Monday, April 23, 2012

इक्‍यानवे का प्रेत

शवंत सिन्‍हा देश को बता रहे हैं कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार खाली है। सोना गिरवी रखा जाएगा। विदेशी मुद्रा कोष (आईएमएफ) से कर्ज लिया जा रहा है। रुपया बुरी तरह गिरा है। ... वह युवा निवेशक पसीने लथपथ होकर जाग गया ! कितना बुरा सपना था ! 1991 वाला। अचानक उसे याद आया कि उसने कल ही तो रिजर्व बैंक के ताजे आंकडे पलटे थे और यह भी पढ़ा था कि गवर्नर सुब्‍बाराव 1991 के दुर्दिन की याद कर रहे हैं। विदेशी मुद्रा भंडार का तेजी से गिरना, व्‍यापार घाटे (आयात निर्यात का अंतर) में अभूतपूर्व उछाल, रुपये पर दबाव, छोटी अवधि के विदेशी कर्जों का विस्‍फोटक स्‍तर और साथ में ऊंचा राजकोषीय घाटा यानी कि जुड़वा घाटों की विपत्ति। तकरीबन ऐसा ही तो था 1991। बस अंतर सिर्फ यह है कि तब भारत ग्‍यारह लाख करोड़ की (जीडीपी) अर्थव्‍यवस्‍था था और जो आज 50 लाख करोड़ की है। अर्थव्‍यवस्‍था बड़ी होने से संकट छोटा नहीं हो जाता इसलिए विदेशी मुद्रा बाजार से लेकर बैंकों के गलियारों तक खौफ की ठंडी लहरें दौड़ रही हैं। मगर दिल्‍ली के राजनीतिक कानों पर रेंगने लिए शायद हाथी जैसी जूं चाहिए, इसलिए दिल्‍ली बेफिक्र ऊंघ रही है।
विस्‍फोटक आंकड़े
याददाश्‍त इतनी भी कमजोर नहीं होनी चाहिए कि संकट ही याद न रहे। अभी 21 साल पहले की ही बात है जब जून 1991 में विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डॉलर से भी कम रह गया यानी बस केवल तीन हफ्ते के आयात का जुगाड़ बचा था। रिजर्व बैंक ने विदेशी मुद्रा देना बंद कर दिया। निर्यातों को प्रतिस्‍पर्धात्‍मक बनाने के लिए तीन दिन में रुपये का 24 फीसदी अवमूल्‍यन हुआ। आईएमएफ से 2.2 अरब डॉलर का कर्ज लिया गया और 67 टन सोना बैंक ऑफ इंग्‍लैंड व यूनियन बैंक ऑफ सिवटजरलैंड के पास गिरवी रखकर 600 मिलियन डॉलर उठाये गए, तब आफत टली। ... यह खौफनाक अतीत जिस परिस्थिति से निकला था आज के आंकड़े उससे जयादा खराब
हैं। रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि भारत का भुगतान संतुलन (विदेशी देनदारियों और विदेशी पंजी की आवक के बीच का अंतर) पिछले तीन साल में पहली बार घाटे में आया है यानी कि भारत के विदेशी मुद्रा खजाने में पैसा कम है और देनदारियां ज्‍यादा। अक्‍टूबर से दिसंबर के दौरान घाटा 12.8 अरब डॉलर रहा जबकि इससे पहले तिमही में यह सरप्‍लस में था। चालू खाते का घाटा (करेंट अकाउंट डेफशिट) सबसे अहम संकेत है जो कि व्‍यापार (उत्‍पाद व सेवाओं के आयात निर्यात) और निवेश आदि से विदेशी मुद्रा की आवक व निकासी में अंतर दिखाता है। चालू खाते का घाटा जीडीपी के अनुपात में चार प्रतिशत पर है जो कि 1991 से भी ऊंचा स्‍तर है। भारत के लिए इस खाते की लक्षमण रेखा तीन फीसद (जीडीपी के अनुपात में) पर है। दिसंबर की तिमाही में यह घाटा 20 अरब डॉलर पर पहुंच गया जो 2010 में 9.6 अरब डॉलर था। इस घाटे की पर्तों के भीतर 185 अरब डॉलर का रिकार्ड विदेश व्‍यापार घाटा है। साथ ही भारत में विदेशी पूंजी की आवक अक्‍टूबर-दिसंबर 2011 के दौरान 14 अरब डॉलर से आठ अरब डॉलर पर आ गई जबकि इस दौरान विदेशी मुद्रा की देश से निकासी बढ गई। इसलिए रिजर्व बैंक गवनर्र दुवुरी सुब्‍बाराव को यह कहना पड़ा भुगतान संतुलन की तस्‍वीर बेहद जटिल है। मगर 1991 को दोहराये जाने का खतरा नहीं है। सुब्‍बाराव ने इक्‍यानवे की याद करते हुए बहुत कुछ कह दिया है।
