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Saturday, September 14, 2019

मंदी के प्रायोजक



केंद्र और राज्य सरकारें हमें इस मंदी से निकाल सकती हैं ? जवाब इस सवाल में छिपा है कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और कई दूसरे राज्यों ने बिजली क्यों महंगी कर दी? जबकि मंदी के समय बिजली महंगी करने से न उत्‍पादन बढता है और न खपत.  
लेकिन राज्य करें क्या ? एनटीपीसी अब उन्हें उधार बिजली नहीं देगी. बकाया हुआ तो राज्यों की बैंक गारंटी भुना ली जाएगी. यहां तक कि केंद्र सरकार राज्यों को बिजली बकाये चुकाने के लिए कर्ज लेने से भी रोकने वाली है.

जॉन मेनार्ड केंज के दशकों पुराने मंतर के मुताबिक मंदी के दौरान सरकारों को घाटे की चिंता छोड़ कर खर्च बढ़ाना चाहिए. सरकार के खर्च की पूंछ पकड़ कर मांग बढ़ेगी और निजी निवेश आएगा.  लेकिन केंद्र और राज्यों के बजटों के जो ताजा आंकडे हमें मिले हैं वह बताते हैं कि इस मंदी से उबरने लंबा वक्त लग सकता है.

बीते  सप्ताह वित्त राज्‍य मंत्री अनुराग ठाकुर यह कहते सुने गए कि मांग बढ़े इसके लिए राज्यों को टैक्स कम करना चाहिए. तो क्या राज्य मंदी से लड़़ सकते हैं क्‍या प्रधानमंत्री मोदी की टीम इंडिया इस मंदी में उनकी मदद कर सकती है.

राज्य सरकारों के कुल खर्च और राजस्व में करीब 18 राज्य 91 फीसदी का हिस्सा रखते हैं. इस वित्‍तीय साल की पहली तिमाही जिसमें विकास दर ढह कर पांच  फीसदी पर  गई है उसके ढहने में सरकारी खजानों  की बदहाली की बड़ी भूमिका है.

- खर्च के आंकड़े खंगालने पर मंदी बढ़ने की वजह हाथ लगती है. इस तिमाही में राज्यों का खर्च पिछले तीन साल के औसत से भी कम बढ़ा. हर साल एक तिमाही में राज्यों का कुल व्यय करीब 15 फीसदी बढ़ रहा था. इसमें पूंजी या विकास खर्च मांग पैदा करता है लेकिन पांच फीसदी की ढलान वाली तिमाही में राज्यों का विकास खर्च 19 फीसदी कम हुआ. केवल चार फीसदी की बढ़त 2012 के बाद सबसे कमजोर है.

- केंद्र का विकास या पूंजी खर्च 2018-19 में जीडीपी के अनुपात में सात साल के न्यूनतम स्तर पर था मतलब यह  कि जब अर्थव्यवस्था को मदद चाहिए तब केंद्र और राज्यों ने हाथ सिकोड़ लिए. टैक्स तो बढ़े, पेट्रोल डीजल भी महंगा हुआ लेकिन मांग बढ़ाने वाला खर्च नहीं बढ़ा. तो फिर मंदी क्यों न आती.

- राज्यों के राजस्व में बढ़ोत्तरी की दर इस तिमाही में तेजी से गिरी. राज्यों का कुल राजस्व 2012 के बाद न्यूनतम स्तर पर हैं लेकिन नौ सालों में पहली बार किसी साल की पहली तिमाही में राज्यों का राजस्व संग्रह इस कदर गिरा है. केंद्र ने जीएसटी से नुकसान की भरपाई की गारंटी न दी होती तो मुसीबत हो जाती. 18 राज्यों में केवल झारखंड और कश्मीर का राजस्व बढ़ा है

केंद्र सरकार का राजस्व तो पहली तिमाही में केवल 4 फीसदी की दर से बढ़ा है जो 2015 से 2019 के बीच इसी दौरान 25 फीसदी की दर से बढ़ता था.

