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Wednesday, July 27, 2016

अधूरे सुधारों का अजायबघर



भारत के आर्थिक सुधार अधूरी कोशिशों का  शानदार अजायबघर हैं. 

शुरुआत अच्छी हो तो समझ लीजिए कि आधा रास्ता पार. कहावत ठीक है बशर्ते इसे भारत के आर्थिक सुधारों से न जोड़ा जाए. भारत के आर्थिक सुधार अधूरी कोशिशों का  शानदार अजायबघर हैं. उदारीकरण की रजत जयंती पर बेशक हमें फख्र होना चाहिए कि भारत दुनिया के उन चुनिंदा मुल्कों में है जिसने ढाई दशक में अभूतपूर्व और अद्भुत उपलब्धियां हासिल की हैंजो बढ़ी हुई आयसेवाओंतकनीकोंउत्पादोंसुविधाओं की शक्ल में हमारे आसपास बिखरी हैं और इन सुधारों की कामयाबी की गारंटी देती हैं. लेकिन इसके बावजूद आर्थिक सुधारों की बड़ी त्रासदी इनका अधूरापन हैजो अगर नहीं होता तो हमारे फायदे शायद कई गुना ज्यादा होते और असंगतियां कई गुना कम.
सबसे नए उदारीकरण से शुरू करते हैं. इसी जून में मोदी सरकार ने महत्वाकांक्षी और दूरगामी उड्डयन (एविएशन) नीति जारी की और इसके ठीक बाद विमानन क्षेत्र में विदेशी निवेश के नियम भी उदार किए गए. यह दोनों ही फैसले आधुनिकता और साहस के पैमानों पर उत्साहवर्धक थेक्योंकि नई नीति के तहत सरकार ने भारतीय विमानन कंपनियों के लिए विदेशी उड़ानों के दकियानूसी नियमों को बदल दिया था और दूसरी तरफ विदेशी विमान कंपनियों के लिए बाजार खोलने की हिम्मत दिखाई थी. लेकिन इसके बाद भी यह सुधार अधूरा ही रह गया.
नई उड्डयन नीति का अधूरापन इसलिए और ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में विमानन क्षेत्र का उदारीकरण 1990 में प्रारंभ हुआ. 1994 की ओपन स्काई नीति और विमान सेवा में सरकारी कंपनियों (एयर इंडिया) के एकाधिकार की समाप्ति के बाद तेजी आई लेकिन 26 साल के तजुर्बों के बावजूद नई विमानन नीति में इस क्षेत्र के समग्र उदारीकरण की हिम्मत नजर नहीं आई. कई नीतियों के सफर के बावजूद विमानन क्षेत्र को अभी कुछ और नीतियों का इंतजार करना होगा.
ऊर्जा और बिजली क्षेत्र असंगतियों का शानदार नमूना है. निजी कंपनियों को बिजली उत्पादन की इजाजत 1992 में (इंडिपेंडेंट पॉवर प्रोड्यूसर्स नीति) और उत्पादक इस्तेमाल (कैप्टिव) के लिए कोयला निकालने की छूट 1993 में मिल गई थी. नब्बे के दशक में राज्य बिजली बोर्डों के पुनर्गठन और 2000 के दशक में नए बिजली कानून सहित कई कदमों के बावजूद बिजली सुधार पूरे नहीं हुए. इसी दौरान सरकार ने कोयला क्षेत्र में विदेशी निवेश की गति तेज की और कैप्टिव खदानों का आवंटन-घोटाले-पुनर्आवंटन हुए.
ऊर्जा नीतियों में तमाम फेरबदल के बावजूद बिजली और ऊर्जा सुधार अधूरे उलझे और पेचीदा रहे. सरकार ने उत्पादन का निजीकरण तो किया लेकिन बिजली वितरण अधिकांशतः सरकारी नियंत्रण में रहा. सरकारें बिजली दरें तय करने की राजनीति छोडऩा नहीं चाहती थींइसलिए बिजली क्षेत्र में नियामक खुलकर काम नहीं कर सके. दूसरी तरफ बिजली उत्पादन में निजी निवेश के बावजूद सरकार ने कोयला खनन अपने नियंत्रण में रखा. इन अजीब असंगतियों के चलते भारत का ऊर्जा क्षेत्र विवादोंघोटालों और घाटों का पुलिंदा बन गया. 1990 में बिजली बोर्ड घाटे में थे और राज्यों के बिजली वितरण निगम आज भी घाटे में हैंजिन्हें पिछले 25 साल में तीन पैकेज मिल चुके हैं. तीसरा पैकेज उदय हैजो मोदी सरकार लेकर आई है. बिजली का उत्पादन व आपूर्ति बढ़ी है लेकिन कोयला व बिजली वितरण के क्षेत्र में अधूरे सुधारों के कारण असंगतियां और ज्यादा बढ़ गई हैं.
दूरसंचार सुधारों का किस्सा भी जानना जरूरी हैजो लगभग हर दूसरे साल किसी नीतिगत बदलाव के बावजूद आज तक नतीजे पर नहीं पहुंच सके. 1993 में मोबाइल सेवा की शुरुआत से लेकर, 1995 में कंपनियों को लाइसेंस फीस से माफीटीआरएआइ का गठनसीडीएमए सेवा, 2जी लाइसेंसविदेशी निवेश का उदारीकरण, 3जी सेवा, 2जी घोटालानए स्पेक्ट्रम आवंटन और 4जी तक दूरसंचार सुधारों का इतिहास रोमांच से भरा हुआ है.
इस उदारीकरण का मकसद बाजार में पर्याप्त प्रतिस्पर्धा लाना और उपभोक्ताओं को आधुनिक व सस्ती सेवा देना था लेकिन दूरसंचार सुधारों को सही क्रम नहीं दिया जा सका. सुधारों के अधूरेपन व तदर्थवाद का नतीजा है कि स्पेक्ट्रम घोटालों के बावजूद सरकारें पारदर्शी स्पेक्ट्रम आवंटन नीति नहीं बना सकीं. टीआरएआइ एक सफल व पारदर्शी नियामक बनने में असफल रहाइसलिए 2जी से 4जी तक आते-आते बाजार में प्रतिस्पर्धा (ऑपरेटरों की संक्चया घटी) सीमित रह गई. सेवा की गुणवत्ता बिगड़ी है और सेवा दरें महंगी हो गई हैं.
खुदरा कारोबार के उदारीकरण को चौथे उदाहरण के तौर पर ले सकते हैं जिसकी शुरुआत 1997 में कैश ऐंड कैरी में शत प्रतिशत विदेशी निवेश के साथ हुई थी. 2000 के दशक में सिंगल ब्रांड रिटेल में 100 फीसदी और मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी एफडीआइ खोला गया लेकिन सियासी ऊहापोह के कारण सुधार पूरी तरह लागू नहीं हो सके. इस बीच सरकार ने हाल में ही ई-कॉमर्स और फूड रिटेल में शत प्रतिशत विदेशी निवेश खोल दिया. कागजों पर पूरा रिटेल क्षेत्र विदेशी निवेश के लिए खुला हैलेकिन प्रक्रियागत उलझनों व राजनैतिक असमंजस के चलते निवेश नदारद है.
अधूरेअनगढ़ और असंगत सुधारों के कारणन चाहते हुए भी भारत में ऐसी अर्थव्यवस्था बन गई है जिसमें खुलेपन के फायदे चुनिंदा हाथों तक सीमित हैं और बाजार का स्वस्थ और समानतावादी विस्तार कहीं पीछे छूट गया. इस खुले बाजार में अवसर बांटने वाली ताकत के तौर पर सरकार आज भी मौजूद है जबकि अवसर लेने की होड़ में लगी कंपनियां कार्टेलनेताओं से गठजोड़ और भ्रष्टाचार से इस उदारीकरण को आए दिन दागी करती हैं.