पलीतों का सिलसिला
कुछ मुसीबतों पेट्रोल की आग से ज्‍यादा ज्‍वलनशील होती हैं। भुगतान संतुलन के घाटे में आते ही एक जटिल दुष्‍चक्र शुरु हो जाता है इसलिए दुनिया अब भारत के विदेशी मुद्रा भंडार से निकलने वाला एक एक डॉलर गिन रही है। केवल व्‍यापार घाटा ही नहीं बलिक विदेशी कर्ज भी तेजी से बढ़ा है। मार्च 2011 में विदेशी कर्ज और विदेशी मुद्रा भंडार का संतुलन ठीक था लेकिन दिसंबर में 88 फीसदी कर्ज चुकाने लायक विदेशी मुद्रा ही हमारे पास बची। मार्च से दिसंबर के बीच विदेशी मुद्रा भंडार औसतन तीन फीसदी घटा जबकि विदेशी कर्ज करीब नौ फीसदी बढ़ गया। विदेशी कर्ज में छोटी अवधि (एक साल से कम की देनदारी) का कर्ज 2008 के बाद सबसे ऊंचे स्‍तर (कुल कर्ज का 23 फीसदी) पर है। सबसे बड़़ा खतरा यह है कि 43 फीसदी विदेशी कर्ज अगले एक साल में देनदारी के लिए आने वाला है। विदेशी मुद्रा भंडार इस समय दो माह के सबसे निचले स्‍तर (293 अरब डॉलर) पर है, जो कि एक साल के आयात की लागत (2011 में कुल आयात 488 अरब डॉलर) से कम है। यानी अगर विदेशी पूंजी का प्रवाह नहीं बढ़ा तो देश विदेशी मुद्रा भंडार अगले एक साल में चुक जाएगा। यह हालत रुपये पर दबाव यानी तेज अवमूल्‍यन की तरफ इशारा कर रहे हैं। रिजर्व बैंक चाहे जो करे मगर अब बाजार में डॉलर छोड़कर वह रुपये में गिरावट को नहीं रोक सकता। कमजोर रुपये का मतलब विदेशी निवेश में और कमी, महंगा तेल आयात, ज्‍यादा महंगाई और मंदी। 1991 में यहीं खड़े थे।
 1991 जैसा और भी बहुत कुछ है तब खाड़ी युद्ध ने तेल की कीमतें उछाल दी थीं, जिससे भारत का विदेशी मुद्रा भंडार खाली हुआ था और महंगाई बढ़ी थी। अब भी ईरान से सीरिया तक खाड़ी तनाव से तप रही है और तेल कीमतें 111 डॉलर प्रति बैरल (फ्यूचर्स) पर पहुंच रही हैं और महंगाई पहले से मौजूद है। यह सही है कि भारत की अर्थव्‍यवस्‍था 1991 की तुलना में बहुत बड़ी है लेकिन हम ज्‍यादा खतरे में हैं क्‍यों कि हमारी आयात जरुरतें कई गुना ज्‍यादा बढ़ चुकी हैं। यकीनन भारत दुनिया से जुड़ चुका है लेकिन मगर ग्‍लोबल जुड़ाव संकट में भारी पडता है क्‍येां कि बाजार की प्रतिक्रियायें तूफानी होती हैं। दिल्‍ली की सियासत को इस बात का भान भी नहीं है कि अर्थव्‍यव्‍स्‍था अब एक टाइम बम पर बैठ गई है। किसी भी आर्थिक गणित को लगा लीजिये यह स्थिति अभूतपूर्व और बेहद खतरनाक है। एक तरफ ऊंचा राजकोषीय घाटा दूसरी तरफ और विदेशी मुद्रा खातों का घाटा , हम दोहरे घाटे की क्‍लासिक आफत में फंस गएहै। इस सूरते हाल से ऐसे बहुआयामी संकट निकलते हैं, जिनसे निबटने का हमारे पास कोई तजुर्बा नहीं है। इधर लुंज पुंज सरकार, सुधारों का मातम और नीतियों का सन्‍नाटा मिलकर आग को बारुद तक पहुंचाने के लिए बेताब है। क्‍या इतिहास यह लिखेगा कि भारत को संकट से निकाल कर सुधार देने वाले एक प्रधानमंत्री ने ही अंतत: देश को संकट में धंसा दिया? आंकड़े देखिये 2012 में आपको 1991 का प्रेत डोलता नजर आएगा।
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1 comment:

Bhanu said...

We are shocked to learn the statistics, completely amazed that we are at a stage beyond policy paralysis and the government is sleeping over it.