल के बाद भारत में ऐसा कुछ अनोखा हुआ था जिस पर हमें बार-बार फख्र करना चाहिए. करिगल की जांच के लिए तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने एक समिति बनाई. यह समिति सरकारी नहीं थी लेकिन कैबिनेट सचिव के आदेश से इसे अति गोपनीय रणनीतिक दस्तावेज भी दिखाए गए.

बहुआयामी अधिकारी और रणनीति विशेषज्ञ के. सुब्रह्मण्यम के नेतृत्व में इस समिति ने न केवल सुरक्षा अफसरों से बल्कि तत्कालीन और पूर्व प्रधानमंत्रियों, रक्षा मंत्रियों, विदेश मंत्रियों यहां तक कि पूर्व राष्ट्रपति से भी पूछताछ की. करीब 15 खंड और 14 अध्यायों की इसकी रिपोर्ट ने करगिल में भयानक भूलों को लेकर सुरक्षा, खुफिया तंत्र और सैन्य तैयारियों की धज्जियां उड़ा दीं.

अगर 2017 भी आज जैसा होता तो फिर हम यह कभी नहीं जान पाते कि भारत की फटेहाल फौज के पास दस दिन के युद्ध के लायक भी गोला-बारूद नहीं है. सीएजी ने 2015 में ऐसी ही पड़ताल की थी. अगर 1989 भी आज की तरह होता तो बोफोर्स पर एक मरियल-सी सीएजी रिपोर्ट (राफेल जैसी) सामने आ जाती.

सेना या सुरक्षा बलों से रणनीति कहीं नहीं पूछी जाती. लेकिन लोकतंत्र में सेना सवालों से परे कैसे हो सकती है? रणनीतिक फैसले यूं ही कैबिनेट की सुरक्षा समिति नहीं करती है, जहां सेनानायक भी मौजूद होते हैं. इस समिति में वे सब लोग होते हैं जो अपने प्रत्येक आचरण के लिए देश के प्रति जवाबदेह हैं.

लोकतंत्र के संविधान सरकारों को सवालों में घेरते रहने का संस्थागत आयोजन हैं. संसद के प्रश्न काल, संसदीय समितियां, ऑडिटर्स, उनकी रिपोर्ट पर संसदीय जांच... सेना या सैन्य प्रतिष्ठान इस प्रश्न-व्यवस्था के बाहर नहीं होते.

लोकतंत्र में वित्तीय जवाबदेही सबसे महत्वपूर्ण है. सैन्य तंत्र भी संसद से मंजूर बजट व्यवस्था का हिस्सा है जो टैक्स या कर्ज (बैंकों में लोगों की बचत) पर आधारित है. इसलिए सेना के खर्च का भी ऑडिट होता है, जिसमें कुछ संसद से साझा किया जाता है और कुछ गोपनीय होता है.

पाकिस्तान में नहीं पूछे जाते होंगे सेना से सवाल लेकिन भारत में सैन्य प्रतिष्ठान से पाई-पाई का हिसाब लिया जाता है. गलतियों पर कैफियत तलब की जाती है. सेना में भी घोटाले होते हैं. जांच होती है.

लोकतंत्र में निर्णयों और उत्तरदायित्वों का ढांचा संस्‍थागत है, व्यक्तिगत नहीं. सियासत किसी एक व्यक्ति को पूरी व्यवस्था बना देती है, जिसमें गहरे जोखिम हैं इसलिए समझदार राजनेता हमेशा संस्था‍ओं का सुरक्षा चक्र मजबूत करते हैं ताकि संस्थाएं जिम्मेदारी लें और सुधार करें.

करगिल के बाद भी राजनीति हुई थी. कई सवाल उठे थे, संसद में बहस भी हुई. सेना को कमजोर करने के आरोप लगे लेकिन तब शायद लोकतंत्र ज्यादा गंभीर था इसलिए सरकार ने सेना और अपनी एजेंसियों पर सवालों व जांच को आमंत्रित किया और स्वीकार किया कि करगिल की वजह भयानक भूलें थीं. सुब्रह्मण्यम की रिपोर्ट पर कार्रवाई के लिए मंत्रिसमूह बना.

मई 2012 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने संसद को बताया था कि करगिल समीक्षा रिपोर्ट की 75 में 63 सिफारिशें लागू की जा चुकी हैं. इन पर क्रियान्वयन के बाद भारत में सीमा प्रबंधन पूरी तरह बदल गया, खुफिया तंत्र ठीक हुआ, नया साजो-सामान जुटाया गया और सेना की कमान को समन्वित किया गया. करगिल पर उठे सवालों की वजह से हम पहले से अधिक सुरक्षित हो गए.