ब्रिटिश कवि जॉन कीट्स कहते थे कि अच्छी शुरुआत से आधा काम खत्म नहीं होता. दरअसल जब तक आधा रास्ता न मिल जाए तक अच्छी शुरुआत का दावा ही नहीं करना चाहिए. आर्थिक सुधारों ने भारत को बड़ी नेमतें बख्शी हैं लेकिन सुधारों के तलवे में अधूरेपन का एक बड़ा कांटा चुभा है जो एक स्वस्थ देश को हमेशा लंगड़ा कर चलने पर मजबूर करता है. काश हम यह कांटा निकाल सकते!   

Tuesday, November 17, 2015

जीत की हार


मोदी की राजनैतिक वापसी का रास्ता साहसी और सुधारक गवर्नेंस के उसी दरवाजे से निकलेगा जहां से मोदी ने केंद्रीय राजनीति के मंच पर कदम रखा था.
भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने 2014 के जनादेश की क्या सही व्याख्या की है या इसे इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि क्या उन्होंने कोई व्याख्या की भी है या नहीं? बिहार के जनादेश की रोशनी में यह सवाल अटपटा जरूर है लेकिन इसके जवाब में ही बिहार में बीजेपी की जबरदस्त हार का मर्म छिपा है, क्योंकि यदि खुद नरेंद्र मोदी ने 2014 के जनादेश को उसकी चेतना और संभावना में पूरी तरह नहीं समझा तो यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि बीजेपी दिल्ली के जनादेश का संदेश भी नहीं पढ़ पाई और बिहार के संदेश को समझने में भी गफलत ही होगी.
राजनैतिक दल और विश्लेषक चुनाव नतीजों के सबसे बड़े पारंपरिक ग्राहक होते हैं, क्योंकि उनके दैनिक संवादों और रणनीतियों की बुनियाद राजनैतिक संदेशों पर निर्भर होती है. बिहार के नतीजों को भी बीजेपी के कमजोर होने और नीतीश के गैर-बीजेपी राजनीति की धुरी बनने के तौर पर पढ़ा गया है. ठीक इसी तरह 2014 का जनादेश दक्षिणपंथी पार्टी के पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आने या प्रेसिडेंशियल चुनाव की तर्ज पर मोदी के प्रचार की सफलता के तौर पर देखा गया था. अलबत्ता 2014 में चुनावी राजनीति की मुख्यधारा में दो नए वर्ग जोश, उत्सुकता और उम्मीद के साथ सक्रिय हुए थे. एक थे ग्लोबल निवेशक और उद्यमी, जिनके लिए भारत एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है और जिन्हें सुधारों के बीस साल बाद भारत में आर्थिक बदलावों की अगली पीढ़ी का इंतजार है. दूसरे हैं, युवा और शिक्षित प्रौढ़ जिनके लिए राजनीति का मतलब दरअसल गवर्नेंस है. इन दो वर्गों के लिए मोदी सरकार का मतलब ठीक वैसा नहीं था जैसा कि इससे पहले होने वाले चुनावों में रहा है.
नरेंद्र मोदी के पक्ष में 2014 के जनादेश के तीन मतलब थे जो शायद इससे पहले कभी किसी भी जनादेश को लेकर इतने स्पष्ट नहीं रहे. सरकार के सोलह माह बीतने और दिल्ली व बिहार के नतीजों के बाद उन मायनों को समझना जरूरी हो गया है जिनके कारण 2014 के एक साल के भीतर ही दो बड़े चुनावों में बीजेपी को दो टूक इनकार झेलना पड़ा है.