- खर्च पर कैंची के बावजूद इन राज्यों का घाटा तीन साल के सबसे ऊंचे स्तर पर है. आंकड़ो पर करीबी नजर से  पता चलता है कि 13 राज्यों के खजाने तो बेहद बुरी हालत में हैं. छत्तीसगढ़ और केरल की हालत ज्यादा ही पतली है. 18 में सात राज्य ऐसे हैं जिनके घाटे पिछले साल से ज्यादा हैं. इनमें गुजरात, आंध्र, कर्नाटक, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य हैं. इनके खर्च में कमी से मंदी और गहराई है.

केंद्र और राज्यों की हालत एक साथ देखने पर कुछ ऐसा होता दिख रहा है जो पिछले कई दशक में नहीं हुआ. साल की पहली तिमाही में केंद्र व राज्यों की कमाई एक फीसदी से भी कम रफ्तार से बढ़ी. जो पिछले तीन साल में 14 फीसदी की गति से बढ़ रही थी. इसलिए खर्च में रिकार्ड कमी हुई है.  

खजानों के आंकड़े बताते हैं कि मंदी 18 माह से है लेकिन सरकारों ने अपने कामकाज को बदल कर खर्च की दिशा ठीक नहीं की. विकास के नाम पर विकास का खर्च हुआ ही नहीं और मंदी आ धमकी. अब राजस्व में गिरावट और खर्च में कटौती का दुष्चक्र शुरु हो गया.  यही वजह है कि केंद्र सरकार को रिजर्व बैंक के रिजर्व में सेंध लगानी पड़ी. तमाम लानत मलामत के बावजूद सरकारें टैक्स कम करने या खर्च बढ़ाने की हालत में नहीं है.

तो क्या मंदी की एक बड़ी वजह सरकारी बजटों का कुप्रबंध है ! चुनावी झोंक में उड़ाया गया बजट अर्थव्यवस्था के किसी काम नहीं आया ! सरकारें पता नहीं कहां कहां खर्च करती रहीं और आय, बचत व खपत गिरती चली गई !

अब विकल्प सीमित हैं. प्रधानमंत्रीको मुख्यमंत्रियों के साथ मंदी पर साझा रणनीति बनानी चाहिए. खर्च के सही संयोजन के साथ प्रत्येक राज्य में कम से कम दो बड़ी परियोजनाओं पर काम शुरु कर के मांग का पहिया घुमाया जा सकता है 

लेकिन क्या सरकारें अपनी गलतियों से कभी सबक लेंगी ! या सारे सबक सिर्फ आम लोगों की किस्मत में लिखे गए हैं  !



Sunday, March 31, 2019

न्यूनतम आय-अधिकतम सुधार




इससे पहले कि आप मोदी की किसान सहायता और राहुल की न्यूनतम इनकम गारंटी पर कुश्ती में उतरेंयह जान लेना जरूरी है कि देश के सभी राजनैतिक दलों ने यह मान लिया है कि सरकारी स्कीमों की बारात से देश के गरीबों की जिंदगी में कोई रोशनी नहीं पहुंची है

यही वजह है कि रिकॉर्ड फसल समर्थन मूल्य के ऐलान के बाद मोदी सरकार किसान नकद सहायता (छोटे सीमांत किसानों को प्रति परिवार 6,000 रुपए सालाना) देने पर मजबूर हुई और गरीबों के लिए कांग्रेस को 6,000 रुपए प्रति माह की आय का वादा करना पड़ा.

यह सवाल बेमानी है कि इस तरह की स्कीमें मौजूदा सब्सिडी के साथ कैसे लागू की जाएंगीदुनिया से जुड़ा भारत का स्वतंत्र वित्‍तीय बाजार किसी भी नेता से ज्यादा ताकतवर है. घाटे के चलते साल के बीच में खर्च काटने वाली सरकारों को ऐसी स्कीमों के लिए खर्च का गणित बदलना होगा चाहे वह मोदी की किसान सहायता हो या कांग्रेस की इनकम गारंटी.

