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Monday, August 27, 2012

संविधान से डरी सरकार


संवैधानिक संस्‍थाओं से डरी हुई सरकार देखी है आपने। भारत में आजकल ऐसी सरकार की नुमाइश चल रही है। डा.भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा की बहस में जिस ऑडिटर जनरल को संविधान का सबसे महत्‍वपूर्ण अधिकारी कहा था। सरकार की कमाई खर्च के निगहबान इस अधिकारी का दायित्‍व, अंबेडकर की निगाह मेंन्‍यायपालिका से भी ज्‍यादा बड़ा था, उसने पूरी सरकार को डर से भर  दिया है। खिसियाये मंत्री सरकारी ऑडीटर को ही उसकी सीमायें बता रहे हैं। मंत्रियों को जेल भेजता, जांच एजेसियों लताड़ता,  अधिकारियों को हटाता , पीएमओ को सवालों में घेरता, राज्यपालों को संविधान सिखाता और जंग लगे कानूनों को नकारता सुप्रीम कोर्ट का एक शुभ संकेत है। लेकिन सरकार अदालत से इस कदर घबराई है कि न्‍यायपालिका को सबक देने की जुगत में है। देश इस समय गवर्नेंस की उलटबांसी पढ़ रहा है। उदारीकरण के बाद बेताब हुए बाजार को संभालने के लिए ताकतवर, दो टूक, पारदर्शी, प्रभावी और निष्‍पक्ष, नई संस्‍थायें तो मिली नहीं अलबत्‍ता सरकार खुद संविधान और उसकी पारंपरिक संस्‍थाओं की नीयत पर सवाल उठाने लगी है। बदलते आर्थिक परिवेश के बीच इन पुरानी संस्‍थाओं की नई सक्रियता ने सियासत को अनजाने हादसों के डर से भर दिया है। संविधान से डरी सरकारें बड़ी जोखिम भरी होती है।
ऑडिट का खौफ 
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के ऑडिट आज सरकार की आफत क्‍यों बन गए? सीएजी तो भारत में ब्रितानी ताज का राज शुरु होने के बाद खुले सबसे पहले दफ्तरों में एक था। तब से हजारों ऑडिट हो चुके हैं। अभी कुछ दो तीन वर्ष पहले तक सीएजी उबाऊ, आंकड़ाबाज और हिसाबी किताबी संस्थान माना जाता था। उसकी रिपोर्ट  संसदीय औपचारिकता थीं और ऑडिट टिप्पणियों पर सरकारी विभाग उबासी लेते थे। मगर सरकारी ऑडीटर सरकार के लिए इतना खौफनाक हो गया कि खुद वित्‍त मंत्री कोयला खदान आवंटन पर सीएजी की उस रिपोर्ट को खारिज कर रहे हैं जो अब संसद की संपत्ति बन चुकी है। दरअसल हमें संविधान निर्माताओं पर रश्‍क करना चाहिए कि उन्‍होंने एक मुनीम जैसी संस्‍था

