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Friday, April 23, 2021

जवाबदेही का बही-खाता

 


भारत में स्वास्थ्य व्यवस्था इतनी गई गुजरी है कि इसे राजनीति‍क श्रेय लेने की होड़ के काबिल भी नहीं समझा जाता. इसकी अहमियत सरकारी मेलों और तीर्थ यात्राओं जि‍तनी भी नहीं है. यह बात 2018 में एक बड़े अफसर ने कही थी जो सेहत का महकमा संभाल चुके थे और स्वाइन फ्लू की तबाही से लड़ रहे थे.

सरकारें हमें कभी अपने दायि‍त्व नहीं बतातीं, वे तो केवल श्रेय के ढोल पीटती हैं और बहुतेरे उन पर नाच उठते हैं. तबाही, हाहाकार और मौतों के बाद ही ये जाहिर होता है कि जिंदगी से जुड़ी जरूरतों को लेकर योजनाबद्ध और नीति‍गत गफलत हमेशा बनाए रखी जाती है.

हमें आश्चर्य होना चा‍हि‍ए कि महामारी की पहली लहर में जहां छोटे-छोटे बदलावों के आदेश भी दिल्ली से जारी हो रहे थे वहीं ज्यादा भयानक दूसरी लहर के दौरान राज्यों को उनकी जिम्मेदारियां गिनाई जाने लगीं. जबकि पहली से दूसरी लहर के बीच कानूनी तौर पर कुछ नहीं बदला.

बीते साल कोविड की शुरुआत के बाद केंद्र ने महामारी एक्ट 1897/अध्यादेश 2020) और आपदा प्रबंधन कानून 2005 का इस्तेमाल किया था. इन दोनों केंद्रीय कानूनों के साथ संविधान की धारा 256 अमल में आ गई और राज्यों के अधि‍कार सीमित हो गए. इन्हीं कानूनों के तहत बीते बरस लॉकडाउन लगाया, बढ़ाया, हटाया गया और असंख्य नियम (केंद्र के 987 आदेश) तय हुए जिन्हें राज्यों ने एक साथ लागू किया. यह स्थि‍ति आज तक कायम है.

अब जबकि भयानक विफलता के बीच बीमार व मरने वाले राजनीतिक सुविधा के मुताबिक राज्यों के तंबुओं में गिने जा रहे हैं तो यह सवाल सौ फीसदी मौजूं है कि अगर आपका कोई अपना ऑक्सीजन की कमी से तड़पकर मर गया या जांच, दवा, अस्तपाल नहीं मिला तो इसका दिल्ली जिम्मेदार है या सूबे का प्रशासन?

भारत में स्वास्थ्य राज्य सूची का विषय है लेकिन सेहत से जुड़ा प्रत्येक बड़ा फैसला केंद्र लेता है, स्वास्थ्य सेवाएं देना राज्यों की जिम्मेदारी लेकिन वह कैसे दी जाएंगी यह केंद्र तय करता है. बीमारी नियंत्रण की स्कीमों, दवा के लाइसेंस, कीमतें, तकनीक के पैमाने, आयात, निजी अस्पतालों का प्रमाणन, अनेक वैज्ञानिक मंजूरियां, ऑक्सीजन आदि के लिए लाइसेंस, वैक्सीन की स्वीकृतियां सभी केंद्र के पास हैं. तभी तो कोविड के दौरान जांच, इलाज से लेकर वैक्सीन तक प्रत्येक मंजूरी केंद्र से आई.

स्वास्थ्य पर कुल सरकारी खर्च का 70 फीसदी बोझ, राज्य उठाते हैं जो उनकी कमाई से बहुत कम है इसलिए केंद्र से उन्हें अनुदान (15वां वित्त आयेाग-70,000 करोड़ रुपए पांच साल के लिए) और बीमारियों पर नियंत्रण के लिए बनी स्कीमों के माध्यम से पैसा मिलता है. इस सबके बावजूद भारत में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च जीडीपी का केवल 1.26%  (प्रति व्यक्ति में श्रीलंका से कम) है.