पहलाः केंद्रीय राजनीति के फलक से लगभग अनुपस्थित रहे नरेंद्र मोदी इस चुनाव में नेता नहीं बल्कि सीईओ की तरह सामने आए थे. चुनाव के दौरान मोदी मिथकीय हो चले थे. लोग उन्हें दो टूक और बेबाक राजनेता मान रहे थे, जिसे दिल्ली छाप राजनीति की टकसाल में नहीं गढ़ा गया है और जिसे किसी तरह की बेसिर-पैर बातों से नफरत है. अलबत्ता मोदी के सत्ता में आने के कुछ ही माह के भीतर यह दिखने लगा कि उनके साध्वी, योगी, साक्षी कुछ भी बोल सकते हैं, कितनी भी घृणा उगल सकते हैं. नरेंद्र मोदी की बेबाक, गंभीर और ताकतवर नेता होने की छवि को सबसे ज्यादा नुक्सान इन बयानबहादुरों ने पहुंचाया और इनके बयानों के बदले मोदी के मौन ने उन्हें  या तो कमजोर नेता साबित किया या फिर साजिश कथाओं को मजबूत किया.
दूसराः बाजार, रोजगार और निवेश के लिए मोदी मुक्त बाजार के मसीहा बनकर उभरे जो उस गुजरात की जमीन से उठा है जहां निजी उद्यमिता की दंत कथाएं हैं. उनसे बड़े निजीकरण, ग्लोबल मुक्त बाजार का नेतृत्व, क्रांतिकारी सुधारों की अपेक्षा थी, क्योंकि भारत के पिछले दो दशक के रोजगार और ग्रोथ निजी निवेश से निकले हैं, सरकारी स्कीमबाजी से नहीं. मोदी सरकार ने पिछले सोलह माह में कांग्रेस की तरह स्कीमों की झड़ी लगा दी, नई सरकारी कंपनियां पैदा कीं और मुक्त बाजार की सभी कोशिशों को चलता कर दिया. मोदी का यह चेहरा एक आर्थिक उदारवादी की उम्मीदों के लिए बिल्कुल नया है.
तीसराः मोदी की जीत भ्रष्टाचार, पुरानी तर्ज की गवर्नेंस और हर तरह की अपारदर्शिता की हार थी. इसलिए ये अपेक्षाएं जायज थीं कि मोदी सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता बहाल करेंगे. वे जटिल सरकारी भ्रष्टाचार और कंपनी-नेता गठजोड़ों के खिलाफ ठीक उसी तरह का अभियान शुरू करेंगे जैसा चीन में शी जिनपिंग कर रहे हैं. चुनाव सुधार, राजनैतिक दलों में पारदर्शिता, विजिलेंस, लोकपाल जैसी तमाम उम्मीदें मोदी की जीत के साथ अंखुआ गईं थीं, क्योंकि मोदी दिल्ली की सियासत के पुराने खिलाड़ी नहीं थे. सोलह माह बाद ये अपेक्षाएं चोटिल पड़ी हैं और सियासत व सरकार हस्बेमामूल उसी ढर्रे पर है.
यदि आप दिल्ली व बिहार में बीजेपी की बदहाली को करीब से देखें तो आपको इन तीन कारणों की छाप मिल जाएगी. इन नतीजों में महज, क्षेत्रीय पार्टियों का स्वीकार नहीं बल्कि उक्वमीदों के शिखर पर बैठी मोदी सरकार का इनकार भी इसलिए छिपा है, क्योंकि मोदी ने खुद 2014 के जनादेश को नहीं समझा. जनता उन्हें एक ठोस सुधारक के तौर पर चुनकर लाई थी न कि ऐसे नेता के तौर पर जो राष्ट्रीय गवर्नेंस में बदलाव की अपेक्षाओं को स्थागित करते हुए राज्यों के चुनाव लडऩे निकल पड़े और राज्यों के जनादेशों के लिए अपनी साख को दांव पर लगा दे.
दरअसल, सत्ता में आने के बाद मोदी ने अलग तरह के राजनैतिक गवर्नेंस गढऩे की कोशिश की है जो 2014 की उम्मीदों के खिलाफ है. विकेंद्रित गवर्नेंस की अपेक्षाओं के बदले मोदी ने ऐसी गवर्नेंस बनाई जो मंत्रियों तक को स्वाधीनता नहीं देती. यह केंद्रीकरण सत्ता से संगठन तक आया और चुनावी राजनीति में ज्यादा मुखर हो गया, जब मोदी और अमित शाह अपनी ही पार्टी में उन राजनैतिक आकांक्षाओं को रौंदने लगे जो बीजेपी की बड़ी जीत के बाद राज्यों में अंखुआ रही थीं. चुनाव के नतीजे बताते हैं कि इन आकांक्षाओं की आह बीजेपी को ले डूबी है.

