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Friday, February 5, 2021

आखिरी रास्ता

 


सरकारी कंपनियों और संपत्ति‍यों की बिक्री पर गुस्साने से पहले बजट के आंकड़े करीब से पढि़ए, आत्मनिर्भरता का सबसे निर्मम सत्य वहां छिपा है. शुक्र है कि सरकार ने यह सच स्वीकार कर लिया कि आम लोगों की बचत निचोडऩे और टैक्स लगाने की अधि‍कतम सीमा आ चुकी है.

आर्थि‍क समीक्षा ने कहा कि मंदी थमने के बावजूद बेकारी में बढ़ोतरी जारी रह सकती है (इकोनॉमिक हिस्टीरिसिस). इसके बावजूद सरकार मंदी के जख्मों पर मरहम तो दूर, रुई भी इसलिए नहीं रख सकी क्योंकि मंदी में सारे विकल्प सूख गए हैं. अब अगर बचत और टैक्स से अलग नए संसाधन नहीं जुटाए गए तो सरकार मंदी के बीच लंबी महंगाई और संकट बुला बैठेगी.

सिर्फ बचत से नहीं बचेगी मुसीबत

2021 में केंद्र सरकार का घाटा पांच दशक के सर्वोच्च स्तर 9.5 फीसद पर है. राज्यों को मिलाकर कुल घाटा जीडीपी के अनुपात में 20 फीसद पर पहुंच रहा है. (जीडीपी 193 लाख करोड़ रु. और घाटा 38-39 लाख करोड़ रु.) सरकारी कंपनियों के बाजार कर्ज और बजट से छिपाए गए ऋणों को मिलाने के बाद यह राशि‍ और बड़ी हो जाती है. 

इस घाटे की भरपाई के लिए सरकार हमारी वित्तीय बचत का कर्ज के तौर पर इस्तेमाल करती है. 2018 के आंकड़ों के मुता‍बिक, भारत की 51 फीसद वित्तीय बचतें बैंक में हैं जो सरकार को कर्ज देते हैं. करीब 19 फीसद बचत बीमा में, 13 फीसद प्रॉविडेंट फंड/लघु बचत स्कीमों में और 14 फीसद शेयर-म्युचुअल फंड आदि में हैं.

इन बचतों का 50 फीसद हिस्सा (2018-19) सरकारी (केंद्र और राज्य) कर्ज बटोर ले जाते हैं. हमारी बचत वाली जेब में सरकार का हाथ चौड़ा होता जा रहा है. 2020-21 में बजट में लघु बचतों से 5 लाख करोड़ रु. उधार लिए जाएंगे जो बजट के शुरुआती आकलन का दोगुना है. यानी बैंक में रखी बचत से सरकार के घाटे पूरे होंगे और छोटी बचत स्कीमों के फंड का इस्तेमाल भी होगा. 

अब जानिए, सबसे डरावना सच! जीडीपी के अनुपात में भारत की वित्तीय बचत 6.5 फीसद है. यानी केवल 12-13 लाख करोड़ रु. और सरकार का कर्ज इस साल करीब 39 लाख करोड़ रु. हो गया है. अगर हमारी पूरी बचत (12-13 लाख करोड़ रु.) होम कर दी जाए तो भी इसकी भरपाई नहीं हो सकती क्योंकि हम सब जि‍तना बचा रहे हैं, अकेले सरकारों की कर्ज जरूरत उसकी दोगुनी है.

निचोडऩे की सीमा

लोग रियायत चाहते थे लेकिन यह बजट पेट्रोल-डीजल पर ऊंचा टैक्स बनाए रखेगा. नया सेस आया है. सरकार अगले साल की पहली तिमाही में सरकारी उपक्रम विनिवेश की गति देखेगी. अगर गाड़ी तेज नहीं चली तो फिर नए टैक्स लगाए बिना 2021-22 के घाटे को नियंत्रित (लक्ष्य 6.8 फीसद) करना असंभव होगा. 

टैक्स की सुइयां केवल केंद्रीय बजट तक सीमित नहीं हैं. राज्यों के पास सरकारी कंपनियां बेचने की सुविधा नहीं है इसलिए अब 29 बजट नए टैक्स लगाएंगे या बिजली-पानी जैसी सेवाओं की दरें बढ़ाएंगे.

भारतीय अर्थव्यवस्था के दो सुलगते यथार्थ इस बजट से खुलकर सामने आ गए हैं:

एकआम लोगों की आय, खपत और बचत के हर हिस्से पर भरपूर टैक्स है. सरकार की कमाई का 53 फीसद टैक्स से आता है.