जोश चाहे जितना हो लेकिन उसमें लोकतंत्र का होश बने रहना जरूरी है. सवालों की तुर्शी और दायरा बढऩा परिपक्व लोकतंत्र का प्रमाण है जबकि सत्ता हमेशा सवालों के दायरे से बाहर रहने का उपक्रम करती है, जो गलतियों व जोखिम को सीधा न्योता है.

क्या हम नहीं जानना चाहेंगे कि पुलवामा, उड़ी और पठानकोट हमलों में किसी एजेंसी की चूक थी? इनकी जांच का क्या हुआ? क्या सैन्य साजो-सामान जुटाने में देरी की वजह या अभियानों की सफलता- विफलता की कैफियत नहीं पूछना चाहेंगे?

राजनेता कई चक्रों वाली सुरक्षा में रहते हैं. खतरे तो आम लोगों की जिंदगी पर हैं. शहीद फौजी होता है. लोकतंत्र में सरकार से सवाल पूछना सबसे बड़ी देशभक्ति‍ है क्योंकि सवाल ही हमारा सबसे बड़ा सुरक्षा कवच हैं.

Sunday, October 28, 2018

ताकत देने के खतरे



''भी युद्ध अंततः खत्म हो जाते हैं, लेकिन सत्ता और सियासत जो ताकत हासिल कर लेती है वह हमेशा बनी रहती है.''    —फ्रैंक चोडोरोव

भारत की शीर्ष जांच एजेंसी (सीबीआइ) की छीछालेदर को देख रहा 71 साल का भारतीय लोकतंत्र अपने अस्तित्व की सबसे बड़ी दुविधा से मुकाबिल है. यह दुविधा पिछली सदी से हमारा पीछा कर रही है कि हमें ताकतवर लोकतांत्रिक संस्थाएं चाहिए या फिर ताकतवर सरकारें

दोनों एक साथ चल नहीं पा रही हैं. 

यदि हम ताकतवर यानी बहुमत से लैस सरकारें चुनते हैं तो वे लोकतंत्र की संस्थाओं की ताकत छीन लेती हैं.

भारतीय लोकतंत्र के 1991 से पहले के इतिहास में हमारे पास बहुमत से लैस ताकतवर सरकारों (इंदिरा-राजीव गांधी) की जो भी स्मृतियां हैं, उनमें लोकतांत्रिक संस्थाओं यानी अदालत, अभिव्यक्ति, जांच एजेंसियों, नियामकों के बुरे दिन शामिल हैं. 1991 के बाद बहुमत की पहली सरकार हमें मिली तो उसमें भी लोकतंत्र की संस्थाओं की स्‍वायत्तता और निरपेक्षता सूली पर टंगी है.

इस सरकार में भी लोकतंत्र का दम घोंटने का वही पुराना डिजाइन है. ताकतवर सरकार यह नहीं समझ पाती कि वह स्वयं भी लोकतंत्र की संस्था है और वह अन्य संस्थाओं की ताकत छीनकर कभी स्वीकार्य और सफल नहीं हो सकती.

क्या सीबीआइ ताकत दिखाने की इस आदत की अकेली शिकार है? 

- सरकार का कार्यकाल खत्म होने के करीब है लेकिन सुप्रीम कोर्ट की लताड़ के बावजूद लोकपाल नहीं बन पाया. पारदर्शिता तो बढ़ाने वाले व्हिसिलब्लोअर कानून ने संसद का मुंह नहीं देखा लेकिन सूचना के अधिकार को सीमित करने का प्रस्ताव संसद तक आ गया. 

- जजों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट को सरकार ने अपनी ताकत दिखाई और लोकतंत्र सहम गया. रिजर्व बैंक की स्वायत्तता में दखल हुआ तो पूरी दुनिया के वित्तीय बाजारों में थू-थू हुई.

- सूचना प्रसारण मंत्रालय ने गलत खबरों को रोकने के बहाने खबरों की आजादी पर पंजे गड़ा दिए. विरोध हुआ और प्रधानमंत्री ने भूल सुधार किया.

- याद रखना जरूरी है कि मिनिमम गवर्नमेंट का मंत्र जपने वाली एक सरकार ने पिछले चार साल में भारत में एक भी स्वतंत्र नियामक नहीं बनायाल उलटे यूजीसी, सीएजी (जीएसटीएन के ऑडिट पर रोक) जैसी संस्थाओं की आजादी सिकुड़ गई. चुनाव आयोग का राजनैतिक इस्तेमाल ताकतवर सरकार के खतरे की नई नुमाइश है.

- सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ा कि आखिर आधार का कानून पारित कराने के लिए लोकसभा में मनी बिल के इस्तेमाल की क्या जरूरत थी?

- ताकत के दंभ की बीमारी राज्यों तक फैली. राजस्थान सरकार चाहती थी कि अफसरों और न्यायाधीशों पर खबर लिखने से पहले उससे पूछा जाए. लोकतंत्र की बुनियाद बदलने की यह कोशिश अंततः खेत रही. मध्य प्रदेश सरकार ने विधानसभा में सवाल पूछने के अधिकार सीमित करने का प्रस्ताव रख दिया. माननीय बेफिक्र थे, पत्रकारों ने सवाल उठाए और पालकी को लौटना पड़ा.

यह कतई जरूरी नहीं है कि लोकतंत्र में सरकार का हर फैसला सही साबित हो. इतिहास सरकारी नीतियों की विफलता से भरा पड़ा है. लेकिन लोकतंत्र में फैसले लेने का तरीका सही होना चाहिए. ताकतवर सरकारों की ज्यादातर मुसीबतें उनके अलोकतांत्रिक तरीकों से उपजती हैं. नोटबंदी, राफेल, जीएसटी, आधार जैसे फैसले सरकार के गले में इसलिए फंसे हैं क्योंकि जिम्मेदार संस्थाओं की अनदेखी की गई. 

जब अदालतें सामूहिक आजादियों से आगे बढ़कर व्यक्तिगत स्वाधानताओं (निजता, संबंध, लिंग भेद) को संरक्षण दे रही हैं तब लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वयत्तता के दुर्दिन देखने लायक हैं.

क्या 1991 के बाद का समय भारत के लिए ज्यादा बेहतर था जब सरकारों ने खुद को सीमित किया और देश को नई नियामक संस्थाएं मिलीं?

क्या भारतीय लोकतंत्र अल्पमत सरकारों के हाथ में ज्यादा सुरक्षित है?

क्या कमजोर सरकारें बेहतर हैं जिनके तईं लोकतंत्र की संस्थाएं ताकतवर रह सकती हैं?

हम सिर्फ वोट दे सकते हैं. यह तय नहीं कर सकते कि सरकारें हमें कैसा लोकतंत्र देंगी इसलिए वोट देते हुए हमें लेखक एलन मूर की बात याद रखनी चाहिए कि सरकारों को जनता से डरना चाहिए, जनता को सरकारों से नहीं.


Sunday, August 12, 2018

सवाल हैं तो आस है


 
गूगल 2004 में जब अपना पहला पब्लिक इश्यू (पूंजी बाजार से धन जुटाना) लाया था तब मार्क जकरबर्गफेसमैश (फेसबुक का पूर्वज) बनाने पर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी का गुस्सा झेल रहे थेक्योंकि उन्होंने यूनिवर्सिटी के डेटाबेस से छात्रों की जानकारियां निकाल ली थीं. इंटरनेट, गूगल के जन्म (1998) से करीब दस साल पहले शुरू हुआ. मोबाइल तो और भी पहले आया1970 के दशक की शुरुआत में.

आज दुनिया की कुल 7.5 अरब आबादी में (55 फीसदी लोग शहरी) करीब 4.21 अरब लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं और 5.13 अरब लोगों के पास मोबाइल है. (स्रोतः आइटीयूग्लोबल वेब इंडेक्स)

पांच अरब लोगों तक पहुंचने में मोबाइल को 48 साल और इंटरनेट को चार अरब लोगों से जुडऩे में 28 साल लगेलेकिन सोशल नेटवर्क केवल एक दशक में 3.19 अरब लोगों तक पहुंच गए.

सोशल नेटवर्क के फैलने की रफ्तारइंटरनेट पर खोज की दीवानगी से ज्यादा तेज क्यों थी?

क्या लोग खोजने से कहीं ज्यादा पूछनेबताने के मौके चाहते थेयानी संवाद के?