उम्मीद है कि बीजेपी और मोदी 2014 की तरह बिहार के जनादेश को पढऩे की गलती नहीं करेंगे जो केंद्रीकृत राजनैतिक गवर्नेंस के खिलाफ है जबकि यह उन सुधारों के हक में है जिनकी उम्मीद 2014 में संजोई गई थी. दिल्ली व बिहार हार कर मोदी बड़ी राजनैतिक पूंजी गंवा चुके हैं. अब उन्हें गवर्नेंस और आर्थिक पूंजी पर ध्यान देना होगा. उनकी राजनैतिक वापसी का रास्ता साहसी और सुधारक गवर्नेंस के उसी दरवाजे से निकलेगा जहां से मोदी ने केंद्रीय राजनीति के मंच पर कदम रखा था.

Saturday, September 19, 2015

कमजोरी में बदलती ताकत


बीजेपी व उनके सहयोगी दलों की सरकारों ने विकास को तो छोड़िएविकास के सकारात्मक संवादों को भी ध्वस्त करना शुरू कर दिया है.


बीजेपी शासित राज्यों का मुख्यमंत्री होने के अलावा आनंदीबेन पटेल, देवेंद्र फड़ऩवीस, मनोहर लाल खट्टर, वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह के बीच एक और बड़ी समानता है. ये सभी मिलकर गुड गवर्नेंस और प्रगतिगामी राजनीति की उस चर्चा को पटरी से उतारने में अब सक्रिय भूमिका निभाने लगे हैं जो मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद शुरू हुई थी. दरअसल, राज्यों को नई गवर्नेंस का सूत्रधार होना चाहिए था, वे अचानक मोदी मॉडल की सबसे कमजोर कड़ी बन रहे हैं.
कांग्रेस अपने दस साल के ताजा शासन में राज्यों से जिस समन्वय के लिए बुरी तरह तरसती रही, वह बीजेपी को यूं ही मिल गया. दशकों बाद पहली बार ऐसा हुआ, जब 11 राज्यों  में उस गठबंधन की सरकार हैं जो केंद्र में बहुमत के साथ सरकार चला रहा है. बात केवल राजनैतिक समन्वय की ही नहीं है, विकास की संभावनाओं के पैमाने पर भी मोदी के पास शायद सबसे अच्छी टीम है.
राज्यों में विकास के पिछले आंकड़ों और मौजूदा सुविधाओं को आधार बनाते हुए मैकेंजी ने अपने एक अध्ययन में राज्यों की विकास की क्षमताओं को आंका है. देश के 12 राज्य  (दिल्ली, चंडीगढ़, गोआ, पुदुचेरी, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, केरल, पंजाब, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उतराखंड) देश का 50 फीसदी जीडीपी संभालते हैं, जिनमें देश के 58 फीसदी उपभोक्ता बसते हैं. इन 12 राज्यों में पांच में बीजेपी और सहयोगी दलों की सरकार देश का लगभग 25 फीसद जीडीपी संभाल रही हैं. तेज संभावनाओं के अगले पायदान पर आने वाले सात राज्यों (आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर, बंगाल, ओडिसा) को शामिल कर लिया जाए तो 19 में नौ बड़े राज्य और देश का लगभग 40 फीसद जीडीपी बीजेपी व उसके सहयोगी दलों की सरकार के हवाले है. मैकेंजी ने आगे जाकर 40 फीसदी जीडीपी संभालने वाले 65 शहरी जिलों को भी पहचाना है. इनमें भी एक बड़ी संख्या बीजेपी के नियंत्रण वाली स्थानीय सरकारों की है.
आदर्श स्थिति में यह विकास की सबसे अच्छी बिसात होनी चाहिए थी. कम से कम इन राज्यों, उद्योग क्लस्टर और शहरी जिलों के सहारे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी अभियान जमीन पर उतरने चाहिए थे, लेकिन पिछले 15 महीनों में इन राज्यों गुड गवर्नेंस के एजेंडे को भटकाने में कोई कमी नहीं छोड़ी. मध्य प्रदेश में हर कुर्सी के नीचे घोटाला निकलता है. महाराष्ट्र सरकार ने घोटालों से शुरुआत की और प्रतिबंधों को गवर्नेंस बना लिया. हरियाणा में विकास की चर्चाएं पाबंदियों और स्कूलों में गीता पढ़ाने जैसी उपलब्धियों में बदल गई हैं. दिलचस्प है कि राज्यों ने भले ही केंद्र की नई शुरुआतों को तवज्जो न दी हो लेकिन बड़े प्रचार अभियानों में केंद्र के मॉडल को अपनाने में देरी नहीं की.
