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Friday, December 18, 2020

बेदम हुए बीमार ...

 


इतिहास के किसी भी काल खंड में, किसी भी सरकार के मातहत यह कल्पना नहीं की गई होगी कि भारत में लोग 90 रुपए लीटर का पेट्रोल खरीदेंगे, जबकि कच्चे तेल कीमत मंदी के कुएं (प्रति बैरल 50 डॉलर से भी कम) में बैठी हो. भयानक मंदी और मांग के सूखे के बीच कंपनियां अगर कीमतें बढ़ाने लगें तो आर्थिक तर्क लड़खड़ा जाते हैं और अमेरिकी राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन याद आते हैं कि हमारा कुल इतिहास सरकारों की सूझबूझ का लेखा-जोखा है.

मंदी से दुनिया परेशान है लेकिन भारत के इतिहास की सबसे खौफनाक मंदी के नाखूनों में बढ़ती कीमतों का जहर भरा जा रहा है. आर्थिक उत्पादन के आंकड़े मांग की तबाही के सबूत हैं, बेकारी बढ़ रही है और वेतन घट रहे हैं फिर भी खुदरा महंगाई छह माह के सर्वोच्च स्तर पर है. यहां तक कि रिजर्व बैंक को कर्ज सस्ता करने की प्रक्रिया रोकनी पड़ी है.

आखिर कहां से आ रही है महंगाई?

कुछ अजीबोगरीब सुर्खियां! सीमेंट छह महीने में 7 फीसद (दक्षिण भारत में बढ़ोतरी 18 फीसद) महंगा हो चुका है. दो माह में मिल्क पाउडर (पैकेटबंद दूध का आधार का स्रोत) की कीमतें 20 फीसद बढ़ी हैं यानी दूध महंगा होगा. वोडाफोन आइडिया ने फोन दरों में 6 से 8 फीसद की बढ़ोतरी की है. अब अन्य कंपनियों की बारी है. 2020 में चौथी बार मोबाइल फोन सेट की कीमत बढ़ने वाली है. डीजल महंगा होने से ट्रकों के किराए 10-12 फीसद तक बढ़ चुके हैं.

बीते छह महीने में स्टील 30 फीसद, एल्युमिनियम 40 फीसद और तांबा 70 फीसद महंगा हुआ है. खाद्य महंगाई तो थी ही, बुनियादी धातुओं की कीमत और ट्रकों का भाड़ा बढ़ने के कारण फैक्ट्री महंगाई ने बढ़ना शुरू कर दिया है.

मांग की अभूतपूर्व कमी के बीच भी कीमतें इसलिए बढ़ रही हैं क्योंकि...

कंपनियों को अर्थव्यवस्था में ग्रोथ जल्दी लौटने की उम्मीद नहीं है. अब जो बिक रहा है उसे महंगा कर घाटे कम किए जा रहे हैं इसलिए कच्चे माल से लेकर उत्पाद और सेवाओं तक मूल्यवृद्धि का दुष्चक्र बन रहा है

आत्मनिर्भरता जब आएगी तब आएगी लेकिन असंख्य उत्पादों पर इंपोर्ट ड्यूटी बढ़ाकर और आयात में सख्ती से सरकार ने लागत बढ़ा दी है.

सरकार के लिए भी यह महंगाई ही अकेली उम्मीद है. जीएसटी के मासिक संग्रह में दिख रही बढ़ोतरी बिक्री नहीं, कीमतें बढ़ने से आई है क्योंकि अधिकांश उत्पादों पर मूल्यानुसार (एडवैलोरैम) टैक्स लगता है. अप्रैल से अक्तूबर के बीच सभी टैक्सों का संग्रह घटा है जो मांग और आय टूटने का सबूत है. बढ़त केवल पेट्रो उत्पाद पर लगने वाले टैक्स (40 फीसद) में हुई है.

इतनी महंगाई से सरकार का काम नहीं चलेगा. जीएसटी का घाटा पूरा करने के लिए जो कर्ज लिए गए हैं, उन्हें चुकाने के लिए राज्य स्तरीय टैक्स व बिजली-पानी की दरें बढ़ेंगी.

महंगाई खपत खत्म करती है. भारत का 55 फीसद जीडीपी आम लोगों की खपत से आता है जो वर्तमान मूल्यों पर करीब 153 लाख करोड़ रुपए है. क्रिसिल का आकलन है कि अगर खुदरा महंगाई एक फीसद बढ़े तो जीने की लागत 1.53 लाख करोड़ रुपए बढ़ जाती है.