दोआम लोगों की करीब 50 से 55 फीसद बचत सरकार कर्ज के रूप में ले लेती है जिस पर महंगाई दर से भी कम रिटर्न मिलता है.

गौर करिए कि इतने भारी संसाधन पचाने के बावजूद बजट हमारी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं लाता. अर्थव्यवस्था में कुल पूंजी निवेश की पांच फीसद जरूरत भी सरकार पूरी नहीं कर पाती. इसी तरह कुल रोजगारों का पांच फीसद हिस्सा भी सरकार नहीं देती.

सरकारी कंपनियों में लगा बजट से निवेश, बैंक की एफडी जितना रिटर्न भी नहीं देता. इसलिए जहिर है, इन्हें बेचने से संसाधन मिलेंगे और हर साल इन पर लगने वाली पूंजी भी बचेगी. फिर भी अगर इनकी बिक्री से किसी को राजनैतिक चिढ़ होती हो तो इतिहास बताता है कि इतनी ही चिढ़ भाजपा और उसके विचार परिवार को भी होती रही है. सरकारें विनिवेश से हमेशा डरती हैं लेकिन अब कोई विकल्प नहीं है.

टैक्स अधि‍कतम सीमा तक लग चुके हैं, कमाई और मंदी के बीच हम कितनी और बचत करेंगे. अगर सरकारी कंपनियां नहीं बि‍कीं तो

करेंसी छाप कर सरकार कर्ज लेगी, किल्लतों के बाजार में कम सामान के पीछे ज्यादा पैसा यानी महंगाई, रुपए की कमजोरी, बचतों पर रिटर्न का विनाश

टैक्स लगाने के नए तरीकों का आवि‍ष्कार होगा

इसलिए सरकारी सेल के विरोध के बजाए सरकार का खर्च घटने की मांग होनी चाहिए, जिससे टैक्स कम होने का रास्ता खुले न कि इस महासेल से आने वाली पूंजी को भी सरकारी खर्च का दानव निगल जाए.

सरकार समझ रही है कि अर्थव्यवस्था की वित्तीय जमीन मजबूत किए बि‍ना आत्मनिर्भरता का कोई मतलब नहीं है. हमें भी समझना होगा कि वित्तीय तौर पर बदहाल सरकार हम पर किस कदर भारी पड़ सकती है.

Saturday, October 24, 2020

सबसे बड़ी सेल



गरज भारत सरकार की! मौका मोटी जेब वालों के लिए! माल चुनिंदा और शानदार! मंदी के मौके पर भारी डिस्काउंट.

एक एयरलाइंस, आधा दर्जन एयरपोर्ट, तेल गैस पाइपलाइन, बंदरगाहों पर टर्मिनल, रेलवे स्टेशन, ट्रेनें, हाइवे और रेलवे कॉरिडोर के हिस्से, बिजली ट्रांसमिशन लाइनें... बहुत कुछ बिकने वाला है. अफसरों की समितियां, नीति आयोग की मदद से बेचने के तौर तरीके तय करने में लगी हैं. मुहि नतीजे तक पहुंची तो ताजा इतिहास में सार्वजनिक संपत्तियों का यह सबसे बड़ी बिकवाली होगी.

यह निजीकरण है या संपत्तियों से ज्यादा राजस्व जुटाने (एसेट मॉनेटाइजेशन) की कोशि? यह गुत्थी खोलने से पहले जानना जरूरी है कि यह सेल लगाने की तैयारी 2018-19 के अंतरिम बजट से ही शुरू हो गई थी. राजस्व जीएसटी के बाद से ही घिसट रहा है. विनिवेश विभाग के उत्तराधिकारी दीपम (निवेश और सार्वजनिक संपत्तिप्रबंधन) की देखरेख और कैबिनेट सचिव की अगुआई में सचिवों की समिति ने बीते अप्रैल से इस बिक्री के लिए कंपनियों, जमीनों, भवनों, परियोजनाओं की सूची बनानी शुरू की दी थी.

लॉकडाउन के बाद यह सेल अनिवार्य हो गई है. गहरी और लंबी मंदी के बीच सरकारी खजाना पूरी तरह रीत चुका है. केंद्र के सकल राजस्व में इस साल 4.32 लाख करोड़ रु. का नुक्सान होना है जो इस साल सार्वजनिक उपक्रम विनिवेश लक्ष्य (2.10 लाख करोड़ रु.) का दोगुना है. इस वित्त वर्ष में केंद्र और राज्यों का राजकोषीय घाटा जीडीपी का 10-12 फीसद होगा. यानी कि दस फीसद की कारात्मक विकास दर पर दस फीसद से ज्यादा का घाटा. बकौल सीएजी, केंद्र सरकार ने अपना कर्ज छिपाया है, इसके बावजूद सकल कर्ज (केंद्र और राज्य) जीडीपी का 85 फीसद होगा. केंद्र इस साल 12 लाख करोड़ रु. का कर्ज (बीते साल से दोगुना) उठाएगा. अगस्त तक के आंकड़े के अनुसार, राज्यों का कर्ज बीते साल 50 फीसद ज्यादा रहा है.