उद्योगपतियों के साथ प्रधानमंत्री की ताजा बैठक में यह बात उभरी कि कारोबार को सहज करने के अभियान राज्यों की दहलीज पर दम तोड़ रहे हैं. औद्योगिक व कारोबारी मंजूरियों को आसान व एकमुश्त बनाने का अभियान पिछड़ गया है. वित्त मंत्री अरुण जेटली को कहना पड़ा कि कारोबार को सहज बनाना एक हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है जबकि मेक इन इंडिया की शुरुआत करते समय सरकार ने सभी मंजूरियों को एकमुश्त करने के लिए एक साल का समय रखा था. केंद्र सरकार के अधिकारी अब इसके लिए कम से कम तीन साल का समय मांग रहे हैं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि औरों को तो छोड़िए, बीजेपी शासित राज्यों ने भी इस अभियान को भाव नहीं दिया.
मेक इन इंडिया ही नहीं, मंडी कानून बदलने को लेकर बीजेपी के अपने ही राज्यों ने केंद्र की नहीं सुनी. डिजिटल इंडिया पर राज्य ठंडे हैं. आदर्श ग्राम और स्वच्छता मिशन जैसे अभियानों में कैमरा परस्ती छवियों के अलावा राज्यों की सक्रियता नहीं है. प्रशासनिक सुधार, राज्य के उपक्रमों का विनिवेश और पारदर्शिता बढ़ाने वाले फैसलों की बजाए राज्यों ने सरकारी नियंत्रण बढ़ाने और लोकलुभावन स्कीमों के मॉडल चुने हैं जो निवेशकों और युवा आबादी की उम्मीदों से कम मेल खाते हैं.  
मोदी सरकार ने इस साल के बजट के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, नगर विकास जैसी सामाजिक सेवाओं की जिम्मेदारी पूरी तरह राज्यों को सौंप दी और केंद्र को केवल संसाधन आवंटन तक सीमित कर लिया. इसका नतीजा है कि 15 महीने में शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में सबसे बड़ा शून्य दिख रहा है. सामाजिक सेवाओं में केंद्र परोक्ष भूमिका निभाना चाहता है जबकि राज्यों के पास संसाधनों की नहीं बल्कि नीतिगत क्षमताओं की कमी है. इसलिए शिक्षा, सेहत, ग्रामीण विकास में क्षमताओं का विकास और विस्तार पिछड़ गया है. बीजेपी के नेता भी मान रहे हैं कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जरूरतों को पूरी तरह राज्यों पर छोडऩे के राजनैतिक नुक्सान होने वाले हैं.
मोदी के सत्ता में आने से पहले और बाद में बनी राज्य सरकारें अपेक्षाओं की कसौटी पर कमजोर पड़ रही हैं, जबकि कुछ बड़े राज्य या तो केंद्र से रिश्तों में हाशिए पर हैं या फिर चुनाव की तैयारी शुरू कर रहे हैं. पूरे देश में करीब दस प्रमुख राज्य ऐसे हैं जिनकी सरकारों के पास समय, संसाधन और संभावनाएं मौजूद हैं और इनमें अधिकांश बीजेपी व उनके सहयोगी दलों की हैं. इंडिया ब्रांड और अभियानों को नतीजों से सजाने का दारोमदार इन्हीं पर है लेकिन किस्म-किस्म के प्रतिबंधों और अहम फैसलों की दीवानी इन सरकारों ने विकास को तो छोड़िए, विकास के सकारात्मक संवादों को भी ध्वस्त करना शुरू कर दिया है.
चुनावी राजनीति का कोई अंत नहीं है. 2016 का चुनाव कार्यक्रम इस साल से ज्यादा बड़ा है. प्रधानमंत्री को चुनावी राजनीति से अलग अपनी गवर्नेंस के मॉडल को नए  सिरे से फिट करना होगा और राज्यों को बड़ी व ठोस योजनाओं से बांधना होगा नहीं तो बिहार चुनाव का नतीजा चाहे जो हो, लेकिन अगर राज्य सरकारें चूकीं तो निवेश, विकास और रोजगार की रणनीतियां बुरी तरह उलटी पड़ जाएंगी.