हकीकत यह है कि अधि‍कांश लोगों की जिंदगी निजी स्वास्थ्य ढांचा ही बचाता है. हमें उसकी लागत उठानी होती है जो हम उठा ही रहे हैं. नेशनल हेल्थ पॉलिसी 2017 के मुताबिक, भारत में स्वास्थ्य पर 70 फीसदी खर्च निजी (अस्पताल, उपकरण, दवा, जांच) क्षेत्र से आता है. केंद्र और राज्य केवल टैक्स वसूलते हैं. सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं हेल्थ ब्यूरोक्रेसी को पालने के लिए चलती हैं. सरकारें भी चाहती हैं कि कम से कम लोग उनसे सस्ता इलाज मांगने आएं.

सरकारें बहुत कुछ कर नहीं सकती थीं, सिवाय इसके कि भारी टैक्स निचोड़ कर फूल रहा हमारा निजाम आंकड़ों और सूचनाओं की मदद से कम से कम निजी क्षेत्र के जरिए ऑक्सीजन, दवा, बेड की सही जगह, समय और सही कीमत पर आपूर्ति की अग्रिम योजना बना लेता और हम बच जाते. इनसे इतना भी नहीं हुआ. लोग क्षमताओं की कमी से नहीं सरकारों के दंभ और लापरवाही से मर रहे हैं.

अगर नसीहतें ली जानी होतीं तो कोविड के बीच बीते बरस ही 15वें वित्त आयोग ने सुझाया था कि स्वास्थ्य को लेकर समवर्ती सूची में नए विषय (अभी केवल मेडिकल शि‍क्षा और परिवार नियोजन) जोड़े जाने चाहिए ताकि राज्यों को अधि‍कार मिलें और वे फैसले लेने की क्षमताएं बना सकें. 2017 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने जन स्वास्थ्य (महामारी प्रबंधन) अधि‍नियम का एक प्रारूप बनाया था जिसमें केंद्र और राज्य की जिम्मेदारियां तय करने के प्रावधान थे. पता नहीं किस वजह से इसको फाइलों में हमेशा के लिए सुला दिया गया.   

हम ऐसी सरकारों के दौर में है जो दम तोड़ती व्यवस्था से कहीं ज्यादा बुरे प्रचार से डरती हैं. श्मशानों पर भीड़, ऑक्सीजन की कमी से तड़पते लोग, ट्वि‍टर पर जांच और दवा के लिए गिड़गिड़ाते संदेश-प्रचार संसार के लिए मुसीबत हैं इसलिए तोहमतें बांटने का प्रचार तंत्र सक्रिय हो गया है.

पश्चिम की तुलना में पूरब का सबसे बड़ा फर्क यह है कि यहां के राजनेता गलतियां स्वीकार नहीं करते, नतीजतन पहले चरण में डेढ़ लाख मौतों के बाद भी कुछ नहीं बदला. अब हम भारतीय राजनीति के सबसे वीभत्स चेहरे से मुखाति‍ब हैं जहां महामारी और गरीबी के महाप्रवास के बीच असफल सरकारों ने हमें राज्यों के नागरिकों में बदलकर एडिय़ां रगड़ते हुए मरने को छोड़ दिया है.

Friday, June 12, 2020

कल्याणकारी राज्य की त्रासदी



रेल की पटरियों पर रोटियों के साथ पड़ा गरीब कल्याण, महामारी के शिकार लोगों की तादाद में रिकॉर्ड बढ़ोतरी, चरमराते अस्पताल, लड़ते राजनेता, अरबों की सब्सिडी के बावजूद भूखों को रोटी-पानी के लिए लंगरों का आसरा... यही है न तुम्हारा वेलफेयर स्टेट या कल्याणकारी राज्य! जिसे भारी टैक्स, विशाल नौकरशाही और वीआइपी दर्जों और असंख्य स्कीमों के साथ गढ़ा गया था!