इसलिएइस बहस को आगे बढ़ाते हैं. 

प्रतिस्पर्धी राजनीति भारत को ऐसे सुधार की दहलीज पर ले आई है जिसकी चर्चा से ही सरकारें डरती हैं. स्कीमों पर खर्च के ढांचे में बदलाव से सरकारी विभागों का भीमकाय भ्रष्टाचारी ढांचा यानी मैक्सिमम गवर्नमेंट खत्म किया जा सकता है.

इसलिए इनकम गारंटी की बहस उर्फ स्कीमों की असफलता का इलहाम बेहद कीमती हैजो अगर नतीजे तक पहुंची तो सबसे बड़ा सुधार हकीकत बन सकता है

मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदीदोनों ही एक घाट फिसले हैं. सरकारी स्कीमों की भीड़ बढ़ती गई और नतीजे रहे सिफर... आर्थिक समीक्षा (2016-17) के हवाले से कुछ नमूने पेश हैं

- आखिरी गिनती तक करीब 950 केंद्रीय स्कीमें केंद्र के बजट की गोद में खेल रही थींजिन पर जीडीपी (वर्तमान मूल्य) के अनुपात में 5 फीसदी (करीब 7 लाख करोड़ रुपए) का बजट आवंटन होता है. इनमें 11 बड़ी स्कीमें (मनरेगाअनाज सब्सिडीमिड डे मीलग्राम सड़कप्रधानमंत्री आवासफसल बीमास्वच्छ भारतसर्व शिक्षा आदि) सबसे ज्यादा आवंटन हासिल करती हैं. केंद्र सरकार की स्कीमों में कुछ तो 15 साल और कुछ 25 साल पुरानी हैं. राज्यों की स्कीमों को जोडऩे के बाद संख्‍या खासी बड़ी हो जाती है.  

- यह दर्द पुराना है कि स्कीमों के फायदे जरूरतमंदों तक नहीं पहुंचते. सरकार का अपना हिसाब बताता है कि छह प्रमुख स्कीमों (आवास योजनासर्व शिक्षामिड डे मीलग्राम सड़कमनरेगास्वच्छ भारत) के सबसे कम फायदे उन जिलों को मिले जहां सबसे ज्यादा गरीब बसते हैंजबकि जहां गरीब कम थे वहां ज्यादा संसाधन पहुंचे.

- यही वजह है कि करीब 40 फीसदी लक्षित लोगों को राशन प्रणाली और 65 फीसदी जरूरतमंदों को मनरेगा का लाभ नहीं मिलता. यही हालत अन्य स्कीमों की भी है यानी सीधी चोरी.

- मोदी सरकार की ताजा स्कीमों (उज्ज्वलासौभाग्य) के आंकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं.

अगर सियासी दल इनकम गारंटी की हिम्‍मत कर रहे हैं तो पांच बड़ी सब्सिडी स्कीमें बंद करने का साहस भी दिखाएं. केवल पेट्रो और अनाज सब्सिडी पर जीडीपी का 1.48 फीसदी खर्च होता है. ऐसा करते ही लोगों के हाथ में सीधे धन पहुंचाने का रास्ता खुल सकता है और सरकार का विशाल ढांचा सीमित हो जाएगा. 

अगर राज्यों को संसाधनों के आवंटन को भी इससे जोड़ा जाए और राज्यों के स्कीम खर्च को सीमित किया जाए तो यह सुधार खर्च बढ़ाने के बजाए दरअसल बजटीय अनुशासन लेकर आएगा. 