Monday, May 18, 2015

रिटेल का शेर


यह केवल बीजेपी की रुढ़िवादी जिद थी जिसके चलते देश के विशाल खुदरा बाजार को आधुनिकता की रोशनी नहीं मिल सकीजो बुनियादी ढांचेखेतीरोजगार से लेकर उपभोक्ताओं तक को फायदा पहुंचा सकती है.
बीजेपी क्या भारतीय बाजार के सबसे बड़े उदारीकरण को रोकने की जिद छोड़ रही है? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुदरा कारोबार के शेर को जगाने की हिम्मत जुटा चुके हैं, जो 125 करोड़ उपभोक्ताओं व 600 अरब डॉलर के कारोबार की ताकत से लैस है और जहां विदेशी व निजी निवेश के बाद पूरी अर्थव्यवस्था में बहुआयामी ग्रोथ का इंजन चालू हो सकता है. अगर खुदरा कारोबार में 51 फीसदी विदेशी निवेश के फैसले पर नई सरकार की सहमति और बीजेपी व उसके सहयोगी दलों के राज्यों की मंजूरी दिखावा नहीं है तो फिर इसे मोदी सरकार की पहली वर्षगांठ का सबसे साहसी तोहफा माना जाना चाहिए.
यह केवल बीजेपी की रुढ़िवादी जिद थी जिसके चलते देश के विशाल खुदरा बाजार को आधुनिकता की रोशनी नहीं मिल सकी, जो बुनियादी ढांचे, खेती, रोजगार से लेकर उपभोक्ताओं तक को फायदा पहुंचा सकती है. रिटेल का उदारीकरण होकर भी नहीं हो सका. पिछली सरकार ने सितंबर 2012 में मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी विदेशी निवेश खोल तो दिया लेकिन बीजेपी के जबरदस्त विरोध के बाद, निवेशकों को इजाजत देने का विकल्प राज्यों पर छोड़ दिया गया था. सियासत इस कदर हो चुकी थी कि किसी राज्य ने आगे बढ़ने की हिम्मत ही नहीं दिखाई.
खुदरा कारोबार में एफडीआइ पर सरकार का यू-टर्न ताजा है क्योंकि इसी अप्रैल में, वाणिज्य व उद्योग मंत्री निर्मला सीतारमन ने लोकसभा को बताया था कि मल्टी ब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश की नीति पर अमल पर कोई फैसला नहीं हुआ है. यह पहलू बदल शायद भूमि अधिग्रहण पर मिली नसीहतों से उपजा है. मोदी स्वीकार कर रहे हैं कि विपक्ष में रहते एक सख्त भूमि अधिग्रहण कानून की वकालत, बीजेपी की गलती थी. ठीक ऐसी ही गलती रिटेल में एफडीआइ के विरोध के जरिए हुई थी जिसे अब ठीक करने का वक्त है.
खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की सीमा 51 फीसदी करने का निर्णय ठीक उन्हीं चुनौतियों की देन था जिनसे अब मोदी सरकार मुकाबिल है. मंदी व बेकारी से परेशान यूपीए सरकार खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश लाना चाहती थी ताकि ग्रोथ का जरिया खुल सके. यह एक क्रांतिकारी उदारीकरण था. इसलिए ग्लोबल छवि भी चमकने वाली थी. मोदी सरकार पिछले एक साल में रोजगारों की एकमुश्त आपूर्ति बढ़ाने या बड़े सुधारों का कौल नहीं दिखा सकी. अलबत्ता अब मौका सामने है. उद्योग मंत्रालय के ताजा दस्तावेज के मुताबिक बीजेपी, उसके सहयोगी दलों व कांग्रेस को मिलाकर राजस्थान, महाराष्ट्र कर्नाटक, आंध्र प्रदेश समेत 12 राज्य खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियों को प्रवेश देने पर राजी हैं. समर्थन की ऐसी स्थिति पहले कभी नहीं बनी थी. यह विदेशी रिटेल कंपनियों को बुलाने का साहस दिखाने का सबसे अच्छा अवसर है.
भारत की उपभोग खपत ही अर्थव्यवस्था का इंजन है जिसके बूते 2004 से 2009 के बीच सबसे तेज ग्रोथ आई थी. रिटेल बाजार के पीछे खेती है, बीच में उद्योग हैं और आगे उपभोक्ता. उपभोग खर्च ही मांग, रोजगार, आय में बढ़त, खर्च व खपत का चक्र तैयार करता है, जो रिटेल की बुनियाद है. रिटेल भारत में रोजगारों का तीसरा सबसे बड़ा स्रोत है जिसमें चार करोड़ लोग लगे हैं. स्किल डेवलपमेंट मंत्रालय मानता है कि 2022 तक इस क्षेत्र में करीब 5.5 करोड़ लोगों को रोजगार मिलेगा. यह आकलन इस क्षेत्र में विदेशी निवेश से आने वाली ग्रोथ की संभावना पर आधारित नहीं है. बोस्टन कंसल्टिंग की ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत का खुदरा कारोबार 2020 तक एक खरब डॉलर का हो जाएगा, जो आज 600 अरब डॉलर पर है. खुदरा कारोबार का आधुनिकीकरण, नौकरियों का सबसे बड़ा जरिया हो सकता क्योंकि सप्लाई चेन से लेकर स्टोर तक संगठित रिटेल में सबसे ज्यादा रोजगार बनते हैं. पारंपरिक रिटेल में विदेशी निवेश पर असमंजस के बीच ई-रिटेल के कारण असंगतियां बढ़ रही हैं. ई-रिटेल में टैक्स, निवेश, गुणवत्ता, पारदर्शिता के सवाल तो अपनी जगह हैं ही. इससे डिलीवरी मैन से ज्यादा बेहतर रोजगार भी नहीं निकले हैं.