Monday, April 23, 2012

इक्‍यानवे का प्रेत

शवंत सिन्‍हा देश को बता रहे हैं कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार खाली है। सोना गिरवी रखा जाएगा। विदेशी मुद्रा कोष (आईएमएफ) से कर्ज लिया जा रहा है। रुपया बुरी तरह गिरा है। ... वह युवा निवेशक पसीने लथपथ होकर जाग गया ! कितना बुरा सपना था ! 1991 वाला। अचानक उसे याद आया कि उसने कल ही तो रिजर्व बैंक के ताजे आंकडे पलटे थे और यह भी पढ़ा था कि गवर्नर सुब्‍बाराव 1991 के दुर्दिन की याद कर रहे हैं। विदेशी मुद्रा भंडार का तेजी से गिरना, व्‍यापार घाटे (आयात निर्यात का अंतर) में अभूतपूर्व उछाल, रुपये पर दबाव, छोटी अवधि के विदेशी कर्जों का विस्‍फोटक स्‍तर और साथ में ऊंचा राजकोषीय घाटा यानी कि जुड़वा घाटों की विपत्ति। तकरीबन ऐसा ही तो था 1991। बस अंतर सिर्फ यह है कि तब भारत ग्‍यारह लाख करोड़ की (जीडीपी) अर्थव्‍यवस्‍था था और जो आज 50 लाख करोड़ की है। अर्थव्‍यवस्‍था बड़ी होने से संकट छोटा नहीं हो जाता इसलिए विदेशी मुद्रा बाजार से लेकर बैंकों के गलियारों तक खौफ की ठंडी लहरें दौड़ रही हैं। मगर दिल्‍ली के राजनीतिक कानों पर रेंगने लिए शायद हाथी जैसी जूं चाहिए, इसलिए दिल्‍ली बेफिक्र ऊंघ रही है।
विस्‍फोटक आंकड़े
याददाश्‍त इतनी भी कमजोर नहीं होनी चाहिए कि संकट ही याद न रहे। अभी 21 साल पहले की ही बात है जब जून 1991 में विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डॉलर से भी कम रह गया यानी बस केवल तीन हफ्ते के आयात का जुगाड़ बचा था। रिजर्व बैंक ने विदेशी मुद्रा देना बंद कर दिया। निर्यातों को प्रतिस्‍पर्धात्‍मक बनाने के लिए तीन दिन में रुपये का 24 फीसदी अवमूल्‍यन हुआ। आईएमएफ से 2.2 अरब डॉलर का कर्ज लिया गया और 67 टन सोना बैंक ऑफ इंग्‍लैंड व यूनियन बैंक ऑफ सिवटजरलैंड के पास गिरवी रखकर 600 मिलियन डॉलर उठाये गए, तब आफत टली। ... यह खौफनाक अतीत जिस परिस्थिति से निकला था आज के आंकड़े उससे जयादा खराब

Monday, March 5, 2012

सरकार गारंटी योजना

जट से कुछ महंगा सस्‍ता होता है क्‍या? टैक्‍स में कमी बेशी का रोमांच भी अब कितना बचा है ?  घाटे की खिच खिच भी बेमानी है। बारह का बजट इन पुराने पैमानों का बजट होगा ही नहीं। इस बजट में तो पूरी दुनिया भारत की वह सरकार ढूंढेगी जो पिछले तीन साल में कहीं खो गई है और सब कुछ ठप सा हो गया है। देश में गरीबों की तादाद, उद्योगों के लिए जमीन मिलने में देरी, टैक्‍स हैवेन में रखा पैसा, हसन अलियों का भविष्‍य, हाथ पर हाथ धरे बैठी नौकरशाही, नए कानूनों का टोटा, नियामकों की नाकामी, नीतियों का शून्‍य !!!.. यही नामुराद सवाल ही इस साल का असली बजट हैं। क्‍येां कि हमारी ताजी मुसीबतों की पृष्‍ठभूमि पूरी तरह से गैर बजटीय है। कुछ पुरानी गलतयिां नई चुनौतियों से मिल कर बहुआयामी संकट गढ रही हैं। इससे बहुत फर्क नहीं पड़ेगा कि यह बजट सरकारी स्‍कीमों में मुंह में कितना चारा रखता है अंतर से बात से पड़ेगा कि वित्‍त मंत्री सरकार (गवर्नेंस) गारंटी योजना कितनी ठोस नीतियो का आवंटन करते हैं। या सरकार के साखकोषीय घाटे के कम करने के लिए क्‍या फार्मूला लाते हैं। यह राजकोष का बजट है ही नहीं यह तो राजकाज यानी नीतियों का बजट है।
साख की मद
हमारी ताजी मुसीबतें बजट के फार्मेट से बाहर पैदा हो रही हैं। कोयले की कमी कारण प्रधानमंत्री के दरबार मे बिजली कंपनियों की गुहार, जमीन अधिग्रहण कानून के कारण लटकी परियोजनायें , पर्यावरण मंजूरी में फंसे निवेश, राज्‍य बिजली बोर्डों को कर्ज देकर डूबते बैंक, फारच्‍यून 500 कंपनी ओनएजीसी के लिए निवेशको का टोटा.............. इनमें से एक भी मुसीबत बजट के किसी घाटे से पैदा नहीं हुईं। 2जी पर अदालत के फैसले के बाद सरकार आवंटन की प्रक्रिया शुरु करनी चाहिए थी मगर सरकार एक साल का वकत मांग रही है यानी एक लंबी अनिश्चितता की बुनियाद रखी जा रही है। भूमि अधिग्रहण, खानों के आवंटन, औद्योगिक पुनर्वास जैसे तमाम कानून अधर में हैं। समझदार निवेशक भारत में कानून के राज पर भरोसा