लोगों के खाते में सीधे धन पहुंचाने की व्यवस्था (डीबीटी) स्थापित हो चुकी है. बैंक खाते में एलपीजी सब्सिडी की सफलता सबसे बड़ा प्रमाण है. इस तर्क के समर्थन में पर्याप्त अध्ययन उपलब्ध हैं कि लोगों के हाथ में धन अर्थव्यवस्था में मांग को बढ़ाता है

गरीबों को न्यूनतम आय के साथ शिक्षास्वास्थ्य आदि जरूरी सेवाओं में निजी प्रतिस्पर्धा और उपभोक्‍ताओं के लिए लागत में कमी जरूरी है. इसे नीतिगत व नियामक उपायों से सुरक्षित किया जा सकता है. यह सुधार भी लंबे समय से लटका हुआ है. सरकार के खर्च में और बाजार का पारदर्शी विनियमनअर्थव्‍यवस्‍था को बस यही तो चाहिए.

जिस तरह 1991 में भारत की आर्थिक नीतियां लगभग चरमरा चुकी थींठीक वही हालत सरकारी खर्च और कल्याण स्कीमों की है. इस कोशिश की सबसे बड़ी चुनौती इनका प्रतीकवाद है. स्कीमों की भीड़ के कारण कुछ सौ रुपए की पेंशनछोटी-सी सहायता या मामूली सा बीमा ही मुमकिन है. इसलिए इनमें लोगों की रुचि नहीं होती है.  

देश को तेज आर्थिक विकास के साथ अधिकतम एक या दो बड़े हितलाभ वाली कल्याण स्कीमें चाहिए. कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह काम मोदी करें या कांग्रेस लेकिन यह सुधार अपरिहार्य है.



Sunday, September 16, 2018

तेल निकालने की नीति


पेट्रोल-डीजल की कीमतों की आग आसमान छू रही है!

छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनावों से पहले सरकारी खर्च पर मोबाइल बांटे जा रहे हैं!

अगर महंगे पेट्रोल-डीजल की जड़ तलाशनी हो तो हमें इन दो अलग-अलग घटनाक्रमों का रिश्ता समझना होगा.

हम फिजूल खर्च सरकारों यानी असंख्य मैक्सिमम गवर्नमेंट’ के चंगुल में फंस चुके हैं. जो बिजलीपेट्रोल-डीजल और गैस सहित पूरे ऊर्जा क्षेत्र को दशकों से एक दमघोंट टैक्स नीति निचोड़ रही हैं. कच्चे तेल की कीमत बढ़ते ही यह नीति जानलेवा हो जाती है. पेट्रो उत्पादों पर टैक्स की नीति शुरू से बेसिर-पैर है. कच्चे तेल की मंदी के बीच लगातार एक्साइज ड्यूटी बढ़ाकर मोदी सरकार ने इसे और बिगाड़ दिया.

भारत में राजस्व को लेकर सरकारें (केंद्र व राज्य) आरामतलब हैं और खर्च को लेकर बेफिक्र. उनके पास देश में सबसे ज्यादा खपत वाले उत्पाद को निचोडऩे का मौका मौजूद है. चुनाव के आसपास उठने वाली राजनैतिक बेचैनी के अलावा पेट्रो उत्पाद हमेशा से टैक्स पर टैक्स का खौफनाक नमूना है जो भारत को दुनिया में सबसे महंगी ऊर्जा वाली अर्थव्यवस्था बनाता है.

पेट्रोलियम उद्योग पर टैक्स की कहानी एक्साइज व वैट (पेट्रोल-डीजल पर 25 से 38 रुपए प्रति लीटर का टैक्स) तक सीमित नहीं है. डीजल पर रोड सेसपेट्रो मशीनरी पर कस्टम ड्यूटी व जीएसटीतेल कंपनियों पर कॉर्पोरेट टैक्सउनसे सरकार को मिलने वाले लाभांश पर टैक्सऔर तेल खनन पर राज्यों को रायल्टीज! यह सभी तेल की महंगाई का हिस्सा हैं.

तो फिर कच्चे तेल की महंगाई और रुपए की छीजती ताकत के बीच कैसे कम होंगी कीमतें?