जान और जहान पर इस अभूतपूर्व संकट में कितना काम आया यह? इससे तो बाजार और निजी लोगों ने ज्यादा मदद की हमारी! यह कहकर गुस्साए प्रोफेसर ने फोन पटक दिया.

यह झुंझलाहट किसी की भी हो सकती है जिसने बीते तीन माह में केंद्र से लेकर राज्य तक भारत के वेलयफेयर स्टेट को बार-बार ढहते देखा है. इस महामारी में सरकार से चार ही अपेक्षाएं थीं. लेकिन महामारी जितनी बढ़ी, सरकार बिखरती चली गई.  

स्वास्थ्य सुविधाएं कल्याणकारी राज्य का शुभंकर हैं. लेकिन चरम संक्रमण के मौके पर निजाम ने लोगों को उनके हाल पर छोड़ कर नई सुर्खियों के आयोजन में ध्यान लगा दिया. इस सवाल का जवाब कौन देगा कि भारत जहां निजी स्वास्थ्य ढांचा सरकार से ज्यादा बड़ा है, उसे किस वजह से पूरी व्यवस्था से बाहर रखा गया? कोरोना के विस्फोट के बाद मरीज उन्हीं निजी अस्पतालों के हवाले हो गए जिन्हें तीन माह तक काम ही नहीं करने दिया गया.
सनद रहे कि यही निजी क्षेत्र है जिसने एक इशारे पर दवा उत्पादन की क्षमता बढ़ा दी, वैक्सीन पर काम शुरू हो गया. वेंटिलेटर बनने लगे. पीपीई किट और मास्क की कमी खत्म हो गई. 

दूसरी तरफ, सरकार भांति-भांति की पाबंदियां लगाने-खोलने में लगी रही लेकिन कोरोना जांच की क्षमता नहीं बना पाई, जिसके जरिए ज्यादा से ज्यादा लोगों को संक्रमण से बचाया जा सकता था.

भोजनदेश में बड़े पैमाने पर भुखमरी नहीं आई तो इसकी वजह वे हजारों निजी अन्नक्षेत्र हैं जो हफ्तों से खाना बांट रहे हैं. 1.16 लाख करोड़ रु. की खाद्य सब्सिडी के बावजूद जीविका विहीन परिवारों को सरकार दो जून की रोटी या भटकते मजदूरों को एक बोतल पानी तक नहीं दे सकी. राशन कार्ड व्यवस्था में झोल और सुस्त नौकरशाही के कारण सरकार का खाद्य तंत्र संसाधनों की लूट के काम आया, भूखों के नहीं.

लॉकडाउन के बीच घर पहुंचाने की व्यवस्था यानी संपर्क की जिम्मेदारी सरकार पर थी. जिस सामाजिक दायित्व के नाम पर रेलवे की अक्षमता को पाला जाता है, सड़क पर भटकते लाखों मजदूर, उसे पहली बार 1 मई को नजर आए. रेल मंत्रालय के किराए को लेकर राज्यों के साथ बेशर्म बहस का समय था लेकिन उसके पास भारत के विशाल निजी परिवहन तंत्र के इस्तेमाल की कोई सूझ नहीं थी, अंतत: गैर सरकारी लोगों ने इन्हीं निजी बसों के जरिए हजारों लोगों को घर पहुंचाया. रेलवे की तुलना में निजी दूरसंचार कंपनियों ने इस लॉकडाउन में वर्क फ्रॉम होम के दबाव को बखूबी संभाला.

चौथी स्वाभाविक उम्मीद जीविका की थी लेकिन 30 लाख करोड़ रु. के बजट वाली सरकार को अब एहसास हुआ है कि करोड़ों असंगठित श्रमिकों के लिए उसके पास कुछ है नहीं. क्रिसिल के अनुसार, करीब 5.6 करोड़ किसान परिवार पीएम किसान के दायरे से बाहर हैं. कोविड के मारों (केवल 20.51 करोड़ महिला जनधन खातों में, कुल खाते 38 करोड़) को हर महीने केवल 500 रु. (तीन माह तक) की प्रतीकात्मक (तीन दिन की औसत मजदूरी से भी कम) मदद मिल सकी है. बेकारी का तूफान सरकार की चिंताओं का हिस्सा नहीं है.