सोशल नेटवर्कों की अद्भुत रफ्तार का रहस्यइक्कीसवीं सदी के समाजराजनीतिअर्थशास्त्र की बनावट में छिपा है. इंटरनेट की दुनिया यकीनन प्रिंटिंग प्रेस वाली दुनिया से कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक हो गई थीफिर भी यह संवाद लोकतंत्र के जन्म (16-17वीं सदी) से आज तक एकतरफा ही तो था. 
सोशल नेटवर्क दोतरफा और सीधे संवाद की सुविधा लेकर आए थे. और लोकतंत्र पूरा हो गया. लोग अब सीधे उनसे सवाल पूछ सकते थे जो जिम्मेदार थे. वे जवाब न भी दें लेकिन लोगों के सवाल सबको पता चल सकते हैं.

प्रश्न पूछने की आजादी बड़ी आजादी क्यों है?

संवैधानिक लोकतंत्रों के गठन में इसका जवाब छिपा है. संसदीय लोकतंत्र आज भी इस बात पर रश्क करता है कि उसके नुमाइंदे अपने प्रधानमंत्री से सीधे सवाल कर सकते हैं. 

इक्कीसवीं सदी में लोकतंत्र के एक से अधिक मॉडल विकसित हो चुके हैं. लेकिन इनके तहत आजादियों में गहरा फर्क है. रूस हो या सिंगापुरचुनाव सब जगह होते हैं लेकिन सरकार से सवाल पूछने की वैसी आजादी नहीं है जो ब्रिटेनअमेरिका या भारत में है. इसलिए अचरज नहीं कि जैसे ही सोशल नेटवर्क फैलेभाषाएं आड़े नहीं आईं और उन देशों ने इन्हें सबसे तेजी से अपनाया जिनमें लोकतंत्र नगण्य या सीमित था. अरब मुल्कों में प्रिंटिंग प्रेस सबसे बाद में पहुंची लेकिन फेसबुक ट्विटर ने वहां क्रांति करा दी. चीन सोशल नेटवर्क का विस्तार तो रोक नहीं सका लेकिन अरब जगत से नसीहत लेकर उसने सरकारी सोशल नेटवर्क बना दिए.

संसदीय लोकतंत्र के संविधान सरकार को चैन से न बैठने देने के लिए बने हैं. सत्ता हमेशा टी बैग की तरह सवालों के खौलते पानी में उबाली जाती है. चुनाव लडऩे से पहले हलफनामेसंसद में लंबे प्रश्न कालसंसदीय समितियांऑडिटर्सऑडिटर्स की रिपोर्ट पर संसदीय समितियांविशेष जांच समितियांहर कानून को अदालत में चुनौती देने की छूटसवाल पूछती अदालतेंविपक्षमीडिया...इन सबसे गुजरते हुए टी बैग (सरकार) को बदलने या फेंकने (चुनाव) की बारी आ जाती है.

भारत की अदालतों में लंबित मुकदमों को देखकर एक बारगी लगेगा कि लोग सरकार पर भरोसा ही नहीं करते! लोग सरकार को कठघरे में खड़ा करते रहते हैं. यानी कि जो सवाल कानून बनाते समय नुमांइदे नहीं पूछ पातेउन्हें लोगों की ओर से अदालतें पूछती हैं.

लोकतंत्र में प्रश्नों का यह चिरंतन आयोजन केवल सरकारों के लिए ही बुना गया है. वजह यह कि लोग पूरे होशो-हवास में कुछ लोगों को खुद पर शासन करने की छूट देते हैं और अपनी बचतें व टैक्स उन्हें सौंप देते हैं. सरकारें सवालों से भागती हैं और लोकतंत्र की संस्थाएं उन्हें रह-रह कर सवालों से बेधती रहती हैं. 

इक्कीसवीं सदी में अब चुनाव की आजादी ही लोकतंत्र नहीं हैचुने हुए को सवालों में कसते रहने की आजादी अब सबसे बड़ी लोकशाही है इसलिए जैसे ही सोशल नेटवर्क फैलेलोगों ने समूह में सवाल पूछने प्रारंभ कर दिए.

प्रश्नों का तंत्र अब पूरी तरह लोकतांत्रिक हो रहा है. क्यों केवल पत्रकार ही कठोर सवाल पूछेंलोकतंत्रों में अब ऐसी संस्कृति विकसित करने का मौका आ गया है जब प्रत्येक व्यक्ति को सरकार से कठोर से कठोर प्रश्न पूछने को प्रेरित किया जाए.

सत्ता का यह भ्रम प्रतिक्षण टूटते रहना चाहिए कि जो उत्सुक या जिज्ञासु हैंवे मूर्ख नहीं हैं. और कई बार सवालजवाबों से कहीं ज्यादा मूल्यवान होते हैं.