 रिटेल में नया निवेश, कंस्ट्रक्शन की मांग को वापस लौटा सकता है जो इस समय गहरी मंदी में है और खेती के बाद रोजगारों और मांग का दूसरा बड़ा जरिया है. रिटेल उपभोक्ता उत्पाद उद्योगों के लिए नया बाजार और दसियों तरह की सेवाएं लेकर आता है जो कि मेक इन इंडिया का हिस्सा है. रिटेल का 60 फीसदी हिस्सा खाद्य व ग्रॉसरी का है जो कि प्रत्यक्ष रूप से खेती से जुड़ता है. आधुनिक रिटेल, किसानों और लघु उद्योगों के लिए एक बड़ा बाजार होगा.
 रिटेल को लेकर कुछ नए तथ्य तस्दीक करते हैं कि सरकार इसके सहारे ग्रोथ के इंजन में ईंधन भर सकती है. जीडीपी की नई गणना के मुताबिक, आर्थिक ग्रोथ की रफ्तार पांच फीसदी से बढ़कर 7.5 फीसदी पहुंचने के पीछे विशाल थोक व खुदरा कारोबार की ग्रोथ है. इस कारोबार के समग्र आकार को जीडीपी गणना का पुराना आंकड़ा पकड़ नहीं पाता था. पुराने पैमाने के तहत थोक व रिटेल कारोबार का, जीडीपी में योगदान नापने के लिए एनएसएसओ के रोजगार सर्वे का इस्तेमाल होता था लेकिन नए फॉर्मूले में सेल टैक्स के आंकड़े को आधार बनाया गया तो पता चला कि थोक व खुदरा कारोबार न केवल अर्थव्यवस्था का 20 फीसदी है बल्कि इसके बढ़ने की रफ्तार जीडीपी की दोगुनी है.
   भूमि अधिग्रहण कानून में बदलावों के विरोध में राहुल-सोनिया के भाषणों को, खुदरा में विदेशी निवेश के खिलाफ अरुण जेटली के भाषण के साथ सुनना बेहतर होगा. इससे यह एहसास हो जाएगा कि भारत की राजनीति चुनाव से चुनाव तक का मौकापरस्त खेल है और कांग्रेस-बीजेपी नीतिगत दूरदर्शिता में बेहद दरिद्र हैं. अलबत्ता फैसले बदलना साहसी राजनीति का प्रमाण भी है. इसलिए प्रधानमंत्री अगर नई सोच का साहस दिखा रहे हैं तो उन्हें भूमि अधिग्रहण के साथ 125 करोड़ लोगों के विशाल खुदरा बाजार के उदारीकण की हिम्मत भी दिखानी चाहिए जो केवल बीजेपी की दकियानूसी सियासत के कारण आगे नहीं बढ़ सका. उनका यह साहस अर्थव्यवस्था की सूरत और सीरत, दोनों बदल सकता है.


Monday, April 8, 2013

अवसरों का अपहरण





लोकतंत्र का एक नया संस्‍करण देश को हताश कर रहा है जहां आर्थिक आजादी कुछ सैकड़ा कंपनियों पास बंधक है और राजनीतिक अवसर कुछ सौ परिवारों के पास

मुख्‍यमंत्री ग्रोथ के मॉडल बेच रहे हैं और देश की ग्रोथ का गर्त में है! रोटी, शिक्षा से लेकर सूचना तक, अधिकार बांटने की झड़ी लगी है लेकिन लोग राजपथ घेर लेते हैं! नरेंद्र मोदी के दिलचस्‍प दंभ और राहुल गांधी की दयनीय दार्शनिकता के बीच खड़ा देश अब एक ऐतिहासिक असमंजस में है। दरअसल, भारतीय लोकतंत्र का एक नया संस्‍करण देश को हताश कर रहा है जहां आर्थिक आजादी कुछ सैकड़ा कंपनियों पास बंधक है और राजनीतिक अवसर कुछ सैकडा परिवारों के पास। इस नायाब तंत्र के ताने बाने, सभी राजनीतिक दलों को आपस में जोडते हैं अर्थात इस हमाम के आइनों में, सबको सब कुछ दिखता है इसलिए राजनीतिक बहसें खोखली और प्रतीकात्‍मक होती जा रही हैं जबकि लोगों के क्षोभ ठोस होने लगे हैं।
यदि ग्रोथ की संख्‍यायें ही सफलता का मॉडल हैं तो गुजरात ही क्‍यों उडीसा, मध्‍य प्रदेश, छत्‍तीसगढ़, त्रिपुरा, उत्‍तराखंड, सिक्किम भी कामयाब हैं अलबत्‍ता राज्‍यों के आर्थिक आंकड़ों पर हमेशा से शक रहा है। राष्‍ट्रीय ग्रोथ की समग्र तस्‍वीर का राज्‍यों के विपरीत होना आंकड़ों में  संदेह को पुख्‍ता करता है। दरअसल हर राज्‍य में उद्यमिता कुंठित है, निवेश सीमित है, तरक्‍की के अवसर घटे हैं, रोजगार नदारद है और लोग निराश हैं। ग्रोथ के आंकड़े अगर ठीक भी हों तो भी यह सच सामने नहीं आता कि भारत का आर्थिक लोकतंत्र लगभग विकलांग हो गया है। 
उदारीकरण से सबको समान अवसर मिलने थे लेकिन पिछले एक दशक की प्रगति चार-पांच सौ कंपनियों की ग्रोथ में

Monday, February 11, 2013

नए समाज का पुराना बजट


स पर मायूस हुआ जा सकता है कि भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को पिछले एक दशक के सबसे बुरे वक्‍त में जो बजट मिलने जा रहा है वह संसद से निकलते ही चुनाव के मेले में खो जाएगा। वैसे तो भारत के सभी बजट सियासत के नक्‍कारखानों में बनते हैं इसलिए यह बजट भी लीक पीटने को आजाद है। अलबत्‍ता पिछले बीस साल में यह पहला मौका है जब वित्‍त मंत्री के पास  लीक तोड कर बजट को अनोखा बनाने की गुंजायश भी मौजूद है जो लोग सडकों पर उतर कर कानून बनवा या बदलवा रहे हैंवही लोग बजटों के पुराने आर्थिक दर्शन पर भी झुंझला रहे हैं। बीस साल पुराने आर्थिक सुधारों में सुधार की बेचैनी सफ दिखती है  क्‍यों कि बजट बदलते वक्‍त से पिछड़ गए हैं। बजट, लोकतंत्र का सबसे महतत्‍वपूर्ण आर्थिक राजनीतिक आयोजन है और संयोग से इसका रसायन बदलने के लिए मांगमूड और मौका तीनों ही मौजूद हैं।  
बजटों में बदलाव का पहला संदेशा नई आबादी से आया है। भारत एक दशक में शहरों का देश हो जाएगा। बजट, इस जनसांख्यिकीय सचाई से कट गए हैं। 2001 से 2011 के बीच नगरीय आबादी करीब 31 फीसदी की गति से बढी जो गांवों का तीन