महंगाई गरीबी की दोस्त है, बचत की दुश्मन है. खाद्य महंगाई एक फीसदी बढ़ने से खाने पर खर्च करीब 0.33 लाख करोड़ रुपए बढ़ जाता है. समझना मुश्किल नहीं कि बेरोजगारी और कमाई टूटने के बीच कम आय वाले लोग महंगाई से किस कदर गरीब हो रहे होंगे.

बचत पर भी हम कमा नहीं, गंवा रहे हैं क्योंकि बैंकों में एफडी (मियादी जमा) पर औसत ब्याज दर (4.5-5.5 फीसद) महंगाई दर से करीब दो से ढाई फीसद कम है. सनद रहे कि खुदरा महंगाई दर आठ फीसद के करीब है.

इस बेहद मुश्किल वक्त में जब सरकारें जिंदगी के दर्द कम करने की कोशिश करती हैं तब भारत यह साबित कर रहा है अगर इस समय कच्चे तेल की कीमत 70 डॉलर प्रति बैरल हो जाए तो मौजूदा टैक्स पर पेट्रोल 150 रुपए प्रति लीटर हो जाएगा.

1970 से पहले तक स्टैगफ्लेशन यानी मंदी और महंगाई की जोड़ी आर्थिक संकल्पनाओं से भी बाहर थी क्योंकि कीमतें मांग-आपूर्ति का नतीजा मानी जाती थीं. 1970 के दशक में राजनैतिक कारणों (इज्राएल को अमेरिका के समर्थन पर तेल उत्पादक देशों का बदला) से तेल की आग भड़कने के बाद पहली बार यह स्थापित हुआ कि अगर ईंधन महंगा हो जाए तो मंदी और महंगाई एक साथ भी आ सकती हैं. तब से आज तक स्टैगफ्लेशन की संभावनाओं में ईंधन की कीमत को जरूरी माना गया था. लेकिन भारत यह साबित कर रह रहा है, बेहद सस्ते कच्चे तेल और मजबूत रुपए (सस्ते आयात) के बावजूद भारी टैक्स और आर्थिक कुप्रबंध से मंदी के साथ महंगाई (स्टैगफ्लेशन) की मेजबानी जा सकती है.

पीठ मजबूत रखिए, महामंदी लंबी चलेगी क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था अब  खाद्य, ईंधन, फैक्ट्री और नीतिगत चारों तरह की महंगाई की मेजबानी कर रही है.

 