ठीक कहते थे मिल्टन फ्रीडमैन, हम सरकारों की मंशा पर थाली-ताली पीट कर नाच उठते हैं, नतीजों से उन्हें नहीं परखते और हर दम ठगे जाते हैं. सड़कों पर भटकते मजदूर, अस्पतालों से लौटाए जाते मरीज भारत के कल्याणकारी राज्य का बदनुमा रिपोर्ट कार्ड हैं, जबकि उनकी मदद को बढ़ते निजी हाथ हमारी उम्मीद हैं.

स्कीमों और सब्सिडी के लूट तंत्र को खत्म कर सुविधाओं और सेवाओं का नया प्रारूप बनाना जरूरी है, जिसमें निजी क्षेत्र की पारदर्शी हिस्सेदारी हो. पिछले दो वर्षों में छह प्रमुख राज्यों (आंध्र, ओडिशा, तेलंगाना, हरियाणा, बंगाल, झारखंड) ने लाभार्थियों को नकद हस्तांतरण की स्कीमों को अपनाया है, जिन पर 400 करोड़ रु. से 9,000 करोड़ रु. तक खर्च हो रहे हैं.

यह सवाल अब हमें खुद से पूछना होगा कि इस महामारी के दौरान जिस वेलयफेर स्टेट से हमें सबसे ज्यादा उम्मीद थी वह पुलिस स्टेट (केंद्र और राज्यों के 4,890 आदेश जारी हुए) में क्यों बदल गया, जिसने इलाज या जीविका की बजाए नया लाइसेंस
और इंस्पेक्टर राज हमारे चेहरे पर छाप दिया.

लोकतंत्र में लोग भारी भरकम सरकारों को इसलिए ढोते हैं क्योंकि मुसीबत में राज्य या सत्ता उनके साथ खड़ी होगी नहीं तो थॉमस जेफसरसन ठीक ही कहते थे, हमारा ताजा इतिहास हमें सिर्फ इतना ही सूचित करता है कि कौन सी सरकार कितनी बुरी थी.
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Friday, March 27, 2020

कौन उतारे पार !



मानव इतिहास में ऐसे मौके कम मिलते हैं जब एक बड़ा संकट, आने वाले दूसरे संकट के प्रशिक्षण सत्र में बदल गया हो. कोरोना वायरस के पंजे में थरथराती दुनिया सीख रही है कि बदतर को रोकने की कोशिश ही फिलहाल सबसे सफल संकट प्रबंधन है.

इस वायरस से तीन माह की जंग बाद तीन बातें स्पष्ट हो गई हैं. एकवायरस अमर नहीं है. इसका असर खत्म होगा. दोइस वायरस से न सब इटली हो जाएंगे और न ही सिंगापुर (न एक मौत न लॉकडाउन). सब अपने तरीके से भुगतेंगे. तीनवायरस से जिंदगी बचाने की कोशिशें लोगों की जीविका और कारोबारों पर इस शताब्दी का सबसे बड़ा संकट बनेंगी.

कोरोना से लड़ाई अब दोहरी है. ज्यादातर देश सेहत और अर्थव्यवस्था, दोनों का विनाश सीमित करने में जुटे हैं. भारत में संक्रमण रोकने की कवायद जोर पकड़ रही है लेकिन आर्थ‍िक राहत में भारत पिछड़ गया है सनद रहे कि 2008 में लीमन बैंक के डूबने के पंद्रह दिन के भीतर पुनरोद्धार  पैकेज (सीआरआर और उत्पाद शुल्क में कमी) आ गया था. लेकिन बेहद तंग आर्थ‍िक विकल्पों के बीच सहायता जारी करने में देरी हुई. सरकार और रिजर्व बैंक ने इस सप्ताह जो दो पैकेज घोषि‍त किये हैं जिनका आकार अन्य देशों और भारतीय अर्थव्यवस्था को होने नुकसान की तुलना में इस बहुत छोटा है, और इनके असर भी सीमित रहने वाले हैं.