Monday, April 23, 2012

इक्‍यानवे का प्रेत

शवंत सिन्‍हा देश को बता रहे हैं कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार खाली है। सोना गिरवी रखा जाएगा। विदेशी मुद्रा कोष (आईएमएफ) से कर्ज लिया जा रहा है। रुपया बुरी तरह गिरा है। ... वह युवा निवेशक पसीने लथपथ होकर जाग गया ! कितना बुरा सपना था ! 1991 वाला। अचानक उसे याद आया कि उसने कल ही तो रिजर्व बैंक के ताजे आंकडे पलटे थे और यह भी पढ़ा था कि गवर्नर सुब्‍बाराव 1991 के दुर्दिन की याद कर रहे हैं। विदेशी मुद्रा भंडार का तेजी से गिरना, व्‍यापार घाटे (आयात निर्यात का अंतर) में अभूतपूर्व उछाल, रुपये पर दबाव, छोटी अवधि के विदेशी कर्जों का विस्‍फोटक स्‍तर और साथ में ऊंचा राजकोषीय घाटा यानी कि जुड़वा घाटों की विपत्ति। तकरीबन ऐसा ही तो था 1991। बस अंतर सिर्फ यह है कि तब भारत ग्‍यारह लाख करोड़ की (जीडीपी) अर्थव्‍यवस्‍था था और जो आज 50 लाख करोड़ की है। अर्थव्‍यवस्‍था बड़ी होने से संकट छोटा नहीं हो जाता इसलिए विदेशी मुद्रा बाजार से लेकर बैंकों के गलियारों तक खौफ की ठंडी लहरें दौड़ रही हैं। मगर दिल्‍ली के राजनीतिक कानों पर रेंगने लिए शायद हाथी जैसी जूं चाहिए, इसलिए दिल्‍ली बेफिक्र ऊंघ रही है।
विस्‍फोटक आंकड़े
याददाश्‍त इतनी भी कमजोर नहीं होनी चाहिए कि संकट ही याद न रहे। अभी 21 साल पहले की ही बात है जब जून 1991 में विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डॉलर से भी कम रह गया यानी बस केवल तीन हफ्ते के आयात का जुगाड़ बचा था। रिजर्व बैंक ने विदेशी मुद्रा देना बंद कर दिया। निर्यातों को प्रतिस्‍पर्धात्‍मक बनाने के लिए तीन दिन में रुपये का 24 फीसदी अवमूल्‍यन हुआ। आईएमएफ से 2.2 अरब डॉलर का कर्ज लिया गया और 67 टन सोना बैंक ऑफ इंग्‍लैंड व यूनियन बैंक ऑफ सिवटजरलैंड के पास गिरवी रखकर 600 मिलियन डॉलर उठाये गए, तब आफत टली। ... यह खौफनाक अतीत जिस परिस्थिति से निकला था आज के आंकड़े उससे जयादा खराब

Monday, March 19, 2012

बजट नहीं संकट

रकारें दुर्भाग्‍य भी ला सकतीं  हैं। सियासत अभिशाप भी बन सकती है और बजट संकटों की शुरुआत भी कर सकते हैं। अब से छह माह बाद जब देश में महंगाई की दर दहाई को छू रही होगी, ग्रोथ यानी आर्थिक विकास की दर अपनी एडि़यां रगड रही होगी और बजट का संतुलन बिखर चुका होगा तब हमें यह समझ में आएगा बजट कितने बदकिस्‍मत होते हैं। उम्‍मीदें टूटने का गम भूल कर बस यह देखिये कि सरकार कितनी जल्‍दी इस बजट के बुरे असर कम करने के लिए मोर्चे पर लगती है। यह हाल के वर्षों का पहला बजट होगा, जिससे मुसीबतों के समाधान की नहीं बलिक समस्‍याओं के नए दौर की शुरुआत होती दिख रही है। लड़खड़ाती अर्थव्‍यवस्‍था, थके उपभोक्‍ता और ह‍ताश निवेशक बजट से बेहद तर्कसंगत सुधार (रियायतें नहीं) चाहते थे तब प्रणव के बजट ने उपभोक्‍ताओं की कमर और ग्रोथ की टांगे तोड़ दी हैं। सियासत और सरकार दोनों ने मिलकर अब अर्थव्‍यव्‍स्‍था को अंधी गली में धके‍ल दिया है,  जहां से बाहर आने में कम से कम तीन वर्ष लगेंगे।
भयानक मार
आप जिंदा मक्‍खी निगल सकते हैं मगर जिंदा मेढक नहीं। 45000 करोड़ रुपये के नए अप्रत्‍यक्ष करों (पिछले एक दशक में सर्वाधिक) के बाद महंगाई नहीं तो और क्‍या बढेगा। टैक्‍स बुरे नहीं हैं क्‍यों कि इनसे देश चलता है मगर जब ग्रोथ डूब रही तो सर पर टैक्‍स का बोझ रख देना पता नहीं कहां की समझदारी है। समझना मुश्किल है कि वितत मंत्री इस कदर टैक्‍स बढाकर आखिर हासिल क्‍या