Saturday, February 8, 2020

दूर है वसंत



वही आदर्श मौसम
और मन में कुछ टूटता-सा :
अनुभव से जानता हूं कि यह वसंत है

वसंत की जगह बजट शब्द रख दें तो रघुवीर सहाय की इस क्षणिका का अर्थ नहीं बदलेगा. बजट, वसंत का सहोदर है सो उम्मीदें ज्यादा ही बौराती हैं, अलबत्ता कोई गारंटी नहीं कि हर बजट के बाद आर्थि परिवेश में वासंती टेसू-पलाश दहक उठें.
केंद्र सरकार के बजट इतने बड़े नहीं होते कि पलक झपकते ही आर्थिक माहौल बदल दें. लेकि वे आने वाले मौसम की खबर जरूर देते हैं. इस बजट की एक संख्या या एक आंकड़ा ऐसा है जिसे कायदे से समझने के बाद सबके दिमाग पर चढ़ा फागुन उतर गया है
वित्त मंत्री ने कहा है कि 2020-21 में भारत की विकास दर (जीडीपी) महंगाई को मिलाने के बाद 10 फीसद रहेगी. यानी जीडीपी की विकास दर 5 से 6 फीसद और महंगाई भी 5 से 6 फीसद.
इस बजट का यह आंकड़ा ही, इसका सब कुछ है. यही आकलन निवेश पर रिटर्न, बाजार में मांग और सरकार को मिलने वाले राजस्व की बुनियाद है. अब विदेशी निवेशकों से लेकर उद्योगपति, बैंकर तक सभी मंदी की लंबी सर्दी-गर्मी से बचने की तैयारी में जुट रहे हैं. आम लोगों यानी कामगारों, छोटे कारोबारियों, नौकरीपेशा और बेरोजगारों के लिए इस आंकड़े का मतलब तो कहीं ज्यादा गहरा और व्यापक है.
निवेश और मांग
केवल छह फीसद या महंगाई मिलाकर केवल दस फीसद विकास (लगातार तीसरे वर्ष 7 फीसद से कम की विकास दर) के बाद अब भारत के लिए 9-10 फीसद के विकास की मंजिल दूर हो गई है. दहाई के अंक में ग्रोथ तो अगले पांच साल तक नामुमकिन है
सरकार को मांग या निवेश में फिलहाल किसी तेज बढ़त की उम्मीद नहीं है. खबर हो कि मौजूदा वित्त वर्ष में निवेश 15 साल के न्यूनतम स्तर पर है. इसके बढ़ने में वक्त लगेगा
महंगाई और बचत
यह विकास दर (5 या 6 फीसद) व्यावहारिक तौर पर आने वाले महीनों में महंगाई की दर के लगभग बराबर होगी. या फिर महंगाई इससे ज्यादा होगी. खाद्य महंगाई बढ़ने लगी है और पुराने तजुर्बे बताते हैं कि ईंधन या मैन्युफैक्चरिंग की महंगाई इसका पीछा करती है. अब जबकि कंपनियों को मांग बढ़ने की उम्मीद कम है तो कीमतें बढ़ाकर नुक्सान की भरपाई होगी
बढ़ती महंगाई मांग को खाएगी और बचत पर रिटर्न को नकारात्मक बना देगी
कमाई और रोजगार
मरियल विकास दर की रोशनी में कंपनियों के मुनाफे दबाव में रहेंगे. यानी कि नए निवेश से रोजगार या आय (वेतन या मजदूरी) में उतनी भी बढ़ोतरी की उम्मीद नहीं जितनी की कीमतें बढ़ेंगी
जब सात फीसद विकास दर पर भारत में बेकारी की दर 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर थी तो आगे क्या होगा, यह समझा जा सकता है
सरकारों के राजस्व
दस फीसद (महंगाई सहित) विकास दर यानी बेहद कमजोर ग्रोथ की रोशनी में सरकारी राजस्व (केंद्र राज्य) के आकलन तितर-बितर हो जाएंगे जैसा कि 2019-20 में हुआ. ऐसे में सरकार अगले साल शायद उतना भी खर्च कर सके जितना इस साल हुआ है
अगर राजस्व संभालने के लिए जीएसटी बढ़ता है तो मंदी के करेले पर नीम चढ़ जाएगा
कर्ज और ब्याज 
कमजोर जीडीपी के साथ महंगाई बढ़ने और भारी सरकारी घाटों (केंद्र राज्य) का असर बाजार में ब्याज दरों (बाॅन्ड यील्ड) पर पड़ना तय है. रिजर्व बैंक ने इसलिए ही ब्याज दरों में कमी रोक दी है.
निवेश और शेयर बाजार
इतने कमजोर जीडीपी के बाद कंपनियों के मुनाफे किस गति से बढ़ेंगे? कुछ कंपनियां बेहतर रिटर्न दे सकती हैं लेकिन आमतौर पर कमाई में 9-10 फीसद की बढ़ोतरी के बाद उन कंपनियों में कौन निवेश करेगा जो तेज विकास की उम्मीद के चलते, जिनके शेयर दोगुनी ऊंची कीमत (मूल्य-आय अनुपात) पर मिल रहे हैं

2019-20 में विकास दर केवल पांच फीसद रही है. बजट से ठीक पहले सरकार ने पिछले वर्षों का जीडीपी का आकलन घटाया (2018-19 में 6.8 से 6.1 फीसद और 2017-18 में 7.17 से 7 फीसद) है. यानी कि भारत में मंदी की ढलान दो साल पहले शुरू हो चुकी थी.
सनद रहे कि गिरती ग्रोथ तेजी से नहीं लौटती. 2008 के संकट के बाद, बीते एक दशक में दुनिया (चीन भी) तेज ग्रोथ का मुंह नहीं देख सकी. बुढ़ाती जनसंख्या के बीच यह कमजोर विकास दर करीब एक-तिहाई आबादी की खपत में बढ़ोतरी को सीमित कर देगी. बुढ़ाती जनसंख्या के बीच यह जिद्दी मंदी भारत में अधिकांश आबादी के निम्न या मझोली आय के शिकंजे से निकलने की कोशिशों पर सबसे ज्यादा भारी पड़ने वाली है.

सरकार थक गई है. अधिकांश भारतीयों को यह वक्त बेहद संभल कर बिताना होगा. भारतीय अर्थव्यवस्था का वसंत और दूर खिसक गया है