भारत के कोरोना राहत पैकेंजों का जमीनी असर समझने से पहले यह जानना जरूरी है कि दुनिया के अन्य देश और केंद्रीय बैंक कोरोना का आर्थिक कोहराम से निबटने के लिए क्या कर रहे हैं.  

अमेरिका को मंदी से बचाने के लिए डोनाल्ड ट्रंप, अपनी संसद दो ट्रिलियन डॉलर के पैकेज पर मना रहे हैं. अमेरीकियों को एक मुश्त 3,000 डॉलर (करीब 2.25 लाख रुपए) दिए जाने का प्रस्ताव है. केंद्रीय बैंक (फेडरल रिजर्व) ब्याज दरें शून्य करते हुए बाजार में सस्ती पूंजी (4 ट्रिलियन डॉलर तक छोड़ने की तैयारी) का पाइप खोल दिया है.

ब्रिटेन की सरकार टैक्स रियायतों, कारोबारों को सस्ता कर्ज, तरह-तरह के अनुदान सहित 400 अरब डॉलर का पैकेज लाई है जो देश के जीडीपी के 15 फीसद बराबर हैं. बैंक ऑफ इंग्लैंड ब्याज दरें घटाकर बाजार में पूंजी झोंक रहा है. कोरोना से बुरी तरह तबाह इटली की सरकार ने 28 अरब डॉलर का पैकेज घोषित किया है, जिसमें विमान सेवा एलिटालिया का राष्ट्रीयकरण शामिल है.

इमैनुअल मैकरां के फ्रांस का कोरोना राहत पैकेज करीब 50 अरब डॉलर (जीडीपी का 2 फीसद) का है. स्पेन का 220 अरब डॉलर, स्वीडन 30 अरब डॉलर, ऑस्ट्रेलिया 66 अरब डॉलर और न्यूजीलैंड का पैकेज 12 अरब डॉलर (जीडीपी का 4 फीसद) का है. सिंगापुर अपनी 56 लाख की आबादी के लिए 60 अरब डॉलर का पैकेज लाया है.

अन्य देशों के कोरोना राहत पैकेजों के मोटे तौर पर चार हिस्से हैं.

एकरोजगार या धंधा गंवाने वालों को सीधी सहायता
दोडूबते कारोबारों की सीधी मदद 
तीनसस्ता कर्ज 
और चारचिकित्सा क्षेत्र में निवेश.

भारत सरकार का करीब 1.7 लाख करोड़ रुपये का पैकेज कोरोना प्रभावितों को सांकेतिक मदद पर केंद्रित है. जिसमें सस्ता अनाज प्रमुख है. जिसके लिए पर्याप्त भंडार है. रबी की की खरीद से नया अनाज आ जाएगा. किसान सहायता निधि‍ और अन्रय नकद भुगतान स्कीमों की किश्तें जल्दी जारी होंगी. इसके लिए बजट में आवंटन हो चुका है. उज्जवला के तहत मुफ्त एलपीजी सिलेंडर के लिए तेल कंपनियों को सब्स‍िडी भुगतान रोका जाएगा.

भारत में भविष्य निधि‍ पीएफ का संग्रह करीब 11 लाख करोड़ रुपये का है. इससे एडवांस लेने की छूट और छोटी कंपनियों में नियोक्ताओं के अंशदान को तीन माह के टालने के लिए इस नि‍धि‍ का भरपूर इस्तेमाल होगा.

रि‍जर्व बैंक
सरकार के मुकाबले रिजर्व बैंक ने ज्यादा हिम्मत दिखाई है. सभी बैंकों से सभी कर्जों (हाउसिंग, कार, क्रेडिट कार्ड सहित) पर तीन माह तक कि‍श्तों का भुगतान टालने को कहा है. ब्याज दरों में अभूतपूर्व कमी की है और वित्तीय तंत्र में करीब 3.74 लाख करोड़ की पूंजी बढ़ाई है ताकि कर्ज की कमी न रहे.