न घटाइए एक्साइज और वैटलेकिन यह तो कर सकते हैं:

•   तेल व गैस का पूरा बाजार सरकारी तेल कंपनियों के हाथ में है. पांचों पेट्रो कंपनियां (ओएनजीसीआइओसीएचपीसीएलबीपीसीएलगेल) सरकार को सबसे अधिक कॉर्पोरेट टैक्स देने वाली शीर्ष 20 कंपनियों में शामिल हैं. ये कंपनियां हर साल सरकार को 17,000 करोड़ रु. का लाभांश देती हैं. टैक्स और लाभांश को टाल कर कीमतें कम की जा सकती हैं.

•   सरकारी तेल कंपनियों में लगी पूंजी करदाताओं की है. अगर पब्लिक सेक्टर पब्लिक का है तो उसे इस मौके पर काम आना चाहिए.

भारत में पेट्रो उत्पाद हमेशा से महंगे हैंअंतरराष्ट्रीय बाजार में तेजी के साथ बस वे ज्यादा महंगे हो जाते हैं. पेट्रो (डीजलपेट्रोलसीएनजीएटीएफ) ईंधन भारत में सबसे ज्यादा निचोड़े जाने वाले उत्पाद हैं. यूं ही नहीं केंद्र सरकार का आधा एक्साइज राजस्व पेट्रो उत्पादों से आता है. कुल इनडाइरेक्ट टैक्स में इनका हिस्सा 40 फीसदी है. राज्यों के राजस्व में इनका हिस्सा 50 फीसदी तक है. राज्यों के खजाने ज्यादा बदहाल हैं इसलिए वहां पेट्रो उत्पादों पर टैक्स और ज्यादा है.

अगर तेल पर लगने वाले सभी तरह के टैक्स को शामिल किया जाए तो दरअसल पांच प्रमुख तेल कंपनियां केंद्र व राज्य सरकारों के लगभग आधे राजस्व की जिम्मेदार हैं और हम सुनते हैं कि सरकारों ने राजकोषीय सुधार किए हैं.

भारत में सरकारों के खजाने वस्तुत: पेट्रो उत्पादों से चलते हैं. सरकारों की तकरीबन आधी कमाई उन पेट्रो उत्पादों से होती है जिनका महंगाई और कारोबारी लागत से सीधा रिश्ता है. सुई से लेकर जहाज तक उत्पा‍दन और बिक्री आधे राजस्व में सिमट जाती है.

2004 में जीएसटी की संकल्पना इस बुनियाद पर टिकी थी कि सरकारें टैक्स कम करेंगी और अपना खर्च भी. सरकारों को घाटे नियंत्रित करने थे और टैक्स कम होने से खपत बढ़ाकर राजस्व बढ़ाना था. कांग्रेस और तब की राज्य  सरकारें (भाजपा सहित) पेट्रोल-डीजल को जीएसटी में शामिल करने पर सहमत नहीं थीं और वही हालात आज भी हैं क्योंकि सरकारें अपने राजस्व के सबसे बड़े स्रोत पर मनमाना टैक्स‍ लगाना चाहती हैं. जीएसटी में टैक्सों को लागत का हिस्सा मानकर उनकी वापसी (इनपुट टैक्स क्रेडिट) होती है. अगर पेट्रो उत्पाद इस व्यवस्था के तहत आए तो फिर एक तरफ टैक्स घटाना होगा और दूसरी ओर रिफंड भी देने होंगे क्योंकि ईंधन तो हर कारोबारी लागत में शामिल है.

भूल जाइए पेट्रोल-डीजल और बिजली निकट भविष्य में भी जीएसटी में शामिल हो पाएंगे क्योंकि भारत की ऊर्जा ईंधन टैक्सेशन नीति क्रूरनिर्मम और तर्कहीन है. ध्यान रखिए कि हमारा तेल निकालने के लिए वेनेजुएला जिम्मेदार नहीं है. अगर सरकारों ने खर्च नहीं घटाया तो तेल और महंगाई हमें हमेशा निचोड़ती रहेगी.