अर्थव्यवस्था और घाटों की जो हालत है उसमें तो बैंक सरकारों को एक सीमा से ज्यादा कर्ज दे सकते हैं और ही सरकारें कर्ज का बोझ उठा सकती हैं, इसलिए अब संपत्तिबेचकर राजस्व जुटाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है.

लौटते हैं, महासेल की तरफ. सूची दिलचस्प है. जैसे कि अगर एयर इंडिया को ग्राहक मिल जाए तो इस उड़ते सफेद हाथी का कर्ज सरकार अपनेसिर ले सकती है. एयरपोर्ट अथॉरिटी पटना और भोपाल सहित चार हवाई अड्डों के लिए निजी भागीदार तलाशेगी. हाइवे अथॉरिटी करीब 10,000 किमी सड़कों को निजी कंपनियों को सौंपना चाहती है. नीति आयोग ने तीन सरकारी बैंकों के निजीकरण की सिफारिश कर दी है.

पावर ग्रिड ट्रांसमिशन लाइनों को बेच कर 20,000 करोड़ रु. (शुरुआती अनुमान) का योगदान करने की तैयारी में है. शिपिंग मंत्रालय 11 बर्थ और एक क्रूज टर्मिनल लेकर बाजार में रहा है जबकि पेट्रोलियम मंत्रालय गेल, इंडियन ऑयल और एचपी की चुनिंदा पाइपलाइनों को निजी क्षेत्र को सौंपना चाहता है. रेलवे 150 यात्री ट्रेनें और 50 स्टेशनों के साथ डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर के लिए भी निजी भागीदार की तलाश करेगी. कोलकाता मेट्रो के बिल्डिंग कॉम्प्लेक्स सहित हुडको और एनबीसीसी से भी अपनी संपत्तियां बाजार में लाने को कहा गया है.

सरकारी उपक्रमों के विनिवेश को लेकर सरकार बीते पांच साल से तरह-तरह के प्रपंच करती रही है. एक सरकारी कंपनी दूसरी का अधिग्रहण (एलआइसी-आइडीबीआइबैंक) तक कराया गया. हालांकि 2017-18 तक पांच वर्षों में सरकारी कंपनियों की संख्या 234 से बढ़कर 257 हो (सार्वजनिक उपक्रम सर्वे 2018) हो गई. लेकिन यह चलने वाला नहीं है. खुली बिक्री ही आखिरी रास्ता है.

क्या इस महासेल को निजीकरण कहा जाएगा? फिलहाल पूरी प्रक्रिया के लिए एसेट मॉनेटाइजेशन की संज्ञा इस्तेमाल की जा रही है. जो सार्वजनिक उपक्रम विनिवेश का हिस्सा है विरोध हुआ तो सरकार यह कह सकती है कि इन संपत्तियों के मालिकाना अधिकार निजी भागीदारों को नहीं मिलेंगे. इन संपत्तियों को निजी क्षेत्र को टिकाकर अतिरिक्त राजस्व जुटाया जाएगा.

अव्वल तो इस मंदी में ग्राहक हैं ही कहां, अगर गए तो इन्हें खरीदने वाले निवेशक इतने भोंदू नहीं होंगे कि वे निजीकरण से कम पर मान जाएं? मंदी में गले तक धंसी अर्थव्यवस्था के बीच इन संपत्तियों के खरीददारों को तत्काल कोई फायदा नहीं मिलना, इसलिए इन ग्राहकों का हाथ ऊपर रहेगा यानी कि राजनैतिक  विवादों की भरपूर गुंजाइश है.

सरकार यह जोखि क्यों ले रही है? इसलिए कि दुनिया की साख तय करने वाली एजेंसियों यानी मूडीज और स्टैंडर्ड पुअर को पता चलता रहे कि घाटे कम करने की कोशिश जारी है, चाहे इसके लिए अपने नवरत्न भी बेचने पड़ें. बढ़ते घाटे की रोशनी में भारत की साख और टूटने (पहले से न्यूनतम) का खतरा है. अगर ऐसा हुआ तो इन रत्नों को भी ग्राहक मिलने मुश्कि हो जाएंगे.

दिल थाम के बैठिए. भारत सरकार की महासेल की उलटी गिनती शुरू होने वाली है.