असर
-    अन्य देशों की तरह भारत सरकार कोरोना के मारे मजदूरों, छोटे कारोबारियों, नौकरियां गंवाने वालों को सरकार कोई नई सीधी मदद नहीं दे सकी है. भवि‍ष्य निधि‍ से मिल रही रियायतों के लाभ केवल 15-16 फीसदी प्रतिष्ठानों को मिलेंगे.

-    रिकार्ड घाटे, राजस्व में कमी के कारण भारत का राहत पैकेज इसके जीडीपी की तुलना में केवल 0.8 फीसदी है जबकि अन्य देश अपने जीडीपी का 4 से 11% के बराबर पैकेज लाए हैं.

-    रिजर्व बैंक ब्याज दर कटौती के बाद बैंक दुविधा में हैं. डूबती अर्थव्यवस्था में कर्ज की मांग तो आने से रही लेकिन ब्याज दर कटने ने जमा रखने वाला और बिदक जाएंगे. कर्ज के कि‍श्तें टालने से बैंक बुरी तरह कमजोर हो जाएंगे. अकेले स्टेट बैंक के करीब 60000 करोड़ रुपये फंस जाएंगे. बाजार में जो अति‍रिक्त पैसा दिया गया है उसका ज्यादातर इस्तेमाल सरकारें कर्ज लेने में करेंगी.  

-    अमेरिकी डॉलर दुनिया की केंद्रीय करेंसी है इसलिए वह डॉलर छाप कर बडे पैकेज ला सकता है. भारत के पास यह रुपया छापकर एसा करने का विकल्प नहीं है क्यों कि इससे महंगाई बढ़ती है. बडा पैकेज बडे घाटे की वजह बनेगा जो रुपये की कमजोर करेगा. इसलिए इन छोटे व सीमित पैकेजों के डॉलर के मुकाबले रुपया संतुलित होता देखा गया है.

सरकार ओर रिजर्व बैंक को इस बात का बखूबी अहसास है कि यह मंदी नगरीय अर्थव्यवस्थाओं, छोटे कारोबारों, सेवा क्षेत्र की है. जहां से बेकारी का विस्फोट होने वाला है. पहले से घि‍सटता मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र उत्पादन रुकने के बाद धराशायी हो जाएगा. विमानन, होटल, आटोमोबाइल, भवन निर्माण, बुनियादी ढांचा आदि क्षेत्रों में कंपनियां दीवालिया होंगी और बकाया कर्ज बढ़ेगा.

यही वजह है कि रिजर्व बैंक ने इतिहास में पहली किसी मौद्रिक नीति में देश को यह नहीं बताया कि इस साल भारत की विकास दर कितनी रहने वाली है. रिजर्व बैंक ने संकेतों में गहरी मंदी के लिए तैयार रहने को कहा है. अन्य एजेंसियों से जो आकलन मिल रहे हैं उनके मुताबिक इस इस साल (2020-21) में भारत की विकास दर 2 से 2.5% फीसदी रहने वाली है जो 1991 के बाद न्यूनतम होगी. अचरज नहीं अप्रैल-जून की तिमाही विकास दर नकारात्मक हो जाए जो एक अभूपूर्व घटना होगी

सनद रहे कि एक छोटी-सी मंदी यानी तीन साल में विकास दर में 2.5 % गिरावट, करीब एक दर्जन बड़ी कंपनियों, असंख्य छोटे उद्योगों और चौथे सबसे बड़े निजी बैंक तो ले डूबी है, कई सरकारी बैंकों के विलय की नौबत है. फिर यह तो इस सदी का सबसे बड़ा आर्थिक संकट है.

इस समय आशंकित होने में कोई हर्ज नहीं. डर सतर्क करता है. यह वक्त सतर्क समझदारी और उम्मीद भरी चेतना के साथ जीने का है.